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Spiritual Death


A few weeks ago I met an old lady
Eighty four she was, for death getting ready
Her body fragile, her energy feeble
Her mind clear, her soul nimble.

Lived a good life, she said
Now its time to go, be dead
Why fear death and go screaming
When I am grateful, gloating, gleaming
My body is weak, its job is done
No point in staying, its time to run
If I hang on, I'll deteriorate and drown
Quit while ahead, go with a saintly crown.

She glowed with the light of a saint
Though her eyes dim, her voice faint
She was a walking inspiration
In spite of her failing respiration
For she showed how to let go, release
Without bitterness, remorse, with perfect ease.
For to die is to be born anew
Out of this womb where foetal spirit grew
And to let go, is so much power
Freedom to live life in every hour.

And now in a much smaller way
I prepare my own spirit, I pray
For a spiritual death of some sort
To release my soul from this material court
And to die to all that I've ever known
If God wills, they can all be away thrown
And if I'm honoured and seated upon a throne
So be it, and so be it if there is nothing shown
For to die, I will simply die
Anything else is futile to try.

Friends say there will come resurrection
For this is the way of creation
Some say all will be all right
Just make sure you keep your head light
Others want to save me from me
They're concerned where my senses did flee
But I know any expectation
Is not death, only playful temptation.

For to die means to let go
To go forth, where to, I don't know
To a place where all is simple, bear
Perhaps far, where no one will care
Perhaps there will be no milk or honey
And a place where I'll have no money
Poverty, riches, dearth or wealth
Difficulty, ease, sickness, health
I know not, but it matters not
For to let go, means let go of the lot
And detach from expectations all
Good or bad, enter God's Great Hall.

And in these last few days of mine
When the life I know is on the line
All I see, hear, and feel is fine
Everything tastes as sweet as wine.

I cry, my own death I mourn
I'll miss the life I've outworn.

Everything looks sharper than before
Oh my god, how I crave for more
And I know days are going fast
And I know this will not last
I try to put my affairs in order
When I die, they should not falter.

And upon this journey I embark
I descend into the deep dark
And if I return untouched
All things that I have watched
Would have changed me already
I remain calm, steady.
If I return transformed
Any visions I've now formed
Would matter not for they shall change
So why create futile challenge.
And if I do not return at all
No matter how events befall
I gladly surrender to the will of God
I trust in God's plan, no matter how odd.

And let it be known that in my insanity
A mystic lies, far from vanity.
The mystical love compulsively drives
A flame that on the candle wax thrives
And in this death the only thing that survives
An intense glow, a bright light for expansion strives
And it expands to embrace all that is
And if it fails, it fails, be gentle please.

प्यार : मैंने नहीं किया होगया


आज का दिन बड़ा मज़ेदार था हमारी एक पार्टनर एन जी ओ है (नाम बताना ज़रूरी नहीं) वहां अक्सर बैठता हूँ या ये कहिये की दिल्ली में वही मेरा ठिकाना है खैर वहां एक केस आया हुआ था एक लड़की जो करीब २०-२२ की होगी घर से भाग कर आई थी उसके मान बाप उसकी शादी करवाना चाहते थे और वो शादी करना नहीं चाहती थी! इमानदारी से कहूँ तो खुबसूरत थी वो बिलकुल बार्बी के जैसी प्यारी 
वो पढ़ना चाहती थी मगर उसके पिता ने दूसरी शादी करली थी और उसकी माँ अपने पति से अलग रह रही है! लड़की के पिता उसकी जल्दी शादी करवाना चाहते हैं जिसके लिए उसका भाई जोर लगा रहा है 
तू कहे अगर 
लड़की ने बताया की वो उसे और उसकी माँ को इस के लिए मार पित भी चूका है! लम्बे काउसेलिंग सेशन के बाद भी मैडम ऋतू गुप्ता (कौन्सेलर हैं कभी इनके बारे में भी बताऊंगा) मामले को समझ नहीं पा रही थी! यूँ तो नैतिकता का तकाजा है की मुझे इस मामले में सीधे हाथ नहीं डालना चाहिए मगर जी नैतिकता और हम दो अलग चीजें हैं! सो डाल दिया मैंने भी अपना हाथ बात शुरू की तो बात समझ आई लड़की को किसी लड़के से इश्क था! मगर वो बताने से डर रही थी की शायद उसके इस "गलत काम" में हम उसका साथ नहीं देंगे! घर से भाग कर आई थी सो उसका अंतिम सहारा हम लोग ही थे! केस का क्या हुआ इसको यहीं छोड़ दीजिये वैसे अब वो लड़की अपने पसंद के लड़के से शादी करेगी और उसके माँ बाप उसकी शादी की तैय्यारी 
बित्ते भर का लौंडा (लड़की का भाई) अब भी गुस्से में है और शायद उसके हाथ से चलने वाला पत्थर मेरा सर भी फोड़ेगा! मगर सोचिये की आखिर अपनी बड़ी बहन और माँ को पीटने वाले इस बच्चे पर मर्द होने और बन्ने का कितना ज़बरदस्त दबाव है समाज का! उसका विरोध महज़ इसी लिए है न की लड़की ने खुद किसी को पसंद क्यों किया! 
आपको क्या लगता है की हम उस लड़की की शादी करवा कर मोर्चा फतह कर लेंगे मुझे नहीं लगता सच तो है की हम हार रहे हैं! मैं जानता हूँ उस लड़के की मानसिक स्थिति पर इसका ज़बरदस्त प्रभाव होगा! अब जबकि उसके माँ बाप अपने बेटी के फैसले में साथ आने को तैयार हैं तब भी वो बच्चा विरोध कर रहा है! हो सकता है इसको कहा जाए की वो मर्दवादी वर्चस्व वादी है मगर नहीं मै ऐसा नहीं सोच रहा! मै परेशां हूँ की उसके हर क़दम को हमारा समाज संचालित कर रहा है! ऐसे में बड़ी दुविधा है मैं उसके साथ बैठ कर बात करना चाहता हूँ उसे इस द्वन्द से निकलने में मदद करना चाहता हूँ मगर वो मेरी शकल भी देखना नहीं चाहता! हाँ उसकी मासी इसमें उसकी बड़ी समर्थक हैं उन्होंने ने धमकी की पावती भी भेजी है! 
अब दूसरी बात की लड़की ने प्रेम को "बुरा काम" क्यों समझा! मुझे घिनौना लगा आखिर प्रेम को बुरा समझना क्या ज़रूरी था! मैंने पूछा अच्छा तो तुमने ये "बुरा काम" किया ही क्यों ?? मासूमियत भरा शाश्वत जवाब आया मैंने नहीं किया होगया 
मेरा सवाल गलती किसकी है उसका जवाब मेरी 
मुझे गुस्सा आया मगर संभल गया आखिर २० २२ की बच्ची प्रेम का दर्शन क्या जाने जो शाश्वत था सो हुआ क्यों हुआ कैसे हुआ वो कैसे समझती तथाकथित सभ्य समाज इतना समझने की इजाज़त कहाँ देता है 
मैंने उससे कहा तुमने बुरा काम नहीं किया! तुमने प्यार किया और प्यार इश्वर का सबसे अनमोल तोहफा है! इसको ऐसे ही समझो 
तुमने जो किया उससे परंपरा टूटी है! मगर वो रोज़ टूटती है अब भला तुम्हारी दादा कहाँ बैठे थे मेट्रो रेल पर 
एक लम्बा लेक्चर झाड दिया (मै तो कोई मौका हाथ से नहीं देता :p)  

हम्म्म आप ज़रा सोचिये प्रेम को बुरा काम क्यों कहा उसने........मै  अब बात घुमाकर खुद पर लाता हूँ! मेरे अक्सर शुभचिंतक मुझे प्रेम पीड़ित और किसी की बेवफाई का शिकार समझते हैं! मगर सच तो ये है की  मै प्रेम पीड़ित नहीं प्रेम का प्रचारक हूँ! जबसे सम्मान हत्याओं का दौर चला है तब से हर प्रकार से विरोध कर रहा हूँ! अब वो प्रेम में विलीनता के दर्शन की बात हो या सेक्स की आज़ादी की! विरह वेदना की या की और भी किसी प्रकार की 
और हाँ मेरी  एक गर्ल फ्रेंड भी है! अपन अपनी कवितायेँ सिर्फ उसी के लिए लिखता है! और किसी से शेयर भी नहीं करता! 
सो मित्रो इश्क करो जम के करो अपन लोग साथ हैंआपके , जम के करो अंतरजातीय अंतर धार्मिक समलैंगिक यार जिससे हो जाए उससे करो, मगर इश्क ऐसा करो की खुदा सजदा करे....... धरम/समाज की माँ की सा का ना की 
एक शेर भी सुन लो 
उदासिया जो ना लाते तो  और  क्या  करते / ना  जश्न-इ-शोला  मनाते तो  और  क्या  करते /अँधेरा  मांगने  आया  था  रौशनी  की  भीख  हम  अपना  घर  ना  जलाते  तो  क्या  करते/
 
यहाँ का माल चोरी किये जाने योग्य है तो कीजिये वरना मै तो आपका कर ही लूँगा 

मैं खान हूँ और आतंकवादी भी


मन्दिरा  
इंसान दो तरह के होते हैं! अच्छे  लोग  और  बुरे लोग........मगर इतना भर कह देने से सब कुछ ठीक नहीं होजाता! दुनिया रंगीन है यहाँ कई रंग है और जिसको सिर्फ सफ़ेद और स्याह दिखे वो अँधा ही कहा जाएगा! इसलिए मंदिर सच कहूँ तो इस दुनिया में अच्छे लोग और बुरे लोग नहीं होते....बीच में रखी मेज़ तय कर देती है की अच्छा कौन है और बुरा कौन 
हाँ मंदिर मै खान हूँ एक पठान एक मुसलमान और ये पहचान मुझे बहुत प्यारी है! कुबलय खान, चंगेज़ खान और लोदियों मुग़लों के बाद रविन्द्र बाबू के काबुलीवाले तक का सफ़र तकलीफदेह रहा है मगर स्वाभिमान से समझौता तो कभी नहीं किया! मगर अब तुम चाहती हो की मै अमेरिका के राष्ट्रपति से जाकर कहूँ की मैं खान तो हूँ मगर आतंकवादी नहीं 
और तुम्हें क्या लगता है मन्दिरा की "मिस्टर प्रेसिडेंट के मान जाने  पर तुम्हारा जिसे मैं अपना भी बेटा और दोस्त समझता था लौट आएगा! या लोग मुझसे प्यार करने लगेंगे नहीं मंदिरा मुझे ऐसा नहीं लगता                            
कल  सड़क  पर  चलते  हुए  किसी  ने  मुझे  टेररिस्ट  कह  दिया  तब भी मुझे  तुम्हारी  याद  आ  गयी  तुमने  भी  तो  कहा  था ...मगर  फर्क  रहा  मंदिरा  मैंने  इस  बार  उसका  मुंह  तोड़  दिया  ताकि  उसे  टेररिस्ट  का  सही  मतलब  पता  चल  जाए.......उसके ज़ख्म को देख कर लगा की तुमने मेरे अन्दर इससे भी कहीं गहरा ज़ख्म दिया है मंदिरा.............
तुम ने किसी भी मकसद से कहा हो मगर तुम्हारे उस वाक्य ने मुझे लगातार सोचने पर मजबूर किया है मंदिरा ये कोई पहली बार नहीं था की मुझे आतंकवादी कहा गया और पूरी दुनिया के मुस्लिम आतंकी संगठनों के नाम गिना दिए गए मगर तुर्की सिंगापूर मलेशिया जैसे उदाहरण कोई नहीं देगा मैं जानता हूँ!  तुमने तो बहुत कुछ पढ़ा भी है भला मुसलमान क्या महज़ हिंदुस्तान पाकिस्तान और बंगलादेश भर में ही हैं! 
नहीं मंदिरा मैं दुखी नहीं हूँ डरता भी नहीं हूँ 
इस गंघोर अन्धोरों से डर गया तो कल की सुबह का नज़ारा कौन देखेगा! 
सच कहूँ तो तुम्हारी बातों ने मुझे प्रेरित किया है मगर अमेरिका की राष्ट्रपति को " मैं खान हूँ मगर  आतंकवादी नहीं हूँ" नहीं कहने जा रहा हूँ 
मै किसी भीख पर जिंदा नहीं रहना चाहता मै हर किसी को अपनी देशभक्ति और अहिंसक होने का प्रमाण देता नहीं फिरूंगा! मैं नहीं कहूँगा की मुझे उससे नफरत है जिससे तुम करते हो
मगर तुमसे वादा है मंदिरा मैं उनसे मिलूँगा ज़रूर और कहूँगा "अपना तरीका बदलें वरना उनका नामो निशा मिट जाएगा " 
मंदिरा अगर तुम्हें लगता है की मै आतंकवादी हूँ या मेरा नाम तुम्हारे बेटे की मौत की वजह है तो मैं तुम्हें बता दूँ की वो राठौर होने पर भी मारा ही जाता आस्ट्रेलिया में मारे गए लोग खान नहीं थे मंदिरा............  
इंसान बिहारी होने भारतीय होने या खान, सिंह होने या काले या गोरे होने लड़की या लड़का होने  किसी भी वजह से मारा जासकता है !
हम इंसानों ने इतने भेद इतने वर्ग बना दिए हैं की अब इस दुनिया पर शांति मुश्किल दिखती है, तुम जिससे प्यार करती थी वो तुम्हारी अपनी जाती धर्म का ही तो था उसी ने तुमको छोड़ दिया! तुम्हारे जैसा ही हूँ मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ मगर कहाँ "देखो ना हमारे बीच भी दीवार बन गयी" और जब वो तुम्हें छोड़ कर गया तो किसने सहारा दिया तुम्हें उन्हीं लोगों ने जिन्होंने तुम्हारे बच्चे को मार दिया! एक पल में दुश्मन दुसरे में दोस्त 
अजीब दुनिया है मंदिरा इस जटिलता को तुम जाने कैसे बर्दाश्त कर लेती हो मैं नहीं कर पाता! 
लोग मुझे असहज कहते हैं मगर उनकी असहजता देखकर तो मुझे बड़ा ताज्जुब होता है मंदिरा 
लोग मेरे व्यवहारिक ना होने पर हँसते हैं! मगर उनकी व्यवह्रिकता तो देखो कितनी द्वंदों से भारी है! हर बात को वर्गों में बाँट कर देखते हैं फिर उकता कर समूह बनाते हैं! लड़ते रहते हैं 

