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बलात्कारी मानसिकता से निकलिए


राजधानी में हुए सामूहिक बलात्कार ने सचमुच जनमानस को हिल कर रख दिया और शायद पहली बार सड़क और संसद पर एक ही चर्चा एक ही भाव से चलती रही! आक्रोश की अभिव्यक्ति इतनी ज़बरदस्त थी की अभियुक्त ने न्यायलय में सीधे अपने लिए ही फँसी की सजा मांग ली! हालांकि ये आक्रोश और अभिवक्ति ज़रा सलेक्टिव किस्म की रही है और मामला कुछ कुछ  वर्ग से भी जुड़ता नज़र आता है मगर जो भी हो मुझे महिला आयोग के अध्यक्ष और महिला एवं बाल कल्याण मंत्री के संवेदनशील होने का भी ताजुब भरा अहसास हुआ! सब बलात्कार के लिए कई प्रकार की सजा का अनुमोदन कर रहे हैं! कुछ युवा मिडिया कर्मी तो उनको फाँसी या हमको फांसी जैसे मुहावरे के साथ कार्यकर्म भी कर रहे हैं! तो कुछ फाँसी से कुछ कम मगर उम्र कैद से ज़रा भी कम नहीं पर समझौतावादी होने का आरोप झेलते दिख रहे हैंनपुंसक करने की विधियों पर टीवी कार्यकर्म हो चुके हैं और विद्वान रासायनिक तौर पर सर्जरी पर या सीधे जंग लगे चाकू से बधिया कर देने की चर्चा भी कर रहे हैं! सजा इतना अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चूका है की दुसरे तमाम मामले पीछे धकेल दिए गए हैं इनमे एक आठ वर्षीय दलित बच्ची का मामला हो डिफेन्स कालानी के युवाओं द्वारा दो महीने तक बंधक बना कर एक नाबालिग से बलात्कार का मुद्दा हो या गाज़ियाबाद में सड़क के किनारे बेहोश हालत में मिली एक अनजान लड़की का मामला हो
मगर एक बात सब कह रहे हैं की दिल्ली में दरिन्दे घूम रहे हैं और इसको साबित करने के लिए टीवी की रिपोर्टर रात में रिपोर्टिंग कर रही हैं कहीं ख़ुफ़िया कमरे के साथ तो कहीं खुलेआम! (अगर आप टीवी में काम करने वाले दरिंदों की बात याद करना चाहते हैं तो कर सकते हैं)
विपक्ष की नेता खुलेआम कह रही हैं अगर लड़की बच भी गयी तो न जिंदा रहेगी न मारेगी अख़बार तस्दीक करते हैं और पुराने बलात्कार के मामले की पड़ताल करके बताते हैं की एक बलात्कार ने अमुक लड़की की सारी ज़िन्दगी तबाह कर दी
और मैं सिलसिलेवार उन तमाम मुद्दों याद कर रहा हूँ जो कभी जवलंत थे जिनपर ऐसी ही क्रांतियाँ मच चुकी हैं! आह लोकपाल आन्दोलन से ठीक पहले खाप पंचायतों और सम्मान हत्याओं पर इतनी ही मोमबत्तियां जल चुकी हैंएक बारगी को लगा सम्मान हत्याएं जल्दी अतीत की बात हो जायेंगी और खाप पंचायतें जल्दी ही अवैध घोषित कर दी जायेंगी! मोमबत्ती ब्रिगेड ने सम्मान हत्याओं के लिए मौत की सजा मांगी थी और मांग थी कानून में बदलाव की! ना सम्मान हत्या रुकी ना मौत की सजा का प्रावधान हुआ और ना ही कानून बदला हाँ मोमबत्ती बुझ ज़रूर गयी और फिर जली तो वो लोकपाल को बुलाने के लिए! सम्मान हत्याएं जारी हैं खबर आती है चली जाती हैं किसी को कोई असर नहीं कोई दर्द नहीं
जिस देश में सरकारी आकडे के अनुसार रोज़ दो सौ से अधिक लडकियां वेश्यावृति में धकेल दी जाती हों वहां यौन उत्पीडन पर उभरा जनाक्रोश उत्साहित तो करता है मगर दिशाहीनता और अनिवार्य जागरूकता की कमी तुरंत ही ठंडा पानी डाल जाता है
हमारे बौद्धिक समाज (पढ़े मध्यमवर्गी समाज) की सबसे बड़ी कमजोरी ये है की वो हर चीज़ को अपने सुविधानुसार समझते हैं अगर ऐसा नहीं है तो खेलेआम टेलेविज़न पर बहस करती हुयी एक तथाकथित नारीवादी महिला सम्मान हत्या के विरुद्ध बोलते बोलते खाप पंचायत के नेता से प्रभावित नहीं हो जाती और बाद में खाप पंचायत के प्वाईंट आफ आर्गुमेंट के पक्ष में खड़ी ना हो जाती! हलके ढंग से कहूँ तो कहना चाहूँगा की अगर आप समझते हैं की आपके बच्चे ही होमवर्क नहीं करते तो आपको हमारे देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं खास कर महिला मुद्दों पर काम करने वालों को देख कर संतोष कर लेना चाहिए वो भी कभी होम वर्क नहीं करतेऔर जो बलात्कार के लिए मौत की सजा की बात कर रहे हैं उन्हें याद रहे की धनञ्जय चटर्जी को बलात्कार के लिए ही फाँसी दी गयी थी उससे अपराध कम नहीं हुआ और ना ही होगा!  आप मान भी लें की आपके देश में बलात्कार करने पर बधिया करने या मौत की सजा दे देने का कानून आजायेगा तो इस बात की क्या गारंटी है की जज साहिबान सजा दे ही देंगे या वो बायज नहीं होंगे! अगर आप महिला जज के तहत ऐसे केस की सुनवाई का सोच रहे हैं तो घरेलु हिंसा के मामलों को याद किये जाने की ज़रूरत है!
सबसे पहली बात की हमने ये जानने की कोशिश भी नहीं की आखिर महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के कारण क्या हैंअगर हम इसकी खोज नहीं करते और समाज में एक व्यापक समझ नहीं बना सके तो कानून कितना भी कठोर हो अपराधी कानून लागू करने वालों की सहानुभूति ले जाएगा और केस सही तरीके से तैयार ही नहीं किया जाएगा!
बलात्कार कभी भी सेक्स की इच्छा पूर्ति के लिए किया जाता हो ये संभव नहीं है! बलात्कारी अपनी सेक्स की इच्छा से अधिक इस बात का ख्याल रखता है की वो लक्ष्य (युवती) को  अधिक से अधिक प्रताड़ित कर सके! कई ऐसे भी मामले नज़र आते हैं जिसमे नपुंसकता का इलज़ाम सहने वाले व्यक्ति ने बच्चों या बूढों से यौनाचार करने की कोशिश की और मार डाला! लडको (मर्दों) के साथ गुदा मैथुन के मामले भी नज़र आते हैं! बलात्कार का औजार के रूप में पोषण समाज करता है! जो इससे सम्मान यानी इज्ज़त से जोड़ता है! सम्मान वो शब्द है जो हमें और आपको किसी और परिभाषा में समझाया जाता है मगर असली परिभाषा कुछ और है!
सम्मान की अवधारणा प्रचलित सामाजिक धारणा  (सम्मान के केवल एक व्यक्ति के स्वयं के व्यवहार पर निर्भर करता है) से पूरी तरह अलग है.
सम्मान की अवधारणा महिला के व्यवहार पर निर्भर करती है और कुछ समय के लिए पुरुषों पर भीइस अवधारणा के तहत 'व्यवहारएक व्यक्ति (पढ़ें स्त्री) का मामला नहीं है और यह दूसरों (पढ़ें पुरुष) के व्यवहार पर निर्भर हो जाता है इस लिए इसे नियंत्रित किया जाना चाहिए.
सामाजिकशब्द सम्मान "शक्ति संपन्न समूह" के लिए है जो परिभाषित करनेविस्तार और एक प्रतिस्पर्धी क्षेत्र में अपनी विरासत की रक्षा के लिए संघर्ष की विचारधारा है. सम्मान की इस अवधारणा को पारंपरिक या पितृसत्तात्मक समाजों में पाया जाता है.
सम्मान आदमी के "गर्व करने के लिए दावा" है  जो मूल रूप से अपने परिवारधनऔर उदारता के रूप में या इस तरह के अन्य कारकों में परिलक्षित हो सकता है.
हालांकिसबसे अधिक बारीकी से एक आदमी के "सम्मान" या प्रतिष्ठा उनके परिवार में महिलाओं के यौन आचरणविशेष रूप से उसकी माँबहन(ओं) पत्नी(यों)और बेटी(ओं)से  बंधा हुआ है.  इन महिलाओं द्वारा यौन कोड के संदिग्ध उल्लंघन या उल्लंघन की सम्भावना "आदमी के सम्मान" परिवार के सम्मान "और / या" सम्मान के सांप्रदायिक निधि "एक कबीलेजनजाति या अन्य वंश  पर एक शक्तिशाली हमला के रूप में देखा जाता है.

