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भयानक जहरीले कचरे से बने हैं भयानक समुद्री डाकू!

अफ्रीका के ऊपरी छोर पर बसा सोमालिया देश पिछले दो वर्षों से लगातार खबरों में है। पुरानी कहानियों के साथ डूब गए समुद्री डाकू यहां अपने नए रूप में फिर से तैरने लगे हैं। हम सब जानते हैं कि कचरे से खाद बनती है पर यदि कचरा बहुत अधिक जहरीला हो तो उससे क्या बनेगा????

सन् 2008 और 2009 में सोमालिया के समुद्री डाकुओं ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुख्याति अर्जित कर ली है। इस दौरान उन्होंने हथियार ढोने वाले जहाज, तेल टेंकर और क्रूज जैसे जहाजों का अपहरण किया है और इनकी रिहाई के बदले उनके मालिकों से भारी मात्रा में धन वसूल किया है।

अनेक राष्ट्रीय सरकारों और गैर सरकारी संगठनों ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानूनों की दुहाई देते हुए इन डाकुओं पर कठोर कार्यवाही की मांग की है। परंतु बहुत कम ने इन जलदस्युओं के इस दावे पर ध्यान दिया है कि सोमालिया में तरह-तरह का जहरीला कचरा फेंकने का जो गैरकानूनी काम चल रहा है, वह इन अपराधों से ज्यादा बड़ा व हानिकारक है। ये डाकू इसी कारण इस धंधों में उतरे हैं!


कई संगठन पिछले 10 वर्षों से भी अधिक समय से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से यह मांग करते रहे हैं कि इस जहरीले कचरे को यहां फेंकने पर रोक लगाई जाए। लेकिन दुर्भाग्यवश यह संकट और गहराता ही जा रहा है।
सन् 1997 में इटली की ‘फेमिक्लि क्रिसटिआना’ नाम की एक पत्रिका में ग्रीनपीस की एक महत्वपूर्ण जांच रिपोर्ट छपी थी। यह यहां भयानक जहरीला कचरा फेंकने के मामले की एक जांच पर आधारित थी। इसके अनुसार यह घिनौना काम 1980 के दशक के अंत में प्रारंभ हुआ था। स्विटजरलैंड और इटली की कुछ बदनाम कंपनियों ने वहां के खतरनाक कचरे को ले जाकर सोमालिया में फेंकने का ठेका ले लिया था। बाद की जांच से यह भी पता चला कि इस काम में जिन जहाजों को लगाया गया, वे सोमालिया सरकार के ही थे!
सन् 1992 में सोमालिया गृहयुध्द में उलझ गया। इन कंपनियों को सोमालिया के लड़ाकों से समझौता करना पड़ा। इन गुटों ने कचरा फेंकने में कोई रुकावट नहीं डाली, पर उस काम को जारी रखने के लिए कीमत मांगी। डंपिंग को जारी रखने के बदले में बंदूकों और गोलाबारूद की मांग की। इसके बाद अनेक जहाज कचरा और हथियार लेकर आए और वापस लौटते समय मछली पकड़ने वाले जहाज में परिवर्तित हो गए। सोमालिया के जल में पाई जाने वाली टूना मछली भरकर आगे बिक्री को लेकर चलते बने।

वर्ष 1994 में इटली की एक पत्रकार इलारिया अल्पी की हत्या को लेकर हुई जांच के दौरान एक लड़ाकू बागी नेता बोगोर मूत्ता ने कहा था कि यह तय है कि वे जहाजों में सैन्य सामग्री लेकर आ रहे थे। उसे गृहयुध्द में फंसे हुए अनेक समूहों में बांटा जाना था। आशंका जताई जा रही है कि अल्पी के पास जहरीले कचरे के बदले बंदूक-व्यापार के पुख्ता सबूत थे। इसलिए उनकी हत्या कर दी गई।
ग्रीनपीस की इस रिपोर्ट पर थोड़ी बहुत सनसनी फैली। पर ज्यादा कुछ न होता देख फिर इसके तुरंत बाद यूरोपीय ग्रीनपीस पार्टी ने यूरोपीय संसद में एक प्रश्न पूछा। इसमें सोमालिया में जर्मनी, फ्रांस और इटली के परमाणु बिजलीघरों और अस्पतालों से जहरीला कचरा फेंकने के बारे में जानकारी मांगी गई थी। इसके परिणामस्वरूप इटली में व्यापक जांच पड़ताल प्रारंभ हुई। एक समय था जब सोमालिया इटली के कब्जे में था। इसलिए इटली आज भी अपने आंगन का कचरा सोमालिया के घर में फेंकता है। जांच से पता चलता है कि सोमालिया को करीब 3.5 करोड़ टन कचरा का 'निर्यात' किया गया और बदले में उसे मात्र 6.6 अरब अमेरिकी डालर का भुगतान किया गया था। इस तरह इन सभ्य और साफ सुथरे माने गए देशों ने सोमालिया को अपना कचराघर बना लिया। इतने वजन का कचरा और कहीं नहीं फेंका गया है। इसे भी ये देश 'निर्यात' शब्द से ढंक देते हैं।
निर्यात भी ऐसा कि आयातित कचरे को सोमालिया की आज की पीढ़ी तो छोड़िए, आने वाली न जाने कितनी पीढ़ियां हाथ भी नहीं लगा पाएंगी। आज सोमालिया दुनिया में 'डंपिंग' का सर्वाधिक बड़ा केन्द्र बन गया है। सन् 2004 में आई बॉक्सिंग डे सुनामी के परिणामस्वरूप सोमालिया के समुद्री किनारों पर रहने वाले कई ग्रामीण एक अज्ञात बीमारी के कारण मर गए थे। और समुद्र तट का पूरा पर्यावरण बुरी तरह से तबाह हो गया था।