मंदिरा शायद तुम्हें याद होगा या ना भी हो तुम्हें याद भी कहाँ रहता है कुछ अक्सर मेरे मैसेज या फोन का जवाब देना भूल ही जाती थी तुम, तुम्हें कहाँ याद रह पाता था की तुम्हारे इंतज़ार में मैं दूसरों से घंटों चैट कर लिया करता था! मगर कोशिश करो तो शायद याद आजाये "तुम्हे दर्जी में मैं दीखता था" मै वर्ग बांटना नहीं चाहता मगर सोचो कहाँ दर्जी और कहाँ आतंकवादी
मंदिरा  मुसलमान का मतलब दर्जी नहीं होता! मुसलमान हमेशा दाढ़ी रखने वाले को ही नहीं कहते मुसलमान मेरी तरह क्लीन शेव भी हुआ करते हैं और सच तो ये है की ज़्यादातर मुसलमान क्लीनशेव ही हुआ करते हैं! और हर दाढ़ी वाला भी मुसलमान नहीं अब देखो ना पंजाब के सी एम् प्रकाश सिघ बादल भी तो लम्बी दाढ़ी रखते हैं! और कई साधू भी! जेठ की दोपहर में पैदा होने का ये मतलब नहीं की पूस की रात नहीं आएगी 
तुम्हें समझाना भी बड़ा मुश्किल काम है और खासकर मेरे लिए जाने कब अकल आएगी तुम्हे! 
मैंने भी अपना बेटा खोया है और इसका दुःख है और हमेशा रहेगा! और मैं अपने गुस्से को अपनी आग बनाऊंगा! मैंने तुम्हें अपनी पहचान से नहीं तोडा तो तुम क्यों तोडना चाहती हो
अगर तुम्हें लगता है की खान आतंकवादी होने का पर्याय है तो बेशक तुम मुझे आतकवादी मानो मुझे कोई आपत्ति नहीं

तुम्हारा 
रिजवान 

लड़कियों की खरीद फरोख्त पर चुप्पी क्यों


हरियाणा राजस्थान और पंजाब में शादियों के नाम पर लड़कियों को खरीद कर लाये जाने की कथा  अब काफी पुरानी हो चुकी है! और इसके साथ ये बात भी की शादी के नाम पर जिन लड़कियों को ख़रीदा जा रहा है वो सब पूर्वी उत्तर प्रदेश बिहार झारखण्ड पश्चिम बंगाल आसाम और आन्ध्र प्रदेश के मुस्लिम बहुल इलाकों से लायी जा रही हैं! और ज़ाहिर तौर पर ज़्यादातर मासूम मुस्लिम लडकियां हैं जो अपहरण या धोखाधडी  से बेच दी जा रही हैं!   ये लिखते दुःख होता है की शायद इसी लिए इस मुद्दे पर सरकार की आँख नहीं खुलती! और लव जेहाद के मिडिया प्रोपगंडा पर मुहर लगाने वाले कोर्ट भी चुप्पी लगाये बैठे हैं! ये सोच कर भी ताज्जुब होता है की औरतों और बच्चों की खरीद फरोख्त के रोकथाम करने के लिए हज़ारो गैर सरकारी तंजीमें काम करती हैं वो उन इलाकों का रुख भी नहीं करती जहाँ ये 14-15 साल की लड़कियां अपने ४०-५० सालों के तथाकथित शौहरों की हवस का शिकार बन रही हैं और मज़ा ख़तम होने पर ठिकाने लगा दी जा रही हैं! 

इसी साल फ़रवरी में १५ साला कश्मीरा खातून को गाज़ियाबाद के लोगों ने पुलिस के पास पहुचाया! वो ना हिंदी समझ पा रही थी और ना ही बोल पारही थी! क्योकि वो कहाँ की है ये उसे भी पता नहीं हमने महज़ उसकी भाषा से ये अंदाज़ लगाया गया की वो बंगाल या आसाम की है और उस लड़की ने जो बताया वो किसी भी इंसान का रोंगटा  खड़ा कर देने के लिए काफी है ! कश्मीर को नौकरी दिलाने के लिए उसके बाप को बीस हज़ार रूपये देकर लाया था और फिर उसे यहीं बेच दिया! तथाकथित तौर पर उसकी शादी हुयी जहाँ उसे शराब पीने और मर्दों की महफ़िल में  नाचने के लिए मजबूर किया जाता रहा! और हमेशा घर के कमरे में बंद करके रखा गया!  दिमाग़ी तवाजुन खो चुकी इस लड़की को ये याद नहीं की उसे कहाँ कहाँ और किस किस से बेचा गया! लेकिन जब इसे एक बार फिर आन्ध्र प्रदेश में बेचने की कोशिश में गाज़ियाबाद लाया गया तो वो सड़क पर निकल आई जहाँ बंगाली गार्ड सुजल और राजू ने उसे पुलिस तक पहुचाया!   
अस्थायी आश्रय गृह में रह रही इस लड़की के मामले की जांच गाज़ियाबाद पुलिस कर रही है मगर ये जाँच कबतक पूरी होगी ये पता नहीं! 
ऐसे मामले एक दो नहीं सैकड़ों हैं जिनमे लडकियां शादी के नाम पर खरीदी और बेचीं जा रही हैं लेकिन इनमे ज्यादा तर लडकियां मुसलमान हैं ! दिल्ली में शादी के नाम पर आने वाले लोग चाहे कितने ही मासूम क्यों ना दीखते हों सबके सब लड़कियों के सौदागर हैं जो चाँद रूपये के लिए लड़कियों को खरीदने बेचने का धंधा कर रहे हैं! जिनसे होशियार रहने की ज़रूरत है! 
आंकड़ों की बात करें तो हरियाणा के जाट इलाकों में बाहर से खरीद कर लायी गयी लड़कियों जिन्हें यहाँ मोलकी (खरीदी हुयी) कहा जाता है जिनकी तादाद लगातार घटती बदती रहती है! यहाँ शादी के लिए लड़कियों की कमी को जिम्मेवार बताया जाना बिलकुल ही झूठा प्रोपगंडा है! और एक घडी को सही मान भी लीजिये तो आखिर इन लड़कियों से शादियाँ की जाती है तो फिर इन बहुओं को मोलकी कहने का क्या तुक है और फिर जहाँ लड़कियों की कमी है वहां दहेज़ इतना ज्यादा (देश में सबसे ज्यादा) क्यों है?  ज़ाहिर है लड़कियों के कम होने की बात कह कर अय्याशों को खुली छुट दी गयी है! 
आपको ताज्जुब होगा की इतने गंभीर मसले के बावजूद हरियाणा पंजाब और राजस्थान में सिर्फ एक ही संस्था इम्पावर पीपुल ही है जो काम कर रही है और जितनी भी संस्थाएं हैं वो दुसरे तमाम मुद्दों पर तो काम करती हैं मगर इस मुद्दे को छूना भी नहीं चाहतीं! यही हाल सरकार का है! 
और मेरी और मेरे साथियों की तमाम कोशिशों के बावजूद दिल्ली के बड़े संगठनों ने भी इन मामलों पर हाथ डालने से इनकार करते रहे हैं! ज़ाहिर है सरकार और पुलिस से उम्मीद तो करनी भी बेकार है! कम उम्र की लड़कियों की खरीद फरोख्त्त की खबर पर पुलिस हमेशा खतरनाक इलाका और क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगा भड़कने की बात करके चुप बैठने की सलाह देती है!
अफ़सोस से कह रहा हूँ की पश्चिम बंगाल के दक्षिण २४ परगना जिला से ८ मई २००९ को अपहृत की गयी लड़की लक्ष्मी जो अभी राजस्थान के अलवर सदर थाना के एक गाँव में कंजर परिवार में है को जनवरी में ही सारी जानकारी जुटालेने के बावजूद आज तक मुक्त नहीं करवा सके हैं ! क्योकि पुलिस बंगाल पुलिस को बुलवाना चाहती है है और बंगाल पुलिस आने का खर्चा मांग रही है! १६ साल की वो मासूम अब एक बच्चे की माँ भी बन चुकी है ! इस साल  फ़रवरी में जब मेरी टीम की एक साथी ने उससे उसके पति का नाम पूछा तो लड़की रो पड़ी उसे अपने पति का नाम तक नहीं पता वो तीन लोगों की बीवी है और साथ ही साथ दुसरे रिश्तेदारों के हवस का भी शिकार बन रही है! मगर हम अपनी मजबूरियों के बंधन में उस को नहीं छुडवा सकते 
मगर कोशिशें जारी हैं जो रंग लायेगी! ऐसे ही एक मामले को २५ अप्रैल को हल किया गया और राजस्थान के करौली  के एक दलित परिवार से १६ साल की ममी खातून को छुड्वाया गया वो भी बिना पुलिस की मदद लिए  कुछ साथियों और आसपास की आबादी की मदद से! और इस मामले में इस लड़की ने बहादुरी दिखाते हुए गाँव से भाग कर बाज़ार तक पहुची जहाँ से हमारे साथियों ने बाज़ार की भीड़ की तरह उसे मुस्लिम बस्ती तक पहुचाया और फिर वहां से आम जनता की भीड़ ने स्थानीय महिला संगठन के पास! जहाँ से लड़की को सुरक्षा गृह में भेज दिया गया! उसे जल्दी ही उसके घर भेज दिया जाएगा 
पिछले पञ्च सालों से इस मामले पर काम करते हुए मै आज ये लेख अपनी हताशा में लिख रहा हूँ ! इतने दिनों में सरकारों  अदालतों  और तमाम सामाजिक संगठनों की चुप्पी तो समझ आगई मगर सामाजिक नेतृत्त्व और समाज की चुप्पी समझ नहीं सका 

हम लिखते क्यों हैं?

हम लिखते क्यों हैंमैं कल्पना करता हूं कि हममें से प्रत्येक लेखक के पास इस सीधे-सादेप्रश्न का अपना उत्तर है। किसी के पास [लेखन-संबंधीपूर्वानुकूलन का गुण है तो अन्य केपास अनुकूल परिवेश है। कोई लेखक ऐसी प्रेरक परिस्थितियों में है तो किसी लेखक की अपनीकमियां भी जिम्मेदार हैं। यदि हम लेखन-कार्य कर रहे हैं तो इसका तात्पर्य है कि हम सक्रियकर्म से नहीं जुडे हैं। चूंकि हम यथार्थ से टकराहट के फलस्वरूप स्वयं को कठिनाई से घिरापाते हैंअतहमने [लेखन-कार्य के रूप मेंअपनी प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति के लिए एकअन्य मार्ग चुन लिया हैपरस्पर संवाद हेतु एक दूसरा रास्ता खोज लिया है। जब मैं उनपरिस्थितियों पर गौर करता हूं जिन्होंने मुझे लिखने की ओर प्रोत्साहित किया था तो यह मात्रआत्मविष्ठ होना नहीं है बल्कि इसमें वस्तु-सत्य को स्वीकार करने की आकांक्षा निहित है। मैंस्पष्ट रूप से देख पाता हूं कि मेरे लिएसभी प्रकार सेलेखन का आरम्भिक बिन्दु थायुद्ध।युद्ध उस अर्थ में नहीं [उस विशिष्ट संदर्भ में भी नहींजिसमें किसी विशेष कालावधि में कोईबडी परिवर्तनकारी घटना [क्रांतिघटित होने के फलस्वरूप ऐतिहासिक घटनाओं को आकारमिलता है। उदाहरणस्वरूपवाल्मी की युद्ध भूमि पर फ्रांस की सेना का अभियान लिया जासकता है जिसके जर्मन-पक्ष के बारे में महाकवि गेटे का वर्णन है जबकि फ्रान्को ने सैनिकक्रांतिकारियों के पक्ष में लिखा है। अवश्य ही वह समय पूर्णरूप से अत्युल्लास के साथ-साथकरुणाजनक भी रहा होगा। किन्तु मेरे लिए नहींक्योंकि युद्ध का अर्थ मेरी दृष्टि में वह है जिसेसामान्य नागरिक अनुभव करते हैंजिससे सर्वप्रथम और सर्वाधिक तौर पर बहुत छोटे बच्चेप्रभावित होते हैं। मेरे लिए युद्ध कभी भी ऐतिहासिक महत्व की घटना की प्रतीति नहीं बन सकाहै। [उपर्युक्त संदर्भित युद्ध काल के दौरानबच्चे भूखे रहते थेडरे हुए थे उदासीन हो गएथे-यही सारी वास्तविकता थी।मेरी स्मृति में उस घटना की कोई विशेष और सुस्पष्ट प्रतिच्छायानहीं है। तथापिमुझे अच्छी तरह से स्मरण है कि कागज और स्याही के अभाव में मैंने अपनेप्रथम रेखाचित्रों का अंकन एवं पुस्तक-पाठों का लेखन राशन-कार्डो के पृष्ठ भाग पर एक बढईकी नीली-लाल पेंसिल का उपयोग करते हुए किया था। इसी कारण रफ कागज एवं साधारणपेंसिलों के प्रति मेरा कुछ लगाव शेष रहा। बच्चों के लिए लिखी पुस्तकों के अभाव में मैंनेउपलब्ध शब्दकोष पढे। वे अद्भुत प्रवेश-द्वार के समान थे जिनसे गुजरते हुए जैसे ही मेरा ध्यानफोटोग्राफिक प्लेटोंमानचित्रों तथा अपरिचित शब्दों की तालिकाओं पर केंद्रित हुआमैं संसारकी खोज में प्रवृत्त हो गयाघुमक्कड बना और दिवास्वप्नों में विचरण करने लगा। जब मेरीआयु 6 या 7 वर्ष की थीमैंने अपनी पहली कविता लिखी जिसका शीर्षक मुझे याद नही ! इसके तुरंत बादकविता रूप में चौहान नामक एक काल्पनिक राजा की जीवनी आयी। तब एकप्रश्न मन में घुमड आया थाक्या यह मगध का राजा हो सकता था? या कोई जन आकांक्षा का प्रतिनिधि ये लालू प्रसाद या जगरनाथ मिश्रा हो सकते थे ? इसके पश्चात सीगल [समुद्री पक्षी]द्वारा वर्णित एक कथा-रचना का भी प्रणयन हुआ। मेरा वह समय विराग के वातावरण से ग्रस्तथा। बच्चे शायद ही कभी घर की चौहद्दी से बाहर खेलने के लिए जा पाते थे क्योंकि मेरे घर केआस-पास के खेतों और बगीचों में भू-सुरंगें बिछी हुई (नक्सालियों और सी.आर.पि.ऍफ़ के घेरे भू सुरंगों से अलग कैसे मानी जाती ) थीं। मुझे स्मरण है कि एक दिन जब मैं घर से बाहरजाकर टहल रहा था मैंने एक ऐसा बाडा [एन्क्लोजरदेखा जो चारों ओर से तार की जाली सेघिरा हुआ था। बाडे के बाहरी भाग [फेन्सपरहिन्दी और इंग्लिश भाषाओं में लिखा एकनामपट्ट था जिसमें अनाधिकृत प्रवेश करने वालों के विरुद्ध चेतावनी अंकित की गई थी औरजिसको पूरे तौर पर स्पष्ट करने के लिए उस नामपट्ट पर खोपडी का चित्र भी अंकित था। इसदृष्टि से यह समझना सहज है कि उसका आंतरिक आग्रह है अपना कोई बचाव का रास्ताखोजे। अतकोई लेखक स्वप्न देखे और फिर उन स्वप्नों को अपने लेखन के माध्यम सेअभिव्यक्त करे। मेरी नानी भी एक अद्भुत कथा-वाचक थीं और उन्होंने कहानियां सुनाने हेतुदिन के लम्बे तीसरे पहर का समय निर्धारित कर रखा था। वे कहानियां सदैव बडी कल्पनाशीलहोती थीं। वे जंगल [संभवतवह जंगल के परिवेश पर केंद्रित होती थीं जहां मुख्य पात्र एकशातिर दिमाग वाला बन्दर था और जो उछलते-कूदते तमाम प्रतिकूल  संकटपूर्णपरिस्थितियों के बीच अपने बचाव का मार्ग तलाश लेता था। उसके फलस्वरूप जो अनुभवऔर जानकारी मुझे प्राप्त हुई वह भले ही मेरे भविष्य में विषय-वस्तु नहीं होंगे तथापिमेराएक अलग दूसरा व्यक्तित्व अवश्य बन गयाएक दिवास्वप्नी व्यक्तित्व जो कि पहले व्यक्तित्वके साथ-साथ उसी समय वास्तवितकता से भी सम्मोहित था। यह दूसरा व्यक्तित्व जीवन मेंमेरे साथ जुडा रहा है। इसने मेरे अन्तर में एक अन्तर्विरोधी आयामस्वयं में अजनबीपन केभाव की स्थापना की है। अजनबीपन का यह भाव समय-समय पर मेरी पीडा का आधार भीरहा है। जीवन की धीमी गति के चलते इसने मेरे अस्तित्व के बेहतर अंश का उपयोग इसअन्तर्विरोध के महत्व को समझने के लिए कर लिया है।

किधर जायें कैसे जियें


भारत की आजादी के समय ही गांधी ने अलग मॉडल की परिकल्पना की. वह मानते थे कि आधुनिक सभ्यता, समानता या समता की बात तो करेगी, पर वह कभी साकार नहीं करेगी. गांधी मानते थे कि भारत का पुनर्निर्माण आधुनिक सभ्यता के आधार पर संभव नहीं है. कारण आधुनिक सभ्यता, आधुनिक टेक्नोलॉजी की देन है. आधुनिक सभ्यता और आधुनिक टेक्नोलॉजी का संबंध अविच्छिन्न है. और यह सारे असंतुलन की जड़ है.

