कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

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मेवात : पंचायती राज का आदर्श

मेवात तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच पिछड़ेपन का पर्याय मेवात २००१ की जनगणना के अनुसार देश में महिला साक्षरता में सबसे नीचे और शिशु मृत्यु-दर, लैंगिक असमानता और तमाम तरह की जैविक विसंगतियों के अलावा सघन मुस्लिम आबादी के लिए मशहूर! पुलिस के लिए डकैतों का क्षेत्र यहाँ तक की साल भर पहले तक हरयाणा पुलिस ने लोगों को सावधान रहने की चेतावनी के बोर्ड सड़क किनारे लगा रखे थे! जो बड़े प्रयासों और कई प्रयासों के बाद हटाये गए हैं 
                                                     
मगर मेवात के जिला मुख्यालय से चंद किलोमीटर दूर फिरोजपुर झिर्खा खंड का नीमखेडा गाँव ना केवल हरियाणा बल्कि पुरे देश के लिए मार्गदर्शक है! दिल्ली जयपुर सड़क से कोई दो किलोमीटर दूर पहाड़ से लगा ये गाँव  जनतंत्र और पंचायती राज का ही नहीं महिला शसक्तीकरण  का भी पाठ पाठ पढ़ा रहा है! इस गाँव की सभी पंचायत सदस्य महिलाएं हैं! और सबकुछ महिला आरक्षण की बदौलत नहीं बल्कि गाँव की महिलाओं के अपने प्रयास हैं! नीमखेडा की सरपंच आसुबी गाँव के सामंत परिवार की हैं! उनके पति पुराने सरपंच हैं उनसे मेरी पहली मुलाकात उनके घर पर २००७ में हुयी थी उनकी छोटी बहु शिक्षा मित्र हैं और गाँव के स्कूल में पढ़ाती हैं! पंचायत घर के ठीक सामने उनकी बड़ी हवेली हैं जिसमे उनका संयुक्त परिवार रहता है! २००७ में उनसे मेरी मुलाकात का उद्देश्य मेवात में पारो महिलाओं की स्थितियों की पड़ताल करना था! तब ही उस पंचायत की महिला सदयों से मिलना भी हुआ था उनमे सबसे वृद्ध सदस्य जो मेरे स्थानीय साथी की दादी है मुझे खेतों में निकाई करती हुयी मिली थी! पंचायत सदस्य को इस तरह काम करते देखे हुए अरसा हुआ था सो उनसे खेतों में बैठे बैठे ही काफी देर तक बातें हुयी थीं! और उन्होंने बताया था की मेवात में कितने गोत्र वाल हैं (ध्यान रहे की ये टमाट गोत्र वाल मुस्लिम हैं) और उन गोत्रों की क्या क्या विशेषता है! जिसका उलेख्य मेरी किताब जागोरी से प्रकाशित "मेवात में पारो खरीदी हुयी एक औरत" में विस्तार पूर्वक किया गया है! बल्कि ये कहें की नृवंश अध्ययन इन्ही की बातों को आधार बनाकर किया गया!
  
इस पंचायत के महिलामय होने की कहानी कुछ ज्यादा नाटकीय नहीं! प्रारंभिक तौर पर ये ठीक वैसा ही था जैसा आमतौर पर भारतीय गाँव में अपेक्षा की जाती है! सरपंच की सीट आरक्षित होजाने के कारण यहाँ के पूर्व सरपंच ने अपनी पत्नी को उम्मीदवार बनाया और उन्होंने गाँव की दूसरी औरतों को पंचायत सदस्य के तौर पर समर्थन किया! और बस फिर क्या था रच गया इतिहास सबकी सब सदस्य महिला! शुरुआत के दौर में सारे अधिकार पुरुषों के हाथ ही रहे! और पुरुष ही अपनी पत्नियों की जगह सदस्य जी सरपंच जी कहलाते रहे मगर बाद में धीरे धीरे महिलाओं ने सक्रियता बढ़ाई और कमान अपने हाथों में लेली! अब पंचायत घर के साथ लगे सकीना बी के घर के में नीम के पेड़ की छाव में इनकी पंचायत बैठने लगी! घर के छोटी मोटी लडाइयों से लेकर पंचायत के गूढ़ से गूढ़ मसले भी इनके द्वारा सुलझाई जाने लगी थी! स्कूल के पुनारोद्दार का मामला हो या मुख्य सड़क तक गाँव को जोड़ने का! इस पंचायत ने अपने पुर्वर्तियों से बेहतर और त्वरित काम करके दिखाया!  
नारीवाद और जेंडर जैसे शब्दों से अनजान ये पंचायत सदस्य अधिकार और कर्तव्य जैसे शब्दों को बखूबी जानती और समझती हैं! और ग्रामीणों से इसके पालन करवाती हैं! 
मगर आज भी ये सरकारी उपेक्षा का शिकार हो जाती हैं! यहाँ तक की जिला मुख्यालय में अनेक अधिकारी इस पंचायत से आज भी अनजान है! और बज़फ्ता कहते हैं की ये मुसलामानों का इलाका है यहाँ सब पर्दा करते हैं यहाँ ऐसा हो ही नहीं सकता! 
गाँव की इस पंचायत की सभी सदस्य महिलाएं हैं इसका पता देश को बाद में और विदेशियों को पहले चला विदेश के कई पत्रकार आये बातें की जाना समझा! मगर मर्दों ने  औरतों को  फोटो खिंचवाने से माना कर दिया सो बिना तस्वीर के इस गाँव की चर्चा हुयी! विदेशी पत्रकारों ने ही बताया की इन पंचों को स्थानीय प्रशाषण गंभीरता से नहीं लेता  हरयाना सरकार ने स्थानीय प्रशाषण को हडकाया और फिर मेवात की इस पंचायत के चर्चे शुरू किये ! तत्कालीन राज्यपाल ए आर किदवई ने लगातार दौरे और मेवात विकास अभिकरण के अध्यक्ष पड़ स्वीकारने के बाद इन महिलायों को जैसे पंख लग गए और महिला पंचों ने अपना काम अधिकार पूर्ण तरीके से  शुरू किया ! पञ्च बनने के बाद ज़िन्दगी में क्या बदलाव आया के जवाब में पंचायत की सबसे वृद्ध सदस्या आसुबी कहती हैं कुछ नहीं पहले घर के काम के बाद गप्पे मरा करते थे अब गाँव इलाके का काम करते हैं! शिक्षा की अलख जलाने के लिए इन महिला पंचों ने स्वय को साक्षर बनाने की मुहीम शुरू की है! अनपढ़ होने का दर्द अक्सर सालता है, गाँव का प्राथमिक स्कूल अब  माध्यमिक स्तर तक पंहुचा है! और इरादा टेक्निकल कालेज बनाने का है! प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र,पक्की सड़क और सरकारी राशन दुकानों का सुचारू रूप से  संचालन इनकी अन्य  उपलब्धियां हैं. मेवात में शौचालय का ना होना आम बात है ये ख़ास लोगों के घर में ही मिलते हैं पुरे जिले में सार्वजनिक शौचालय अधिक से अधिक 5 हैं! जो सुलभ इंटरनेशनल ने बनवाये है इसलिए ये बड़ी महत्वपूर्ण बात है की पंचायत ने तक़रीबन 100 शौचालय भी बनवाए हैं. ! 
सदस्य कहती हैं महिला पंचायत नहीं हम निर्वाचित पंचायत हैं, इसलिए ताज्जुब करने की ज़रूरत नहीं अगर सरकारी अधिकारी  सहयोग नहीं करेंगे तो भुगतेंगे!