सन् 2005 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने सोमालिया में गहरी जांच की। वहां के राजनेताओं की घेराबंदी तगड़ी थी। इसलिए पूरा सहयोग नहीं मिल सका था। फिर भी बहुत विश्वसनीय सबूत न पाए जाने के बावजूद इसके निष्कर्ष में कहा गया था कि सोमालिया के समुद्र में, किनारों पर, बंदरगाहों के पिछले हिस्सों में जहरीले और खतरनाक कचरे को फेंकने का काम बदस्तूर जारी है। इसके एक साल बाद यहां के एक गैरसरकारी संगठन 'डारयील बुल्शो गुड' ने एक और जांच की।

उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की जांच से बेहतर सहयोग मिला। जांच में आठ समुद्री इलाकों में ऐसे 15 कचरा कन्टेनरों को चिन्हित किया जिनमें निश्चित तौर पर परमाणु और रासायनिक कचरा मौजूद है। ठीक इसी समय संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व बैंक ने सोमालिया राष्ट्र को पुनर्स्थापित करने के लिए एक साझा आकलन किया। इस योजना में वहां का पर्यावरण सुधारना भी शामिल किया गया है। इसमें यहां 'पाए गए' जहरीले कचरे को हटना भी जोड़ा गया है। इस काम के लिए 4.21 करोड़ अमेरिकी डालर की व्यवस्था करने की अनुशंसा की गई थी। इसमें लोगों को हुई हानि की कोई बात नहीं की गई थी। सफाई की बात करने वाली यह रिपोर्ट यह नहीं बताती कि सोमालिया में जहरीला कचरा पटकना अब भी जारी है।

अमेरिका के मिनिसोटा विश्वविद्यालय की एक शोधकर्ता और अब पर्यावरण न्याय अधिवक्ता जैनब हस ने सोमालिया के निवासियों द्वारा भुगती जा रही लंबी अवधि वाली और गंभीर बीमारियों की पूरी श्रृंखला का पता लगाया है। इसमें कई जन्मजात विकृतियां भी सामने आई हैं। इसमें हाथ-पैरों का विकसित न होना और कैंसर की व्यापकता भी शामिल है। यहां के एक चिकित्सक का कहना है कि उसने सुनामी के बाद के एक साल में जितने कैंसर मरीजों का इलाज किया है, उतना अपनी पूरी जिंदगी में नहीं किया था। जैनब का कहना है कि यूरोप की ये कंपनियां अवैधानिक तरीके से यहां खतरनाक व परमाणु कचरा फेंक रही हैं। अंतराष्ट्रीय समुदाय को यहां की सफाई के लिए और जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें न्यायालय में घसीटने के लिए तुरंत कोई कठोर कार्यवाही करना चाहिए।

