राजधानी में हुए सामूहिक बलात्कार ने सचमुच जनमानस को हिल कर रख दिया और शायद पहली बार सड़क और संसद पर एक ही चर्चा एक ही भाव से चलती रही! आक्रोश की अभिव्यक्ति इतनी ज़बरदस्त थी की अभियुक्त ने न्यायलय में सीधे अपने लिए ही फँसी की सजा मांग ली! हालांकि ये आक्रोश और अभिवक्ति ज़रा सलेक्टिव किस्म की रही है और मामला कुछ कुछ वर्ग से भी जुड़ता नज़र आता है मगर जो भी हो मुझे महिला आयोग के अध्यक्ष और महिला एवं बाल कल्याण मंत्री के संवेदनशील होने का भी ताजुब भरा अहसास हुआ! सब बलात्कार के लिए कई प्रकार की सजा का अनुमोदन कर रहे हैं! कुछ युवा मिडिया कर्मी तो उनको फाँसी या हमको फांसी जैसे मुहावरे के साथ कार्यकर्म भी कर रहे हैं! तो कुछ फाँसी से कुछ कम मगर उम्र कैद से ज़रा भी कम नहीं पर समझौतावादी होने का आरोप झेलते दिख रहे हैं, नपुंसक करने की विधियों पर टीवी कार्यकर्म हो चुके हैं और विद्वान रासायनिक तौर पर सर्जरी पर या सीधे जंग लगे चाकू से बधिया कर देने की चर्चा भी कर रहे हैं! सजा इतना अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चूका है की दुसरे तमाम मामले पीछे धकेल दिए गए हैं इनमे एक आठ वर्षीय दलित बच्ची का मामला हो डिफेन्स कालानी के युवाओं द्वारा दो महीने तक बंधक बना कर एक नाबालिग से बलात्कार का मुद्दा हो या गाज़ियाबाद में सड़क के किनारे बेहोश हालत में मिली एक अनजान लड़की का मामला हो
मगर एक बात सब कह रहे हैं की दिल्ली में दरिन्दे घूम रहे हैं और इसको साबित करने के लिए टीवी की रिपोर्टर रात में रिपोर्टिंग कर रही हैं कहीं ख़ुफ़िया कमरे के साथ तो कहीं खुलेआम! (अगर आप टीवी में काम करने वाले दरिंदों की बात याद करना चाहते हैं तो कर सकते हैं)
विपक्ष की नेता खुलेआम कह रही हैं अगर लड़की बच भी गयी तो न जिंदा रहेगी न मारेगी अख़बार तस्दीक करते हैं और पुराने बलात्कार के मामले की पड़ताल करके बताते हैं की एक बलात्कार ने अमुक लड़की की सारी ज़िन्दगी तबाह कर दी
और मैं सिलसिलेवार उन तमाम मुद्दों याद कर रहा हूँ जो कभी जवलंत थे जिनपर ऐसी ही क्रांतियाँ मच चुकी हैं! आह लोकपाल आन्दोलन से ठीक पहले खाप पंचायतों और सम्मान हत्याओं पर इतनी ही मोमबत्तियां जल चुकी हैं, एक बारगी को लगा सम्मान हत्याएं जल्दी अतीत की बात हो जायेंगी और खाप पंचायतें जल्दी ही अवैध घोषित कर दी जायेंगी! मोमबत्ती ब्रिगेड ने सम्मान हत्याओं के लिए मौत की सजा मांगी थी और मांग थी कानून में बदलाव की! ना सम्मान हत्या रुकी ना मौत की सजा का प्रावधान हुआ और ना ही कानून बदला हाँ मोमबत्ती बुझ ज़रूर गयी और फिर जली तो वो लोकपाल को बुलाने के लिए! सम्मान हत्याएं जारी हैं खबर आती है चली जाती हैं किसी को कोई असर नहीं कोई दर्द नहीं
जिस देश में सरकारी आकडे के अनुसार रोज़ दो सौ से अधिक लडकियां वेश्यावृति में धकेल दी जाती हों वहां यौन उत्पीडन पर उभरा जनाक्रोश उत्साहित तो करता है मगर दिशाहीनता और अनिवार्य जागरूकता की कमी तुरंत ही ठंडा पानी डाल जाता है
हमारे बौद्धिक समाज (पढ़े मध्यमवर्गी समाज) की सबसे बड़ी कमजोरी ये है की वो हर चीज़ को अपने सुविधानुसार समझते हैं अगर ऐसा नहीं है तो खेलेआम टेलेविज़न पर बहस करती हुयी एक तथाकथित नारीवादी महिला सम्मान हत्या के विरुद्ध बोलते बोलते खाप पंचायत के नेता से प्रभावित नहीं हो जाती और बाद में खाप पंचायत के प्वाईंट आफ आर्गुमेंट के पक्ष में खड़ी ना हो जाती! हलके ढंग से कहूँ तो कहना चाहूँगा की अगर आप समझते हैं की आपके बच्चे ही होमवर्क नहीं करते तो आपको हमारे देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं खास कर महिला मुद्दों पर काम करने वालों को देख कर संतोष कर लेना चाहिए वो भी कभी होम वर्क नहीं करते! और जो बलात्कार के लिए मौत की सजा की बात कर रहे हैं उन्हें याद रहे की धनञ्जय चटर्जी को बलात्कार के लिए ही फाँसी दी गयी थी उससे अपराध कम नहीं हुआ और ना ही होगा! आप मान भी लें की आपके देश में बलात्कार करने पर बधिया करने या मौत की सजा दे देने का कानून आजायेगा तो इस बात की क्या गारंटी है की जज साहिबान सजा दे ही देंगे या वो बायज नहीं होंगे! अगर आप महिला जज के तहत ऐसे केस की सुनवाई का सोच रहे हैं तो घरेलु हिंसा के मामलों को याद किये जाने की ज़रूरत है!