वर्जना परिवर्तन और सामाजिक द्वन्द



भूमंडलीकरन के दबावों ने  अपना  असर  दिखाना  शुरू  कर  दिया  है. उन्मुक्त  उपभोक्तावाद  अनेक  द्वंदों और  समस्याओ  को  सामने  लाया  है ! मानसिक  तनाव, आत्म -हत्या, वैश्यावृति, अपराध , यौन  अपराध , पारिवारिक  विघटन  और  विवाह  जैसी  संस्थाओं  का  अर्थ  खोना  ये  सब  इसके  तोहफे  हैं.
आज  समाज  की  धारणाएं  और  मान्यताएं  बदल  रही  है . अब  सेक्स  नहीं  सुरक्षित  सेक्स  मुद्दा  है . अब  लैगिक  सम्बंदों  पर  नहीं  समलैंगिक  सम्भंदों  पर  बहस  होती  है .
अन्बेयाही  माँ , विवाहेतर  सेक्स , पोर्न  फोटोस  आदी  जिसके  विरोध  और  समर्थन  में  तमाम  तरह  के  तर्क  सामने  आते  रहे  हैं .
आज  स्थापित  मूल्य  मान्यताएं  और  प्रतिस्थापनाएं   लगातार  बदल  रही  हैं . यूरुप  में  एक  समज्शास्त्रिये  शोध  में  सामने  आया  है  की  70 प्रतिशत  शादियाँ  संकटग्रस्त  हैं. अधिकांश  लोग  एक  औरत  और  एक  पुरुष  के  सिद्धांत   को  अस्वीकार  करते  हैं. तथा  अकेली जीवन  शैली  के  हिमायती  हैं. 10 प्रतिशत  का  मन्ना  है  की  अविवाहित  होने  से  यौन  साथी  का  चुनाव  व्यापक  होता  है  और  व्यक्ति  शारीरिक  एवं  भावनात्मक  और  मानसिक  ठहराव  तथा  पुनार्विरती  के  घेरे  से  बहार  आता  है ! इसी  सोच  का  परिणाम  है  की  संचार  तकनिकी  दौर  की  महिलाएं  विवाह  के  बिना  ही  बच्चों  और  सेक्स  का  पूरा  आनंद  ले  रही  हैं. अपने  कंप्यूटर  पर  विर्तुअल  चिल्ड्रेन  तथा  सेक्स  साथी  विकसित  कर  लेती  हैं. भावनात्मक  रूप  से  जुड़कर  उनसे  ही  मनोवैगयानिक  संतुस्ती  पति  हैं. आज  इन  सब  चीजों  की  सामाजिक  स्वीकारिता  भी  बड़ी  है  और  नारीवादियो  ने  रुदिवादी  परम्पराव  पर  ज़बरदस्त  चोट  की  है  जिस  से  अनेक  यौन  वर्जनाओ  और  बंधनों  को  तोड़ने  के  सफल  प्रयास  हुए. हमारा  देश भी  कहीं  पीछे  नहीं  मगर स्थानीय  “संस्कार” और “संस्कृति” की  दुहाई  ने  एक  अजीब  दोराहेपेर पर  ला  खड़ा  किया  है . और  स्थिति  है  के    ना  उगलते  बनता  है  ना ही  निगलते!
शहरी  सम्पनता  और  विलासता  का  गरीबी  और  अभावग्रस्तता  से  आमना-सामना नगरीय  समाज  की  एक  प्रमुख  विशेषता  है . हमारे  महानगरों  में  ऐसे  दृश्य  खूब  देखे  जासकते  हैं  जहाँ  सड़क  के  तरफ  ऐशो-आराम  वाली  आलिशान अट्टालिकाएं  हैं  वहीँ  दूसरी  तरफ  झ्हुगी  झोपड़ियों  की  लम्बी  कतारें. शहरों  की  ये  विलासता  और  अभावग्रस्तता का  आमना -सामना  कुंठा  को  जनम  देता  है  शोषण  और  अपराधों  का  कारण  बनता  है. नगरीय  सभ्यता  सिर्फ  गरीबों  वंचितों  के  साथ  ही  ये  सब  नहीं  करती  बल्कि  वो  अमीरों  को  भी  अपने  चपेट  में  उसी  तेज़ी  से  लेती  है  और  उनमे  ढेरों  सामाजिक  विकृति  पैदा  करती  है! निरंकुश  प्रतिस्पर्धा  यौन अपराधो , तस्करी  विलासता  आदी  को  जनम  देती  है . इससे  भी  आगे  बढ  कर  प्रदुषण , प्रकितिक  संसाधनों  का  विनाश  और  आभाव को  पैदा  करती  है. 

Ø तीन  बच्चों  की  माँ  प्रेमी  के  साथ  फरार 
Ø मामा  भांजी  के  सम्बन्ध  बने  कलह  का  कारण 
Ø प्रेमी  के  साथ  मिलकर  पति  की  हत्या 
Ø प्रेम  में  रोड़ा  बनी  तो  पत्नी  को  रस्ते  से  हटाया 
Ø शराबी  पिता  ने  कराया  पत्नी  और  बेटी  के  साथ  सामूहिक  दुराचार 
Ø मालकिन  से  संभंध  बने  किरायेदार  की  मौत  का  कारण 
Ø 8 वर्षीया  बच्ची  के  साथ  माकन  मालिक  ने  किया  कुकरम 
Ø बॉस के  बच्चे  को  जनम  देने  की  तीव्र  इच्छा  बनी  लड़की  के  मौत  का  कारण 
Ø लड़की को  उसके  नए  पति  ने  दस  हज़ार  में  ख़रीदा  था 
Ø दोस्त  ही  पत्नी  को  ले  उड़ा 

ये  सब  दिल्ली  के  समाचार  पत्रों  के  छोटे  पतले  शीर्षक  हैं  जिन्हें  सनसनी  वालों  के  लिए  छोड़  कर  हम  आगे  बढ़  जाते  हैं. उपरुक्त  सभी  असामान्य  घटनाएँ  गहन  अध्यन  अनुसन्धान  की  मांग  करती  है! सवाल  तब  और  प्रसांगिक   होजाता  है  जब  नवी  क्लास  की  छात्र  रीय  के  पिता  जासूस  को  लाखो  रुपया  इस  खोज  के  लिए  देता  है  की  इसकी  बेटी  ने  जेबखर्च  दो  हज़ार  से  बड़ा  कर  दस  हज़ार  क्यों  कर  दिया  और  पता  है  की  छोटी  रिया  के  अपने  से  काफी  बड़े  व्यक्ति  से  यौन  सम्बन्ध  हैं  जिसकी  मदद  के  लिए  उसने  अपने  कीमती समान  भी  बेच  डाले.
गरिमा शादी  के  पंद्रह  साल  बढ  चार  संतानों  की  माँ  होने  और  खाते  पिटे  घर  की  मालकिन  होने  के  बावजूद  भी  क्यूँ  भागी ? 