और  "सम्मान" "शर्म की बात" या "लज्जा" में तब्दील होजाता है  इस दर्शन के अनुसार इस तरह की "लज्जा" से छुटकारा पाने और "सम्मान" बहाल करने के लिए महिला 'अपराधी' को दंडित किया जाना ज़रूरी हो जाता है! 
दुनिया के अधिकांश हिस्से में 'सम्मान'  महिलाओं पर नियंत्रण और उनके के खिलाफ हिंसा के लिए एक तर्क के रूप में इस्तेमाल किया गया है. हम कह सकते हैं कि वर्तमान शब्द 'सम्मान' मानवीय संबंधों का सबसे बड़ा दुश्मन है" 

नियंत्रण की इसी पद्धति के तहत पित्रसत्तात्मक समाज (अपनी) महिलाओं की रक्षा की बात करता है और उनपर हुए यौन हमलो का सामूहिक जवाब देता है! मगर बराबरी या भागीदारी की बात नहीं करता! 

फेसबुक पर वितरित हो रहे कुछ फ़ोटोज़ जिनमे बलात्कारियों की विभस्त सजाएं दिखाई गयी हैं वो उन देशो के हैं जहाँ महिलाओं की आज़ादी लगभग ना के बराबर है!
दूसरी बात कठोर कानून किसी भी व्यवस्था के कमज़ोर होने की निशानी है! नक्सालियों या दुसरे तरह के विद्रोही समूह का कंगारू कोर्ट जिस अपराध के लिए सीधे मौत की सजा देगा उसी अपराध के लिए अधिक से अधिक सात साल या चौदह साल की सजा देगा तो इसका मतलब ये नहीं की विद्रोही कोर्ट ज्यादा सक्षम है इसका मतलब है की कंगारू कोर्ट सक्षम नहीं है और ना ही वो किसी प्रकार से अपने कानून को लागू कर सकता है मगर किसी भी देश की स्थापित सरकार जो कम सजाएं दे रही हैं वो अपने फैसले को सक्षम है और धारणीय (sustainable) है

तीसरी बात की कानून में बदलाव की मांग कर करना और व्यवस्था पर सवाल उठाना दो अलग बातें हैं! व्यवस्था एक समग्र सवाल है और कानून व्यवस्था का एक अंग विशेष मात्र है! व्यवस्था पर सवाल खड़ा करना एक फैशन है मगर उसकी समझ भी होना उतनी ही ज़रूरी हैजैसे इस सामूहिक बलात्कार काण्ड में व्यवस्था का प्रश्न बनता है की एक व्यस्त रूट पर रात आठ बजे से ही सार्वजानिक वाहनों की भरी कमी है जिसके कारण पीड़ित जोड़े को एक लक्सरी बस में चढ़ने को मजबूर होना पड़ा! सवाल ये भी है की आखिर एक स्कुल बस इतनी रात को सड़क पर क्या कर रही थीसवाल ये है की अगर पुलिस चैतन्य होती तो अपराधी पहले ही पकडे जाते (बस में सवार अपराधियों ने आधे घंटे पहले ही क युवक से आठ हज़ार रूपये लुट कर उतार दिया था) . मगर इन तमाम सवालों को नज़र अंदाज़ करके जिस प्रकार कठोर कानून और बधिया किये जाने की बात पर जोर दिया जा रहा वो दरअसल उसी मानसिकता का प्रतिक है जो मानसिकता बलात्कारी की होती है!
अगर आप याद कर सके तो आप पायेंगे की बलात्कार चलन में आया अपेक्षाकृत नया शब्द है इससे पहले इसे इज्ज़त लुट जाना कहते थे!  ये बदलाव  पित्रसत्तात्मक समाज से सामान लैंगिक अवसर वाले समाज की तरफ बढ़ने की निशानी है! बलात्कार हमेशा ही एक सनकी मानसिकता सबक सिखाने और सम्मान को ठेस पहुचने के बदले में किया गया अपराध है! और इसके लिए दी जाने वाली सजा के साथ साथ इसको रोकने के उपायों पर बात करना शुरू होगा! मुद्दों को समग्रता से देखना और समझना होगा उसके समावेशी उपायों पर बात करनी होगी! पित्र्सत्तात्मक समाज से उपजी एक बुराई को समाप्त करने के लिए पित्र्सत्ता से ही उपाय नहीं निकले जा सकते! 

प्यार : मैंने नहीं किया होगया


आज का दिन बड़ा मज़ेदार था हमारी एक पार्टनर एन जी ओ है (नाम बताना ज़रूरी नहीं) वहां अक्सर बैठता हूँ या ये कहिये की दिल्ली में वही मेरा ठिकाना है खैर वहां एक केस आया हुआ था एक लड़की जो करीब २०-२२ की होगी घर से भाग कर आई थी उसके मान बाप उसकी शादी करवाना चाहते थे और वो शादी करना नहीं चाहती थी! इमानदारी से कहूँ तो खुबसूरत थी वो बिलकुल बार्बी के जैसी प्यारी 
वो पढ़ना चाहती थी मगर उसके पिता ने दूसरी शादी करली थी और उसकी माँ अपने पति से अलग रह रही है! लड़की के पिता उसकी जल्दी शादी करवाना चाहते हैं जिसके लिए उसका भाई जोर लगा रहा है 
तू कहे अगर 
लड़की ने बताया की वो उसे और उसकी माँ को इस के लिए मार पित भी चूका है! लम्बे काउसेलिंग सेशन के बाद भी मैडम ऋतू गुप्ता (कौन्सेलर हैं कभी इनके बारे में भी बताऊंगा) मामले को समझ नहीं पा रही थी! यूँ तो नैतिकता का तकाजा है की मुझे इस मामले में सीधे हाथ नहीं डालना चाहिए मगर जी नैतिकता और हम दो अलग चीजें हैं! सो डाल दिया मैंने भी अपना हाथ बात शुरू की तो बात समझ आई लड़की को किसी लड़के से इश्क था! मगर वो बताने से डर रही थी की शायद उसके इस "गलत काम" में हम उसका साथ नहीं देंगे! घर से भाग कर आई थी सो उसका अंतिम सहारा हम लोग ही थे! केस का क्या हुआ इसको यहीं छोड़ दीजिये वैसे अब वो लड़की अपने पसंद के लड़के से शादी करेगी और उसके माँ बाप उसकी शादी की तैय्यारी 
बित्ते भर का लौंडा (लड़की का भाई) अब भी गुस्से में है और शायद उसके हाथ से चलने वाला पत्थर मेरा सर भी फोड़ेगा! मगर सोचिये की आखिर अपनी बड़ी बहन और माँ को पीटने वाले इस बच्चे पर मर्द होने और बन्ने का कितना ज़बरदस्त दबाव है समाज का! उसका विरोध महज़ इसी लिए है न की लड़की ने खुद किसी को पसंद क्यों किया! 
आपको क्या लगता है की हम उस लड़की की शादी करवा कर मोर्चा फतह कर लेंगे मुझे नहीं लगता सच तो है की हम हार रहे हैं! मैं जानता हूँ उस लड़के की मानसिक स्थिति पर इसका ज़बरदस्त प्रभाव होगा! अब जबकि उसके माँ बाप अपने बेटी के फैसले में साथ आने को तैयार हैं तब भी वो बच्चा विरोध कर रहा है! हो सकता है इसको कहा जाए की वो मर्दवादी वर्चस्व वादी है मगर नहीं मै ऐसा नहीं सोच रहा! मै परेशां हूँ की उसके हर क़दम को हमारा समाज संचालित कर रहा है! ऐसे में बड़ी दुविधा है मैं उसके साथ बैठ कर बात करना चाहता हूँ उसे इस द्वन्द से निकलने में मदद करना चाहता हूँ मगर वो मेरी शकल भी देखना नहीं चाहता! हाँ उसकी मासी इसमें उसकी बड़ी समर्थक हैं उन्होंने ने धमकी की पावती भी भेजी है! 
अब दूसरी बात की लड़की ने प्रेम को "बुरा काम" क्यों समझा! मुझे घिनौना लगा आखिर प्रेम को बुरा समझना क्या ज़रूरी था! मैंने पूछा अच्छा तो तुमने ये "बुरा काम" किया ही क्यों ?? मासूमियत भरा शाश्वत जवाब आया मैंने नहीं किया होगया 
मेरा सवाल गलती किसकी है उसका जवाब मेरी 
मुझे गुस्सा आया मगर संभल गया आखिर २० २२ की बच्ची प्रेम का दर्शन क्या जाने जो शाश्वत था सो हुआ क्यों हुआ कैसे हुआ वो कैसे समझती तथाकथित सभ्य समाज इतना समझने की इजाज़त कहाँ देता है 
मैंने उससे कहा तुमने बुरा काम नहीं किया! तुमने प्यार किया और प्यार इश्वर का सबसे अनमोल तोहफा है! इसको ऐसे ही समझो 
तुमने जो किया उससे परंपरा टूटी है! मगर वो रोज़ टूटती है अब भला तुम्हारी दादा कहाँ बैठे थे मेट्रो रेल पर 
एक लम्बा लेक्चर झाड दिया (मै तो कोई मौका हाथ से नहीं देता :p)  

हम्म्म आप ज़रा सोचिये प्रेम को बुरा काम क्यों कहा उसने........मै  अब बात घुमाकर खुद पर लाता हूँ! मेरे अक्सर शुभचिंतक मुझे प्रेम पीड़ित और किसी की बेवफाई का शिकार समझते हैं! मगर सच तो ये है की  मै प्रेम पीड़ित नहीं प्रेम का प्रचारक हूँ! जबसे सम्मान हत्याओं का दौर चला है तब से हर प्रकार से विरोध कर रहा हूँ! अब वो प्रेम में विलीनता के दर्शन की बात हो या सेक्स की आज़ादी की! विरह वेदना की या की और भी किसी प्रकार की 
और हाँ मेरी  एक गर्ल फ्रेंड भी है! अपन अपनी कवितायेँ सिर्फ उसी के लिए लिखता है! और किसी से शेयर भी नहीं करता! 
सो मित्रो इश्क करो जम के करो अपन लोग साथ हैंआपके , जम के करो अंतरजातीय अंतर धार्मिक समलैंगिक यार जिससे हो जाए उससे करो, मगर इश्क ऐसा करो की खुदा सजदा करे....... धरम/समाज की माँ की सा का ना की 
एक शेर भी सुन लो 
उदासिया जो ना लाते तो  और  क्या  करते / ना  जश्न-इ-शोला  मनाते तो  और  क्या  करते /अँधेरा  मांगने  आया  था  रौशनी  की  भीख  हम  अपना  घर  ना  जलाते  तो  क्या  करते/
 