‘इको टेरा’ नामक एक गैरसरकारी संगठन सोमालिया से बहुत घनिष्ठ संबंध रखता है। पर वह कंपनियों के मूल के बारे में कुछ भी कहने से हिचक रहा है। इसकी वजह शायद पत्रकार इलारिया अल्पी की हत्या ही है। हां वह स्थिति को तो घातक बता ही रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के क्षेत्रीय प्रतिनिधि अहमदो ऑड अबदुल्ला भी इस मामले में इतने ही संवेदनशील हैं। उन्होंने भी यह स्वीकार किया है कि सोमालिया के समुद्री तटों पर जहर फैलाना, फेंकना जारी है। उन्होंने सुरक्षा की दृष्टि से उन सामाजिक संस्थाओं के नाम बताने से इंकार कर दिया है, जिनकी जांच से उन्हें ये तथ्य मिले हैं। डंपिंग के जिम्मेदारों को न्याय के सामने लाना टेढ़ी खीर है। यूरोपीय यूनियन के नियम 259/93 और 92/3/यूराटॉम के अंतर्गत वे मूल देश जहां से चिकित्सा और परमाणु का कचरा निर्यात हुआ है, न केवल इसके लिए पूर्णत: उत्तरदायी हैं बल्कि उस कचरे को वापस उठाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर है।

सोमालिया में अभी भी बहुत से कंटेनरों की जांच होना बाकी है। कागजी खानापूरी में हो रही देरी से अनेक दस्तावेज भी नष्ट हो गए हैं। इससे कानूनी कार्यवाही में भी दिक्कतें आ सकती हैं। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ के सूत्रों का कहना है कि सोमालिया में खतरनाक पदार्थों को ढूंढ़ना भूसें के ढेर में सुई ढूंढ़ने जैसा है। ऐसा इसलिए नहीं है कि वे यह नहीं जानते कि यह कचरा कहां है। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि काम शुरू कहां से किया जाए? यह तो वहां के समुद्र में चारों तरफ पड़ा है।

यूरोप के इन देशों के लोगों को सोचना चाहिए कि उनके यहां ऐसी सफाई, ऐसी बिजली, ऐसा स्वास्थ्य किस काम का, जिसे टिकाए रखने के लिए सोमालिया में भयानक गंदगी, भयानक बीमारी और भयानक अंधेरा फैल चला है।  क्रिस मिल्टर की रिपोर्ट से 

जब मौत ताण्डव करती है तो कुछ लोग गुलाबों मे मगन होते हैं

फैसला और न्याय में सचमुच कितना फासला होता है, इसे बताया है 25 बरस बाद भोपाल गैस कांड के ताजे फैसले ने। दुनिया के सबसे बड़े, सबसे भयानक औद्योगिक कांड के ठीक एक महीने बाद लखनऊ में हुई राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में एक वैज्ञानिक ने इस विषय पर अपना पर्चा पढ़ते हुए बहुत ही उत्साह से कहा थाः ”गुलाब प्रेमियों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी कि भोपाल में गुलाब के पौधों पर जहरीली गैस मिक का कोई असर नहीं पड़ा है। “ भर आता है मन ऐसे ‘शोध’ देखकर, पर यह एक कड़वी सचाई है। भोपाल कांड के बाद हमारे समाज में, नेतृत्व में, वैज्ञानिकों में, अधिकारियों में ऐसे सैकड़ों गुलाब हैं, जिन पर न तो जहरीली मिक गैस का और न उससे मारे गए हजारों लोगों का कोई असर हुआ है। वे तब भी खिले थे और आज 25 बरस बाद भी खिले हुए हैं।




भोपाल के भव्य भारत भवन में ठहरे फिल्म निर्माता श्री चित्रे की नींद उचटी थी बाहर के कुछ शोरगुल से। पूस की रात करीब तीन बजे थे। कड़कड़ाती सर्दी। कमरे की खिड़कियां बंद थीं। चित्रे और उनकी पत्नी रोहिणी ने खिड़की खोलकर इस शोरगुल का कारण जानना चाहा। खिड़की खोलते ही तीखी गैस का झोंका आया। उन्होंने आंखों में जलन महसूस की और उनका दम घुटने लगा। तुरंत खिड़की बंद कर दी। आंखों व नाक से पीले रंग का पानी झरने लगा था।

खतरे का आभास हो चुका था। दोनों ने पलंग पर बिछा चादर उठाया और दौड़ते हुए कमरे से बाहर आ गए। उन्हें आश्चर्य हुआ कि आसपास के सभी कमरे पहले ही खाली हो चुके थे। भारत भवन के अहाते के पास राज्य सरकार के श्रममंत्री का बंगला था। वहां भी कोई नहीं। पास ही तो मुख्यमंत्री का बंगला था। शायद उन्हें भी खबर लग गई थी।