भले  ही  हम  बाल-विवाहों के  पुरजोर  समर्थक  रहे  हों, खजुराहो  के  भित्ति  चित्र  कितने  ही  शौक  से  बनवाए  हों, भले  ही  देवदासियों  को  धार्मिक  मान्यता  देते  हों  और  अनेक  यौन  सम्बंद्धों को  अनदेखा  करते  हों  चाहे  हम  कितने  ही  खोखले  रहे  हों  पर  हमने  कभी  भी  यौन  आचरण  पर  खुलकर  बोलने  को  स्वीकार  नहीं  किया! हमारी  सामाजिक  संरचना  ने  महिलाओ  को  परंपरा  और  मूल्यों  की पहरेदार  बनाकर  बैठा दिया  नतीजन . महिलाओ  की  यौन अभिवाक्तियो  पर  कड़े  नियंत्रण  लगा  दिया गया . हमारे  सामाजिक  मूल्यों  और  मान्यताएं  भी  वैवाहिक  संबंधों  से  ज्यादा  परिवारिक  एकता  को  प्रोत्साहित  करते  रहे  और  कामवृति  की  अभिवयक्ति  को  वर्जित  मानते  रहे! इसी  का  परिणाम  है  की  समाज  में  यौन  इच्छाओ  का  दमन  होता  रहा  और  समाज  में  यौन  वर्जन्यें  पलने  वाले  पुरुषों  और  मौन  रूप  से  कुंठित  महिलाओ  का  दुष्चक्र  मजबूत  होता  गया. परिणाम  स्वरूप  समाज  सेक्स  की  विस्फोटक  स्थिति  में  हमारे  सामने  खड़ा  है ! एक  सर्वेक्षण  में  स्वीकार  किया  गया  की  11% महिलाएं  पति  के  अलावा  कई  सहवास  सहयोगी  रखती  है (पति  के  मित्र , रिश्तेदार, दफ्तर  के  सहयोगी  आदी) 13% महिलाएं  अनल  सेक्स (गुदा मैथुन) पसंद  करती  है . 25% पोर्नोग्राफी. 25% नए  आसनों  में  सेक्स  करना  पसंद  करती  हैं. वही  13% महिलाएं  अपने  से  कम  उम्र  के  पुरुषो  के  साथ  सेक्स  की  इच्छा  रखती  हैं. (INDIA TODAY)

इन  संवेदनशील  और  गंभीर  घटनाओं  को  प्रेम  संवेग  या  भटकाव  मात्र  जैसी  हलकी  बातें  वो  भी  वहां  की  जिस  समाज  में  हर  आधे  घंटे  बाद  बलात्कार  होता  हो , करना  उथले  और  बेतुके  तर्क  होंगे  (बलात्कार  यौन  उत्पीडन  और  छेड़छाड़  जैसी  सबसे  ज्यादा  हुयी  घटनाएँ  दिल्ली  सबसे आगे है, और  इसमें  भी  दिल्ली  में  हुई  छोटी  बच्चियो  के  साथ  हुयी  घटनाओ  के  80% में  उनके  अभिभावक  ही  थे)
अब ऐसी  हालत  में  इसे  बीमार  मानसिकता  वाले  समाज  (Sick Society) से  ज्यादा  क्या  कहेंगे ? मगर इससब के पीछे एक ओर जहाँ समाज के होरहे अन्धाधुन शहरीकरण और जड़ परम्पराओं की लड़ाईयां है तो दूसरी तरफ समाज में बढ रही आर्थिक असमानता की खाई

अभी  तक  नगरीय  समाज  में  सेक्स  अनुसंधानों  में  इस  तथ्य की  पुष्टि  हुयी  है  की  यौन  आकांक्षाओ  में  सारी  वर्जाओं  को  तोड़ने  की  क्षमता  है. अविवाहित सारी  वर्जनाओ  को  टाक  पर  रख  जमकर  रोमांस  और  सेक्स  कर  रहे  हैं, विवाहित  महिलाएं  भी  दाम्पत्य  सुख  में  आये  बासीपन  को  दूर  करने  के  लिए  पर-पुरुषों  से  रिश्ते  बना   रही  हैं. आधुनिक  महिलाएं  डरो  पुरुष  मित्र  रखती  हैं! ग्रुप  और  समलिंगी  सेक्स  करती  और  स्वीकारती  हैं . बगैर  प्रेम  और  समर्पण  वाला  सेक्स  पसंद  करती  हैं! अपनी  देह  भाषा  को  कामुक  बनाना  के  लिए  एडी  छोटी  का  जोर  लगाती  है . वैश्वीकरण  के  दौर  में  फलता -फूलता  बाज़ार  और  ब्यूटी पार्लरों का  जाल  इसका  गवाह  है.
नगरीय  समाजों  में  अत्यधिक  परिश्रम  और  अति  कार्यकुशलता  के  वातावरण  में  इंसानी  रिश्ते  आहत  हुए  है! महानगरीय  खलबली  भरे  जीवन  में  संतुलित ढंग  से  रहना , आवास  की  स्थिति, कार्य  स्थलों  की  स्थितियां, आवागमन  की  स्थितियां  आदी  असंभव  हैं.
दरअसल नगरीय  समाज  में  तेज़ी  से  परिवर्तन  हो  रहे  है  1950 में  ये  सिर्फ  आबादी का  30% था  वहीँ  अब  48% से  ऊपर  जा  रहा  है ! “विश्व  आबादी की  स्थिति” नामक  रिपोर्ट  में  बताया  गया  की  नगरीय  आबादी  का  ये  फैलाव  तीसरी  दुनिया  के  देशों  में  केन्द्रित  है . विश्व  के  20 बड़े  नगरों  में  से  15 तीसरी  दुनिया  के  देशों  में  हैं .और ये   नगर  चिंता  का  एक  बड़ा  कारण  बने  हुए  हैं  की  ये  सांस्कृतिक  विस्फोट  क्या  करेगा ?
ये  विस्फोटक  नगरीकरण  गरीबों  दलितों  और  महिलाओ  के  लिए  कौन  से  नए  अवसर  और  चुनौतियाँ  पर्स्तुत  करेगा ?  इनके लक्ष्य क्या हैं और क्या  ये  समाज  अपने  लक्षों  को प्राप्त  करेंगे ? या महज़ समग्र समाज को भी  भटकाव की ओर लेजयेंगे और क्या  इन  समाजो  का  ताना  बना  बिखर  जायेगा ?

मौजूदा  हालत  तो  अभी  लम्बे  अनुभवों  और  अनुसंधानों  की  मांग  कर  रही  हैं .
नगरीकरण  के  प्रभाव  से  विवाह  परिवार  और  नातेदारी  जैसी  संस्थाएं  कमज़ोर  हुयी  हैं  और  इनकी  संस्थानिक  विश्वसनीयता  ख़तम  हुयी  है . यहं  मानवीय  रिश्तों  में  नए  प्रयोग करने  की  आवश्यकता  है ! प्रेम , नैतिकता , सामाजिक  रिश्ते  नाते  जैसे  पुराने  विचार  घुटने  टेक  चुके  हैं . नयी  मान्यताओं  और  मूल्यों  के  दबाव  सामाजिक  संरचना  में  स्पष्ट  दिखाई  देने  लगे  हैं . पुराने  मूल्य  और  मान्यताएं  निर्धारित  हो  चुकीं  अब  नया  सामाजिक  सांस्कृतिक  दर्शन  उभरेगा  और  नयी  मानवता  तथा  नैतिकता  जनम  लेगी ! मगर  सतही  हालत  बड़ी  डरावनी  हैं  जो  व्यक्तिकता  और  स्वार्थ  पर  आधारित  प्रतीत होती  है . मगर  ये  सब  होकर  रहेगा 
यधपि  ये  सच  है  की  यौन  अभिवय्क्तियों  पर  सामाजिक  पर्दा  संस्किरितिकरण  का  एक  रूप  रहा  है . और  हमारा  समाज  अभी  जबकि  इस  स्थिति  के  चरम  पर  पंहुचा  भी  नहीं  था  की  यौन  संबंधों  का  ये  रूप  आ  जाना  पुरे  समाज  के  लिए  एक  संक्रमण है जिस कारण प्रेमियों की हत्या या अन्य तमाम यौन अपराध हो रहे हैं विवाहों के नाम पर लडकियां खरीदी जा रही हैं! छोटी छोटी बच्चियों से बलात्कार हो रहे हैं! सगा बाप अपनी बेटी का बलात्कार कर रहा है! और समाज के भीतर अजीब भायावाह्पन बसा है 

first page of Persian Ramayan



Cover page of Persian Ramayana written during the times of Mughals.. it begins with 'bismillah hir rahman nir rahim... I though this is the proper time to share this with my friends.... (I wish to say a lot by this...hope I could have said anything silently...