यह खबर ‘द वाल स्ट्रीट जरनल’ में छपी. 17 अप्रैल 2009 को. एक मित्र ने ईमेल से भेजा. बदलती दुनिया का प्रतिबिंब है, यह खबर. आधुनिक सभ्यता, संस्कृति और विकास के पश्चिमी मॉडल के टूटने-बिखरने का संकेत भी. खबर छोटी है, पर असाधारण. क्या पूंजीवाद (मार्केट इकोनमी) के अंतर्विरोध और मंदी ने दुनिया को एक नये बंद दरवाजे पर ला खड़ा किया है? साम्यवाद के अंतर्विरोध ने तो रूस को तोड़ दिया. चीन मार्केट इकोनमी और निजी संपत्ति के विकास माडल पर चल पड़ा. क्या यह मंदी किसी बड़े परिवर्तन की आहट है? इस अर्थ में यह खबर ओबामा की जीत से भी महत्वपूर्ण है. संभावनाओं से भरे, नये भविष्य के द्वार पर पहंचने की सूचना देती.

खबर क्या है? शीर्षक है, ‘गुडबाय ब्लैंड एफ्लूयेंस’ (अलविदा ! प्रिय अमीरी-समृद्धि). खबर लिखने वाली हैं, पेगी नूनआन. शीर्षक से ही स्पष्ट है कि जो समाज बहतायत में जीता था, अमीरी जिसकी रगों में बसी थी, जो दौलत और समृद्धि के कारण भोग और विलास की दुनिया में डूबा था, अब उसे वह छोड़ रहा है. सिर्फ़ मंदी ही इसका कारण नहीं है. खबर के अनुसार यूएस टुडे में मिशिगन के एक परिवार का विवरण छपा. वित्तीय दवाब के कारण इस परिवार के सदस्यों ने क्रेडिट कार्ड लौटा दिये. याद रखिए, अमेरिका में क्रेडिट कार्ड जीवन जीने का पर्याय है. घरों से सेटेलाइट टेलीविजन को अलविदा किया. अत्यंत मंहगे, हाइटेक खिलौने से बाय-बाय किया. मंहगे होटलों, रेस्टूरेंटों में जाना बंद कर दिया. वोजटाआइज परिवार ने यह कदम उठाया. इस परिवार के तीन सदस्य हैं. पैट्रिक (36 वर्ष), पत्नी मेलिसा (37 वर्ष), पुत्री गैब्रिले (15 वर्ष). संवाददाता जूडी किन के शब्दों में यह परिवार 21वीं सदी का ‘होमस्टीडरस’ (वास भूमि) बन गया है, मुर्गी और सूअर पालन, खेतीबारी और बढ़ईगीरी का काम. इस निर्णय के पीछे महज ओर्थक मंदी नहीं है. इस परिवार के सदस्य महसूस करते थे कि मौजूदा जीवन पद्धति में परिवार के हर सदस्य का मिलना कभी-कभी होता है. फ़िर आत्ममंथन शुरू हुआ कि इस जीवन का मकसद क्या है? साथ रहने का आनंद कहां है? समय की मारामारी अलग. इन लोगों ने पाया, जीवन, व्यस्तता, अकेलापन और भागमभाग का पर्याय नहीं है. फ़िर इस परिवार ने जीने की राह बदल दी. दरअसल यह पश्चिमी जीवन पद्धति के प्रति संपूर्ण विद्रोह है, ऊब का परिणाम है. बहत पहले इसी अमेरिका में थोरो ने जीवन का नया प्रयोग किया था. ‘वाल्डन’ पुस्तक में इसका वर्णन है. वह जंगल गये. खुद खेतीबारी करने लगे. वषाब अपने ढंग से जीये. हाल में मास्को के एक सबसे संपन्न परिवार ने अपनी सारी संपत्ति बेच डाली. वह चला गया खेती करने. उसने मोबाइल से लेकर हर आधुनिक टेक्नोलॉजी से खुद को दूर कर लिया. इस परिवार का निष्कर्ष था कि संपत्ति ही यह होड़ या स्पर्धा, उपभोग की भूख, आधुनिक टेक्नोलॉजी पर ़बढ़ती निर्भरता, यह सब डीह्यमनाइज (अमानवीय) करने और संवेदनहीन बनाने के उपकरण हैं। इसलिए उस परिवार ने इस जीवन पद्धति पर ही लात मार दी। वह टॉल्सटाय के रास्ते चल पड़ा.

अमेरिका की इस खबर पर नेट पर बड़ी संख्या में लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की। अमेरिका में बड़े पैमाने पर लोगखेती, गार्डेिनग, बीज उपजाने, सिलाई सीखने जैसे कामों में लग रहे हैं. मैनहटन (न्यूयार्क स्थित) दरअसल न्यूयार्क का एक हिस्सा नहीं है, वह दुनिया में अमेरिकी समृद्धि का एक सिंबल भी है. दुनिया के बाजार पर उसका ओधपत्य रहा है. समृद्धि, उपभोग और फ़ास्ट जीवन का प्रतीक बन चुका न्यूयार्क बदल रहा है. यह न्यूयार्क दुनिया के समृद्ध लोगों का सपना रहा है. तीन बार न्यूयार्क देखना हआ. हर बार लगा, इस शहर की समृद्धि, चकाचौंध, जीवनशैली, तेजी, मन को लुभाते हैं. इंद्रियों को खींचते हैं. रीगन जब राष्ट्रपति बने, उन्हीं दिनों दार्शनिक कृष्णनाथजी का वहां जाना हआ. तब उन्होंने न्यूयार्क को जो दृश्य उकेरा था, आज भी सटीक है. ‘..सब कुछ जैसे क्रेजी, उन्मादी है, चेहरे तने हए हैं, बेचैनी है, बेकारी है. कीमतें बढ़ रहीं हैं. मुसीबतें भी. उनका असर चित्त पर भी है जैसे माथा गरम हो रहा है. चेहरे कठोर हो गये है. अंग जैसे िभचे-िभचे, लुंज. क्या यह लगता है कि अमेरिका के सबसे अच्छे दिन बीत गये?’इस बार भी विशेषज्ञ बता रहे हैं कि 1750 से 2008 तक का न्यूयार्क, जहां पूंजी खनकती थी, जहां जीवन का हर सौंदर्य, कला, आनंद, भोग डालर से उपलब्ध होते थे, पहली बार वह शहर खुद से सवाल कर रहा है कि हमारे होने की वजह क्या है? हमारा अस्तित्व है क्यों ? मंदी ने इस मुकाम पर पहंचा दिया है. विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि न्यूयार्क में कारें घट जायेंगी. भयावह बन गयी ट्रैफ़िक अब आसान हो जायेगी. पहली यात्रा में मैनहटन की गलियों में खड़ा हो कर, जब सिर आसमान में कर गगनचुंबी इमारतों को देखा था. ट्रैफ़िक का अनवरत स्वर सुना. स्वर कहें या गर्जन. चमकती नियोन लाइटें देखीं. मालूम हआ यह शहर सोता नहीं. अब विशेषज्ञ कह रहे हैं कि वह पुराना शोर नहीं रहनेवाला. रात में रहनेवाला उजाला भी अब कम होगा. अंधकार पसरेगा. लोग खर्च घटा रहे हैं. जीवनशैली बदल रहे हैं. वषाब पहले ब्रिटेन ने एक कमीशन बैठाया था. युवकों में क्रेडिट कार्ड के बढ़ते लत, प्रभाव- दुष्प्रभाव की जांच के लिए. उस कमीशन ने रिपोर्ट दी कि सस्ते में उपलब्ध क्रेडिट कार्ड यानी इजी मनी (उधार राशि) ने ब्रिटेन के काफ़ी युवाओं को खर्चीला, नशेड़ी और कर्जखोर बना दिया है. आत्महत्या के कगार पर ठेल दिया है. लगभग यही स्थिति अब क्रेडिट (उधार) पर जीनेवाली पीढ़ी की, अमेरिका में दिखाई दे रही है.दरअसल यह मंदी या ऐसे कदम लक्षण हैं. रोग कहीं और है. और गहरा है. बीमारी का स्र्ोत है, ओर्थक विकास का यह माडल, जिसमें लालच, लोभ, लूट को प्रोत्साहन मिलता है. भोग और उत्तेजना को प्रेरणा मिलती है. फ़ास्ट लाइफ़ आदर्श बनता है. अनैतिक बनना, और किसी कीमत पर सफ़ल होना, धर्म बन जाता है. जहां यह सब होगा, वहां परिवार टूटेंगे. संबंध टूटेंगे. संवेदनशीलता खत्म होगी. मानवीय रिश्ते टूटेंगे. बूढ़े उपेक्षित होंगे. छोटी बच्चियों और घर के बच्चों के साथ क्रूर घटनाएं होगीं. यह सब इस भागमभाग या ताबड़तोड़ संस्कृति की अनिवार्य देन है.इसलिए भारत की आजादी के समय ही गांधी ने अलग मॉडल की परिकल्पना की. वह मानते थे कि आधुनिक सभ्यता, समानता या समता की बात तो करेगी, पर वह कभी साकार नहीं करेगी. गांधी मानते थे कि भारत का पुनर्निर्माण आधुनिक सभ्यता के आधार पर संभव नहीं है. कारण आधुनिक सभ्यता, आधुनिक टेक्नोलॉजी की देन है. आधुनिक सभ्यता और आधुनिक टेक्नोलॉजी का संबंध अविच्छिन्न है. और यह सारे असंतुलन की जड़ है. पांच अक्टूबर 1945 को गांधीजी ने नेहरूजी को लंबा पत्र लिखा. उन्होंने लिखा कि हमारे दृष्टिकोण में अंतर है. पत्र लंबा और अत्यंत महत्वपूर्ण है. उसमें एक जगह गांधीजी ने लिखा,‘मेरी यह पक्की राय है कि अगर भारत को सच्ची स्वतंत्रता अर्जित करनी है और भारत के माध्यम से दुनिया को भी, तो देर-सबेर इस बात को कबूल करना होगा कि लोगों को शहरों में नहीं, गांवों में और महलों में नहीं झोपड़ियों में रहना होगा.. लेकिन तुम यह मत सोच बैठना कि हमारे गांवों का आज जैसा जीवन है, वैसे ही जीवन की बात मैं सोच रहा हं.. करोड़ों के लिए महलों का सवाल ही नहीं उठता, लेकिन करोड़ों लोग आरामदेह और अपटूडेट घरों में क्यों न रहें? इन घरों से वे सुसंस्कृत जीवन बिता सकते हैं’. यह पत्र लंबा है, पर गांधी के सपनों को बताता है. उस माडल की झलक देता है, जिसमें बौद्धिक, ओर्थक, राजनीतिक, नैतिक और सांस्कृतिक विकास संभव है.आज अमेरिका या पश्चिम के लोग मजबूरी में नयी सभ्यता-संस्कृति की तलाश कर रहे हैं. वहां गांधी में रूचि बढ़ रही है. पर भारत भोग के पीछे भाग रहा है. हमारे नेता कितने अज्ञानी, अधकचरे और बौद्धिक दृष्टि से दरिद्र हो चुके हैं कि जो बड़े सवाल और चुनौतियां आज देश के सामने हैं, आम चुनावों में उन पर चर्चा तक नहीं. भारत किस ओर्थक माडल को अपनाये? विलुप्त हो गये साम्यवाद को, ओझल हो रहे समाजवाद को या संकटग्रस्त बाजारवाद (पूंजीवाद) को? अब युवा पीढ़ी को यह तय करना है. पर ’90 तक के चुनावों में बड़े सवाल उठते थे. उनकी गूंज गांवों तक पहंचती थी. अब सवाल गायब हैं, क्योंकि भारत के शासक वर्ग ने स्विस बैंकों में सिर्फ़ धन ही जमा नहीं किया है, बल्कि अपने विचार को भी गिरवी रख दिया है

आकडों के खेल में आत्म हत्या और जीवन दर्शन

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर हम सत्रहवीं शताब्दी को पुनर्जागरण-काल, अठारहवी शताब्दी को पुनर्विवेचन-काल, उन्नीसवीं शताब्दी को उन्नयन-काल और बींसवी शताब्दी को चिंतन-काल और इक्कीसवीं शताब्दी को चिंताकुल अथवा चिंतातुर-काल के नाम से संबोधित कर सकते हैं । भौतिकवाद और सार्वभौतिक अर्थाभाव का दूसरा नाम है – 21 वीं सदी । अतएव मानव जीवन का अभावग्रस्त होना सर्वथा स्वाभाविक है । अभाव के फलस्वरूप व्यक्ति का चिंतातुर, चिंताव्यग्र अथवा मानसिक तनावग्रस्त होना बिलकुल स्वाभाविक है । आलस्य, नैराश्य, संत्रास, कुंठा, ऊब, अनिद्रा, विक्षिप्तता और अंततः आत्महत्या आज हमारे जीवन का आवश्यक अंग सा बन गया है । घर-द्वार, अंदर-बाहर, जाति-समाज, देश-परदेश, आस-पास, कार्यालय-वासालय इत्यादि प्रत्येक स्थल पर तनाव विद्यमान है ।जहाँ कहीं भी मनमोहक कार्य नहीं हो पाता वहीं मन उद्वेलित हो जाता है और इसी के साथ उत्पन्न होता है – ‘यत्नसाध्य महाप्रयाण’ विषयक कुत्सित विचार ।