सड़क पर पहुंचकर चित्रे दंपति ने अजब नजारा देखा। भगदड़ मची हुई थी। जिसे जिधर जगह दिखाई दे रही थी, उधर ही भाग रहा था। भागते-भागते लोग गिर पड़ते थे। कुछ गिर कर उल्टियां कर रहे थे। कुछ वहीं तड़प कर मर रहे थे। वे भी भागने लगे। कुछ दूर जाकर उन्होंने देखा कि एक परिवार के लोग भागते-भागते थक कर बैठ गए थे। परिवार के एक पुरुष ने कहा, ‘हम सभी साथ-साथ मरेंगे। पास से गुजरी पुलिस की एक गाड़ी में बैठे सिपाहियों को भी नहीं मालूम था कि किस दिशा में भागना है। लाशों पर कूदते-फांदते चित्रे दंपति एक कॉलेज के पास जाकर रुके। उन्होंने तय किया कि वे वहीं रुकेंगे, जो होगा देखा जाएगा। दो घंटे बाद करीब पांच बजे सुबह एक पुलिस वैन वहां पहुंची। उस पर लाउडस्पीकर लगा था, जिससे कहा जा रहा था कि अब घर लौट सकते हैं। लेकिन लोग तब भी भागे जा रहे थे। किसी ने पुलिस की बात नहीं मानी।

हजारों लोग भागते-भागते अपने घरों से मीलों दूर निकल आए थे। कुछ भागकर दूसरे शहरों, कस्बों तक में पहुंच गए थे। सिहोर, विदिशा, होशंगाबाद, रायसेन, ओबेदुल्लागंज, आष्टा, उज्जैन, देवास, इंदौर, रतलाम और यहां तक कि 400 किलोमीटर दूर नागपुर पहुंच गए थे। करीब दस हजार औरतें, बच्चे और मर्द रात दो से चार बजे के बीच तक सिहोर पहुंच चुके थे और इतने ही लोग रायसेन। ये सभी लोग अस्पतालों की तरफ टूट पड़े। सैकड़ों लोग उज्जैन और इंदौर पहुंचे। सैकड़ों ट्रक, टैक्सी और टैंपो वालों ने जान जोखिम में डालकर हजारों लोगों को भोपाल से बाहर लाकर उन्हें उनकी दूसरी जिंदगी में उतारा था।

रिसी गैस 40 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल गई थी। हवा के बहाव की दिशा में 8 किलोमीटर दूर तक उसका करीब दो लाख लोगों पर असर पड़ा था। भोपाल उस रात मानों गैस-कोठरी बन गया था, जिसमें शहर की चैथाई आबादी का दम घुट रहा था। भोपाल अगर ताल तलैयों का शहर न रहा होता तो और ज्यादा संख्या में लोग मरते। पानी ने गैस के बादलों का काफी जहर सोख लिया और इस तरह अन्य लोगों को मरने से बचा लिया।

भोपाल रेलवे स्टेशन यूनियन कारबाइड कारखाने से ज्यादा दूर नहीं है। गैस के गुबार ने उधर का भी रुख किया था। स्टेशन उस समय यात्रिायों से भरा हुआ था। खतरे का आभास रेलवे कर्मचारियों को भी हो चुका था। लेकिन मौत की परवाह न करते हुए भी उनमें से कुछ ड्यूटी पर मुस्तैद रहे।
डिप्टी चीफ पावर कंट्रोलर रहमान पटेल ऐसे ही एक कर्मठ कर्मचारी थे। पटेल के अफसर ने पाया कि पड़ोस के क्वार्टर में पटेल की पत्नी और 14 साल का बच्चा मौत की नींद सो चुके थे, लेकिन पटेल यह जानने के बावजूद अपनी ड्यूटी पर डटे रहे।
आधी रात के बाद 116 अप गोरखपुर-बंबई एक्सप्रेस भोपाल से सुरक्षित निकल गई। उसके तमाम यात्री मौत से बाल-बाल बचे शायद उस वजह से क्योंकि कड़ाके की ठंड के कारण डिब्बों के खिड़की दरवाजे बंद थे और भोपाल की जहरीली हवा डिब्बों में घुस नहीं पाई। एक वजह शायद यह भी थी कि स्टेशन अधीक्षक एच.एस. धुर्वे ने जान जोखिम में डालकर ट्रेन को फौरन आगे भगाने का सिग्नल दे दिया था। धुर्वे की जान नहीं बचाई जा सकी लेकिन रेल के सैकड़ों यात्रिायों की जान बचाकर वे अमर हो गए। मरने से पहले उन्होंने आसपास के सभी स्टेशनों को संदेश भेजकर खबर कर दी कि भोपाल में मौत का तांडव चल रहा है, कोई गाड़ी इधर न भेजी जाए। सात घंटे तक भोपाल का देश के अन्य हिस्सों से संपर्क टूटा रहा। अगली सुबह बच गए भाग्यशाली लोगों ने देखा कि स्टेशन लाशों से पटा हुआ है। दफ्तरों के भीतर बाबू लोग कुर्सियों पर मरे पड़े थे। कंट्रोल रूम में भी मौत का सन्नाटा छाया हुआ था।