यहाँ का माल चोरी किये जाने योग्य है तो कीजिये वरना मै तो आपका कर ही लूँगा 

वर्जना परिवर्तन और सामाजिक द्वन्द



भूमंडलीकरन के दबावों ने  अपना  असर  दिखाना  शुरू  कर  दिया  है. उन्मुक्त  उपभोक्तावाद  अनेक  द्वंदों और  समस्याओ  को  सामने  लाया  है ! मानसिक  तनाव, आत्म -हत्या, वैश्यावृति, अपराध , यौन  अपराध , पारिवारिक  विघटन  और  विवाह  जैसी  संस्थाओं  का  अर्थ  खोना  ये  सब  इसके  तोहफे  हैं.
आज  समाज  की  धारणाएं  और  मान्यताएं  बदल  रही  है . अब  सेक्स  नहीं  सुरक्षित  सेक्स  मुद्दा  है . अब  लैगिक  सम्बंदों  पर  नहीं  समलैंगिक  सम्भंदों  पर  बहस  होती  है .
अन्बेयाही  माँ , विवाहेतर  सेक्स , पोर्न  फोटोस  आदी  जिसके  विरोध  और  समर्थन  में  तमाम  तरह  के  तर्क  सामने  आते  रहे  हैं .
आज  स्थापित  मूल्य  मान्यताएं  और  प्रतिस्थापनाएं   लगातार  बदल  रही  हैं . यूरुप  में  एक  समज्शास्त्रिये  शोध  में  सामने  आया  है  की  70 प्रतिशत  शादियाँ  संकटग्रस्त  हैं. अधिकांश  लोग  एक  औरत  और  एक  पुरुष  के  सिद्धांत   को  अस्वीकार  करते  हैं. तथा  अकेली जीवन  शैली  के  हिमायती  हैं. 10 प्रतिशत  का  मन्ना  है  की  अविवाहित  होने  से  यौन  साथी  का  चुनाव  व्यापक  होता  है  और  व्यक्ति  शारीरिक  एवं  भावनात्मक  और  मानसिक  ठहराव  तथा  पुनार्विरती  के  घेरे  से  बहार  आता  है ! इसी  सोच  का  परिणाम  है  की  संचार  तकनिकी  दौर  की  महिलाएं  विवाह  के  बिना  ही  बच्चों  और  सेक्स  का  पूरा  आनंद  ले  रही  हैं. अपने  कंप्यूटर  पर  विर्तुअल  चिल्ड्रेन  तथा  सेक्स  साथी  विकसित  कर  लेती  हैं. भावनात्मक  रूप  से  जुड़कर  उनसे  ही  मनोवैगयानिक  संतुस्ती  पति  हैं. आज  इन  सब  चीजों  की  सामाजिक  स्वीकारिता  भी  बड़ी  है  और  नारीवादियो  ने  रुदिवादी  परम्पराव  पर  ज़बरदस्त  चोट  की  है  जिस  से  अनेक  यौन  वर्जनाओ  और  बंधनों  को  तोड़ने  के  सफल  प्रयास  हुए. हमारा  देश भी  कहीं  पीछे  नहीं  मगर स्थानीय  “संस्कार” और “संस्कृति” की  दुहाई  ने  एक  अजीब  दोराहेपेर पर  ला  खड़ा  किया  है . और  स्थिति  है  के    ना  उगलते  बनता  है  ना ही  निगलते!
शहरी  सम्पनता  और  विलासता  का  गरीबी  और  अभावग्रस्तता  से  आमना-सामना नगरीय  समाज  की  एक  प्रमुख  विशेषता  है . हमारे  महानगरों  में  ऐसे  दृश्य  खूब  देखे  जासकते  हैं  जहाँ  सड़क  के  तरफ  ऐशो-आराम  वाली  आलिशान अट्टालिकाएं  हैं  वहीँ  दूसरी  तरफ  झ्हुगी  झोपड़ियों  की  लम्बी  कतारें. शहरों  की  ये  विलासता  और  अभावग्रस्तता का  आमना -सामना  कुंठा  को  जनम  देता  है  शोषण  और  अपराधों  का  कारण  बनता  है. नगरीय  सभ्यता  सिर्फ  गरीबों  वंचितों  के  साथ  ही  ये  सब  नहीं  करती  बल्कि  वो  अमीरों  को  भी  अपने  चपेट  में  उसी  तेज़ी  से  लेती  है  और  उनमे  ढेरों  सामाजिक  विकृति  पैदा  करती  है! निरंकुश  प्रतिस्पर्धा  यौन अपराधो , तस्करी  विलासता  आदी  को  जनम  देती  है . इससे  भी  आगे  बढ  कर  प्रदुषण , प्रकितिक  संसाधनों  का  विनाश  और  आभाव को  पैदा  करती  है. 

Ø तीन  बच्चों  की  माँ  प्रेमी  के  साथ  फरार 
Ø मामा  भांजी  के  सम्बन्ध  बने  कलह  का  कारण 
Ø प्रेमी  के  साथ  मिलकर  पति  की  हत्या 
Ø प्रेम  में  रोड़ा  बनी  तो  पत्नी  को  रस्ते  से  हटाया 
Ø शराबी  पिता  ने  कराया  पत्नी  और  बेटी  के  साथ  सामूहिक  दुराचार 
Ø मालकिन  से  संभंध  बने  किरायेदार  की  मौत  का  कारण 
Ø 8 वर्षीया  बच्ची  के  साथ  माकन  मालिक  ने  किया  कुकरम 
Ø बॉस के  बच्चे  को  जनम  देने  की  तीव्र  इच्छा  बनी  लड़की  के  मौत  का  कारण 
Ø लड़की को  उसके  नए  पति  ने  दस  हज़ार  में  ख़रीदा  था 
Ø दोस्त  ही  पत्नी  को  ले  उड़ा 

ये  सब  दिल्ली  के  समाचार  पत्रों  के  छोटे  पतले  शीर्षक  हैं  जिन्हें  सनसनी  वालों  के  लिए  छोड़  कर  हम  आगे  बढ़  जाते  हैं. उपरुक्त  सभी  असामान्य  घटनाएँ  गहन  अध्यन  अनुसन्धान  की  मांग  करती  है! सवाल  तब  और  प्रसांगिक   होजाता  है  जब  नवी  क्लास  की  छात्र  रीय  के  पिता  जासूस  को  लाखो  रुपया  इस  खोज  के  लिए  देता  है  की  इसकी  बेटी  ने  जेबखर्च  दो  हज़ार  से  बड़ा  कर  दस  हज़ार  क्यों  कर  दिया  और  पता  है  की  छोटी  रिया  के  अपने  से  काफी  बड़े  व्यक्ति  से  यौन  सम्बन्ध  हैं  जिसकी  मदद  के  लिए  उसने  अपने  कीमती समान  भी  बेच  डाले.
गरिमा शादी  के  पंद्रह  साल  बढ  चार  संतानों  की  माँ  होने  और  खाते  पिटे  घर  की  मालकिन  होने  के  बावजूद  भी  क्यूँ  भागी ? 

भले  ही  हम  बाल-विवाहों के  पुरजोर  समर्थक  रहे  हों, खजुराहो  के  भित्ति  चित्र  कितने  ही  शौक  से  बनवाए  हों, भले  ही  देवदासियों  को  धार्मिक  मान्यता  देते  हों  और  अनेक  यौन  सम्बंद्धों को  अनदेखा  करते  हों  चाहे  हम  कितने  ही  खोखले  रहे  हों  पर  हमने  कभी  भी  यौन  आचरण  पर  खुलकर  बोलने  को  स्वीकार  नहीं  किया! हमारी  सामाजिक  संरचना  ने  महिलाओ  को  परंपरा  और  मूल्यों  की पहरेदार  बनाकर  बैठा दिया  नतीजन . महिलाओ  की  यौन अभिवाक्तियो  पर  कड़े  नियंत्रण  लगा  दिया गया . हमारे  सामाजिक  मूल्यों  और  मान्यताएं  भी  वैवाहिक  संबंधों  से  ज्यादा  परिवारिक  एकता  को  प्रोत्साहित  करते  रहे  और  कामवृति  की  अभिवयक्ति  को  वर्जित  मानते  रहे! इसी  का  परिणाम  है  की  समाज  में  यौन  इच्छाओ  का  दमन  होता  रहा  और  समाज  में  यौन  वर्जन्यें  पलने  वाले  पुरुषों  और  मौन  रूप  से  कुंठित  महिलाओ  का  दुष्चक्र  मजबूत  होता  गया. परिणाम  स्वरूप  समाज  सेक्स  की  विस्फोटक  स्थिति  में  हमारे  सामने  खड़ा  है ! एक  सर्वेक्षण  में  स्वीकार  किया  गया  की  11% महिलाएं  पति  के  अलावा  कई  सहवास  सहयोगी  रखती  है (पति  के  मित्र , रिश्तेदार, दफ्तर  के  सहयोगी  आदी) 13% महिलाएं  अनल  सेक्स (गुदा मैथुन) पसंद  करती  है . 25% पोर्नोग्राफी. 25% नए  आसनों  में  सेक्स  करना  पसंद  करती  हैं. वही  13% महिलाएं  अपने  से  कम  उम्र  के  पुरुषो  के  साथ  सेक्स  की  इच्छा  रखती  हैं. (INDIA TODAY)