महिला आरक्षण से आगे


अक्सर बड़े बड़े लोगों की चर्चो में छोटे छोटे लोगों के बड़े बड़े मुद्दे हाशिये पर चले जाते है! महिला आरक्षण बिल के राज्यसभा में पास होने के बाद जहाँ एक तरफ खुशियों का माहोल है तो दूसरी तरफ बहस जारी है की आखिर इस आरक्षण का परिणाम क्या होगा! मगर चाहे जो हो इस आपाधापी में हम कृषकों और कृषि मजदूरों को भूल चुके हैं। थोडा पीछे जाएँ तो पिछले संसदिये चुनाव में उत्तर प्रदेश के संसदीय क्षेत्र रायबरेली के दो प्रखण्डों क्रमश: हरचन्दपुर और महाराजगंज के गांवों की दिवारों पर उकेरे गये नारों को याद कर आश्चर्य ही होता है।
इन नारों की बानगी देखें ''महिलाओं को किसान का दर्जा जो दिलायेगा, वोट हमारा पायेगा'' और ''जितनी होगी भागीदारी, उतनी होगी हिस्सेदारी''। वास्तव में नारी सशक्तिकरण और महिला आरक्षण् के झूंनझूनों के बीच ये जन-नगाडा हमारी आजादी और लोकतांत्रिक परिपक्वता की स्पष्‍ट पहचान है। ये सही है कि हमने अपनी आजादी के साथ साथ महिलाओं के अधिकार आंदोलन को गंभीरता से लिया है और जुझारू नारीवादियों के संघर्षों ने अपना रंग दिखाया है। जिसके फलस्वरूप कई कानून अमल में आये। मगर आज जब समाज महिलाओं को सशक्त स्थिति में पाता है तो उसकी शिकायत होती है कि पुरूषों को नारियों की प्रताड़ना से कौन बचाये शायद यही वजह है कि पुरूषों को नारियों के शोषण से बचाने के लिये तथाकथित आंदोलन सुगबुगा रहा है और अब तो कई संस्थाएं इस पर कार्य करने लगी हैं। 

मगर सवाल उठता है कि क्या वास्तव में महिलायें स्वछंद या स्वतंत्र हैं। अगर हां तो क्या परिसम्पित्तयों पर उनका अधिकार है या क्या वो स्वयं की अर्जित आय को व्यय करने का अधिकार रखती हैं और क्या उनके श्रम का अनुदान उन्हें मिल पाता है। 

कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमति सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र से महिलाओं ने जो किसान होने की मान्यता मांगी है उसका अपना कारण भी है और आंदोलनों का इतिहास भी। शायद आपको ताज्जुब लगे मगर सच तो ये है कि जब भी जमीन और पट्टे की बात होती है तो महिलाओं को परिवार का मुखिया माना जाता है। दिल्ली की सल्तनत में रजिया सुल्ताना को जिस संकीर्णता का शिकार होना पड़ा था वो आज भी जारी है और लैंगिक असमानता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि महिलाओं को किसान क्रेडिट कार्ड जैसी योजना का कोई लाभ नहीं मिलता सीधे सीधे कहें तो औरतों को किसान नहीं माना जाता। मार्था चैन के 1991 सर्वेक्षण परिणाम में साफ है कि महिलाओं की मालिकाना भूमि भागीदारी लगभग नगन्य है। यही अध्ययन स्पष्‍ट करता है कि महिलाओं का भूमि उत्तराधिकार मात्र 13 प्रतिशत है। 

दुखद ये है कि भूमि पर महिलाओं की भागीदारी का प्रश्‍न 1946-47 के बंगाल के तेभागा आंदोलन से ही उठ खड़ा हुआ था और अपने परिवार के पुरूषों के साथ भूमिपतियों से लड़ती हुई महिलाओं ने घरेलु हिंसा और भूमि अधिकार की बात छेड़ी थी। इस आंदोलन में चुल्हे चौके छोड़ दरातों और झाडु लेकर बाहर निकली महिलाओं ने अधिकार और सम्मान का दर्शन तो समझा मगर परिवार के भीतर की स्थितियों के परिर्वतन नहीं समझ सकीं फलस्वरूप आंदोलन की समाप्ति के बाद पुन: अपने परिवार के पुरूषों के अधीन हो गई। कुछ ऐसा ही तेंलंगाना आंदोलन के बाद हुआ भूमि अधिकार के संघर्षों में महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर अपनी भूमिकाओं का निर्वाह किया मगर घरेलु मोर्चे पर पुन: मात खा गई। मगर जब 1978 में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में मठ के विरूध्द बोधगया भूमि आंदोलन में जब महिलाओं ने अपने सरोकार की बातें की तो कई प्रकार के विरोध हुए मगर बातचीत और आंदोलनात्मक आवश्‍यकताओं ने आखिर मार्ग प्रशस्त किया। घर के पुरूषों ने जब कहा कि जमीन किसी के नाम हो इससे क्या फर्क पड़ता है तब औरतों ने पूछा कि तुम विरोध क्यों करते हो। जमीन हमारे नाम होने दो।लेकिन तब जिला अधिकारी ने पट्टे महिलाओं को देने से इंकार कर दिया उन्हें महिलाओं के परिवार प्रमुख की भूमिका पर आपत्ति थी। वो पट्टे किसी नाबालिग पुरूष के नाम करने को तैयार थे। मगर महिलाओं के नाम कतई नहीं। अब महिलाओं को वाहिनी के कार्यकर्ताओं का पूरा समर्थन था और आखिर में सरकार की अधिसूचना के माध्यम से 1983 में जमीन के पट्टे महिलाओं के नाम भी किये गये। भूमि अधिकार के मामले मे महिलाओं की विश्‍व में पहली जीत थी। बोधगया आंदोलन न केवल भूमि अधिकार के लिये महत्वपूर्ण है बल्कि कार्य बंटवारे और वित्तरहित श्रम का प्रश्‍न सामाजिक समानता के समक्ष लाने का संघर्ष भी है। यहां उल्लेखनीय है कि इस इस भूमि आंदोलन का प्रमुख नारे  ''जमीन किसकी जोते उसकी'' पर प्रश्‍न उठाया कि जमीन जो बोये या काटे उसकी क्यों नहीं। वास्तव में इसके पीछे भी वजह थी कि आंदोलन के पुरूष साथियों ने महिलाओं से पूछा था कि अगर जमीन वो लेंगीं तो जोतेगा कौन जवाब में महिलाओं ने कहा था कि अगर जमीन पुरूष लेंगें तो उन्हें बोयेगा या काटेगा कौन तो फिर काम का परितोषिक अथवा मालिकाना हक क्यों नहीं। महिलायों के भूमि अधिकार पर बिल का एक ड्रामा पहले भी हो चूका है मगर अफ़सोस ये महज़ ड्रामा ही रहा वास्तव में आज भी महिलाएं  कृषि भूमि उतराधिकार प्राप्त नहीं कर सकती क्योकि ये अभी तक विधिसम्मत हुआ ही नहीं! शाहबानो मामले में इस्लाम को खतरे में बता रहे मुस्लिम पहरुआ शरियत की इस अनदेखी (इस्लाम महिलायों के भूमि अधिकार को अनिवार्य करता है) कर रहे हैं और २००५ में  मुस्लिम परसनल ला बोर्ड ने प्रधान मंत्री को मात्र एक ज्ञापन देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली! ज़ाहिर खेत और किसान जब अप्रासंगिक हुए जारहे हैं तब इन अधिकारों का क्या फायदा! खेत और ज़मीन आज पिछड़ेपन की निशानी बनते जारहे हैं तब इन पर बात कौन करे मगर सच तो यही है की देश की बहुसंख्यक महिला आबादी अपने भूमि अधिकार की बाट जोह रही है और दुखद ये है की उनकी आवाज़ संसद तक पहुचने वाला कोई नहीं! 