न्याय पद्धति का यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि प्रत्येक समस्या का समाधान है । जिस कारण तनाव होता है उस मानसिकता से मुक्ति संभावित है । वास्तव में तनाव का एक कारण अभाव होता है और दूसरा दुर्भाव । तनाव की स्थिति में हम यह सोचने लग जाते हैं कि हमारी स्थिति अन्य अनेक व्यक्तियों की अपेक्षा कितनी अधिक दयनीय है, चिंतनीय है, निंदनीय है जबकि हमें यह सोचना चाहिए कि हमारी स्थिति अन्य अनेक व्यक्तियों की अपेक्षा कितनी अधिक आदरणीय है, प्रशंसनीय है, वंदनीय है । ऐसा सोचने मात्र से हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जो हमारी अपेक्षा दीन-हीन, अभाव-दुर्भाव, पस्त तथा त्रस्त है । जब कभी भी हम अपेक्षाकृत निम्न व्यक्ति की सहायता हेतु योजना बनाने लगें तब तत्समय हमारा तनाव बिलकुल शिथिल पड़ जायेगा और हम एक नए व्यक्ति की भाँति आचरण करने लगेंगे, क्योंकि तत्समय हम अपने आपको उत्कृष्ट श्रेणी वाले व्यक्तियों के मध्य स्थित पायेंगे, क्योंकि चिंता केवल उन्हीं व्यक्तियों को सताती है जो केवल स्वार्थी होते हैं परमार्थी व्यक्ति को स्वार्थ संबंधी चिंता करके तनावग्रस्त होने का समय ही नहीं मिल पाता ।

प्रत्येक अवस्था वाले व्यक्ति के तनाव के भिन्न-भिन्न कारण होते हैं । बालकों के तनाव के मुख्य कारण होते हैं – पालकों तथा अभिभावकों का प्यार न मिलना, मनभावन वस्तुओं से वंचित रखना, अन्य बच्चों के साथ उनकी तुलना करना, अन्य बच्चों की प्रशंसा करना, अनावश्यक रूप से डाँट-डपट करना इत्यादि । युवा मन में तनाव के मुख्य कारण होते हैं – अर्थाभाव, शिक्षण-प्रशिक्षण में असफलता, असफल प्रेम संबंध, अउद्यम आदि । वृद्धजन के तनाव के मुख्य कारण होते हैं – दुर्बलता, संतानहीनता, अकेलापन, संतान का अयोग्य, अनुशासनहीन तथा कुमार्गी होना इत्यादि । आज व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, दूषित वातावरण इत्यादि अनेक ऐसे कारण हैं जो मानव जीवन को अस्वाभाविक एवं अमानवीय बना रहे हैं । दरअसल सादा जीवन उच्च विचार को हम रूढिवाद और पिछड़ेपन की पहचान मान रहे हैं और झूठा स्वाभिमान तथा दिखावा को प्रगति का प्रतीक । फलतः हमारा जीवन नारकीय बनता जा रहा है और हम चाह कर भी उससे छुटकारा पाने में अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं । हमें ऐसी जीवन पद्धति अपनाना चाहिए जो तमाम तनावों से उत्पन्न अभिशापों से मुक्ति प्रदान करे । आत्महत्या कोई नई समस्या नहीं । यह सदियों से चली आ रही है, किन्तु वर्तमान में भारत में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में इसकी गति नये सिरे से क्रमशः बढ़ती ही जा रही है। अखिल विश्व में आत्महत्या की मात्रा व दर के सम्बन्ध में अब तक जो अध्ययन किये गये हैं तथा उनसे जो परिणाम व आँकड़ें प्राप्त हुए हैं उन्हें अधोलिखित शीर्षकों मे प्रस्तुत किया जा सकता है-

(1) विश्व
एक समय था जब न्यूयार्क के लगभग 108 वर्ष पुराने ब्रुकलीन ब्रिज तथा एम्पायर स्टेट बिल्डिंग (विश्व की सबसे ऊँची बिल्डिंग) आत्महत्या करने के लिए सर्वाधिक चर्चित थी, लेकिन अब तो अमरीका आदि देशों में पिस्तौल, बन्दूक बगैरह इतनी सहजता के साथ मिल जाते हैं कि कोई भी सामान्य व्यक्ति इस प्रकार के शस्त्रों को खरीदकर बड़ी आसानी से आत्महत्या कर लेता है। आज स्थिति यह है कि पूरे विश्व में प्रतिदिन केवल आत्महत्या के लगभग 1100 (एक हजार एक सौ) प्रकरण दर्ज किये जाते हैं।

(2) भारत :
भारत में प्रति 12 मिनट में एक आत्महत्या होती है। समूचे देश में सन् 1968 सन्1969 एवं 1970 में क्रमशः 40638, 43633 एवं 48428 आत्महत्याएँ हुई । सन् 1990 में भारत में कुछ करीब 49000 आत्महत्याओं के प्रकरणों में जहर तथा नींद की गोली खाकर मरने वालों की संख्या 10500, गले में फाँसी डालकर मरने वालों की संख्या 10000, कुआँ, तालाब, नदी तथा समुद्र में डूबकर मरने वालों की संख्या 7203, रेल से कटकर आत्महत्या करने वालों की संख्या 2700,मिट्टी तेल तथा पेट्रोल छिड़ककर व आग लगाकर जल मरने वालों की संख्या 3500 और ऊँची इमारतों से कूदकर मरने वालों की संख्या 554 से ऊपर थी । एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रतिदिन मरने वालों की संख्या में से तकरीबन 1.33 प्रतिशत लोग आत्महत्या करते हैं । भारत में प्रतिदिन करीब-करीब 120 व्यक्ति आत्महत्या करते हैं ।

(3) प्रदेश
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों के नवीनतम रिकार्ड, वर्ष 1988 के अनुसार भारत में आत्महत्या दर 8.1 प्रति एक लाख व्यक्ति थी। केरल, त्रिपुरा, तमिलनाडू तथा पश्चिम बंगाल में यह दर क्रमशः24.7, 21.1, 17.9तथा 15.7 प्रति एक लाख व्यक्ति थी । इसके बाद क्रमशः कर्नाटक, असम, बिहार तथा अन्य राज्यों का नम्बर आता है। आत्महत्या की सबसे कम घटनाएँ जम्मू-कश्मीर मे होती है। यहाँ प्रति एक लाख व्यक्ति के पीछे 0.22 लोग ही आत्महत्या करते हैं ।

(4) नगर:
भारत के महानगरों में आत्महत्या बहुत होती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार इन शहरों में 01 जनवरी, 1988 से 15 जून, 1989 तक बेंगलूर में 664, मद्रास में 278, कानपुर में 227,नागपुर में 120, दिल्ली में 119, बम्बई में 108, अहमदाबाद में 79, पुणे में 60 और जयपुर में 22 आत्महत्याएँ हुई ।

(5) नागरीकरण :
प्राथमिक सम्बन्धों के कारण गाँवों में लोग प्रायः एक दूसरे के सुख-दुःख में हमेशा साथ देते हैं, लेकिन शहरों में सर्वथा इसका अभाव रहता है। नगरों में व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति का बोलबाला रहता है। अड़ोस-पड़ोस तथा अगल-बगल तो बहुत दूर की बात है पारिवारिक सदस्यों के सात बी धनिष्ठ सम्बन्ध नहीं रखते । यहाँ तक जीवन-साथी के सात भी लगभग प्रतिदिन सम्बन्ध बिच्छेद (तलाक) की घटनाएँ होती रहती हैं। इन समस्त कारणों से नगरों के खासकर महानगरों के व्यक्तियों में जीवन के प्रति स्वस्थ लगाव नहीं होता । फलतः आए दिन आत्महत्याएँ होती ही रहती हैं, जबकि ग्रामों में यह प्रायः नहीं के बराबर है।

(6) आयु :
यद्यपि आयु की वृद्धि के साथ-साथ लोगों मे प्रौढ़ता एवं गम्भीरता की वृद्धि होती जाती है, तथापि कम आयु के लोगों की अपेक्षा अधिक आयु के लोगों की आत्महत्या दर अधिक होती है।

(7) लिंग :
भारत में स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों में आत्महत्या की दर अधिक है. आत्महत्या करने वाले भारतीयों में 61 प्रतिशत पुरूष तथा 39 प्रतिशत महिलाएँ होती हैं। यहाँ सफल आत्महत्याओं की संख्या पुरूषों में अधिक है और असफल आत्महत्याओं की संख्या महिलाओं में अधिक है।

(8) रंग :
गोरे लोग साँवलें व काले लोगों की अपेक्षा अधिक आत्महत्या करते हैं।

(9) धर्म :
कैथोलिकों की अपेक्षा प्रोटेस्टेंटों में आत्महत्याएं अधिक होती हैं ।
एक समय वह भी था जब बिल्कुल अन्जान व्यक्ति की मौत का समाचार सुनते ही सारे शहर में भयानक सन्नाटा छा जाता था, लेकिन वर्तमान समय में पड़ोसी की लाश को अनदेखा कर अपने रास्ते चल देने वालों की संख्या-क्रमशः बढ़ती ही जा रही है। आजकल प्रत्येक सुबह हर अखबार की सुर्खियों में हत्याओं के बीभत्स वर्णन होते ही हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद भी हमारे दिलों की धड़कर, साँसों की गति तथा नाड़ियों का स्पन्दन अप्रभावित रहते हैं। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से जघन्य से जघन्य अपराध का समाचार सुनकर अथवा क्रूर से क्रूर हत्याकाण्ड को देखकर भी हमारे रोंगटे खड़े नहीं होते । मौत की गंध अब वातावरण में इस कदर घूल-मिल गई है कि हम उसके आदी हो गये हैं। आज स्थिति यह है कि मरना भी दैनिक आवश्यताओं की वस्तुओं के समान एक प्रकार से रोजमर्रा की खबर बन चुकी है। अब शमशानों का भयावह सन्नाटा और नाट्य मण्डली के वातावरण में कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया है।

न केवल भारतीय संविधान में वरन् संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकार सम्बन्धी घोषणा पत्र में भी मात्र अधिकार एवं सुख सुविधाओं पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया गया है। वैधानिक दृष्टकोण से परिवार, समाज, देश, धर्म, पंथ एवं विश्व बन्धुत्व की भावना के प्रति कोई विशेष विधान नहीं बनाया गया : परिणामस्वरूप व्यक्ति के मन में कर्त्तव्य एवं दायित्व निभाने सम्बन्धी मानसिकता आज तक नहीं बैठ पायी है। मिलनसार लोग ही वास्तव में स्वर्गीय आनन्द का अनुभव करते हैं। एकांगी जीवन व्यतीत करने वाले लोग मनोरंजनात्मक व प्रफुल्लित जीवन से वंचित रहते हैं। यहाँ कोई पराया नहीं, सारी दुनिया हमारी है। दुनिया को अपनाने की सीख सर्वोत्तम सीख है और अपनापन ही सर्वोच्च जीवन दर्शन।

जब हम यह तर्क प्रस्तुत करते हैं, कि गर्भधारण और प्रसव वेदना का अधिकारी केवल माता ही है। पालन-पोषण व दूध का कोई कर्ज नहीं होता । पितृ ऋण नामक कोई कर्त्तव्य होता ही नहीं तथा पढ़ाना-लिखना तो गुरू का दायित्व है। रोजगार उपलब्ध कराना प्रशासन की जिम्मेदारी है और दहेज प्रथा उन्मूलन समाज की, तब हम निश्चित रूप से दिग्भ्रमित हैं। ज्ञानीजन अपने स्वार्थ के लिए नहीं जीते इसलिए उनकी आत्मा परिपूर्णता को प्राप्त करती है। जब हम स्वहिताय जीते हैं और स्वसुखाय सोचते हैं कि दुनिया को मारे सुख सुविधाओं का ख्याल रखना चाहिए ,किन्तु दुनिया के सुख सुविधाओं का खयाल रखना हमारे लिए आवश्यक नहीं तब यही तथाकथित समझदारी हमारे लिए आत्मघातक सिद्ध होती है।

आत्मा हत्या के उत्तेजक और सचेतक तत्व

आत्महत्या दुष्कर्म का वह स्वरूप है जिसमें मात्र आत्महत्या का स्वनिर्णित निष्कर्ष, केवल आत्महत्या द्वारा स्वनिर्मित मत और सिर्फ आत्महत्या के लिए स्वसमर्थित स्वार्थ परायणता अनेक कारणों में से एक कारण अथवा एकमात्र कारण हो सकता है। किन्तु आत्महत्या के लिए कोई भी कारण वस्तुतः कारण नहीं, क्योंकि जिन-जिन कारणों से पूर्व में आत्महत्याएं किए गए हैं उन-उन से अधिकाधिक बहुत, भारी तथा व्यापक रूप से दीन-हीन, जीर्ण-विदीर्ण,त्रस्त-संतप्त, दलित,शोषित पीड़ित, खंडित, दुःखित, तापित और शापित व्यक्ति आज भी अभाव और बेभाव के बावजूद अपना जीवन यापन कर रहे हैं । निष्काम कर्मयोग का परिपालन कर रहे हैं । तमाम जिम्मेदारियों को बखूबी निबाह रहे हैं। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि आत्महत्या के लिए सभी कारण हो सकते हैं, आत्महत्या का कोई कारण नहीं हो सकता । वस्तुतः आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं, मानसिक तनाव की दुःखद परिणति है। वर्तमान विश्व में कोई भी ऐसी समस्या नहीं जिसका समाधान किसी न किसी रूप में विद्यामान न हो । साथ ही कोई भी ऐसा कारण नहीं जिसमें किसी समस्या का निदान अन्तर्निहित न हो । सभी कारणों में सुलझन संभव है। कोई भी समस्या अथवा कोई भी कारण अपने आप में इतना भयानक नहीं जिसकी निष्पत्ति आत्महत्या हो । सचेतना जब सोती है दुर्घटना तब होती है। वस्तुतः उत्तेजक और सचेतक परस्पर विरोधी तत्व हैं । उत्तेजक की विजय और सचेतक की पराजय का वाचक शब्द है –आत्महत्या

आज के इस अर्थ युग में अत्यन्त तेज और अतिभौतिकवादी दिनचर्या में व्यक्ति दो ही विकल्प चुन सकता है संघर्ष अथवा समर्पण। जिसमें जितना आत्मविश्वास होगा, वह उतना ही अधिक पराक्रम के साथ संघर्ष करेगा और जिसमें जितना कम आत्मविश्वास होगा, वह उतना ही अधिक कायरता के साथ आत्म-समर्पण करेगा। आत्महत्या के लिए आज की तनाव भरी जिन्दगी तथा उससे उपजी विसंगतियां कुछ हद तक दोषी तो है, लेकिन आत्महत्या के कारण नहीं, क्योंकि जिन तनाव भरी जिन्दगी से उबकर कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, अधिकांश व्यक्ति उससे भी अधिक तवाव भरी जिन्दगी जीते हैं। आत्महत्या के अधिकांश प्रकरणों में समाज तथा उसके द्वारा निर्मित परिस्थितियां काफी कुछ जिम्मेदार होती हैं, किन्तु वे भी आत्महत्या के कारण नहीं, क्योंकि उससे भी निम्नतम समाज में लोग अपेक्षाकृत उच्चतम जीवन जीते हैं। यद्यपि आत्महत्या के मूल में प्रायः कुछ समय पूर्व व्यतीत कोई गंभीर बात अवश्य होती है, तथापि आत्महत्या का मूल कारण व्यक्ति की शनैः-शनैः बनती बिगड़ती पलायनवादी मानसिकता ही होती है। वस्तुतः आत्महत्या के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार होता है कोई उत्तेजक तत्व जिम्मेदार नहीं होता ।