जो मौत से किसी तरह बच निकले, उन्हें सुबह अस्पतालों में भर्ती कराया गया। भोपाल का 1,200 बिस्तरों वाला हमीदिया अस्पताल सुबह तक मरीजों से पटा हुआ था। पहला मरीज रात करीब सवा बजे अस्पताल पहुंचा था। उसने आंख में बेतहाशा जलन की शिकायत की। पांच मिनट बाद ऐसे मरीजों की संख्या हजार तक पहुंच गई और ढाई बजे रात तक अस्पताल पहुंचे मरीजों की संख्या 4,000 थी। मरीज सिर्फ आंखों की तकलीफ नहीं बता रहे थे। उनकी सांस भी अटक रही थी। अस्पताल के कर्मचारी मरीजों का यह रेला देखकर सकते में आ गए थे। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर यह हो क्या गया है, हजारों लोग कैसे एक साथ बीमार पड़ गए? 



सुबह होने तक 25 हजार से ज्यादा लोग हमीदिया अस्पताल में थे। गलियारे उल्टियों और खून से सने पड़े थे। एक डाक्टर ने कहा, ”मैं आपको बता नहीं सकता कि वहां क्या हो रहा था। तिल धरने की जगह नहीं थी। जैसे ही कोई मरीज मरता था, उसके परिवार वाले लाश के पास से हट जाते थे। कुछ लाशें लेकर नाते-रिश्तेदार बाहर भी चले जाते थे। करीब 1,000 लाशें मेरे सामने से गुजरीं। “ कौन मर चुका है और कौन मर रहा है, उन्हें अलग करना कठिन हो गया था। मुर्दाघर में जो लोग ड्यूटी पर थे, उन्हें भी लाशें अटाना कठिन पड़ गया था।


जब पूरा शहर मुर्दाघर बन गया हो तो अस्पताल के मुर्दाघर के बारे में क्या कहा जाए।

श्मशान पर शवों का पहुंचना सुबह नौ बजे शुरू हुआ। पहली बार में 15 चिताएं एक साथ जलीं। लेकिन जब शवों का सिलसिला रुका नहीं तब और चिताएं बनानी पड़ीं। देखते-देखते श्मशान की तमाम लकड़ियां समाप्त हो गईं, नई खेप आई। फिर तो हर चिता पर 15-15 लाशें रखी जाने लगीं। हिंदू मान्यताओं के अनुसार बच्चों व शिशुओं का दाह-संस्कार नहीं किया जाता, इसलिए उन्हें दफनाया जाने लगा। अपनी संतानों के अंतिम संस्कार पर उपस्थित रहने वाले माता-पिता भी कितने बच पाए थे?

जो हाल श्मशान का था, वैसा ही हाल कब्रिस्तानों का था। एक के बाद एक शव लाया जा रहा था। दफनाने की जगह भर चुकी थी। फिर एक ही कब्र में कई शव दफनाने लगे। इसके बाद भी जब मैयत का तांता बंद नहीं हुआ तब पुरानी कब्रें खोद कर उनमें लाशें दफनाई गईं। इसके लिए भोपाल के मुफ्ती को खास फतवा जारी करना पड़ा, जिसमें पुरानी कब्रें खोदकर नई लाशें दफनाने का हुकुम दिया गया था।

यूनियन कारबाइड उस काली रात को भी झूठ बोल रही थी। इधर, हमीदिया अस्पताल में बेहाल मरीजों की भीड़ उमड़ पड़ी थी और उधर कंपनी के डाक्टर एल.डी. लोया हमीदिया अस्पताल के स्तब्ध और हतप्रभ डाक्टरों को जता रहे थे कि गैस जहरीली नहीं है। मरीजों से केवल इतना भर कहें कि वे आंखों पर गीला तौलिया ढांप लें।