तो क्या महिला आरक्षण महज़ ड्राइंग रूम तक ही सीमित रहेगा और आँगन वाले घर अछूते रह जायेंगे अन्तरिक्ष तक की उड़न वाली लड़कियां(भले वो अमरीकी नागरिक हों) हिंदुस्तान की असली पहचान है और क्या हिंदुस्तान की राजनीति पर अब इलीट पूरी तरह हावी हो गए और क्या खेत ज़मीन बैल हल जैसे शब्दों को भूल जाना बेहतर है या सोनिया गाँधी ज़मीन पर औरतों के अधिकार पर ध्यान देंगी  

शिमला में बाल मजदूरी


शिमला रेलवे स्टेशन से नीचे सरकार ने एक बस्ती बसायी है नाम दिया है कुष्‍ठ कालोनी। यह वह कॉलोनी है जहाँ सरकार ने कुष्ठे रोगीयों का पुर्नवास किया है। कॉलोनी के पास ही एक अनाधिकृत बस्ती बसी है नाम है महाशिव कॉलोनी। इस बस्ती में करीब 70 परिवार रहते हैं। अधिकतर परिवार प्रवासी हैं और अलग अलग राज्यों से रोजगार की तलाश में यहॉ 10 वर्ष पूर्व आये हैं। उल्लेखनीय हैं कि ये सभी परिवार अनुसूचित जाति व अनुसूचित जन जाति से हैं। शायद यही कारण है कि बदहाली और मजबुरीयों को देखने के लिये ज्यादा मेहनत करने की आवश्ययकता नहीं है। यहाँ बदहाली का तांडव स्पष्ट दिख जाता है। बच्चों से लेकर बुजुर्गो के चेहरे से उन दयनीय स्थिति और मजबुरी का अहसास स्पष्टत रूप से देखा जा सकता है।इस बस्ती का हर बच्चा 4-5 साल की उम्र से ही भीख मॉगने निकल जाता है और थोडा अधिक उम्र होने पर कबाड चुनने के काम में लग जाता है।


कुछ एैसी ही स्थिति है फन वर्ल्ड और महासु पिक्स, देवीधार मन्दिर शिमला में । यह वह पर्यटन स्तम्भ है जहाँ मंद मौसम में भी सैकडों पर्यटक रोज आते हैं। और कुफरी से उक्त स्थल तक घोडे चढना इन पर्यटकों का रोमांच दूगना करदेता है। दो किलोमीटर के इस सफर में पर्यटक जहाँ शाही सवारी के मद में और घोडों की टॉपों से झुम उठते हैं। वहीं इन टापों से घोडों की लगाम थामने वाले हाथों का बचपन कुचला जाता है। मगर टापों की आवाज इन बच्चों की आवाजों को दबा जाती है। यही वजह है कि इतना बडा पर्यटन स्थल होने के बावजुद सरकारी अमले को घोडे चलाने वाले ये बच्चे दिखाई नहीं देते। सुबह से शाम तक ये बच्चे अनवरत चक्कर लगाते रहते हैं ये चक्कर समान्य तौर 10 से 15 बार का होता है। 8 से 15 साल के ये बच्चे एक साथ दो से चार घोडे संचालित करते हैं। अक्सर देखने में आता है कि कम उम्र के ये बच्चे घोडे नहीं सम्भाल पाते और पर्यटक गिर जाते हैं। जिसके बाद पर्यटक तो गुस्से में इन बच्चों के साथ मार पीट करते ही है इनके ठेकेदार भी इन बच्चों की जर्बदस्त पिटाई करते हैं। यहाँ काम करने वाले अधिसंख्यक बच्चें प्रवासी हैं जो गॉव के लोगों अथवा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ काम की तालाश में यहाँ आये हैं। यहाँ जितने भी घोडा चलाने वालों की युनियन हैं उनमें धडल्ले से बच्चों को घोडा वाहक बनाया जा रहा हैं जो उस दूर्गम रास्ते पर यात्रियों के अवागमन के साधन हैं। यहाँ ना केवल बाल श्रम का मामला है बल्कि इस पुरे प्रकरण में सबसे दूखद पहलु है कि ये बाल श्रमिक दिन भर के कार्य के बाद रात के समय घोडों के चारा खिलाने के लिये जंगल की तरफ लेकर चले जाते हैं। जहाँ उन्हें आराम और घोडों की रखवाली दोनों साथ साथ करनी पडती है। कई बार घोडों को वन विभाग के क्षेत्रों में प्रवेश करने पर इन बच्चों को वनकर्मीयों का शोषक भी बनना पडता है। ये तो संगठित बाल मजदूरों के उदाहरण मात्र हैं मगर यहाँ तो हर कदम बाल मजदूर अपनी बदहाली से आपका स्वागत करते मिल जायेंगें।
यहाँ काम करने वाले बच्चें अधिक्तर उत्तर प्रदेश ,बिहार, झारखण्ड और नेपाल से आते हैं। इनमें नेपाली बच्चों में अधिसंख्यक तो अपने मॉ बाप के साथ आये हैं। इनमें कुछेक घरों से भागकर अथवा पडोसीयों द्वारा लाये गये हैं। मगर पुरबिया राज्यों से आने वाले बच्चें पडोसीयों अथवा गाँव के किसी व्यक्ति द्वार लाये गये हैं। बाल मजदूरी पर काम करने वाले अनुभवी कहते हैं कि यह पडोसी या गॉव के भाई चाचा जैसे लोग दरअसल बाल मजदूरों के दलाल होते हैं। कुफरी में भी स्थितियाँ लगभग एक समान है। अधिसंख्यक बच्चे मानते हैं कि उनके काम का भुगतान उसे किया जाता है जो उन बच्चों को लेकर आया था। इसका कारण बताया जाता है कि यह दलाल पैसों को आसानी से उन बच्चों के घर पहूंचा देते हैं। मगर इसमें उन वयस्कों का कितना हिस्सा होता है बच्चों को नहीं पता। स्थानीय निवासी बताते हैं कि जिस ठेकेदार को अपने काम के लिये बच्चों की आवश्यकता होती है वह यहाँ काम करने वाले उन राज्यों के लोगों को बच्चे लाने के लिये पैसे देते है।
वास्तव में यह बच्चे शिमला में सीजन के दौरान और अधिक हो जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे बरसात के दिनों में जंगल भी फूल दिख्नेने लगते हैं। मगर शिमला के इन बरसाती फूलों की जडें बिहार उत्तर प्रदेश और नेपाल जैसी जगहों पर है। सबसे अधिक अफसोसजनक बात यह है कि बरसाती फूलों की तरह ये बच्चे भी अपनी हाडतोड मेहनत के बाद एक सीजन से ज्यादा काम करने के लायक नही रह पाते क्योंकि सीजन के काम 24 धंटे चलते हैं और लगातार काम करवाने के लिये इनके मालिक इन बच्चों को अफीम जैसे नशों का आदि बना देते हैं।
शिमला में बाल श्रम का ये संगठित रूप वास्तव में बाल अधिकारों और मानवीय मूल्यों के विरूद्व ही नहीं आपितु न्यूनतम मजदूरी और काम के घंटे तय ना होना अपने आप में बंधुआ मजदूरी की श्रेणी में ही रखा जा सक्ता है। जो सरकार और प्रशासन को सीधे तौर पर चुनौती देती है भले ही हिमाचल सरकार राज्य में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन के लक्ष्य को पुरा करने का दावा करे मगर ये बच्चे बंधुआ मजदूर हैं जिन्हें काम के बाद निकाल फेका जाता है। यह सम्पूर्ण समाजिक जीवन के लिये एक चुनौती हैं जो समान रूप से सभी राज्यों व देशों की स्थिति को सीधा प्रभावित करती है। आवश्यकता है कि शिमला प्रशासन अपने क्षेत्र को इस श्रम जाल से मुक्त रखे ताकि देवभूमि अपनी अपनी पावनता सदैव ही बरकरार रखे।

बदहाल बचपन : उनकी नज़र से....