आत्मविश्वास एक अलौकिक चमत्कारी शक्ति है। यह शक्ति इस मृत्युलोक के 84 लाख योनियों में से केवल मनुष्य को ही प्राप्त है। मात्र मानव ही इसका स्वामी है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्मविश्वास होता है। आत्मविश्वासी व्यक्ति की बात में सदैव वजन रहेगा । वह जो भी बात करेगा, पूर्णतः ठोक बजाकर करेगा। उसकी बोल-चाल आचार-व्यवहार, रहन-सहन इत्यादि सब कुछ इस बात को जाहिर करता है कि उसमें कितना आत्मविश्वास है। आत्मविश्वास के कराण व्यक्ति की शक्ति दुगुनी तथा उसकी क्षमता चौगुनी हो जाती है। किसी कार्य को पूर्ण पकने के लिए दृढ़ता के साथ अपने मन में संकल्प करना ही आत्मविश्वास कहलाता है । अन्य शब्दों में दृढ़ संकल्प का ही दूसरा नाम आत्मविश्वास है। मानव द्वारा किए गए अद्भुत, अलौकिक या चमत्कारी लगने वाले सभी कार्य आत्मविश्वास के बल पर ही संभव होते हैं । खूंखार जंगली जानवरों को पालतू बना लेना, अपने इशारे पर नचाना, सर्कस में एक से एक करिश्में दिखाना, वाहन-चलाना व लम्बी-कूदान, मीना बाजार में मौत की छलांग फिल्मों में डुप्लीकेट के रूप में एक से बढ़कर एक महान कार्य सफलता पूर्वक प्रदर्शित करना इत्यादि सभी आत्मविश्वास के ही कमाल हैं।

आत्मविश्वास के सहारे व्यक्ति सब कुछ कर सकता है। यदि व्यक्ति संकल्प कर ले कि वह अमुक कार्य करके ही रहेगा तो निःसंदेह वह कार्य पूरा होकर रहेगा । जब हमारा निश्चय कमजोर हो जाता है, तभी हम पराजित अथवा असफल होते हैं अन्यथा नहीं। आमतौर पर आत्मविश्वास बीच में ही टूट जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि हमारा आत्मविश्वास बिपरीत परिस्थितियों में भी मंझधार में न टूटे । हमारा आत्मविश्वास हमेशा हमें मजबूत बनाए रखता है, इसलिए यह जितना अधिक मजबूत होगा हम उतना ही अधिक सफल होंगे। जिनमें आत्मविश्वास नहीं है वह जीवन में कुछ नहीं कर सकता । जिसमें आत्मविश्वास की कमी है, उसे कई नया काम करते समय घबराहट होता है। थोड़ा सा परिश्रम करने पर उनके हाथ पैर फूल जाते हैं। सम्पूर्ण अभिलाषाएं धूल में मिल जाती है। थोड़ी-सी बाधा अथवा संकट आते ही वे अत्यंत भयभीत हो जाते हैं, काम छोड़कर भाग जाते हैं तथा अपेक्षाकृत और अधिक दुःखदायी रास्ते की ओर चलकर अंधेरे कुएं छोड़कर भाग जाते हैं तथा अपेक्षाकृत और अधिक दुःखदायी रास्ते की ओर चलकर अंधेरे कुएं में खत्म हो जाते हैं, गुमनामी की मौत मर जाते हैं या फिर आत्महत्या कर लेते हैं ।

ऊपरी तड़क-भड़क या केवल ऊपर से दिखलाने के लिए किया हुआ काम दिखावा कहलाता है। इसे हम आडम्बर अथवा झूठा स्वाभिमान भी कह सकते हैं । भारत कृषि प्रधान देश है। मध्यप्रदेश स्थित छत्तीसगढ़ अंचल “धान का कटोरा” के नाम से विख्यात है। इस अंचल में जिसके पास जितनी अधिक कृषि भूमि होती है वह कृषक उतना ही अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है। एक ग्रामिण कृषक अपनी हैसियत से अधिक हर साल लगभग एक एकड़ जमीन खरीदने लगा ससुर से कर्ज लिया, बहनोई से कर्ज लिया । इतना ही नहीं अन्य सगे संबंधियों से भी कर्ज लिया । उधारी चुकाने का नाम नहीं । रिश्तेदार तगादा करने आते रहे, जाते रहे। गिलाशिकवा करते रहे, लेकिन उसकी औकात तो थी ही नहीं। चल सम्पत्ति तो बह पहले ही बेच चुका था। आखिर अब वह करे भी तो क्या करे ? रात-दिन की पारिवारिक कलह से तंग आकर अंततः उसने कोई कीटनाशक दवा का स्वन कर मौत को गले गला लिया । इसलिए व्यक्ति को निश्चित रूप से चादर से बाहर पैरे नहीं फैलाना चाहिए।

अहंकार का शाब्दिक अर्थ होता है घमंड। जिस व्यक्ति में “मैं” की भावना विद्यामान होती हे उसे अहंकारी कहते हैं। अपने आपको अन्य से श्रेष्ठ समझना तथा मैं को अपेक्षाकृत अधिक महत्व देना अहंकार होता है। यह अहं अपने मुकाबले दूसरों को तुच्छ समझने की भावना उत्पन्न करता है। जो यह सोचना है कि वह अखिल विश्व के बिना अपना काम चला लेगा वह अपने आपको धोखा देता है, साथ ही जो यह कल्पना करता है कि विधाता का कार्य उसके बिना नहीं चल सकता वह और भी बड़े धोखे में है । अहंकार पतन का कारण है। अहंकार करने वाले मनुष्य का एक-न-एक दिन पतन अवश्यंभावी है। नाश के पूर्व अपेक्षाकृत और अधिक अहंकारी हो जाता है। अहंकारी व्यक्ति दूसरों को अधिकारों को बरबस अपने हाथ में लेना चाहता है। वह दूसरों की वस्तुओं को अपनी मुट्ठी में करना चाहता है। वह दूसरों के जज्बातों से खेलता है। वह विधि के विधान को बदल कर स्वयं का एकछत्र आधिपत्य स्थापित करना चाहता है। वह सर्वशक्तिमान बनना चाहता है। जब किसी कारणवश उसका धमंड चूर हो जाता है तब उसे एहसास होता है कि उसने स्वयं को खो दिया है। दरअसल तब उसका कोई अस्तित्व नहीं रह जाता । उसे अत्यन्त कष्ट होता है, असहनीय आत्मीय पीड़ा । उसका सिर शर्म से झुक जाता है तथा दुनिया के सामने नज़र मिलाने के लिए वह अपने आप को नितान्त असमर्थ पाता है और आत्महत्या कर बैठता है ।

किसी विषय या कार्य की सिद्धि के संबंध में मन में बार-बार होने वाला विचार चिंता कहलाता है। वर्तमान विश्व में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं जो सुख नहीं चाहता हो, धन नहीं चाहता हो सुन्दर पत्नी नहीं चाहता हो, राजशाही ठाठ-बाट न चाहता हो । लगभग सभी इसकी इच्छा करते रहते हैं और रात-दिन स्वप्न देखते रहते हैं। सदा यही इच्छा रहती है कि उसे कोई आलौकिक शक्ति मिल जाए जिससे उसकी चिंता दूर हो जाए, लेकिन शायद ही ऐसा कोई चमत्कार किसी की जिन्दगी में होता है। जब कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाती और कामनाएं धरी-की धरी रह जाती हैं । तब व्यक्ति अभाव व चिंताग्रस्त परिस्थितियों से जूझता रह जाता है। चिंता करने मात्र से कोई भी विपत्ति आज तक कभी नहीं टली । चिंता से बढञकर मनुष्य का कोई भी शत्रु नहीं । चिंता एक प्रकार से काली दीवार की भांति चारों तरफ से घेर लेती है, जिससे निकलने के लिए कोई गली दिखाई नहीं देती और व्यक्ति का दम घुटने लगता है, जिससे तंग आकर वह आत्महत्या कर लेता है।

निराशावादी व्यक्ति का चेहरा मलीन रहता है, उसके चेहरे पर उदासी छायी रहती है उसका स्वर मध्यम तक अस्पष्ट होता है। वह सिर झुकाकर चलता है। वह हमेशा अनपा रोना रोते रहता है। जब वह दुनिया को अपनी रोनी सूरत दिखाता है और दर्दभरी कहानी सुनाता है तो लोग तालियां बजाकर उसकी हंसी उड़ाते हैं । ऐसे संकट की घड़ी में आशावादी विचारधारा ही उसे सहारा देती है। उसकी उम्मीद उसे ढांढ़स बंधाता है कि कोई बात नहीं अमुक नुकसान हो गया, अमुक बात नहीं बनी, काम बिगड़ गया, पर आगे बन जाएगा। उम्मीद के अभाव में व्यक्ति टूट जाता है। जो नाउम्मीद हो जाते हैं, जिनको जन्दगी में चारों ओर केवल निराशा ही निराशा नजर आती है, उनका स्वयं का जीवन उनके अपने लिए भार हो जाता है और अन्ततः वे हताश होकर आत्महत्या कर लेते हैं। आत्महत्या करना जिन्दगी का सबसे बड़ा कायरतापूर्ण कार्य है। मानवता के नाम पर कलंक है। इसलिए किसी भी स्थिति में निराशा को मन में आने नहीं देना चाहिए। यदि निराशा मन में आ गई, तो वह क्रमशः बढ़ती ही जाती है और जब जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती है, तब व्यक्ति बिल्कुल टूट जाता है। निराशा की चरम स्थिति से ही आत्मघाती प्रवृत्ति का जन्म होता है।

मौसम का शाब्दिक अर्थ होता है- ऋतु। 20 वीं सदी के 9 वें दशक में आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा मानवजाति के व्यवहार और भविष्य विषयक किए गए शोध का निष्कर्ष यह है कि सर्द मौसम में मस्तिष्क सही ढंग से काम करता है जबकि गर्म मौसम में दिमागी प्रतिक्रियाएं अपेक्षाकृत अधिक तेज तथा असन्तुलित हो जाती है। परिणामस्वरूप उत्तेजना बढ़ती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में जनवरी से आत्महत्या की दर क्रमशः बढ़ती जाती है और मई में यह अपनी चरण सीमा पर पहुंच जाती है। जून से आत्महत्या की दर क्रमशः घटने लगती है और दिसम्बर में तो यह न के बराबर हो जाती है। भारत में मई से जुलाई तक आत्महत्या सर्वाधिक होती है। उक्त शोध में यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि विवाहित महिलाएं आमतौर पर शीत ऋतु में, अविवाहित लोग वर्षा ऋतु विशेषकर बैरी सावन में में और विद्यार्थी ग्रीष्म ऋतु में आत्महत्या करते हैं।

वातावरण का अर्थ होता है- आसपास की परिस्थिति, जिसका जीवन या अन्य बातों पर प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में वह हवा जिसने पृथ्वी के चारों ओर से घेरा हुआ है। जलमय वातावरण आत्महत्या करने वालों के लिए विशेष सहायक होता है। नदी, तालाब, कुआ वगैरह का लबालब भरा होना भी आत्महत्या के अनेकानेक कारणों में से एक कारण अवश्य है। वैज्ञानिक यह मानते हैं कि हवा के दबाव में अचानक कमी होने से बारिश होती है तथा वातावरण में एकाएक नमी की बढ़ोत्तरी हो जाती है। इससे शरीर से निकलने वाले पसीने के सुखने पर असर पड़ता है। यह सूखने की प्रक्रिया (वाष्पीकरण) भी दिमाग को आत्महत्या हेतु उकसाती है। अमेरिकन मेडीकल एसोसिएशन के एक शोध के अनुसार वायु के दाब में परिवर्तन होने के कारण लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति जन्म लेती है. हवा का दबाव कम होने से खून का दबाव बढ़ जाता है और दिमाग को अधिक खून पहुंचता है, लेकिन आक्सीजन कम हो जाती है, जिससे दिमाग उत्तेजित हो जाता है और संवेदन शीलता बढ़ जाती है। फलतः व्यक्ति भावुकतावश आत्महत्या की ओर प्रेरित होता है। फिलाडेल्फिया (अमेरिका) में जब आत्महत्याओं की लगभग 527 घटनाओं की जांच की गई तो यह निष्कर्ष निकला की हवा के दबाव में प्रति 0.4 इंच से 0.3 इंच तक की कमी आने से आत्महत्याओं की संख्या अधिक हो जाती है।

ग्रहराज सूर्य सारी ग्रहमाला को एक सूत्र में नियमबद्ध गति से अपनी चारों ओर घुमाते हैं। साथ ही सारे ग्रहों को एक-एक बार अपने तेज से अस्तगत कर देते हैं। हमारी पृथ्वी भी सौर-मंडल की एक सदस्य है और वह भी सूर्य से आकर्षित होकर अनवरत उसकी परिक्रमा कर रही है। पृथ्वी में भी आकर्षण शक्ति है, जिस कारण उसे सूर्य अपना प्रकाश, ताप आदि भेंट करता रहता है। फलतः पृथ्वी के जीवधारियों में प्राण और शक्ति का संचार होता रहता है। पृथ्वी से सबसे निकट चन्द्रमा है। इसका जल तत्व पर विशेष प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार आना इसका स्पष्ट प्रमाण है। जिस प्रकार जन्द्रमा समुद्र के जल में उथल-पुथल मचा देता है उसी प्रकार वह शरीस के रूधिर प्रवाह में भी अपना प्रभाव डालकर समस्त प्राणियों को रोगी- निरोगी बना देता है। चन्द्र की चुम्कबीय शक्ति से जीवन का (मानसिक और शारीरिक दोनों ही दृष्टि से ) निर्माण होता है । दृष्टि से निर्माण होता है रक्षण भी होता है और विनाश भी। खगोल विशेषज्ञों के अनुसार चन्द्र मन का कारक ग्रह है, अर्थात् मन पर चन्द्र का स्वामित्व है। शरीर के समान मन पर भी चन्द्र का निश्चित रूप से अनुकूल व प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। चन्द्र के कारण ही हरेक पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार आता है, इसी दिन पागलों का पागलपन बढ़ता है और इसी दिन आत्मघाती अपेक्षाकृत अधिक आत्महत्या करते हैं।

जिस प्रकार चन्द्र के कारण नियमित रूप से समुद्र में ज्वार-भाटे आते-जाते रहते हैं उसी प्रकार पृथ्वी के विभिन्न स्तरों में उतार-चढ़ाव होते रहते हैं । सूर्य और चन्द्रमा के समान ही अन्य ग्रहों का प्रभाव भी इस भू-मण्डल पर पड़ता रहता है तथा वे एक दूसरे को ओज आदि आदान-प्रदान करते रहते हैं । इस ग्रह-नक्षत्रों तथा अन्य तारागणों का सीधा प्रभाव मानव पर शारीरिक रूप से ही नहीं मानसिक रूप से भी पड़ता है। इसलिए मानव के सुख-दुख,लाभ-हानि, उत्थान-पतन आदि पर इनका निश्चित प्रभाव है। इनके प्रभाव के अनुकूल अथवा प्रतिकूल मानव जीवन पर ही नहीं वरन् अन्य थलचर, जलचर तथा नभचर के साथ-साथ वनस्पतियां भी संचालित होती है। परिणामस्वरूप पेड़-पौधे, फल-फूल तथा लताएं भी मौसम के अनुसार फलते-फूलते और परिवर्तित होते रहते हैं।