सबसे पहली बात की हमने ये जानने की कोशिश भी नहीं की आखिर महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के कारण क्या हैं? अगर हम इसकी खोज नहीं करते और समाज में एक व्यापक समझ नहीं बना सके तो कानून कितना भी कठोर हो अपराधी कानून लागू करने वालों की सहानुभूति ले जाएगा और केस सही तरीके से तैयार ही नहीं किया जाएगा!
बलात्कार कभी भी सेक्स की इच्छा पूर्ति के लिए किया जाता हो ये संभव नहीं है! बलात्कारी अपनी सेक्स की इच्छा से अधिक इस बात का ख्याल रखता है की वो लक्ष्य (युवती) को अधिक से अधिक प्रताड़ित कर सके! कई ऐसे भी मामले नज़र आते हैं जिसमे नपुंसकता का इलज़ाम सहने वाले व्यक्ति ने बच्चों या बूढों से यौनाचार करने की कोशिश की और मार डाला! लडको (मर्दों) के साथ गुदा मैथुन के मामले भी नज़र आते हैं! बलात्कार का औजार के रूप में पोषण समाज करता है! जो इससे सम्मान यानी इज्ज़त से जोड़ता है! सम्मान वो शब्द है जो हमें और आपको किसी और परिभाषा में समझाया जाता है मगर असली परिभाषा कुछ और है!
सम्मान की अवधारणा प्रचलित सामाजिक धारणा (सम्मान के केवल एक व्यक्ति के स्वयं के व्यवहार पर निर्भर करता है) से पूरी तरह अलग है.
सम्मान की अवधारणा महिला के व्यवहार पर निर्भर करती है और कुछ समय के लिए पुरुषों पर भी, इस अवधारणा के तहत 'व्यवहार' एक व्यक्ति (पढ़ें स्त्री) का मामला नहीं है और यह दूसरों (पढ़ें पुरुष) के व्यवहार पर निर्भर हो जाता है इस लिए इसे नियंत्रित किया जाना चाहिए.
सामाजिक, शब्द सम्मान "शक्ति संपन्न समूह" के लिए है जो परिभाषित करने, विस्तार और एक प्रतिस्पर्धी क्षेत्र में अपनी विरासत की रक्षा के लिए संघर्ष की विचारधारा है. सम्मान की इस अवधारणा को पारंपरिक या पितृसत्तात्मक समाजों में पाया जाता है.
सम्मान आदमी के "गर्व करने के लिए दावा" है जो मूल रूप से अपने परिवार, धन, और उदारता के रूप में या इस तरह के अन्य कारकों में परिलक्षित हो सकता है.
हालांकि, सबसे अधिक बारीकी से एक आदमी के "सम्मान" या प्रतिष्ठा उनके परिवार में महिलाओं के यौन आचरण, विशेष रूप से उसकी माँ, बहन(ओं) , पत्नी(यों), और बेटी(ओं)से बंधा हुआ है. इन महिलाओं द्वारा यौन कोड के संदिग्ध उल्लंघन या उल्लंघन की सम्भावना "आदमी के सम्मान" परिवार के सम्मान ", और / या" सम्मान के सांप्रदायिक निधि "एक कबीले, जनजाति या अन्य वंश पर एक शक्तिशाली हमला के रूप में देखा जाता है.
और "सम्मान" "शर्म की बात" या "लज्जा" में तब्दील होजाता है इस दर्शन के अनुसार इस तरह की "लज्जा" से छुटकारा पाने और "सम्मान" बहाल करने के लिए महिला 'अपराधी' को दंडित किया जाना ज़रूरी हो जाता है!