इन  संवेदनशील  और  गंभीर  घटनाओं  को  प्रेम  संवेग  या  भटकाव  मात्र  जैसी  हलकी  बातें  वो  भी  वहां  की  जिस  समाज  में  हर  आधे  घंटे  बाद  बलात्कार  होता  हो , करना  उथले  और  बेतुके  तर्क  होंगे  (बलात्कार  यौन  उत्पीडन  और  छेड़छाड़  जैसी  सबसे  ज्यादा  हुयी  घटनाएँ  दिल्ली  सबसे आगे है, और  इसमें  भी  दिल्ली  में  हुई  छोटी  बच्चियो  के  साथ  हुयी  घटनाओ  के  80% में  उनके  अभिभावक  ही  थे)
अब ऐसी  हालत  में  इसे  बीमार  मानसिकता  वाले  समाज  (Sick Society) से  ज्यादा  क्या  कहेंगे ? मगर इससब के पीछे एक ओर जहाँ समाज के होरहे अन्धाधुन शहरीकरण और जड़ परम्पराओं की लड़ाईयां है तो दूसरी तरफ समाज में बढ रही आर्थिक असमानता की खाई

अभी  तक  नगरीय  समाज  में  सेक्स  अनुसंधानों  में  इस  तथ्य की  पुष्टि  हुयी  है  की  यौन  आकांक्षाओ  में  सारी  वर्जाओं  को  तोड़ने  की  क्षमता  है. अविवाहित सारी  वर्जनाओ  को  टाक  पर  रख  जमकर  रोमांस  और  सेक्स  कर  रहे  हैं, विवाहित  महिलाएं  भी  दाम्पत्य  सुख  में  आये  बासीपन  को  दूर  करने  के  लिए  पर-पुरुषों  से  रिश्ते  बना   रही  हैं. आधुनिक  महिलाएं  डरो  पुरुष  मित्र  रखती  हैं! ग्रुप  और  समलिंगी  सेक्स  करती  और  स्वीकारती  हैं . बगैर  प्रेम  और  समर्पण  वाला  सेक्स  पसंद  करती  हैं! अपनी  देह  भाषा  को  कामुक  बनाना  के  लिए  एडी  छोटी  का  जोर  लगाती  है . वैश्वीकरण  के  दौर  में  फलता -फूलता  बाज़ार  और  ब्यूटी पार्लरों का  जाल  इसका  गवाह  है.
नगरीय  समाजों  में  अत्यधिक  परिश्रम  और  अति  कार्यकुशलता  के  वातावरण  में  इंसानी  रिश्ते  आहत  हुए  है! महानगरीय  खलबली  भरे  जीवन  में  संतुलित ढंग  से  रहना , आवास  की  स्थिति, कार्य  स्थलों  की  स्थितियां, आवागमन  की  स्थितियां  आदी  असंभव  हैं.
दरअसल नगरीय  समाज  में  तेज़ी  से  परिवर्तन  हो  रहे  है  1950 में  ये  सिर्फ  आबादी का  30% था  वहीँ  अब  48% से  ऊपर  जा  रहा  है ! “विश्व  आबादी की  स्थिति” नामक  रिपोर्ट  में  बताया  गया  की  नगरीय  आबादी  का  ये  फैलाव  तीसरी  दुनिया  के  देशों  में  केन्द्रित  है . विश्व  के  20 बड़े  नगरों  में  से  15 तीसरी  दुनिया  के  देशों  में  हैं .और ये   नगर  चिंता  का  एक  बड़ा  कारण  बने  हुए  हैं  की  ये  सांस्कृतिक  विस्फोट  क्या  करेगा ?
ये  विस्फोटक  नगरीकरण  गरीबों  दलितों  और  महिलाओ  के  लिए  कौन  से  नए  अवसर  और  चुनौतियाँ  पर्स्तुत  करेगा ?  इनके लक्ष्य क्या हैं और क्या  ये  समाज  अपने  लक्षों  को प्राप्त  करेंगे ? या महज़ समग्र समाज को भी  भटकाव की ओर लेजयेंगे और क्या  इन  समाजो  का  ताना  बना  बिखर  जायेगा ?

मौजूदा  हालत  तो  अभी  लम्बे  अनुभवों  और  अनुसंधानों  की  मांग  कर  रही  हैं .
नगरीकरण  के  प्रभाव  से  विवाह  परिवार  और  नातेदारी  जैसी  संस्थाएं  कमज़ोर  हुयी  हैं  और  इनकी  संस्थानिक  विश्वसनीयता  ख़तम  हुयी  है . यहं  मानवीय  रिश्तों  में  नए  प्रयोग करने  की  आवश्यकता  है ! प्रेम , नैतिकता , सामाजिक  रिश्ते  नाते  जैसे  पुराने  विचार  घुटने  टेक  चुके  हैं . नयी  मान्यताओं  और  मूल्यों  के  दबाव  सामाजिक  संरचना  में  स्पष्ट  दिखाई  देने  लगे  हैं . पुराने  मूल्य  और  मान्यताएं  निर्धारित  हो  चुकीं  अब  नया  सामाजिक  सांस्कृतिक  दर्शन  उभरेगा  और  नयी  मानवता  तथा  नैतिकता  जनम  लेगी ! मगर  सतही  हालत  बड़ी  डरावनी  हैं  जो  व्यक्तिकता  और  स्वार्थ  पर  आधारित  प्रतीत होती  है . मगर  ये  सब  होकर  रहेगा 
यधपि  ये  सच  है  की  यौन  अभिवय्क्तियों  पर  सामाजिक  पर्दा  संस्किरितिकरण  का  एक  रूप  रहा  है . और  हमारा  समाज  अभी  जबकि  इस  स्थिति  के  चरम  पर  पंहुचा  भी  नहीं  था  की  यौन  संबंधों  का  ये  रूप  आ  जाना  पुरे  समाज  के  लिए  एक  संक्रमण है जिस कारण प्रेमियों की हत्या या अन्य तमाम यौन अपराध हो रहे हैं विवाहों के नाम पर लडकियां खरीदी जा रही हैं! छोटी छोटी बच्चियों से बलात्कार हो रहे हैं! सगा बाप अपनी बेटी का बलात्कार कर रहा है! और समाज के भीतर अजीब भायावाह्पन बसा है 

मुद्दे से भटकी है सख्त कानून की मांग

पिछले कुछ दिनों से सम्मान हत्याओं के विरुद्ध कठोर कानून की मांग ने ३० मार्च को करनाल सत्र न्यायलय द्वारा मनोज बबली सम्मान हत्या मामले पर 5 अभियुक्तों को सजा-ए-मौत तथा एक को आजीवन कारावास की सजा सुनाये जाने के बाद जोर पकड़ी है!


सम्मान हत्या ना तो हमारे देश में कोई नयी बात है और ना ही विश्व में! अधिकांश देशों से ऐसे मामले लगातार ख़बरों में आते रहते हैं! और सम्मान हत्याओं के पीछे अनेक प्रकार के तर्क रखे गए हैं जिनको सुनकर एकबारगी आम इंसान भौचक रह जाता हैं 
भारतीय परिपेक्ष्य में केरल के आस पास के क्षेत्र तथा दिल्ली हरियाणा पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सम्मान हत्याओं के मामले सामने आते रहे हैं! दक्षिणी राज्यों में इनकी गूंज अभी ना के बराबर है परन्तु दोआब का क्षेत्र लगातार सुर्ख़ियों में हैं और पिछले दो वर्षों में तो सम्मान हत्याओं की लगातार ख़बरों से क्षेत्र गूंज रहा है! और इन सम्मान हत्याओं की सीधी जिम्मेवारी अजगर (अहीर जाट गुर्जर और क्षेत्रीय राजपूत) जातियों की खाप पंचायतों पर मढ़ी जा रही है खाप पंचायतों की चुप्पी भी उनकी मौन स्वीकृति ही दर्शाती है! वर्त्तमान गृह मंत्री चिताम्बरम से पहले सम्मान हत्या पर किसी बड़े छोटे या मंझोले नेताओं की कोई टिपण्णी नहीं आई! मगर चिताम्बरम साहब इस मामले पर सख्ती के पैरोकार हैं! और खप पंचायतों को नेस्तनाबूद करने का पूरा जज्बा रखते हैं इस मामले में उनके साथ सामाजिक कर्कर्ता भी खड़े हैं और सख्त कानून की मांग कर रहे हैं उनका मानना है की खाप पंचायतों पर लगाम लगनी ही चाहिए 
तो क्या खाप पंचायत  से निपटने के लिए सख्त कानून ही एक मात्र उपाय है?? क्या तमाम खाप पंचायतों के पंचों को जेल में धकेल देना चाहिए 
देश का बौद्धिक वर्ग और मानवाधिकार संगठन का सुर तो यही है की खाप पंचायतों ने प्रेमी हत्या का ठेका ले रखा है! तमाम सामाजिक संगठनों के कार्यकर्मों की यही रट है और यही सुर आलापे जा रहे हैं! मगर प्रश्न ये है की आखिर ये खाप पंचायतें क्या हैं ? और भारत में सम्मान हत्या का चरित्र कैसा है इस बारे में  क्या तथाकथित मानवाधिकार संगठनों/कार्यकर्ताओं अथवा सरकार ने कोई समग्र अध्ययन किया है! व्यक्तिगत तौर पर मैंने पिछले तीन सालों में लगातार इस गंभीर होती समस्या पर अध्यययन के लिए कई संगठनों और कार्यकर्ताओं को आमंत्रित किया है मगर सबकी रूचि किसी एक मामले को लेकर कोर्ट जाने में थी समग्र सामाजिक अध्ययन में नहीं इसलिए उन्होंने मुझे ना ही कहा! बावजूद इसके मैंने अध्यन किया और सामाजिक पड़ताल की (अब ये बात अलग है की मेरी कौन सुनेगा) 