रक्त कुमुद दिन में खिलता है, रात में सिमट जाता है और श्वेत कुमुद रात में खिलता है, दिन में सिमट जाता है। कौरव-पाण्डव नामक प्रत्येक कली की पंखुड़ियां सूर्योदय के बाद ही खुलती है और सूर्यास्त तक ( केवल लगभग बारह घंटे) सदा-सदा के लिए बंद हो जाती है। रात-रानी रात में ही अपनी सुगंध बिखेरती है। उल्लू रात में ही देखता है। बिल्ली की नेत्र पुतली चन्द्रकला के अनुसार घटती बढ़ती रहती है। कुत्ते की काम-वासना आश्विन-कार्तिक मासों में अपनी चरम सीमा पर रहती है। बहुतेरे पशु-पक्षी, कुत्ते-बिल्ली, कौआ-सिआर आदि के मन में एवं शरीर पर तारागण का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे अपनी नाना प्रकार की बोलियों से मनुष्य को पूर्व ही सुचित कर देते हैं कि अमुक-अमुक घटनाएं घटने वाली है। लगभग सभी जीव-जन्तु ग्रह-नक्षत्र मंडल के प्रभाव से ही प्रकृति के अनुसार नाना प्रकार की हरकतें करते रहते हैं, जिनमें से एक हरकत आत्महत्या भी है, जिसके पीछे अन्य कारणों के साथ-साथ उपरोक्तानुसार खगोलीय कारण भी हुआ करते हैं। खगोलीय परिवर्तनों सी ही भूकम्प-ज्वालामुखी, अतिवृष्टि-अनावृष्टि, युद्ध-क्रांति, अराजकता व अकाल की स्थितियां पैदा होती है, मन में भय, तनाव व असंतोष उत्पन्न होता है । इन अस्थिर के सभी कारणों से मानव मस्तिष्क अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित होता है, जिस करण वह अनेक नाजुक निर्णय लेने में भी संकोच नहीं करता, जिनमें से आत्महत्या का निर्णय भी एक है।

प्रकृति का अर्थ होता है वह मूल शक्ति, जिसने अनेक रूपात्मक जगत का विकास किया है तथा जिसका रूप दृश्यों में दृष्टगोचर होता है। जगत का उपादान कारण अर्थात् वह कारण जो स्वयं कार्य के रूप में परिणित हो जाय । आत्महत्या की पृष्ठभूमि में प्राकृतिक प्रकोप अथवा प्राकृतिक विपदा भी प्रमुख भूमिका निभाती है। बाढ़ की चपेट, सूखे की मार, दुर्घटना शिकार एवं भूख की तड़प से व्यक्ति कंद-मूल, जड़ी-बूटी, पशु-पक्षी के अलावा कभी-कभी कीड़े-मकोड़े के साथ-साथ जहर भी खाने के लिए मजबूर हो जाता है। किसी ने कहा है कि कठपुतली करेगी भी क्या ? धागे तो किसी और के हाथ है, नाचना तो पड़ेगा ही । इसके अंतर्गत व्यक्ति करना नहीं चाहता या यो कहें कि व्यक्ति में मरने की चाह नहीं होती, लेकिन फिर भी वह आत्महत्या कर बैठता है।

विगत प्रसिद्ध घटनाओं के कालक्रम के अनुसार वर्णन को इतिहास कहते हैं. संभवतः आत्महत्या की पहली घटना ईसापूर्व पहली शताब्दी में घटित हुई । उस दौरान चेरा राजा ने तब आत्महत्या की थी, जब वे युद्ध में पराजित होकर दुश्मन के कारागार में बंदी थे। राजा ने अपने अंतिम पत्र में लिखा था कि गरिमा खोकर दूसरे की दया पर निर्भर रहने से मरना श्रेयस्कर है। बीसवीं सदी में भी एक विख्यात तथा भयानक घटना घटित हुई । द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम चरण में इटली विजय के पश्चास मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी के विभिन्न प्रदेशों पर बम-वर्षा प्रारम्भ कर दी। अप्रेल सन् 1944 में लगभग 81000 टन बम बरसाये गये । जर्मनी चारों ओर से शत्रुओं से घिर चुका था। हिटलर तथा उसके सहयोगियों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। अन्य देशों के अलावा इटली का भी पतन हो गया था और 28 अप्रैल सन् 1945 को मुसोलिनी को गोली से उड़ा दिया गया । अपना वीभत्स विनाश निश्चित जानकर 30 अप्रैल 1945 को हिटलर और उसकी पत्नी इबाब्रान ने आत्महत्या कर ली। ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं से भी आत्महत्या की प्रवृत्ति बलवती होती है।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं स्नायुरोग संस्थान, बेंगलूर के प्रोफेसर श्री जे.पी. बालोजी और प्रसिद्ध मनोचिकित्सक प्रोफेसर श्री लोम सुंदरम, मद्रास के अनुसार संस्कृत तथा तमिल साहित्य आत्महत्या संबंधी घटनाओं व इनके औचित्य प्रतिपादन के प्रसंगों से भरा हुआ है । इस प्रकार के साहित्य आत्महत्या की ओर झुकी मानसिकता को अपेक्षाकृत और अधिक विचलित करते हैं। हेमलांक सोसायटी, यूगुन आकेगन का एक ऐसा संगठन है, जो आत्महत्या के तरीके सुझाता है। पूर्व ब्रिटेन निवासी तथा वर्तमान में हेमलॉक सोसायटी के प्रबन्ध निदेशक डेरेक हम्फ्री द्वारा लिखित “फाइनल एक्जिट” (अंतिम प्रस्थान) नामक पुस्तक में असाध्य रोगों से पीड़ित तथा जीवन से हताश लोगों के लिए आत्महत्या के तरीके सुझाए गए हैं। हेमलॉक सोसायटी द्वारा प्रकाशित तथा सेकासस, न्यूजर्सी के केरोल प्रकाशन द्वारा वितरित और न्यूयार्क टाइम्स की कैसे करें व अन्य परार्श देने वाली सजिल्द पुस्तकों की सूची में सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक के रूप में अंकित यह किताब मानसिक रूप से अवसादग्रस्त एवं दिग्भ्रमित लोगों को आत्महत्या की ओर प्रवृत्त कर रही है।

वह जिस पर किसी विशेष उद्देश्य से दृष्टि रखी जाय लक्ष्य कहते हैं। उद्देश्यपूर्ण बात । जिस प्रकार तिनका-तिनका चुनकर पक्षी अपना घोसला बनाते हैं, एक-एक फूल चुनकर माली सुन्दर व सुगधित गुलदस्ता बनाते हैं, एक-एक ईंट जोड़कर कारीगर बहुमंजिली व भव्य इमारत बनाते हैं, बूंद-बूंद करके ही इतना अधिक पानी गिर जाता है कि नदियों में बाढ़ आ जाती है, उसी प्रकार हमें भी एक-एक मिनट का सदुपयोग करके प्रत्येक कदम पूर्व निर्धारित लक्ष्य की ओर ही बढ़ाने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। अर्थात् हम जो भी करना चाहते हैं, जो भी बनना चाहते हैं या फिर जिस ढंग से भी अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं वह पूर्व निर्धारित होना चाहिए । हम जो कुछ भी करना या बनना चाहते हैं उसकी तैयारी प्रारम्भ से ही करनी चाहिए। अमूल्य समय का सदुपयोग, हितकारी कार्यारंभ, निरन्तर व भरपूर प्रयास ही व्यक्ति को सफल बनाता है। जो व्यक्ति अपना कीमती वक्त व्यर्थ गुजार देता है वह समय फिर कभी वापिस नहीं पाता। जो व्यक्ति अति महत्वाकांक्षी होता है, जिसे आलीशान इमारत की आखिरी मंजिल ही दिखाई देती है, जो सूरज को छूना चाहता है वही जलता है। उसी की शक्ति क्षीण हो जाती है। फलतः वह स्वयं का जीवन निर्वाह कर सके इस लायक नहीं रह जाता और तब वह अंततः आत्महत्या कर लेता है।

संकल्प का अर्थ होता है-कोई काम करने का पक्का इरादा या कोई कार्य करने से पहले अपना दृढ़ निश्चय प्रकट करना। हमारे मन में विभिन्न प्रकार की कल्पनाएं उठा करती हैं। जो कल्पनाएं उठती हैं और मिट जाती है उनका हमारे मास्तिष्क पर कोई अस्तित्व नहीं रहता। जो कल्पना बार-बार उठती है वह विचार बन जाती है। जब कोई विचार बारम्बार आता है, जमता है तथा मजबूत हो जाता है तब वह संकल्प बन जाता है। संकल्प जब हमारे आचरण में आता है तब वह कर्म बन जाता है और जब फल देता है वह भाग्य कहलाता है। इस प्रकार कल्पना आरम्भ है और भाग्य अन्त । इसलिए व्यक्ति को क्रमशः कल्पना से भाग्य तक पहुंचना चाहिए, भाग्य से कल्पना तक नहीं। मानसिक रूप से स्वस्थ बने रहने के लिए हमें दृढ़ संकल्प के प्रति सतर्क व सचेष्ट बने रहना चाहिए । मन में प्रकृति-विरूद्ध संकल्प का बने रहना मानसिक अस्वस्थता की निशानी और प्रकृति के अनुकूल संकल्प का बने रहना मानसिक स्वस्थता की निशानी है। संकल्प में बड़ी शक्ति होती है या फिर यों कहना ज्यादा उचित होगा कि शक्ति संकल्प में ही होती है। इसलिए व्यक्ति को ऐसा दृढ़ संकल्प कर लेना चाहिए कि मुझे प्रकृति के विरूद्ध कोई कर्म कदापि नहीं करना है। ऐसा करके ही वह अपने जीवन में प्रसन्न चित्त, खुशी, शांत व स्वस्थ रह सकता है वरना आत्महत्या जैसे घातक परिणाम भी सामने आ सकते हैं, आते रहे हैं, आ रहे हैं और आते रहेंगे।

मन में उठने वाली कोई बात को विचार कहते हैं। वह जो मन में सोचा या सोचकर निश्चित किया जाय । किसी बात के सब अंगों को देखना-परखना या सोचना-समझना। किसी प्रकरण की सुनवाई और निर्णय । विचार दो प्रकार के होते हैं-पहला आशावादी और दूसरा निराशावादी। यह बात एक उदाहरण, द्वारा अपेक्षाकृत और अधिक स्पष्ट हो जाएगी। दो व्यापारी मित्रों ने यह अनुमान लगाया कि इस वर्ष उन्हें अपने-अपने व्यापार में कम से कम 20-20 करोड़ रूपये का लाभ अवश्य होगा, किन्तु उन्हें मात्र, 15-15 करोड़ रूपये का लाभ हुआ । एक ने यह सोचते हुए निर्णय लिया कि चलो 15 करोड़ भी बहुत होते हैं, 15 करोड़ का लाभ अगले वर्ष भी हो जाएगा इस प्रकार कुल लाभ 30 करोड़ रूपये हो जायेंगे। इस आशावादी विचारधारा के सहारे वह ऐश व आराम के साथ जीवन व्यतीत करने लगा । दूसरे ने यह सोचते हुए निर्णय लिया कि एक वर्ष में 5 करोड़ रूपये घाटा । इसका मतलब अगले वर्ष पुनः 5 करोड़ रुपये का घाटा इस प्रकार कुल 10 करोड़ रूपये का घाटा । इस प्रकार निरंतर घाटा, मैं तो तबाह हो जाऊंगा, इस कदर घाटा खाने से तो अच्छा है फांसी के फंदे पर झूल जाना और वह आत्महत्या कर लेता है। एक दूसरा उदाहरण यह है कि दो शिकारी मित्र शिकार के पीछे दौड़ते हुए वन में भटक गए । जब वे थककर चूर हो गए तब वे पृथक-पृथक कल्प वृक्ष की छांह में बैठकर विश्राम करने लगे। दोनों शिकारियों को कल्पवृक्ष का ज्ञान न था। एक के मन में विचार आया कि कैसी जमकर भूख लग रही है, यदि इस समय भोजन मिल जाता तो कितना अच्छा होता. उसके समक्ष भोजन की थाली उपस्थित हो गई । वह भरपेट भोजन कर चैन की नींद सोने लगा । दूसरा भी भूख से व्याकुल हो रहा था। उसके मन मे विचार आया कि इस प्रकार भटक-भटक कर और भूख से तड़प-तड़प कर जीने से तो मर जाना अच्छा है। तत्काल उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

व्यसन का शाब्दिक अर्थ होता है कोई बुरा शौक, कोई बुरी लत, कोई अमांगलिक बात, विषयों के प्रति आसक्ति, व्यर्थ का उद्योग, असमर्थ होने का भाव, काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि विकारों से उत्पन्न दोष इत्यादि । किसी को इज्जत लूटने, किसी को खून करने, किसी को अपना जेब भरने अथवा दूसरे का पाकिट मारने, किसी को लापता करने इत्यादि विभिन्न प्रकार के बुरे शौक होते हैं। तत्संबंधी व्यक्ति उपयुक्तानुसार व्यर्थ उद्योग करते-करते जीवन के अंतिम चरण में थक जाते हैं या फिर उक्त कुकर्म से उब जाते हैं। जब कभी वे एकांत में आत्मविवेचन अथवा आत्मचिंतन करते हैं, खुद की नज़र में गिर जाते हैं। दुनिया की नज़र से बचना बहुत आसान हैं, लेकिन अपने आप की नज़र से बचना लगभग असंभव है। ऐसे व्यक्ति आत्मग्लानि से अपने आपको नहीं बचा सकते और आत्महत्या तक कर बैठते हैं । ऐसी आत्महत्या की पृष्ठभूमि में कोई शर्म बोध या फिर कोई अपराध बोध भी होता है।

मन क्या है ? मन कामनाओं का अथाह सागर है, जिसमें सदा कामनाओं की, इच्छाओं की तथा महत्वाकाक्षाओं की लहरें उठा करती हैं। एक लहर उठकर गिरी नहीं कि दूसरी पैदा हो जाती है। मन की लहरों को समाप्त करना अत्यन्त कंठिन ही नहीं, असम्भव है। जब तक जीवन है इन लहरों का अंत ही नहीं। आत्मा, इन्द्रियां और विषय-इन तीनों का संयोग होने पर जब मन भी इनके साथ संयोग करता है तब ही हमें किसी प्रकार का ज्ञान होता है। यदि इन तीनों के साथ मन का संयोग न हो तो ज्ञान नहीं होता। गन सदा चंचल तथा गतिशील होता है। इसके सहयोग के बिना बुद्धि काम नहीं कर सकती, कोई भी इन्द्रिय अपने विषय से संबंध नहीं रख सकती तथा शरीर कोई गतिविधि अथवा कार्य नहीं कर सकता । दरअसल, मन शरीर रूपी राज्य का राजा व प्रशासक है। यह प्रकाश से भी अत्यन्त तीब्र गति से जहां चाहे पहुंच सकता है. किसी बात की ओर ध्यान देना, चिंतन-मनन करना, किसी कार्य की योजना बनाना तथा उसे क्रियान्वित करना मन के ही कार्य हैं। आत्महत्या संबंधी निर्णय को अंतिम रूप देने में भी कार्यपालिका प्रधान मन ही है ।