यह कोई अकेला झूठ नहीं था। यूनियन कारबाइड के बड़े लोग बड़ी बेशर्मी से लगातार झूठ बोलते रहे। रात करीब एक बजे भोपाल के पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी को जगाकर बताया गया कि कारबाइड कारखाने से दो किलोमीटर दूर छोला इलाके में भगदड़ मची है, क्योंकि कारखाने से कोई गैस रिसी है। श्री पुरी लपक कर उठे और 1.25 बजे तक कंट्रोल रूम पहुंच गए। उनके होश उड़ गए जब उन्होंने डयूटी पर तैनात सिपाहियों को बुरी हालत में पाया। वे आंखें मल रहे थे और उल्टियां कर रहे थे। 1.25 से 2.10 के बीच उन्होंने यूनियन कारबाइड को तीन बार फोन किया, जिसमें दो बार बताया गया कि यहां तो सब कुछ ठीक-ठीक है और चिंता की बात नहीं है। तीसरी बार कहा गया ”सर हम नहीं जानते कि क्या हो गया है।“

गैस रिसने के करीब 45 मिनट बाद यानी पौने दो बजे अतिरिक्त जिलाधिकारी खुद कंपनी के वक्र्स मैनेजर के. मुकुंद के घर गए। मुकुंद को तब तक नहीं पता था कि कोई गैस रिसी भी है। उन्होंने टका-सा जवाब दियाः

”हमारे प्लांट से गैस रिस ही नहीं सकती। प्लांट बंद है। हमारे काम में गलती नहीं हो सकती। हमारे यहां गैस रिसाव की गुंजाईश नहीं है।“
उस पूरी रात यूनियन कारबाइड ने अपनी ओर से इस हादसे की जानकारी देने की कोई कोशिश नहीं की। तीन बजे सुबह यूनियन कारबाइड ने एक आदमी भेज कर कहलवाया कि गैस रिसाव रोक दिया है। यह भी सफेद झूठ था। कंपनी ने रिसाव रोकने की कोई कोशिश नहीं की थी। गैस बनना और रिसना अपने आप रुक गया था। लेकिन तब तक जो होना था, वह हो चुका था।

भोपाल में मरने वालों की संख्या रहस्य ही बनी रहेगी। पहले दिन सरकार ने संख्या 400 बताई, लेकिन गैर सरकारी सूत्रों ने 500। दूसरे दिन सरकारी और गैर सरकारी संख्या में अंतर और बढ़ गया। सरकारी गिनती 550 पर पहुंची, जबकि गैर-सरकारी गिनती 1200 पर। तीसरे दिन गैर सरकारी संख्या 16 सौ हो गई, लेकिन सरकार की संख्या केवल 620 रही। इसमें भी भोपाल में केवल 583 और बाकी 37 अन्य शहरों में। चौथे दिन गैर सरकारी संख्या 1700 बताई गई, उधर सरकार ने भी अपनी गिनती बढ़ा कर दुगनी कर दी 1327। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने सफाई दी कि मरने वालों की संख्या कम बताने का कोई सवाल ही नहीं है। ”लीपापोती नहीं की जा रही है,“ उन्होंने कहा। तब तक भोपाल के आसपास के गांवों और शहरों से रिपोर्ट नहीं मिल पाई थी।

पांचवें दिन से गैर-सरकारी और सरकारी गिनती का अंतर फिर बढ़ने लगा। जनवरी 85 तक राज्य सरकार केवल 1430 मृतकों की रट लगा रही थी, लेकिन हमारे और दुनिया भर के अखबार ढाई हजार लोगों के मरने की खबर दे रहे थे। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने जनवरी में जाकर बताया कि ज्यादातर लोग गैस रिसाव के पहले 48 से 72 घंटों में मरे। परिषद ने कहा कि 1200 लोग अस्पतालों में मरे। और इस तरह मृतकों की कुल संख्या 2000 के लगभग है। अमेरिकी अदालत में दायर यूनियन कारबाइड के विरुद्ध हर्जाने और मुआवजे के दावे में केंद्र सरकार ने मृतकों की संख्या 17 सौ बताई है।

भोपाल में अनेक लोग मानते हैं कि गैर सरकारी गिनती भी गलत है और मृतकों की संख्या ढाई हजार से कहीं ज्यादा है। जहरीली गैस कांड मोर्चा के लोग कहते हैं कि सेना के ट्रकों में भर कर लाशें ले जाई गईं और उन्हें दफना दिया गया। गैस रिसाव के पहले दो दिनों में तो शायद ही किसी को होश रहा होगा लाशें गिनने का। मोर्चे का कहना है कि मृतकों की संख्या 5000 से भी ज्यादा है।