भारतीय परिपेक्ष्य में सम्मान हत्या का चरित्र संगठित नहीं है और खाप पंचायतों का सीधे सीधे इससे कोई लेना देना नहीं यहाँ याद रहे की खाप पंचायतें कोई निबंधित संगठन अथवा संगठित अपराधिक गिरोह नहीं है! सैकड़ों बरस से चली आरही सामाजिक निकाय व्यवस्था है जिसे आप जातीय पंचायत का नाम दे सकते हैं! और अगर ये व्यवस्था भ्रष्ट भी हुयी है तो इसकी सीधी ज़िम्मेदारी सरकार की है जिसने जनता और समाज की नागर समझ (सिविक सेन्स) विकसित नहीं होने दी!

जिस हरियाणा और पंजाब में लगातार बहरी राज्यों से बिना गोत्र जाति धर्म क्षेत्र के ज्ञान के  लड़कियां खरीद कर लायी जा रही हों वहां महज़ प्रेम के लिए मौत की सजा दिया जाना सामाजिक रूप से संभव नहीं है! आखिर खाप पंचायतों में गाँव के लोग ही बैठते हैं! उनके सामने प्रश्न उठाये जा सकते हैं की उस व्यक्ति का क्या जिसने बहार से लड़की लायी मगर आज तक ऐसे प्रश्न सामने नहीं आये 
इसी क्रम में उल्लेखनीय है की गत वर्ष नवम्बरमें  बिहार के बेगुसराय में एक सम्मान हत्या का मामला आया था जिसमे ज़ाहिर है कोई खाप पंचायत शामिल नहीं थी! 
भारतीय परिपेक्ष में सम्मान हत्याएं बेहद व्यक्तिक अपराध है और इसके लिए लड़की के पक्ष वाले ही ज़िम्मेदार हुआ करते हैं इसके अलावा कुछ विशेष मामलों में लोगों के समूह ने जिसे आप खाप पंचायत नहीं गोत्र पंचायत या परिवार जनों की बैठक कह सकते हैं में नव-विवाहितों को भाई-बहन बनाने का फैसला सुनाने के लिए क्रूर बर्बर और तालिबानी फैसला कह कर स्वय को प्रगतिशील और आधुनिक साबित करने वाले या स्वय देश का कानून सहोदर भाई बहनों को विवाह करने की इजाज़त देने को तैयार है क्योकि हम जिन्हें बर्बर तालिबानी और क्रूर कह रहे हैं उनके अनुसार गोत्र विवाह का अगला चरण सहोदरों का विवाह है !  समस्या खाप पंचायत नहीं समस्या मर्दवादी सोच है जो अपने परिवार की लड़की के किसी भी फैसले का विरोध करती है! और जिस समाज में सेक्स शब्द का उच्चारण भी पाप हो वहां अपना सेक्स साथी चुनने की क्या बात करना 
सख्त कानून की मांग करने वालों का सीधा निशाना खाप पंचायतें है और इसी कारण से वो  सामूहिक शोषण का हथियार अन-लाफुल एक्टिविटी (प्रिवेंशन) एक्ट १९६७ को और अधिक सख्त करना चाहते हैं और इसके लिए हर हत्या की खबर को क़तर कर कोर्ट के सामने खड़े हो जाते हैं की आज फिर एक युवक या युवती की हत्या खाप पंचायत ने कर दी! 
मेरा प्रश्न है की क्या सम्मान हत्या के लिए ३०२ और भारतीय दंड संहिता की अन्य औप्नेवेशिक धाराएँ कम कठोर हैं जो एक और सख्त कानून चाहिए! अगर मामले की बेहतर और ईमानदार जाँच हो और तवरित सुनवाई हो तो सजा निश्चित तौर पर मिलेगी! जाहिर है की करनाल कोर्ट ने जो फैसला सुनाया वो इन्ही कानूनों के अंतर्गत था जो आज भी अस्तित्व में हैं!  मगर सही मायने में मुद्दा सम्मान हत्या का नहीं आपितु खाप पंचायतों पर दोषारोपण का है किसी भी अपराध के लिए पुरे समुदाय अथवा व्यवस्था को दोषी ठहराने और मानने की मानसिकता है!
प्रत्येक मामले की अपनी विशेष परिस्थिति है जिसके लिए अलग अलग काराक जिम्मेवार हैं, इसकी सामाजिक आर्थिक (जातीय भी) पृष्भूमि के अध्ययन की आवश्यकता है!   और अगर किसी भी अपराध की जिम्मेवारी तय करनी है तो सरकार अपने अमलों को दुरुस्त करे तमाम तरह की प्रशासनिक उपस्थिति के बावजूद  प्रेमी युगल अपनी रक्षा की गुहार लिए उच्च न्यायलयो के चक्कर क्यों  काटते नज़र आते हैं! क्या स्थानीय पुलिस प्रशाषण इनकी सुरक्षा में अक्षम है! 
मेरा निजी अनुभव कहता है की वो जिम्मेदारियों से बचना चाहते हैं और आवश्यक है की उन अधिकारीयों को ज़िम्मेदारी दी जाए       
इसके लिए सम्पूर्ण समाज या क्षेत्र को दोषी मान कर उस पर डंडा नहीं मारा जा सकता और क्या किसी हत्या-अपराध के लिए पूरी खाप पंचायत (हजारो लोग शामिल होते हैं दर्जन से अधिक गाँव के ) जेल में डाल दी जाएँ! और एक पञ्च व्यवस्था समाप्त कर दी जाए ताकि सरकार जब चाहे इन इलाको की जमीन किसी पूंजीपति के हाथों दे दे! और जनविरोध का सामना ना करना पड़े! अनाज अपनी मर्ज़ी से ख़रीदे (२००७ में देश के किसानो  से ७.५० रु गेंहूँ खरीदने वाली सरकार ने उसी वर्ष कनाडा से ११.०० रु किलो की खरीद की थी कुछ ऐसा ही इस बार गन्ने के साथ किया) और किसान नेताओं को खाप पंचायत का नेता बता कर जेल में डाल दिया जाए 
मै किसी भी प्रकार सम्मान हत्याओं के पक्ष में नहीं हूँ और ना ही चाहता हूँ की सरकार चुप रहे.....हमारा संगठन लगातार सम्मान हत्याओं के निषेध के लिए काम कर रहा है मगर बड़े लोगों की लफ्फाजियों के कारण लगातार युवा साथियों को मौत के मुंह में धकेलते देख रहा हूँ....मुझे गुस्सा इस बात का है की सख्त कानून की मांग करने वाले हत्यानों का इंतज़ार करते रहते हैं ताकि उस मामले को कोर्ट में लेजएं और दिखाए की खाप पंचायतों ने कितनी संख्या में युवाओं को मारा है! और इस कारण सारी समस्या नौकरशाही के चंगुल में फँसी रह जाती है ! मूल समस्या ये है की कठोर कानून की मांग करने वाले सम्मान हत्याओं के वैश्विक परिपेक्ष्य में बात कर रहे हैं और खाप पंचायतों को सामाजिक राक्षस के रूप में स्थापित कर रहे हैं अगर ऐसा नहीं तो खाप पंचायतों को तालिबानी क्रूर बर्बर जैसे शब्दों की उपमा क्यों पुकारा जा रहा है और सामूहिक कारवाई को कठोर बनाने की बेतुकी कवायद क्यों ???????
सवाल तो ये भी है की 
खाप पंचायतों के निषेध के लिए कड़े कानून की नहीं सरकारी इक्षाशक्ति की आवश्यकता है! ज़रूरत है की पुलिस अधिकारिओं और न्यायिक प्रणाली को चुस्त दुरुस्त बनाने की कवायद हो! पुलिस प्रशाषण को प्रेमी युगलों की सुरक्षा की सीधी ज़िम्मेदारी दी जाए ताकि उन्हें बार बार उच्च न्यायलय से सुरक्षा की गुहार ना लगनी पड़े ! पारिवारिक कोर्ट को इतना अधिकार हो की वो इन युगलों को पुलिस सुरक्षा का निर्देश जारी कर सके, और जन जागरूकता के कार्यक्रम चलाये जाए ताकि परिवार इन युगलों को स्वीकारने का सहस कर सके!  समस्या का तुरंत निवारण हो सके शिकायतों पर तुरंत कारवाई हो सके इसके लिए अधिकारिओं को जिम्मेवार बनाया जाए!पुलिस  महिला सेल का पुनर्गठन हो और महिला/मानवाधिकार आयोग को ज्यादा अधिकार मिले! 
  ना की अल्हड कार्यपालिका के हाथ एक और डंडा थमा दिया जाए जिसके दुरूपयोग के लिए वो चर्चित है 