सरकारी दस्तावेजों में भले ही बाल श्रम एक अपराध हो और उसके लिये सजा या जुर्माने का प्रावधान हो मगर वास्तव में देश के अधिकांश भाग में बाल श्रम जबरिया तरीके से व्याप्त है, और इसके अस्तिव का सबसे शर्मनाक पहलु तो ये है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य की राज्यधानी से चंद किलोमीटर की दूरी पर एक अलग ही दुनिया बसती है। एक ऐसी दुनिया जहां विकास की किरणें फुटती और फिर मद्विम हो जाती हैं, और इस समाज की वास्तविक समस्या क्या है और इसकी शुरूआत कहां से करें ये भी एक दुविधा है। इस क्षेत्र का मुख्य व्यवसाय खेती रहा है मगर सम्पन्न खेती क्या होती है ये भी यहां के लागों के लिए एक अंजाना सा नाम है । कृषि न हाने के कारण इस क्षेत्र के लागों ने ड्राइवरी को अपना मुख्य पेशा बना लिया। हालाकिं इधर के 2 -3 वर्षो में मेवात में शिक्षा पर जोर शोर से काम शुरू हुआ है मगर यहां हुआ सर्वशिक्षा अभियान का सबसे बडा घोटाला सारी स्थितियों पर प्रश्‍न चिन्ह है। ।
मेवात के एक जनकार्यक्रम में ये रिपोर्ट रिलीज़ की गयी
प्रदेश में व्याप्त आजाद मनुष्य के अधिकारों का हनन करती बंधुआ मजदूरी हो स्त्री पुरूष के समान कार्य का असमान वेतन हो न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी का भुगतान हो बेरोजगारी, लैंगिक असमानता अथवा मानवीय तस्करी या अशिक्षा, गरीबी ये तमाम समस्यायें इस क्षेत्र मे अपने चरम अवस्था पर हैं। मगर अफसोस की बात यह है कि प्रशासनिक इक्षाशक्ति की कमी व स्थानीय समाजिक नेतृत्व के ना होने ने इस क्षेत्र को लगातार गर्त में धकेला जा रहा है।
बाल अधिकारों की घोर उपेक्षा और कदम दर कदम नजर आने वाले, बाल श्रमिकों ने हमारे संगठन को इस विषय को अपने हाथ में लेकर सच्चाइ सामने लाने को मजबुर किया और तमाम तरह की समस्‍याओं को झेलने के बावजुद हमने मेवात के 3 ब्लाक पुनहाना, नगीना और फिरोजपुर झिरखा में 14 वर्ष या उससे कम के कुल 498 बाल मजदूर चिन्हित किये! जिसके तीस प्रतिशत अर्थात 150 बाल श्रमिको को अध्ययन के दायरे में लाया गया और सर्वेक्षण नमुनों के अतिरिक्त समूह सम्मिलन व अवलोकन के माघ्यम से अघ्ययन सम्पन्न हुआ! आइयें अब जरा इन कारणों की असलियत से आपको भी परिचित कराते चलें।
अधिकांश समस्याओं को मेवों की अपनी या फिर अल्पसंख्यकों का मामला बताकर सरकार के द्वारा पल्ला झाड लेने व सुनियोजित तरीके से वर्ग विशेष को मुख्यधारा से काट कर रखने की सरकारी कुचेष्टा स्पष्‍ट दिख जाती हैं। इन सब के बावजुद ये उल्लेखनीय है कि गुडगांव व फरीदाबाद जैसे शहरों से लगा ये जिला हरियाणा का सबसे पिछडा जिला है। सर्व शिक्षा अभियान और विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं की पोल खोलता देश में ये जिला शै‍क्षणिक नजरिये से पिछडापन में अव्वल है। मेवों पर एक बडा आरोप उनको अधिक बच्चे पैदा करना है। मगर वास्तविकता तो ये है कि अधिकांश बच्चों की मौत हो जाना अधिक संतान पैदा करने की प्रमाणिक वजह है। वहीं अन्य विकासात्मक योजनाओं के लागु न होने का ठीकरा स्थानीय राजनैतिक नेत्त़व के माथे फोड दिया जाता है। साथ ही इनसे सम्बंधित किसी भी मुद्वे को समाजिक समस्या के बजाय मेवों की अपनी समस्या के रूप में देखा जाना प्रशासन की दोहरी नीति का स्पष्‍ट उदाहरण है। एक ऐसा क्षेत्र जहां ना तो कोइ संभावना है न ही कोइ वर्तमान सकारात्मक स्थिति। कहते हैं कि किसी भी समाज को अनिवार्य रूप से रोजगार और रोटी की आवश्यकता होती है। ये वो क्षेत्र है जो शुन्य क्षेत्र है जहां संभावनाएं उपजने से पहले ही दम तोड देती है। एक बात उल्लेखनीय है कि हरियाणा सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी 93 रू का दस प्रतिशत भी इन्हें नहीं मिल पाता। रोजगार की संभावनाओं के ना होने और परिवार का बडा आकार बच्चों को काम करने पर मजबूर किये जाने की एक बडी वजह तो अवश्य मानी जा सकती है। किन्तु ऐसा नहीं कह सकते कि बाल मजदूरों का परिवार उन्हें पढाना ही नहीं चाहता । इस क्षेत्र के अध्ययन के दौरान इन बाल मजदूरों के अभिभावकों में 80 फीसद उनके पढ़ाई के लिये चिन्तित दिखे मगर इच्छाशक्ति की कमी स्पष्‍ट दिखी। एक सवाल जो अक्सर उन्होनें हमारे सामने रखा कि, अगर बच्चे पढ भी जायें तों क्या होगा और क्या उन्हें नौकरी मिल जायेगी, और कि अगर शिक्षा उनके रोजगार में सहायक नहीं तो फिर पढाइ के बजाय काम सीखना और काम करना कहां से गलत है। बच्चों कि अधिक संख्या हो या ना हो मगर पहले तो खाना चाहिये दो बच्चें ही हों और खाने को एक रोटी तो पहले रोटी कमाना पडेगा ना।