यूनीसेफ के एक अधिकारी ने भोपाल में एक हफ्ता रहने के बाद दिल्ली लौटने पर एक गोपनीय रिपोर्ट में मरने वालों की संख्या 10 हजार तक बताई थी। रिपोर्ट में कहा गया कि कई सरकारी लोग और डाक्टर भी निजी तौर पर यही मानते हैं। शहर में कपड़ा बेचने वालों का कहना है कि कोई दस हजार कफन तो बिके थे।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ सेंटर ने सबसे ज्यादा पीड़ित 29 इलाकों में हर 15 वें परिवार से पूछताछ की थी। बस्तियों की आबादी 68 हजार थी। कुल मिलाकर इस सर्वे में मरने वालों की तादाद 1305 बताई गई।

तालाबों के शहर भोपाल में उस समय मृत्यु की नदी बही थी। पर सरकार, वैज्ञानिक, डाक्टर, सर्वे वाले लोग बस कुछ बूंदें गिन रहे थे।

मरने वालों की संख्या अभी थम ही रही थी और अस्पताल आने वालों की कतार कुछ छोटी हो रही थी कि सातवें दिन भोपाल अचानक फिर कांप उठा। पता चला कि यूनियन कारबाइड कारखाने में 15 टन जहरीली गैस अभी भी बच रही है और अब उसे बेअसर किया जाएगा। बच रही गैस को बेअसर कर दिए जाने के बाद ही सरकार की नजर में भोपाल पूरी तरह बेखौफ हो सकता था। वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष डाक्टर वरदराजन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक टीम को बेअसरी का तरीका तय करने का जिम्मा सौंपा गया। डाक्टर वरदराजन ने भोपाल में केंद्र सरकार की क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला में अपना अस्थायी कार्यालय कायम किया और दम साध कर बैठ गए। बच रही गैस को बेअसर करने के कुछ तरीके ढूंढ़े गए। गैस को कास्टिक सोडा के जरिए बेअसर किया जाए, इसे ड्रामों में भर का जहाजों से अमेरिका में संरक्षक कंपनी को भेज दिया जाए, या कारखाना पुनः चलाकर बच रही मिक भी खपा ली जाए, ताकि मिक अंतिम उत्पाद कारबेरिल कीटनाशक में बदल जाए।

हर कोई जानता था कि यूनियन कारबाइड कंपनी इस अंतिम विकल्प के पक्ष में ही थी। कंपनी के अमेरिकी मुख्यालय ने दुनिया में अपनी सभी फैक्टरियों को हिदायत दे दी थी कि जितनी जल्दी हो सके, मिक का इस्तेमाल कर उसे कारबेरिल बना डाला जाए। भोपाल कारखाने के प्रबंधकों ने भी सात दिसंबर को अपनी ओर से कोशिश की थी कि कारखाना चलाकर मिक को खपा लिया जाए। लेकिन इस काम के लिए जो कर्मचारी कारखाने पहुंचे, उन्हें जिला प्रशासन ने, जिसने कारखाने को अपने नियंत्राण में ले लिया था, वापस भेज दिया।

कारखाना दुबारा चलाने का मतलब होता कि मुख्यमंत्री की बात खाली चली जाती। उन्होंने हादसे के चौथे दिन बहुत जोर से कहा था कि कारखाना दुबारा खुलने नहीं दिया जाएगा। अखबारों व लोगों ने भी इस विकल्प का कड़ा विरोध किया।

दस दिसंबर को यह बात फिर फैली कि कारखाने में काम दोबारा शुरू हो गया है। जिला प्रशासन के एक अधिकारी ने कहा कि मिक को कीटनाशक में बदला जाना तय कर लिया गया है और इसके लिए कारखाना शुरू किया जा चुका है। लेकिन वरदराजन ने बड़ी फुर्ती से इसका खंडन किया। इस बीच भोपाल सांस रोक कर इंतजार करता रहा। अगले दिन इन अफवाहों के बीच कि वरदराजन की निगरानी में कारखाना फिर चलाया जाएगा, मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने जनता से अपील की, ”अब डरने की कोई बात नहीं है और मैं अपील करता हूं कि डर कर शहर मत छोड़िए।“ लेकिन मुख्यमंत्री एक ओर यह अपील कर रहे थे, उनकी सरकार कुछ और ही कर रही थी। लगभग उसी समय सरकारी वाहन शहर में दौड़ने लगे, जिन पर लगे माइक सहमे हुए भोपाल को यह सूचना दे रहे थे कि शहर के सभी स्कूल-कॉलेज कल से अगले 12 दिनों के लिए बंद रहेंगे। मध्य प्रदेश सड़क परिवहन निगम से पूछताछ में मालूम पड़ा कि राज्य के दूसरे भागों से बड़ी संख्या में बसें भोपाल मंगाई गई हैं। लेकिन परिवहन निगम यह सफाई देने से नहीं चूका कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि भोपाल से भाग गए लोग वापस भोपाल पहुंच सकें।