महिला आरक्षण से आगे


अक्सर बड़े बड़े लोगों की चर्चो में छोटे छोटे लोगों के बड़े बड़े मुद्दे हाशिये पर चले जाते है! महिला आरक्षण बिल के राज्यसभा में पास होने के बाद जहाँ एक तरफ खुशियों का माहोल है तो दूसरी तरफ बहस जारी है की आखिर इस आरक्षण का परिणाम क्या होगा! मगर चाहे जो हो इस आपाधापी में हम कृषकों और कृषि मजदूरों को भूल चुके हैं। थोडा पीछे जाएँ तो पिछले संसदिये चुनाव में उत्तर प्रदेश के संसदीय क्षेत्र रायबरेली के दो प्रखण्डों क्रमश: हरचन्दपुर और महाराजगंज के गांवों की दिवारों पर उकेरे गये नारों को याद कर आश्चर्य ही होता है।
इन नारों की बानगी देखें ''महिलाओं को किसान का दर्जा जो दिलायेगा, वोट हमारा पायेगा'' और ''जितनी होगी भागीदारी, उतनी होगी हिस्सेदारी''। वास्तव में नारी सशक्तिकरण और महिला आरक्षण् के झूंनझूनों के बीच ये जन-नगाडा हमारी आजादी और लोकतांत्रिक परिपक्वता की स्पष्‍ट पहचान है। ये सही है कि हमने अपनी आजादी के साथ साथ महिलाओं के अधिकार आंदोलन को गंभीरता से लिया है और जुझारू नारीवादियों के संघर्षों ने अपना रंग दिखाया है। जिसके फलस्वरूप कई कानून अमल में आये। मगर आज जब समाज महिलाओं को सशक्त स्थिति में पाता है तो उसकी शिकायत होती है कि पुरूषों को नारियों की प्रताड़ना से कौन बचाये शायद यही वजह है कि पुरूषों को नारियों के शोषण से बचाने के लिये तथाकथित आंदोलन सुगबुगा रहा है और अब तो कई संस्थाएं इस पर कार्य करने लगी हैं। 

मगर सवाल उठता है कि क्या वास्तव में महिलायें स्वछंद या स्वतंत्र हैं। अगर हां तो क्या परिसम्पित्तयों पर उनका अधिकार है या क्या वो स्वयं की अर्जित आय को व्यय करने का अधिकार रखती हैं और क्या उनके श्रम का अनुदान उन्हें मिल पाता है। 

कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमति सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र से महिलाओं ने जो किसान होने की मान्यता मांगी है उसका अपना कारण भी है और आंदोलनों का इतिहास भी। शायद आपको ताज्जुब लगे मगर सच तो ये है कि जब भी जमीन और पट्टे की बात होती है तो महिलाओं को परिवार का मुखिया माना जाता है। दिल्ली की सल्तनत में रजिया सुल्ताना को जिस संकीर्णता का शिकार होना पड़ा था वो आज भी जारी है और लैंगिक असमानता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि महिलाओं को किसान क्रेडिट कार्ड जैसी योजना का कोई लाभ नहीं मिलता सीधे सीधे कहें तो औरतों को किसान नहीं माना जाता। मार्था चैन के 1991 सर्वेक्षण परिणाम में साफ है कि महिलाओं की मालिकाना भूमि भागीदारी लगभग नगन्य है। यही अध्ययन स्पष्‍ट करता है कि महिलाओं का भूमि उत्तराधिकार मात्र 13 प्रतिशत है। 

दुखद ये है कि भूमि पर महिलाओं की भागीदारी का प्रश्‍न 1946-47 के बंगाल के तेभागा आंदोलन से ही उठ खड़ा हुआ था और अपने परिवार के पुरूषों के साथ भूमिपतियों से लड़ती हुई महिलाओं ने घरेलु हिंसा और भूमि अधिकार की बात छेड़ी थी। इस आंदोलन में चुल्हे चौके छोड़ दरातों और झाडु लेकर बाहर निकली महिलाओं ने अधिकार और सम्मान का दर्शन तो समझा मगर परिवार के भीतर की स्थितियों के परिर्वतन नहीं समझ सकीं फलस्वरूप आंदोलन की समाप्ति के बाद पुन: अपने परिवार के पुरूषों के अधीन हो गई। कुछ ऐसा ही तेंलंगाना आंदोलन के बाद हुआ भूमि अधिकार के संघर्षों में महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर अपनी भूमिकाओं का निर्वाह किया मगर घरेलु मोर्चे पर पुन: मात खा गई। मगर जब 1978 में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में मठ के विरूध्द बोधगया भूमि आंदोलन में जब महिलाओं ने अपने सरोकार की बातें की तो कई प्रकार के विरोध हुए मगर बातचीत और आंदोलनात्मक आवश्‍यकताओं ने आखिर मार्ग प्रशस्त किया। घर के पुरूषों ने जब कहा कि जमीन किसी के नाम हो इससे क्या फर्क पड़ता है तब औरतों ने पूछा कि तुम विरोध क्यों करते हो। जमीन हमारे नाम होने दो।लेकिन तब जिला अधिकारी ने पट्टे महिलाओं को देने से इंकार कर दिया उन्हें महिलाओं के परिवार प्रमुख की भूमिका पर आपत्ति थी। वो पट्टे किसी नाबालिग पुरूष के नाम करने को तैयार थे। मगर महिलाओं के नाम कतई नहीं। अब महिलाओं को वाहिनी के कार्यकर्ताओं का पूरा समर्थन था और आखिर में सरकार की अधिसूचना के माध्यम से 1983 में जमीन के पट्टे महिलाओं के नाम भी किये गये। भूमि अधिकार के मामले मे महिलाओं की विश्‍व में पहली जीत थी। बोधगया आंदोलन न केवल भूमि अधिकार के लिये महत्वपूर्ण है बल्कि कार्य बंटवारे और वित्तरहित श्रम का प्रश्‍न सामाजिक समानता के समक्ष लाने का संघर्ष भी है। यहां उल्लेखनीय है कि इस इस भूमि आंदोलन का प्रमुख नारे  ''जमीन किसकी जोते उसकी'' पर प्रश्‍न उठाया कि जमीन जो बोये या काटे उसकी क्यों नहीं। वास्तव में इसके पीछे भी वजह थी कि आंदोलन के पुरूष साथियों ने महिलाओं से पूछा था कि अगर जमीन वो लेंगीं तो जोतेगा कौन जवाब में महिलाओं ने कहा था कि अगर जमीन पुरूष लेंगें तो उन्हें बोयेगा या काटेगा कौन तो फिर काम का परितोषिक अथवा मालिकाना हक क्यों नहीं। महिलायों के भूमि अधिकार पर बिल का एक ड्रामा पहले भी हो चूका है मगर अफ़सोस ये महज़ ड्रामा ही रहा वास्तव में आज भी महिलाएं  कृषि भूमि उतराधिकार प्राप्त नहीं कर सकती क्योकि ये अभी तक विधिसम्मत हुआ ही नहीं! शाहबानो मामले में इस्लाम को खतरे में बता रहे मुस्लिम पहरुआ शरियत की इस अनदेखी (इस्लाम महिलायों के भूमि अधिकार को अनिवार्य करता है) कर रहे हैं और २००५ में  मुस्लिम परसनल ला बोर्ड ने प्रधान मंत्री को मात्र एक ज्ञापन देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली! ज़ाहिर खेत और किसान जब अप्रासंगिक हुए जारहे हैं तब इन अधिकारों का क्या फायदा! खेत और ज़मीन आज पिछड़ेपन की निशानी बनते जारहे हैं तब इन पर बात कौन करे मगर सच तो यही है की देश की बहुसंख्यक महिला आबादी अपने भूमि अधिकार की बाट जोह रही है और दुखद ये है की उनकी आवाज़ संसद तक पहुचने वाला कोई नहीं! 


तो क्या महिला आरक्षण महज़ ड्राइंग रूम तक ही सीमित रहेगा और आँगन वाले घर अछूते रह जायेंगे अन्तरिक्ष तक की उड़न वाली लड़कियां(भले वो अमरीकी नागरिक हों) हिंदुस्तान की असली पहचान है और क्या हिंदुस्तान की राजनीति पर अब इलीट पूरी तरह हावी हो गए और क्या खेत ज़मीन बैल हल जैसे शब्दों को भूल जाना बेहतर है या सोनिया गाँधी ज़मीन पर औरतों के अधिकार पर ध्यान देंगी  