वहां एक गैराज में काम करने वाला 13 वर्षीय बच्चा अकबर (बदला हूआ नाम, यहां बाल न्याय (बच्चों की देख भाल एवं संरक्षण) अधिनियम 2000 की धारा 21 के तहत बच्चों की पहचान गुप्त रखी गयी है ) अपने अभिवावको को जवाब कुछ यूं देता है। नौकरी का क्या करना है कुछ भी कर लेंगें, नौकरी मांगने से नहीं मिलती है सर! लेनी पडती है पहले पढें फिर देखेंगें, तीन साल का बच्चा क्या करता है। मगर जिन्दा रहता है ना और नहीं रहता तो क्या ऐसा जिन्दा रहना जरूरी है क्या बदमाशी कौन करता है। बच्चा या बडा आदमी? आगे कहता है हमारे साथ क्या क्या होता है ,पता है किसी को ? इसी लाइन में आदमी बिगडता है । कौन और किसको! छोडिये जी हर महिने 150 रू बाप को देता हूं। जबकि मै घर पर केवल रात में खाना खाता हूं। हमारे साथी से बात करते करते अकबर अक्सर भावुक हो जाता है! वे ये जानता है कि आज वो जो जो झेल रहा है इन सबके बावजुद अपने हालात में कोइ बदलाव नहीं ला पायेगा। हां कुछ दिनों बाद वो अपने चेले या छोटू के साथ वहीं कर सकता है जो अबतक उसके साथ होता है। वो बडी मासूमीयत से पूछता है कि आखिर वो अपने मां बाप को जेल कैसे भेज सकता है। वो ये जानना चाहता है कि आखिर अपनी शिकायत कहां करे ताकि भले ही उसके मां बाप जेल चले जायें मगर उसकी पढायी का इंतजाम हो सके।
वो जानता है कि शिक्षा उसके जीवन को और आने वाली पीढी को भी दिशा दे सकता है। उसके गुस्से का कारण केवल उसका ना पढ पाना ही नहीं बल्कि वो बार बार अपना इशारा कहीं और करता है। वो अपने उस्ताद को मार देना चाहता है और किसी भी हाल में गैराज में रात गुजारना नहीं चाहता। ओवर टाइम करने पर कुछ पैसा मिलता है खाना भी अच्छा मिलता है। मगरे ओवरटाइम बडा भारी पडता है क्योंकि उस्ताद उसका यौन शोषण करता है और उसके मना करने पर पीटता है। वो आगे कहता है कि जब उसके साथ पहली बार उस्ताद ने गलत काम किया तो उसने अपने बाप से शिकायत की के उस्ताद बहुत मारता है तो बाप का कहना था कि उस्ताद की मार से ही काम सीखता है। बार बार आनाकानी करने पर जम के पिटाइ हुई और तभी से वो ये सब झेल रहा है, और अब वह इस बात पर अडा हुआ है की मौका मिला अपने बाप व उस्ताद से बदला जरूर लेगा । वो यह भी कहता है कि अगर आज नही तो कभी और लेंगें जवान होकर बदला तो लेंगें । उसे अफसोस है अपने जन्म पर! कहता है बच्चें गरीबी की वजह से काम नहीं करते बल्कि उनकी किस्मत ही खराब होती है कि वो ऐसे मां बाप के बच्चे होते हैं। वो बताता है कि सबसे के साथ ये शोषण होता है, मगर कुछ दिनों के बाद जब दूसरा टोली आ जाता है तो वो भी अपने उस्ताद के साथ मिल कर वही करता है जो उसके साथ हुआ। शिकायत क्‍यों नहीं करते के जवाब में वो बताता है क्या कहें और किससे कहें मां बाप ही नहीं समझते तो कौन समझेगा। ये तो काम करवाने के लिये पैदा करते हैं हमारे साथ क्या होता है या क्या होगा इससे इनको कोइ फर्क नहीं पडता। इसी लिये मुझे इनसे नफरत है। दुसरे बच्चों को खेलता देखकर कैसा लगता है। फिरोजपुर झिरखा ब्लाक के एक ढाबे में काम करने वाला 11 वर्षीय मायुम आजम कहता है। कैसा लगेगा कुछ नहीं लगता हमारे पास इतना कुछ नहीं है कि रोटी भी खा सके जिन्दा हैं ये कम है क्या ऐसी निराशाजनक सोच कई बच्चों की है। मगर इस पर उम्र का असर भी दिखता है। बाल मजदूरी को स्थानीय स्थितियों के अनुकुल मानते हुये न्यूनतम मजदूरी 8 घंटे के अतिरिक्त काम हेतु अतिरिक्त मजदूरी व उनकी स्वयं की स्थितियों , शोषणों विशेष कर यौन शोषण से सम्बंधित प्रश्‍न पुछे गये। बाल श्रमिको की सबसे बडी त्रासदी यही है यही वो वजह है जिसके कारण बच्चे किसी भी हाल में रात के समय कार्यस्थल पर रूकना नहीं चाहते। पुनहाना फिरोजपुर झिरखा के एक ढाबे में काम करने वाला एक तेरह वर्षीय बच्चा बताता है कि वो इस ढाबे मे विगत तीन वर्षों से काम कर रहा है इसके बावजुद वो कभी भी चाहे कितना भी जोर हो नहीं रूका। क्योंकि उसे पता है कि रूकने पर क्या होता है। वो बताता है कि रोडवेज के गाडी वाले अक्सर अपने खाने में से कुछ देकर या फिर टाफी चाकलेट आदि देकर फुसलाने की कोशिश करते है। ढाबे का मालिक अच्छा आदमी है मगर कारीगर अक्सर ही फुसलाने की कोशिश में लगे रहते है। लगभग 100 में शायद दस ही ऐसे लडके होंगें जिनके साथ कुछ नहीं होता होगा यानी यौन शोषण!
नगीना का एक रिक्शा चालक बच्चा बताता है कि ये बात कोइ नई बात नहीं है। और इस तरह का काम ज्यादातर बडे लडके नये लडकों के साथ करते हैं और इसके बदले उनकी मदद भी करते है। जैसे पैसेंजर दे देना या फिर और कोइ और मदद जिससे उसकी आमदनी अच्छी हो सके। पुनहाना के गैराज में काम करने वाला एक बच्चा बताता है कि इतना गुस्सा आता है की क्या कहें मगर हम कर भी क्या सकतें हैं। छोटी सी उम्र में लगातार 10 से 12 घंटे तक काम करने वाले बच्चों की स्वास्थ्य की स्थिति का अनुमान लगाना कोई मुश्किल नहीं मगर फिर भी आइये एक नजर देखें, मानसिक प्रताडना से हमारा अभिप्राय बच्चों जबदस्ती करना उनके अंगो से छेडछाड करना गोद में बिठाना गाल मलना या फिर बच्चें को पकड कर उसके परिवार की महिला सदस्यों के संदर्भ में आपत्तिजनक बात करना। अश्‍लील चित्र दिखाकर उत्तेजित करना आदि है। वहीं अन समूहों में हस्त मैथुन का बढता चलन अपने आप ही तमाम स्थितियों को स्पष्‍ट करता है।
मेवात में बाल श्रमिकों का परिचय एक बदहाल बचपन जो असमय ही बुढापे में बदल गया से कुछ अधिक नहीं! एक ऐसा बचपन जिसे समाज ने अपनी अकांक्षाओं के भारी कदमों के तले रौंद दिया गया है। आवश्यकता है व्यापक जनांदोलनों की और असे राकने के लिए सरकारी इच्छा शक्ति की ताकि मेव मुख्यधारा के सभ्य नागरीक हो सकें 
                         (मेवात में इम्पावर पीपुल के अध्ययन पर आधारित एवं चरखा द्वारा प्रसारित)