काम का शाब्दिक अर्थ होता है मनोरथ, कामना, सहवास की इच्छा इन्द्रियों की अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षिक करने की प्रकृति, कर्म आदि । भारतीय ब्रह्मर्षियों, महर्षियों एवं देवर्षियों ने मनुष्यों के लिए जीवन में चार पुरूषार्थ करने का निर्देश दिया है। ये चार पुरूषार्थ हैं-धर्म,अर्थ काम और मोक्ष । इन चार पुरूषार्थों में से ‘काम’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए हमें न तो ‘काम’ की उपेक्षा करना चाहिए और न ही इसका गलत ढंग से उपयोग करना चाहिए । काम बहुत आवश्यक है, महत्वपर्ण है और उपयोगी भी क्योंकि अखिल विश्व में जो भी सृजन कार्य हो रहा है वह काम की ऊर्जा से ही हो रहा है, लेकिन काम का उपयोग सृजन के लिए न करके केवल मौज-मस्ती, ऐश व आराम के लिए करना विनाशकारी सिद्ध होता है। ऐसे व्यक्ति, जो काम के वेग को नहीं रोकते और हमेशा कामुक विचारों को अबाध गति से मन में आने देते रहते हैं उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। उल्लू को दिन में और कौए को रात में दिखाई नहीं देता, किन्तु जो कामान्ध होते हैं उन्हें न तो दिन में दिखाई देता है और न रात में ऐसे व्यक्तियों के मन यंत्रणा, आशंका, चिंता, ग्लानि, अपराधबोध एवं पश्चाताप की भावना व याचनापूर्ण विचारों से भरे हुए होते हैं । इनके मन में अधीनता, व्याकुलता तथा निराशा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं बशर्तें उन्हें इस मानसिक वेदना से छुटकारा मिल जाए । कुछ तो आत्महत्या तक कर बैठते हैं।

क्रोध का जन्म काम की पूर्ति में बाधा पड़ने पर होता है। अर्थात् हमारी इच्छा या कामना के विपरीत स्थिति उत्पन्न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। जब कोई व्यक्ति क्रोध करता है तब क्रोध की मार से उसके अपने ही हाथ पैर कांपने लगते हैं क्योंकि क्रोध से जो तनाव उत्पन्न होता है उसे शरीर के स्नायु सह नहीं पाते । शरीर का कांपना कमजोरी का सूचक होता हैऔर यह कमजोरी क्रोध के प्रभाव से उत्पन्न होती है। क्रोध से हमारे स्नायुओं पर बार-बार तनाव आता है इससे हमारा स्नायविक संस्थान दुर्बल होता जाता है। क्रोध हमारे स्नेहभाव, उदारता ,अपनत्व और सम्बन्धों का नाश करके हमारी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा को भी नाश करता है। क्रोध करने से नुकसान के सिवाय फ़ायदा कुछ भी नहीं होता । क्रोधी मनुष्य का स्वाभाव ऐसे तिनके के समान होता है, जिसे क्रोध की आंधी कभी भी उड़ाकर मौत के कुएं में गिरा सकती है। क्रोध से घृणा, हिंसा और प्रतिशोध की भावना का जन्म होता है। जो व्यक्ति क्रोधी स्वभाव के होते हैं उनका धैर्य तो नष्ट होता ही है, कभी-कभी स्वास्थ्य व शरीर भी नष्ट हो जाता है। क्रोध का सबसे बुरा प्रभाव यह पड़ता है कि क्रोध उत्पन्न होते ही व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और बाद में क्रोधवश क्रोध व्यक्ति विवेकहीन होकर आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध भी कर डालता है।

लोभ का अर्थ है लालच या लिप्सा । जिस प्रकार कामुक व्यक्ति काम से और क्रोधी व्यक्ति क्रोध से अंधा होता है उसी प्रकार लालची व्यक्ति लोभ से अंधा होता है। लोभ में फंसकर ही लोग मुसीबतों में फंस जाते हैं। किसी कवि ने सर्वथा उचित ही कहा है कि –

“मख्खी बैठी शहद पर पंख लिये लिपटाय ।
हाथ मले और सिर धुने लालच बुरी बलाय।।”


लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से ही वासना की उत्पत्ति होती है तथा लोभ से ही पाप का प्रादुर्भाव होता है, संवभतः इसीलिए लोभ को नाश का कारण माना गया है। श्रीमाद् भगवद्गीता-16/21 में निम्नानुसार उल्लेख है :-

“त्रिविधिनरकस्येदं द्वारं नाशनमातमनः
कामः क्रोधस्तधा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।”

“काम, क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात् आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए ।” इस जीवन में तथा मृत्यु के बाद भी अपना भला चाहने वाले व्यक्ति को तन, मन और वचन से निन्दित इस तीनों (काम, क्रोध व लोभ) कर्मों के वेग को रोकना चाहिए । बुद्धिमानी इसी में है कि हम इन बेगों से बचकर रहे, क्योंकि इन मानसिक वेगों को रोकने वाला व्यक्ति ही इनके दुष्प्रभाव से बचा रह सकता है अन्यथा इनसे होने वाले दुष्परिणामों में से आत्महत्या का शिकार भी हो सकता है।

मद का अर्थ है नशा । नशा कई प्रकार का होता है सत्ता का नशा, जवानी का नशा, सौन्दर्य का नशा, धन का नशा आदि । नशा प्रारम्भ में नशा और अन्त में नाश सिद्ध होता है। नशा चेतना, स्फूर्ति, सतर्कता और बौद्धिकता का नाश करता है। नशा हमारी चेतना को क्षीण करके जड़ता की ओर ले जाता है, जीवन से मृत्यु की ओर ले जाता है। यद्यपि नशा अनेक प्रकार का होता है, तथापि यहां उस नशे की चर्चा प्रासंगिक है जो मादक द्रव्यों के सेवन से पैदा होता है। मादक पदार्थों में ,शराब, तम्बाखू, सिगरेट, बीड़ी, गांजा, भांग, अफीम, चरस के अलावा हशीश, हेरोइन, स्मेक, ब्राउन शुगर, ड्रग इत्यादि विशेष उल्लेखनीय है। नशा चाहे कोई भी हो हानिकारक ही होता है, थोड़ी देर तक मजा और काफी लम्बे समय तक बेहद कष्ट देता है, क्रमशः शरीर को खोखला तथा जर्जर करके अन्ततः नष्ट कर देता है। भोगवादी प्रवृत्ति के लोग मादक द्रव्यों का सेवन करके गम गलत करना चाहते हैं, पर इससे गम गलत नहीं होता अपितु परिणाम उलट जाता है।धीरे-धीरे मादक द्रव्यों का सेवन करने वाले आदत से लाचार नशेबाज अन्तिम चरण में जब नशा छोड़ना चाहते भी है तो छोड़ नहीं पाते। नशा उतरने के बाद जो भयानक पीड़ा होती है उसे बरदाशत करना उनके लिए अत्यन्त कठिन होता है। ऐसी हालत में उनके पास दो ही रास्ते रह जाते हैं। या तो वे फिर से नशों का सेवन कर लें ताकि पुनः बेहोश हो सके या फिर आत्महत्या ही कर डालें । यदि किसी कारणवश मादक न मिले तो वे यह गलत निर्णय लेने के लिए मजबूर हो जाते है कि मादक द्रव्यों का सेवन करके जीते जी मुर्दें के समान हो जाना अथवा खुद अपनी ही लाश को घसीटते रहना अच्छा नहीं, बार-बार से तो अच्छा है जहर खाकर एक ही बार मर जाना । इस प्रकार मदकी मद को नहीं खाता वास्तव में मद मदकी को खा जाता है।

मोह का शाब्दिक अर्थ है अज्ञान, भ्रम या भ्रान्ति। ईश्वर का ध्यान छोड़कर शारीरिक एवं सांसारिक वस्तुओं को ही अपना सब कुछ समझना । इसका दूसरा नाम माया भी है। भय, दुःख घबराहट, अत्यधिक चिन्ता आदि से उत्पन्न चित्त की विफलता को भी मोह कहते हैं। मोह का प्रादुर्भाव अज्ञान से होता है, अहंकार से प्रेरित होकर यह फलता-फूलता है, संकीर्ण भावना इसे शक्ति देती है, ममत्व इसकी खुराक है एवं शोंक इसका परिणाम है। शोक तथा दुखों का जन्म मोह से ही होता है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-

“मोह सकल व्याधिन कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।”

मोह से ही शोक व अन्य प्रकार के दुःख पैदा होते हैं। मोह का एक अन्य अर्थ आसक्ति अथवा लगावट भी है । मोह एक ऐसा मानसिक बेग है, जो जितना अधिक बढ़ता है उतना अधिक दुःखी करता है। राजप्रासादों के मोह से मानव आजीवन मानसिक कारावास भोगता है। इसलिए व्यक्ति को मोह कदापि नहीं करना चाहिए, क्योंकि तत्संबंधी सुदृढ़ संकल्प करके ही वह जीवन में स्वस्थ, सुखी तथा प्रसन्न रह सकता है अन्यथा आगे चलकर आत्महत्या जैसे खतरनाक व घातक दुष्परिणाम भी भोगने पड़ सकते हैं।

मत्सर का अर्थ होता है डाह,जलन, ईर्ष्या। दूसरे के बड़प्पन तथा तरक्की को पसन्द न करना, अपेक्षाकृत अपने आप को हीन समझकर द्वेष भाव रखना ईर्ष्या कहलाता है। ईर्ष्या एक ऐसी भावना होती है जो ईर्ष्या करने वालो को ही कष्ट पहुंचता है, क्योंकि ईष्यालु व्यक्ति जिसके प्रति ईर्ष्या करता है उसको इसका भान भी नहीं होता। ईर्ष्या वस्तुतः हीन मनोवृत्ति की भावना से उत्पन्न होती है। ईर्ष्या, दरअसल उदारता नहीं, संकीर्णता है, महानता नहीं हीनता है। ईर्ष्या करके हम किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते, केवल अपने शरीर का नाश कर सकते हैं, क्योंकि यह एक ऐसी भावना है जो ईर्ष्यालु व्यक्ति के अन्दर कुण्ठा पैदा करती है इसलिए वह अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहता है। यह प्रवृत्ति बिना कुछ करे धरे ही हमारी मानसिकता को हानि पहुंचाती है, ईर्ष्या की आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है और हमें जलाती रहती है । हमारा स्वभाव रूखा व चिड़चिड़ा हो जाता है. इस कुढ़न से एक अनावश्यक तनाव पैदा होता है। जिसका हमारे स्वायविक संस्थान पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हमारा मस्तिष्क लगभग विक्षिप्त सा हो जाता है। इसके दुष्परिणामों को न झेल सकने के कारण कुछ व्यक्ति आत्महत्या भी कर लेते हैं ।

मन ही मानव के बंधन तथा मोह का कारण है। यदि मन नियंत्रण में न हो तथा उचित आदर्शों का पालन न करता हो तो वह सबसे बड़ा शत्रु बन सकता है। अपनी अभिलाषाओं को वश में कर लेने के बाद मन को एकाग्र किया जा सकता है। मानव शत्रु ही मन को दूषित करते हैं। जब मन दूषित हो जाता है तब हमारे विचार दूषित हो जाते हैं। दूषित विचार हमारे आचरण और स्वभाव को दूषित कर देते हैं। दुष्परिणाम यह होता है कि हम मानसिक रूप से अस्वस्थ व विकारग्रस्त हो जाते हैं। क्रमशः हम एक ऐसे जाल में फंसते जाते हैं, जिससे जितना निकलने की कोशिश करते हैं उतना ही उलझते जाते हैं । अंतिम चरण में, हम उस जाल से निकलने की क्षमता खो बैठते हैं। मानसिक विकार से ग्रस्त रोगी की दशा शारीरिक रोगी की दशा से कही अधिक दयनीय कष्टपूर्ण और विभिन्न प्रकार की परेशानियों से भरी हुई होती है । शारीरिक रोगी तो स्वयं कष्ट भोगता है, जबकि मानसिक रोगी स्वयं कष्ट भोगने के अतिरिक्त बिभिन्न प्रकार के उत्पात मचाकर अन्य पारिवारिक व सामाजिक लोगों के लिए भी परेशानियां खड़ी करता है। सबके लिए चिंता व त्रास का विषय बना रहता है। कब क्या कर बैठे, इसका किसी को आभास न रहने के कारण सभी चिंचित तथा अशांत बने रहते हैं।

द्वेष का शाब्दिक अर्थ होता है किसी बात का मन को न भाना अथवा अप्रिय लगने की वत्ति । चिढ़, शत्रुता व बैर भाव को भी द्वेष कहते हैं। दूसरों की ओर से उदासीन हो जाना ही शत्रुता की चरण सीमा है। यह एक शत्रु सौ मित्रों के होते हुए भी काफी कुछ बिगाड़ सकता है। इसलिए व्यक्ति को अपने शत्रु के लिए अपनी ही भट्टी को इतना गरम नहीं करना चाहिए कि वह उसे ही भूनकर रख दे। मन ही मनुष्य को मानव बनाता है तथा मन ही मानव को दानव बनाता है। मन के कारण ही मनुष्य पशुओं से ऊपर उठा है, मन के कारण ही वह इस संसार में फंसा है और मन के कारण ही मनुष्य समय पूर्व इस संसार से अंतिम प्रस्थान भी कर जाता है। यदि हमारे संस्कार अच्छे होंगे तो हमारी मनोवृत्ति भी अच्छी होगी और यदि हमारे संस्कार दूषित होंगे तो हमारी मनोवृत्ति भी दूषित होगी। द्वषपूर्ण मनोवृत्ति वाला व्यक्ति अपने मानसिक बल का दूरूपयोग ही करता है, दुराचारण ही करता है, साथ ही आत्महत्या जैसे घात क अपराध भी कर सकता है।

प्रिय व्यक्ति की मृत्यु अथवा वियोग से होने वाले परम कष्ट को शोक कहते हैं। शोक का अर्थ होता है रंज, खेद व दुःख । किसी भी इन्द्रिय का अतियोग, अयोग तथा मिथ्या योग हमें दुःख कर देता है। मानसिक स्वास्थ्य रक्षार्थ हमें यथाशक्ति इनसे बचने हेतु सदा सतर्क एवं प्रयत्नशीन रहना चाहिए। हमें मुश्किलों का मुकाबला करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए । बार-बार कठिनाइयों का सामना करने से अत्यन्त कठिन काम भी सरल हो जाता है। जब व्यक्ति रंज का आदी या अभ्यस्त हो जाता है तब उसे रंज का अनुभव नहीं होता । दुःख की मात्र इस बात पर निर्भर करती हैकि हम दुःख का अनुभव कितनी मात्रा में तथा कितने समय तक करते हैं। यदि अनुभव न करें तो दुःख हो ही नहीं सकता । मृतक की मृत्यु का दुःख हम उतनी ही मात्रा मे अनुभव करते हैं जितनी मात्रा में हम मन से मृतक के साथ जुड़े होते हैं। फलतः पारिवारिक सदस्य की मृत्यु पर हमें जितना दुःख होता है उतना सामाजिक सदस्य की मृत्यु पर नहीं होता। किसी अपने की मृत्यु होने पर मात्र वही नहीं मरता, काफी हद तक हमारा अस्तित्व भी मर जाता है। जैसे-पति के मरने पर सुहागपन, पत्नी के मरने पर पतिरूप, माता के मरने पर मातृत्व और पिता के मरने पर पुत्रत्व भी मर जाता है। सन्तानोत्पत्ति के साथ मां-बाप का भी जन्म होता है। किसी अति निकट संबंधी के खोने के अतिरिक्त अप्राप्ति के फलस्वरूप अनाथ, बेसहारा, निःसंतान और बांझपन के कारण भी व्यक्ति अत्यधिक शोकाकुल अथवा व्यथित होता है और कदाचित भावावेश में आत्महत्या भी कर लेता है।