दुनिया के अधिकांश हिस्से में 'सम्मान' महिलाओं पर नियंत्रण और उनके के खिलाफ हिंसा के लिए एक तर्क के रूप में इस्तेमाल किया गया है. हम कह सकते हैं कि वर्तमान शब्द 'सम्मान' मानवीय संबंधों का सबसे बड़ा दुश्मन है"
नियंत्रण की इसी पद्धति के तहत पित्रसत्तात्मक समाज (अपनी) महिलाओं की रक्षा की बात करता है और उनपर हुए यौन हमलो का सामूहिक जवाब देता है! मगर बराबरी या भागीदारी की बात नहीं करता!
और "सम्मान" "शर्म की बात" या "लज्जा" में तब्दील होजाता है इस दर्शन के अनुसार इस तरह की "लज्जा" से छुटकारा पाने और "सम्मान" बहाल करने के लिए महिला 'अपराधी' को दंडित किया जाना ज़रूरी हो जाता है!
दुनिया के अधिकांश हिस्से में 'सम्मान' महिलाओं पर नियंत्रण और उनके के खिलाफ हिंसा के लिए एक तर्क के रूप में इस्तेमाल किया गया है. हम कह सकते हैं कि वर्तमान शब्द 'सम्मान' मानवीय संबंधों का सबसे बड़ा दुश्मन है"
नियंत्रण की इसी पद्धति के तहत पित्रसत्तात्मक समाज (अपनी) महिलाओं की रक्षा की बात करता है और उनपर हुए यौन हमलो का सामूहिक जवाब देता है! मगर बराबरी या भागीदारी की बात नहीं करता!
फेसबुक पर वितरित हो रहे कुछ फ़ोटोज़ जिनमे बलात्कारियों की विभस्त सजाएं दिखाई गयी हैं वो उन देशो के हैं जहाँ महिलाओं की आज़ादी लगभग ना के बराबर है!
दूसरी बात कठोर कानून किसी भी व्यवस्था के कमज़ोर होने की निशानी है! नक्सालियों या दुसरे तरह के विद्रोही समूह का कंगारू कोर्ट जिस अपराध के लिए सीधे मौत की सजा देगा उसी अपराध के लिए अधिक से अधिक सात साल या चौदह साल की सजा देगा तो इसका मतलब ये नहीं की विद्रोही कोर्ट ज्यादा सक्षम है इसका मतलब है की कंगारू कोर्ट सक्षम नहीं है और ना ही वो किसी प्रकार से अपने कानून को लागू कर सकता है मगर किसी भी देश की स्थापित सरकार जो कम सजाएं दे रही हैं वो अपने फैसले को सक्षम है और धारणीय (sustainable) है
तीसरी बात की कानून में बदलाव की मांग कर करना और व्यवस्था पर सवाल उठाना दो अलग बातें हैं! व्यवस्था एक समग्र सवाल है और कानून व्यवस्था का एक अंग विशेष मात्र है! व्यवस्था पर सवाल खड़ा करना एक फैशन है मगर उसकी समझ भी होना उतनी ही ज़रूरी है, जैसे इस सामूहिक बलात्कार काण्ड में व्यवस्था का प्रश्न बनता है की एक व्यस्त रूट पर रात आठ बजे से ही सार्वजानिक वाहनों की भरी कमी है जिसके कारण पीड़ित जोड़े को एक लक्सरी बस में चढ़ने को मजबूर होना पड़ा! सवाल ये भी है की आखिर एक स्कुल बस इतनी रात को सड़क पर क्या कर रही थी? सवाल ये है की अगर पुलिस चैतन्य होती तो अपराधी पहले ही पकडे जाते (बस में सवार अपराधियों ने आधे घंटे पहले ही क युवक से आठ हज़ार रूपये लुट कर उतार दिया था) . मगर इन तमाम सवालों को नज़र अंदाज़ करके जिस प्रकार कठोर कानून और बधिया किये जाने की बात पर जोर दिया जा रहा वो दरअसल उसी मानसिकता का प्रतिक है जो मानसिकता बलात्कारी की होती है!
अगर आप याद कर सके तो आप पायेंगे की बलात्कार चलन में आया अपेक्षाकृत नया शब्द है इससे पहले इसे इज्ज़त लुट जाना कहते थे! ये बदलाव पित्रसत्तात्मक समाज से सामान लैंगिक अवसर वाले समाज की तरफ बढ़ने की निशानी है! बलात्कार हमेशा ही एक सनकी मानसिकता सबक सिखाने और सम्मान को ठेस पहुचने के बदले में किया गया अपराध है! और इसके लिए दी जाने वाली सजा के साथ साथ इसको रोकने के उपायों पर बात करना शुरू होगा! मुद्दों को समग्रता से देखना और समझना होगा उसके समावेशी उपायों पर बात करनी होगी! पित्र्सत्तात्मक समाज से उपजी एक बुराई को समाप्त करने के लिए पित्र्सत्ता से ही उपाय नहीं निकले जा सकते!