एक ऐसा कस्बा भी हैं जहां हर घर में तलाकशुदा महिलाएं है



प्रदेश के भोपाल जिला मुख्यालय से करीब 57 किलोमीटर दूर मांडा स्टेट से पहले भरत गंज की आबादी पन्द्रह हजार के आस पास है। लगभग 70 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस क्षेत्र के हर चैथे घर में एक तलाकशुदा औरत मिल जाएगी। मजेदार पहलू यह है कि अधिकतर तलाकशुदा औरतों की आयु 25 वर्ष से कम है। अशिक्षा और भीषण गरीबी के चलते लड़कियों की शादी 6 वर्ष से 15 वर्ष तक की आयु में हो जाती है। बाल विवाह कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए ये विवाहित मासूम लड़कियों को 16-17 वर्ष की आयु में ही मां तबदील कर देते हैं। कहने को तो शरतगंज में एक कन्या महाविद्यालय हैं। परन्तु यहां के लोग लड़कियों को पढ़ाने में रूचि नहीं रखते। अधिकतर महिलाएं बीड़ी बनाने का व्यवसाय करती हैं।
तलाकशुदा महिलाओं की यही दर शरतगंज से सटे दारूपुर, सूत्रा, मौहल्ला, नई बस्ती तथा कड़ी छिवहती आदि क्षेत्रों में है। तलाक पर होने वाली बहसों और सेमिनारों से बेखबर महिलाओं के अधिकारों से अनभिज्ञ इन महिलाओं ने तलाक या पति द्वारा छोड़े जाने को अपने जीवन का एक अंग मान लिया है। ऐसी ज्यादातर महिलाएं बीड़ी व छपाई का कारोबार कर रही हैं। कुछ महिलाओं के अभिशवक तो न्यायालय की शरण में चले गऐ हैं, जबकि कुछ अपमान और विवादों से बचने के लिए चुप्पी साध बैठे हैं।
शरतगंज के बाजार के पास कसाई कार्य करने वाले साबिर, जब भी अपनी बेटी शकीना का जिक्र करते हैं, तो जोर-जोर से रोने लग जाते हैं, साबिर पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हौंने अपने बेटी के ससुराल वालों की ज्यादती के खिलाफ आवाज उठाई और सरकार तक गए और मुकदमें व पैरवी कर समाचार पत्रों की सुर्खिया बने। चार बेटियों में तीसरे नम्बर की बेटी शकीना का विवाह शरतगंज के ही ऐजाज उर्फ डाक्टर से 1991 में किया था। डाक्टर की बाजार में सिलाई की दुकान हैं। विदाई के कुछ दिन उपरांत ही दहेज की मांग की जाने लगी। ऐजाज नकद पचास हजार रूपये या फिर एक रंगीन टेलीविजन तथा मोटर साईकिल चाहते थे।
शकीना वापस मायके आ गई और फिर बाद में पुलिस की मध्यस्थता से विदाई हुई। छः मास के भीतर उसे करंट लगाया गया और मार पिटाई करके घर से निकाल दिया गया। ऐजाज का तब कहना था कि वह न तो शकीना को रखेगा न ही तलाक देगा और दूसरी शादी भी करेगा। साबिर चाहते थे कि मामला रफा-दफा हो जाए और शकीना को तलाक मिल जाए। इस्लामिक कानून के अनुसार डाक्टर चार शादियां कर सकता है। परन्तु बिना तलाक के शकीना की दूसरी शादी आसान नहीं है। साबिर को शबीना के सुसराल वालों ने कोई सामान नहीं लौटाया और पुलिस ने भी एजाज का ही पक्ष लिया। स्थानीय विधायक से लेकर शहर कोतवाल तक साबिर ने न्याय की गुहार की, मगर कोई सुनवाई नहीं हुई, मगर अपनी बेटी से हुई ज्यादती का बदला लेने के लिए साबिर अब भी संघर्ष जारी रखे हुए हैं।
कटरा से ही अख्तर हुसैन की दो बेटियां, जो कि 24 तथा 21 वर्ष की है, का जीवन नरकीय हो गया है। बड़़ी बेटी की शादी हुसैन ने 1985 में की थी, तब वह 13 वर्ष की थी, जबकि दूसरी बेटी की शादी 1987 में की थी, मगर आज तक दोनों लड़कियों ने ससुराल में कदम नहीं रखा। तलाक के मामले में एक विपरीत किस्म का मामला प्रकाश में आया है,
इसमें लड़की के मायके वालों ने लड़के को बांधकर उससे जबरन तलाक दिलवा दिया। लड़की अकसर मायके वालों से ससुराल के अावों का रोना रोया करती थी। हेदरून नामक इस युवती का निकाह हसनैन खां से हुआ था। हैदरून के परिवार यह विवाह किसी और परिवार में करना चाहते थे, मगर उसके लिए तलाक का होना जरूरी था। हसनैन खां साईकिल पर कहीं जा रहे थे कि उसे बांधकर जबरी तलाक दिलवा दिया गया। इसी तरह गाड़ीवान मुहल्ले के बकाडल्ला हो या लोहारान मुहल्ले के रमजान, बाजार के मटक आदि ऐसे हज़ारों पिता हैं, जिनके जीवन की तकलीफें पढ़ी जा सकती हैं।
एक तरफ जहां दहेज के लोभी और पुरुष प्रधान मानसिकता वाली जमात है, वहीं दूसरी तरफ ऐजाज टेलर मास्टर साबिर जैसे लोग है, जो सिर्फ अपनी बेटियों के लिए ही नहीं लड़ते बल्कि दूसरों को भी अन्याय से लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। यमुनानगर में विवाह के बाद तलाक एक फैशन हो गया है। तलाकशुदा औरतों के पास मजदूरी करके रोटी जुटाने का एक मात्र विकल्प रह गया है। ऐसी परिस्थितियों में महिलाओं और उनके बच्चों का भविष्य फिलहाल अनिश्चित है।

पारो : एक औरत ये भी


 ‘पारो’ कहते ही सबके दिमाग में देवदास  का जुमला याद आ जाता है। प्यार और मासूमियत का दूसरा नाम ‘पारो’। पर समाज बदलते देर नहीं लगती। ‘पारो’ अब चंद्रमुखी बना दी गई है। भद्दी गालियों की फेहरिस्त में जुड़ गया है ‘पारो’ का नाम। हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह नए रूप में बहुत प्रचलित नाम है।
यह तो सभी जानते हैं कि गालियों का भी एक सामाजिक अस्तित्व होता है और वो स्वभाव से नारी शोषण को प्रतिबिंबित करता है। ‘पारो’ का यह स्वरूप भी कुछ ऐसा ही है। पारो वो लड़कियां हैं, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, असम और उड़ीसा आदि राज्यों से वंश बढ़ाने या औरत की कमी पूरी करने के लिए खरीदकर लाई जाती हैं। यह सच है कि इन्हें प्रत्यक्षत: वेश्याएं नहीं कहा जा सकता। इन्हें रखैल कहना भी उचित नहीं होगा। 
                            
हरियाणा के किसी भी गांव का दौरा करने पर आप हजारों की संख्या में ऐसी महिलाओं को देख सकते हैं। आप कैथरीन के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत मर्द (कर्ता), यौनकार्य (कर्म), और नारी (कारक) से सहमत होंगे। पारो कैथरीन मैकनिन की परिभाषा का सटीक व दमदार उदाहरण है। यहां खेती और पशुपालन से लेकर तथाकथित नारी कर्तव्यों तक, सारे कार्य औरतें ही निपटाती हैं। जिन पत्नियों को दहेज सहित सामाजिक मान-मर्यादा के साथ विधिवत ब्याह कर लाया जाता है उनकी स्थिति दोयम दर्जे की होती है तो खरीदकर अनजान जगह से लाई गई लड़कियों के दर्जे का अनुमान लगाना कठिन नहीं। 
सीधे तौर पर यह मानव तस्करी का मामला भले न लगे मगर अप्रत्यक्ष तौर पर इसे यही कहना उपयुक्त होगा। मानवीय मूल्यों (मौलिक अधिकारों सहित) के हनन के अपने स्वरूप में यह एक तरह की मानव तस्करी ही है। आइए इसकी कुछ बानगी देखें।
‘कन्या भ्रूण हत्या और लैंगिक असमानता के बड़े विरोधी हमारे एक तथाकथित क्रांतिकारी साथी हैं। समाज में काफी सम्मान पाते हैं। बिरादरी की नाक हैं। सम्पर्क बढ़ा तो पता चला कि इनके दो बेटे हैं। बेटी एक भी नहीं। पत्नी और विधवा मां घर के अलावा खेत खलिहान भी देखती हैं और इन महाशय ने समाज सुधारने का बीड़ा उठाया हुआ है। गुड़गांव के सोहणा प्रखण्ड के एक गांव में ग्राम प्रधान और स्थानीय राजनेता ने अपनी ही स्त्री का बलात्कार अपने दामाद व दो अन्य मित्रों के साथ संयुक्त रूप से किया। इसकी न कोई प्राथमिकी दर्ज होनी थी और न ही हुई। पंचायत भी क्यूं बैठती। दबे जुबान पूरा गांव हकीकत जानता है। मगर कोई कुछ नहीं कहता। यह कोई अजूबा नहीं क्योंकि सभी छलनियों में छेद हैं।
यह स्त्री जिसके साथ यह सब हुआ वह कोई पारो नहीं बल्कि स्थानीय महिला है। आप कल्पना कर सकते हैं कि जब इनका यह हाल है तो ‘पारो’ जैसी स्त्रियों का क्या हाल होगा। हमारे आंदोलन के साथी के एक चचेरे भाई हैं। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। बातों-बातों में खुल गए, कहने लगे दिल्ली आना चाहते हैं उनको नौकरी पाने में मैं कुछ मदद करूं।
उम्र 40 के करीब हो चुकी है। विवाह नहीं हो पाया। सोचते हैं पारो ले आएं। इसके लिये कमाना पडेग़ा। इसलिए दिल्ली आएंगे। फिर वहीं से पारो ले आएंगे। उन्होंने बात भी कर रखी है। करीब 15 हजार का खर्च है। वो कहते हैं, कि आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने पर विवाह होना कठिन है। वैसे भी लड़कों का विवाह उनके भाग्य पर निर्भर करता है। विडम्बना है कि यहां एक तरफ लड़कों को विवाह के लाले पडे हैं वहीं दहेज के आंकड़े आसमान छू रहे हैं।
सामान्यत: यह माना जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या एक नगरीय समस्या है। मगर यह कहते हुए हम भूल जाते हैं कि जमीन से जुड़े मध्यवर्गीय (व्यापक अर्थों में) तबके में आरम्भ से ही नवजात कन्याओं को मारने के अनेकों तरीके प्रचलित हैं। नाक दबा कर, नमक चटाकर, अफीम चटाकर, दूध में डुबाकर, और मर्दों के साथ सुलाकर जिनसे दब कर वे दम तोड़ देती थीं।
ऐसी कई तकनीकों का भरपूर इस्तेमाल किया जाता रहा है। परिणाम सामने है। हम लोगों को कन्या भ्रूण हत्याओं का परिणाम भुगतते देख रहे है। ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पारो भी अनुपलब्ध होगी। तब बचेगा बस थोथा पुरुषार्थ, मर्यादा, सम्मान, सम्पत्ति और कुछ भी नहीं। (भारतीय पक्ष द्वारा प्रकाशित तथा चरखा फीचर्स द्वारा प्रसारित  )