भय, आपत्ति अथवा अनिष्ट की आशंका से मन में उत्पन्न होने वाला एक मनोविकार है । जिस प्रकार किसी घातक की तलवार को देखकर कोई बीमार व्यक्ति रोग शैय्या से उठकर भागता है, ठीक उसी प्रकार किसी भारी विपत्ति के भय से भीरू, कायर, बुज़दिल या डरपोक व्यक्ति इस जीवन से ऊबरकर भागता है । यदि शरीर के साथ सब कुछ समाप्त हो जाता, यदि पैरों में कसी हुई बेड़ियां खुल जातीं, यदि अप्राप्त वस्तुएं मिल जातीं तो उन सबके लिए आत्महत्या एक वरदान सावित हो सकती, लेकिन जिस प्रकार रोग शैय्या छोड़कर भागने वाने व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल सकता, ठीक उसी प्रकार आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को मनोवांछित फल प्राप्त नहीं होता ।

किसी वस्तु या व्यक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । किसी मान्य ग्रन्थ, आचार्य अथवा ऋषि द्वारा निर्दिष्ट वह कर्म पारलौकिक सुख की प्राप्ति के अर्थ से किया जाये । वह कर्म जिसका करना किसी सम्बन्ध, स्थिति या गुण विशेष के विचार से उचित तथा आवश्यक हो । वह वृत्ति या आचरण जो लोक अथवा समाज की स्थिति के लिए आवश्यक हो । वह आचार जिसके द्वारा समाज की रक्षा एवं सुख शांति की वृद्धि हो तथा परलोक में भी उत्तम गति प्राप्त हो । परमेश्वर के संबंध में विशेष आस्था तथा आराधना की विशेष प्रणाली । आपसी व्यवहार संबंधी नियम का पालन । सत्कर्म, सृकृति, सदाचार, कर्तव्य, स्वभाव, नीती, न्याय-व्यवस्था, ईमान तथा प्रकृति का दुसरा नाम “धर्म” है । प्राकृतिक नियम का पालन धर्म है और धर्म के विपरीत आचरण अन्य अनेकानेक स्वाभाविक कृत्यों को हिन्दू धर्म में पाप माना जाता है । साथ ही कभी-कभी हिन्दू-धर्मप्रिय व्यक्ति यह समझ बैठते हैं कि अमुक कर्म अथवा अमुक द्वारा किया गया कोई यदि पुण्य कर्म नहीं तो निश्चित रूप से पाप कर्म है और इस प्रकार के कृत्यों के कारण कई लोगों में पाप की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि वे आत्म-ग्लानि के वशीभूत होकर आत्महत्या कर बैठते हैं । यद्यपि अखिल विश्व के किसी भी धर्म के अंतर्गत किसी भी पंथ, संप्रदाय अथवा मत का आत्महत्या से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता, तधापि वह लोगों में पाप-पुण्य की भावना उत्पन्न कर उन्हें आत्महत्या के लिए प्रेरित अवश्य करता है । यद्दपि किसी धर्म विशेष के तहत कोई मतावलंबी आत्महत्या को अपेक्षाकृत इतना बुरा नही बताता, तधापि वह इसकी निन्दा अवश्य करता है । धर्म में एक बार पाप व अपराध कर लेने पर व्यक्ति को किसी भी प्रकार की क्षमा मिल पाना लगभग असंभव है या इसे यों भी कह सकते हैं कि अपराध की सजा अथवा पाप का फल भोगना ही पड़ता है । फलतः बाद में पश्चाताप की भावना इतनी अधिक बढ़ जाती है कि कभी-कभी व्यक्ति यह सोचने लगता है कि किए गए पापों अथवा अपराधों को प्रयश्चित कदाचित मृत्यु उपरान्त ही संभव हो और वह आत्महत्या कर लेता है ।

जिन व्यवसायों में “व्यक्तिगत गतिशीलता” की मात्रा जितनी अधिक होती है, वे व्यक्ति को आत्महत्या की ओर उतना अधिक उन्मुख करते हैं । पत्रकारों, वैज्ञानिकों, मेडिकल प्रतिनिधियों, अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों में व्यक्तिगत गतिशीलता की अधिकता के कारण कृषक वर्ग की अपेक्षा आत्महत्या दर अधिक होती है । सैनिकों में बौद्धिक वर्ग के लोगों की अपेक्षा आत्महत्या की दर कुछ कम होती है । व्यापार में होने वाली हानि-लाभ का भी आत्महत्या पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसका एक उत्कृष्ट प्रमाण यह है कि सन् 1932 ई. में सम्पूर्ण विश्व में आर्थिक न्यूनता अपनी चरण सीमा पर पहुंचने के कारण उस समय आत्महत्या की दर सभी देशों में अधिक थी। व्यापारिक मंदी के कारण अनाप-शनाप घाटा आ जाना व्यक्ति को आत्महत्या के लिए बहुत अधिक प्रोत्साहित करता है। मनुष्य की इस आर्थिक हीन अवस्था को जिसमें ऋण चुकाने के लिए पास मैं कुछ भी न रह जाय, दिवाला निकलना या दिवालिया होना कहते हैं। दिवाला का अर्थ होता है किसी भी वस्तु अथवा गुण का सर्वथा अभाव । जैसे-बुद्धि का दिवाला । दिवालियापन भी कभी-कभी आत्महत्या के लिए आग में घी डालने का काम करता है।

अत्याधिक गरीबी की स्थिति में मनुष्य जब अपने बाल-बच्चों तथा पत्नी का तन नहीं ढक पाता और उनकी क्षुधा को भी शांत नहीं कर पाता तो उसका मन अत्यन्न खिन्न हो जाता है । वह सोचने लगता है कि जब मैं अपने बाल-बच्चों एवं पत्नी को जीवित रखने के लिए साधन नहीं जुटा पाता तो मेरे जीवित रहने से क्या लाभ ? यह सोचकर एक-आध दिन वह इतना अधिक संवेदनात्मक तनाव व दुःख अनुभव करने लगता है कि अंततः आत्महत्या कर बैठता है । आज चाहे फावड़ा और गुदाली चलाकर रोटियाँ खाने वाले श्रमिक हों, चाहे अनवरत बौद्धिक श्रम करने वाले विद्वान सभी बेकारी तथा बेरोजगारी के शिकार बने हुए हैं। उन्हें अपनी और अपने परिवार की रोटियों की चिंता है, चाहे उनका उपार्जन सदाचार से हो या दुराचार से। आज देश में चारों ओर छीना-झपटी, लुट-खसोट, चोरी-डकैती, मार-काट, दंगा-फसाद विद्यामान है।

“बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।
क्षीणाः नराः निष्करूणा भवन्ति।।”

“भूखा मनुष्य क्या पाप नहीं करता, धन से क्षीण मनुष्य दयाहीन हो जाता है।” उसे कर्तव्य तथा अकर्तव्य का विवेक नहीं होता और यही विवेकहीनता आत्महत्या के लिए भी बहुत कुछ उत्तरदायी होती है।

विद्या का अर्थ होता है परम-पुरूषार्थ की सिद्धि प्रदत्त करने वाला ज्ञान, परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति प्रदायक ज्ञान तथा शिक्षा आदि के द्वारा उपार्जित ज्ञान। अर्थात् वस्तुओं और विषयों की वह जानकारी जो मन में होती है, तत्वज्ञान, यथार्थ बात अथवा तत्व की पूर्ण जनकारी । अत्यन्त दुःख की बात है कि अखिल विश्व की सफल प्राणी जाति में सर्वाधिक वैज्ञानिक व शक्तिशाली समझने वाला मानव स्वयं को समझने में असमर्थ है, असहाय है। आज जिन्हें भी परम ज्ञानी होने का घमंड है, वे ही अपेक्षाकृत अधिक आत्महत्या करते हैं। उदहरणार्थ-अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्यों, स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों, कालों की अपेक्षा गोरों, ग्रामीणों की अपेक्षा नगर-निवासियों तथा निरक्षरों की अपेक्षा साक्षरों की आत्महत्या-दर अधिक है। बुद्धि का शाब्दिक अर्थ होता है सोचने-समझने और निश्चय करने की शक्ति, एकाग्रता । अरबी में इसे अक्ल कहते हैं । संस्कृत में प्रज्ञा और हिन्दी में समझ। जो समझ-समझ के फेर को समझ लेते हैं,वस्तुतः वे ही समझदार होते हैं और जो ठीक से नही समझते, लेकिन फिर भी समझते हैं कि वे समझदार हैं, दरअसल वे ही मूढ़,मर्ख अथवा बेवकूफ होते हैं। महाकवि जौक ने क्या खूब समझा है:-

“हम जानते थे इल्म से कुछ जानेंगे
जाना तो यह जाना कि न जाना कुछ भी ।।”

बुद्धि एक विकासशील पदार्थ है। सभी प्राणी या सभी मनुष्य इसका विकास एक समान नहीं कर सकते । विभिन्न स्थानों पर विकसित बुद्धि प्रत्येक बिषय पर पृथक-पृथक मत रखती है। इसी मतभेद के कारण संसार में धर्म-अधर्म न्याय-अन्याय, वाद-विवाद, क्रान्ति तथा युद्ध तक होते हैं । जब व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है तभी वह आत्महत्या करता है।

विवेक का अर्थ है मन की वह शक्ति जिससे भले-बुरे को ठीक तथा स्पष्ट ज्ञान होता है, सत्यज्ञान । कुछ लोग कहते हैं कि मैं अपने बच्चों को बेईमान बनाना पसंद करूंगा, क्योंकि इस जमाने में ईमानदारों को जीवन-निर्वाह करने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी विचारधारा से बेईमानों की संख्या बढ़ती जा रही है। कोई विधि के विधान का पालन करे या न करे, आदर्श तथा नैतिकता का पालन करे या न करे यह उसी के हाथ में है, लेकिन इसका परिणाम उसके हाथ मे नहीं । आज नहीं तो कल बुरे काम के बुरे नतीजे तो भोगने ही पड़ेंगे। निःसंदेह आदर्श व नैतिक काम देर से ही सही, मगर परिणाम अच्छे ही देते हैं । इसीलिए उत्तम काम करने के लिए विवेक का होना जरूरी माना गया है। जिसकी दुहाई देकर लोग बुरे काम करने की मजबूरी जाहिर करते हैं, एक दिन यही जमाना उसकी दुर्गति करके रख देता है। मानसिक रूप से स्वस्थ बने रहने के लिए यह जरूरी है कि विवेक का साथ कदापि न छोड़ें, क्योंकि अविवेक ही आत्महत्या करने के लिए मजबूर करता है।

न्याय मंदिर की पवित्रता स्वतंत्रता और तटस्थता की चर्चा ही न करें ऐसी मान्यता निराधार तथा गलत है। न्यायमूर्तियों के कदाचारों और न्यायपालिका की विसंगतियों का उल्लेख करना किसी न्यायालय की अवहेलना अथवा अवमानना नहीं है। कारण चाहे जो भी हों, वर्तमान स्थिति यह है कि देश,के सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न प्रान्तों के उच्च न्यायालय के समक्ष लगभग इक्कीस लाख मुकदमें लंबित पड़े हैं । उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में लगभग एक सौ न्यायाधीशों के स्थान रिक्त पड़े हैं। कहते हैं कि लगभग सात वर्ष पूर्व पूना में भोंसले राज परिवार के एक वारिस को एक मुकदमें का फैसला तकरीबन 175 साल बाद मिला । इस बीच, पांचवीं पीढ़ी का वह वंशज बेरोजगारी, गरीबी तथा तंगहाली की जिंदगी जी रहा था । “बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख ।” सौभाग्य से उसके बिना लड़े ही मुकदमें का निर्णय उसके पक्ष में हुआ। लगभग बीस एकड़ जमीन में बने बाजार का वह भूमिपति घोषित हुआ । उसके समक्ष बतौर मुआवजे करोड़ों रूपये पेश किए गए । उसकी तो मानो लाटरी ही लग गयी । खुदा का शुक्र है कि उसने इस अर्से में खुदकुशी नहीं की । माना कि यह एक अपवाद है मगर यहां तो आलम यह है कि करीब 15-30 वर्ष कोई मायने नहीं रखते । विधाता ने सभी व्यक्तियों का मस्तिष्क एक जैसा तो बनाया नहीं। दुनिया में जितने भी व्यक्ति थे, हैं और रहेंगे उतने ही प्रकार के दिमाग व चेहरे थे, हैं और रहेंगे । कोई बिजली का बल्व उसी दिन फ्यूज हो जाता है और कोई दस-बारह वर्ष या फिर इससे भी अधिक समय बाद । मस्तिष्क के सात भी उसकी क्षमता से अधिक जबरदस्ती नहीं की जा सकती । कोई –कोई तत्संबंधी मानसिक वेदना को 20-25 या इससे भी अधिक वर्ष झेल लेते हैं और कोई-कोई केवल 5-10 साल में ही आत्महत्या कर लेते हैं।

यद्यपि तत्कालीन घटना या परिस्थिति मामले को अपेक्षाकृत और अधिक गंभीर बना देते हैं, जिसका तत्कालिक परिणाम आत्महत्या ही होता है, तथापि जब तक व्यक्ति पहले से ही अत्यन्त गंभीर उद्वेगात्मक संघर्ष से परेशान नहीं होता, तब तक वह आत्महत्या के संबंध में नहीं सोचता । यद्यपि व्यक्ति के लिए आत्महत्या करना उसकी बहुत बड़ी विवशता का ही परिणाम है, तथापि बौद्धिक प्राणी होने के नाते व्यक्ति को स्वयं अपने बुद्धि पर नियंत्रण रखना चाहिए और गम्भीर से गम्भीर परिस्थितियों, समस्याओं तथा हृदय विदारक घटनाओं में भी आत्महत्या को टालने का हर संभव प्रयास करना चाहिए । वह ऐसी परिस्थितियां व समस्याएं उत्पन्न ही न होने दे, जिनसे उत्तेजित होकर आत्महत्या जैसी घृणित प्रक्रिया को भी अपनाने के लिए विवश हो जाय । वह आत्महत्या की ओर अंतिम प्रस्थान करने हेतु उकसाने वाले, भड़काने वाले, उभारक तथा उत्तेजक तत्वों पर पूर्ण नियंत्रण रखे, इन तत्वों के प्रति पूर्णतः सावधानी बरते, सतर्क रहे, सचेत रहे, क्योंकि चेतना की हार और उत्तेजना की जीत की ही अत्यन्त निंदित नियति है – आत्महत्या ।