किन्नर : लैंगिक विमर्श का अवरोही क्रम

महाभारत के भीस्म पितामह उनका हत्यारा शिखंडी, सल्तनत कालीन मालिक काफूर और मुग़ल कालीन इतेमाद खान जैसे लोग अपने अपने काल में बड़े प्रशासनिक अधिकारी और बड़े यौद्धा रहे हैं. मगर इसके अलावा एक बात ऐसी भी है जो इनमे सामान रही और वो है उनका पुरुष या महिला ना होना!
भले ही भीसम पितामह ने अपनी चारित्रिक पवित्रता और प्रतिज्ञा के सत्यार्थ अपने लीग को काट फेकने का दूसाहस किया हो ! और अन्य जनम से ही जनोत्पति के लिए लैंगिक तौर पर अक्षम रहे हों मगर इतिहास के पन्ने उनकी गौरव गाथाओ के मुहताज हैं ! सामाजिक इस्थिति युद्ध कौशल और तात्कालिक समाज में मजबूत राजनैतिक आर्थिक स्थितियों को प्राप्त करना उन पर किसी की दया नहीं आपितु उनके कौशलों को सामाजिक स्वीकारिता और समाज के अलैंगिक विमर्श का परिचायक है। मगर अफ़सोस आज जब हम स्वय को प्रगतिशील और नई तकनीकों से लैस २१वि सदी का सभ्य और सुसंस्कृत मानव होने का दावा करते हैं तब किन्नर समाज के दोयम दर्जे के (अतिश्योक्ति होगी दरअसल हम इन्हें लैंगिक तौर पर इनकी पहचान से भी इंकार करदेते है) की छवि उभरती है । इधर के वर्षो में जबकि किन्नरों ने राजनीती में हाथ अजमाया तो जैसे भूचाल आगया वो भी तब जबकि ये विधायक से अधिक कुछ और नहीं हो सके ! मीडिया और समाज ने अपने उदार होने का ऐसा नगाड़ा पीटा की लगा किन्नरों ने जाने कौन सा किला फ़तेह कर लिया ! आपको याद दिलाता चलूँ की इसी देश में एक किन्नर वितमंत्री रहा है ! हाँ वो राज तंत्र था और वो काल था शहंशाह अकबर का , और उस समय ये कोई अनहोनी नहीं थी ! ऐसे में बड़ा प्रासंगिक होजाता है की आज जब जेंडर और विभिन्न लैंगिक वादों का अविष्कार और उपयोग हो रहा है ! तब किन्नरों को समलैंगिक और एड्स वाहक होने का आरोप मड हम उन्हें कंडोम बाँट कर या विभिन्न एड्स जागरूकता कार्यकर्मों में इनकी प्रदर्शनी लगा भीड़ बटोरने का धंधा कर रहे हैं। जैसे इनके जीवन पूरी तरह यौनाधारित हों और इन्हें खाने पहने रहने जैसी कोई बुनयादी ज़रूरत ही ना हो
मगर हम इन्हें सामाजिक प्राणी मने तबतो कोई विचार हो । अभी जिस सर्व शिक्षा अभियान का जो वैश्विक ढोल पीटा जा रहा है वहां आपने कहीं देखा या सुना की इनके शिक्षा के लिए कोई विशेष इन्तेजाम किया गया हो , या नरेगा में कोई विशेष व्यवस्था हो (महिलाओं और पुरुषों के लिए नरेगा)जब की विकास-शील देशों के लिए ये एक वैश्विक आन्दोलन है,
किन्नरों के इतिहास को देखें और जानलें ये इतिहास हमारा अपना इतिहास है ! ये लैंगिक taur per भले ही हमसे कुछ अलग हों और ये अन्तेर ज्यादा नहीं बस वैसा ही जैसे सहोदर भाई बहनों के शारीरिक हाव भाव या लैंगिकता का और इन्होने ठीक उसी प्रकिर्या से जनम लिया है जैसे कोई सामान स्त्री या पुरुष !

फिर भी जाने क्यों ये आज के समाज में किसी बहरी दुनिया से आये हुए अलिंस की तरह देखे जाते हैं . किन्नर आधुनिक समाज का वो पहलु है जिसकी ओर देखना या सोचना भी स्वय की लैंगिकता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है !
किन्नरों द्वारा पहना जाने वाला महिला वस्त्र
दो वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के एक पुलिस पदाधिकारी राधा बन कर भले ही उपहास के पात्र बने । मगर इस देश के दो प्रमुख धर्म सनातन और इस्लाम के भीतर की संत परम्परा इसे वैधता देती है . सूफी विचारो में ये एक स्थिति है की जहाँ बंद अपने महबूब (परमात्मा) के इश्क में अपनी सम्पूर्ण पहचान खो देता है यहाँ तक की लैंगिक पहचान भी, सूफी या संत होने की पहली शर्त है पैसिव होना और महिला वस्त्र धारण करना इसी भावना का प्रदर्शन है । वही सनातन संत परम्परा इसे आज भी सखी संप्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित किये हुए है, ये वो स्थिति है जब कोई अपने प्रेमी (परमात्मा ) के प्रेम में डूब कर सब कुछ समर्पित कर देता है .और चुकी लैंगिकता समाज का बड़ा टैबू है सो इसका भी ,
और प्रेम की इसी स्थिति में पहुच कर एक पुलिस पदाधिकारी अपने पद से हाथ धो देता है बल्कि अपने पौरुष के समर्पण का सामाजिक (क्यों ना कहें क़ानूनी भी) दंड भी पाता है
दरअसल किन्नरों द्वारा धारण किया जाने वाला ये वस्त इसी संत परंपरा का अंग है जो कालांतर में इनकी पहचान बनता गया और आज की हालत में ये प्रेमी किन्नर अवैध वसूली और जोर ज़बरदस्ती के प्रतिक बन गए!
कुछ तो कुंठा जो फटे के पैवंद के लिए दूसरों के कपडे फाड़ने की आदत की पश्चिमी नक़ल करने की हरकत से लाचार हमारे दुष्प्रचार तो दूसरी तरफ धर्मो पर उन्मडियो का सनकी प्रभाव ! किन्नरों की पहचान बदलने लगी और ये समाज के वो अंग बनते चले गए जो समाज को किसी हाल में मंज़ूर नहीं थे ! यहाँ तक की इनकी मौत पर जश्न मानाने की परम्परा जो की "विसाल या समां जाना" (वह्दतुल वजूद अकैश्वर -वाद, जिसके अनुसार मौत प्रेमी अर्थात परमात्मा से मिलन है) का सिद्धांत है को प्रबुद्ध जनों ने ज़िल्लत भारी ज़िन्दगी से मुक्ति का जश्न बता दिया! आज हम जैसे जैसे संस्किरितिकृत हो रहे है और तमाम चीजों की अपने ढंग से व्याख्या कर रहे है वैसे वैसे किन्नरों से स्वंय को अथवा किन्नरों को समाज से अलग कर रहे हैं । और फिर तो रही सही कसर भुमंदलिकरण ने पूरी कर दी तब जबकि सारी चीजों का व्यवसायीकरण आरम्भ हुआ तब ये वर्ग भी अछूता नहीं रहा और फिर पैसे लेकर शिष्य बनाना, क्षेतों का बनवारा नकली किन्नर बनाना से शुरू होकर मानवीय तस्करी और वेश्यविरती तक जा पंहुचा जिस में हत्या और अपहरण भी सामान रूप से शामिल हो गए । और आज विशेष लैंगिक स्थिति और संत परंपरा वाले लोगो में भी कोई स्पष्ट अंतर नहीं रह पाया और हमने भी इन्हें मिटाने की कोई कसर नहीं छोड़ी ।

ऐसे में हाल के महीनो में जबकि तमिल्नाय्दु सर्कार ने दस्तावेजों में किन्नरों के अलग कोलुम दिए है राशन कार्ड और वोटर कार्ड भी जारी किया और बिहार सरकार के समाजिक कल्याण मंत्रालय द्वारा किन्नरों को नारी निकेतनो और बाल गृहों में सुरक्षा कर्मी के साथ साथ विशेष स्वस्थ्य कर्मी के बतौर भारती की विशेष योजना एक क्रांतिकारी कदम है ! और इन सरकारों की पहल शायद किन्नरों ki सामाजिक पहचान पुख्ता करेगी ऐसी आशा की जाये।
(शीर्षक के नाम से ही इस मुद्दे पर मेरा एक नृवंश अध्यन है.......प्रस्तुत आलेख मेरे उसी अध्यन पर आधारित है)