किन्नर : लैंगिक विमर्श का अवरोही क्रम

महाभारत के भीस्म पितामह उनका हत्यारा शिखंडी, सल्तनत कालीन मालिक काफूर और मुग़ल कालीन इतेमाद खान जैसे लोग अपने अपने काल में बड़े प्रशासनिक अधिकारी और बड़े यौद्धा रहे हैं. मगर इसके अलावा एक बात ऐसी भी है जो इनमे सामान रही और वो है उनका पुरुष या महिला ना होना!
भले ही भीसम पितामह ने अपनी चारित्रिक पवित्रता और प्रतिज्ञा के सत्यार्थ अपने लीग को काट फेकने का दूसाहस किया हो ! और अन्य जनम से ही जनोत्पति के लिए लैंगिक तौर पर अक्षम रहे हों मगर इतिहास के पन्ने उनकी गौरव गाथाओ के मुहताज हैं ! सामाजिक इस्थिति युद्ध कौशल और तात्कालिक समाज में मजबूत राजनैतिक आर्थिक स्थितियों को प्राप्त करना उन पर किसी की दया नहीं आपितु उनके कौशलों को सामाजिक स्वीकारिता और समाज के अलैंगिक विमर्श का परिचायक है। मगर अफ़सोस आज जब हम स्वय को प्रगतिशील और नई तकनीकों से लैस २१वि सदी का सभ्य और सुसंस्कृत मानव होने का दावा करते हैं तब किन्नर समाज के दोयम दर्जे के (अतिश्योक्ति होगी दरअसल हम इन्हें लैंगिक तौर पर इनकी पहचान से भी इंकार करदेते है) की छवि उभरती है । इधर के वर्षो में जबकि किन्नरों ने राजनीती में हाथ अजमाया तो जैसे भूचाल आगया वो भी तब जबकि ये विधायक से अधिक कुछ और नहीं हो सके ! मीडिया और समाज ने अपने उदार होने का ऐसा नगाड़ा पीटा की लगा किन्नरों ने जाने कौन सा किला फ़तेह कर लिया ! आपको याद दिलाता चलूँ की इसी देश में एक किन्नर वितमंत्री रहा है ! हाँ वो राज तंत्र था और वो काल था शहंशाह अकबर का , और उस समय ये कोई अनहोनी नहीं थी ! ऐसे में बड़ा प्रासंगिक होजाता है की आज जब जेंडर और विभिन्न लैंगिक वादों का अविष्कार और उपयोग हो रहा है ! तब किन्नरों को समलैंगिक और एड्स वाहक होने का आरोप मड हम उन्हें कंडोम बाँट कर या विभिन्न एड्स जागरूकता कार्यकर्मों में इनकी प्रदर्शनी लगा भीड़ बटोरने का धंधा कर रहे हैं। जैसे इनके जीवन पूरी तरह यौनाधारित हों और इन्हें खाने पहने रहने जैसी कोई बुनयादी ज़रूरत ही ना हो
मगर हम इन्हें सामाजिक प्राणी मने तबतो कोई विचार हो । अभी जिस सर्व शिक्षा अभियान का जो वैश्विक ढोल पीटा जा रहा है वहां आपने कहीं देखा या सुना की इनके शिक्षा के लिए कोई विशेष इन्तेजाम किया गया हो , या नरेगा में कोई विशेष व्यवस्था हो (महिलाओं और पुरुषों के लिए नरेगा)जब की विकास-शील देशों के लिए ये एक वैश्विक आन्दोलन है,
किन्नरों के इतिहास को देखें और जानलें ये इतिहास हमारा अपना इतिहास है ! ये लैंगिक taur per भले ही हमसे कुछ अलग हों और ये अन्तेर ज्यादा नहीं बस वैसा ही जैसे सहोदर भाई बहनों के शारीरिक हाव भाव या लैंगिकता का और इन्होने ठीक उसी प्रकिर्या से जनम लिया है जैसे कोई सामान स्त्री या पुरुष !

फिर भी जाने क्यों ये आज के समाज में किसी बहरी दुनिया से आये हुए अलिंस की तरह देखे जाते हैं . किन्नर आधुनिक समाज का वो पहलु है जिसकी ओर देखना या सोचना भी स्वय की लैंगिकता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है !
किन्नरों द्वारा पहना जाने वाला महिला वस्त्र
दो वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के एक पुलिस पदाधिकारी राधा बन कर भले ही उपहास के पात्र बने । मगर इस देश के दो प्रमुख धर्म सनातन और इस्लाम के भीतर की संत परम्परा इसे वैधता देती है . सूफी विचारो में ये एक स्थिति है की जहाँ बंद अपने महबूब (परमात्मा) के इश्क में अपनी सम्पूर्ण पहचान खो देता है यहाँ तक की लैंगिक पहचान भी, सूफी या संत होने की पहली शर्त है पैसिव होना और महिला वस्त्र धारण करना इसी भावना का प्रदर्शन है । वही सनातन संत परम्परा इसे आज भी सखी संप्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित किये हुए है, ये वो स्थिति है जब कोई अपने प्रेमी (परमात्मा ) के प्रेम में डूब कर सब कुछ समर्पित कर देता है .और चुकी लैंगिकता समाज का बड़ा टैबू है सो इसका भी ,
और प्रेम की इसी स्थिति में पहुच कर एक पुलिस पदाधिकारी अपने पद से हाथ धो देता है बल्कि अपने पौरुष के समर्पण का सामाजिक (क्यों ना कहें क़ानूनी भी) दंड भी पाता है
दरअसल किन्नरों द्वारा धारण किया जाने वाला ये वस्त इसी संत परंपरा का अंग है जो कालांतर में इनकी पहचान बनता गया और आज की हालत में ये प्रेमी किन्नर अवैध वसूली और जोर ज़बरदस्ती के प्रतिक बन गए!
कुछ तो कुंठा जो फटे के पैवंद के लिए दूसरों के कपडे फाड़ने की आदत की पश्चिमी नक़ल करने की हरकत से लाचार हमारे दुष्प्रचार तो दूसरी तरफ धर्मो पर उन्मडियो का सनकी प्रभाव ! किन्नरों की पहचान बदलने लगी और ये समाज के वो अंग बनते चले गए जो समाज को किसी हाल में मंज़ूर नहीं थे ! यहाँ तक की इनकी मौत पर जश्न मानाने की परम्परा जो की "विसाल या समां जाना" (वह्दतुल वजूद अकैश्वर -वाद, जिसके अनुसार मौत प्रेमी अर्थात परमात्मा से मिलन है) का सिद्धांत है को प्रबुद्ध जनों ने ज़िल्लत भारी ज़िन्दगी से मुक्ति का जश्न बता दिया! आज हम जैसे जैसे संस्किरितिकृत हो रहे है और तमाम चीजों की अपने ढंग से व्याख्या कर रहे है वैसे वैसे किन्नरों से स्वंय को अथवा किन्नरों को समाज से अलग कर रहे हैं । और फिर तो रही सही कसर भुमंदलिकरण ने पूरी कर दी तब जबकि सारी चीजों का व्यवसायीकरण आरम्भ हुआ तब ये वर्ग भी अछूता नहीं रहा और फिर पैसे लेकर शिष्य बनाना, क्षेतों का बनवारा नकली किन्नर बनाना से शुरू होकर मानवीय तस्करी और वेश्यविरती तक जा पंहुचा जिस में हत्या और अपहरण भी सामान रूप से शामिल हो गए । और आज विशेष लैंगिक स्थिति और संत परंपरा वाले लोगो में भी कोई स्पष्ट अंतर नहीं रह पाया और हमने भी इन्हें मिटाने की कोई कसर नहीं छोड़ी ।

ऐसे में हाल के महीनो में जबकि तमिल्नाय्दु सर्कार ने दस्तावेजों में किन्नरों के अलग कोलुम दिए है राशन कार्ड और वोटर कार्ड भी जारी किया और बिहार सरकार के समाजिक कल्याण मंत्रालय द्वारा किन्नरों को नारी निकेतनो और बाल गृहों में सुरक्षा कर्मी के साथ साथ विशेष स्वस्थ्य कर्मी के बतौर भारती की विशेष योजना एक क्रांतिकारी कदम है ! और इन सरकारों की पहल शायद किन्नरों ki सामाजिक पहचान पुख्ता करेगी ऐसी आशा की जाये।
(शीर्षक के नाम से ही इस मुद्दे पर मेरा एक नृवंश अध्यन है.......प्रस्तुत आलेख मेरे उसी अध्यन पर आधारित है)