इन सारी बातों से लोगों का संदेह पक्का हुआ कि सरकार ने शहर खाली कराने की योजना बनाई है। सरकार ने पुलिस वाहनों के जरिए शहर के कोने-कोने में सूचना पहुंचाई कि भय की कोई बात नहीं रह गई है। ऐसी घोषणा आकाशवाणी भोपाल से भी बार-बार प्रसारित की गई। लेकिन मिक से डरे भोपाल पर संदेह का, अविश्वास का कुहरा घना होता गया।

अगले दिन उहापोह की स्थिति खत्म हो गई। सरकार ने अंततः वही फैसला किया जो यूनियन कारबाइड चाह रही थी। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उसी शाम घोषणा की कि विशेषज्ञों की राय में फैक्टरी को दोबारा चालू कर मिक को खपा लेना ही सर्वोत्तम और सबसे सुरक्षित उपाय होगा। उन्होंने कहा कि 16 दिसंबर से कारखाना चार या पांच दिन के लिए फिर चला जाएगा। लेकिन वे यह कहने से नहीं चूके कि इस दौरान सुरक्षा के सभी उपाय किए जाएंगे और किसी किस्म के खतरे की गुंजाइश नहीं छोड़ी जाएगी। उन्होंने कहा, ”उस पूरे समय मैं खुद कारखाने में मौजूद रहूंगा।

लेकिन मृत्यु इतनी हल्की होकर जिस शहर में घर-घर उतरी हो, वहां ऐसे शब्दों का वजन खो गया था। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि कारखाने को दोबारा चलाए जाने के दौरान आसपास की तेरह बस्तियों के सवा लाख लोगों के लिए सरकार ने सुरक्षित स्थान पर शिविर कायम किए हैं। ऐसा सिर्फ लोगों की सहूलियत के लिए किया गया है। जो लोग भोपाल के बाहर जाना चाहते हों, उनके लिए सरकार ने विशेष बसों का भी इंतजाम किया है। इसी तरह मवेशियों के लिए भी अलग शिविर लगाने की बात कही गई।

भोपाल के लोगों का विश्वास उठ चुका था। ज्यादातर ने अपनी मदद आप करने की ठानी। तेरह दिसंबर की शाम तक करीब एक लाख लोग भोपाल छोड़कर आसपास के शहरों, कस्बों व गांवों में जा चुके थे। शांतिकाल में लोगों का इस बड़े पैमाने पर पलायन शायद ही कभी हुआ होगा। बस अड्डा यात्रिायों से खचाखच भरा था और सैंकड़ों बसें लोगों को भोपाल से  बाहर पहुंचाने में लगी थीं। रेलगाड़ियों में तिल धरने की जगह भी नहीं थी। हजारों लोगों ने अपने मवेशी पड़ोस के गांवों में पहुंचा दिए थे। अगले दिन भी पलायन जारी था। दहशत इतनी थी कि अस्पतालों में भर्ती सैकड़ों मरीज भी रही-सही ताकत बटोर भोपाल से बाहर चले गए थे। 14 दिसंबर की शाम तक भोपाल की करीब चैथाई आबादी शहर छोड़ चुकी थी।

सरकार ने जो शिविर कायम किए थे, उन पर किसी को यकीन नहीं था। बस 4,800 लोग इन शिविरों में पहुंचे। ये वो लोग थे, जिनके पास न पैसा था, न बाहर नाते रिश्तेदार। लोगों के न आने के कारण अधिकारियों को दो शिविर बंद कर देने पड़े।

सारा भोपाल भोपाल से कहीं दूर चला गया था। 

लोग क्या सोच रहे थे, इसकी तरफ से आंख मूंदे सरकारी विशेषज्ञ अपने तरीके से कारखाना दुबारा चलाने की तैयारियों में जुटे थे। विशेषज्ञों ने सुरक्षा बंदोबस्त के छह कदम बताए। लेकिन पहले कदम का सुरक्षा उपाय से कोई ताल्लुक नहीं था। मालूम पड़ता है कि विशेषज्ञों ने इसे बस यों ही गिना दिया था। पहला कदम वह प्रक्रिया थी जिससे मिक गैस की अल्फानैफ्थाल के साथ रासायनिक क्रिया करवाने के बाद कीटनाशक कारबेरिल बनाया जाना था। दूसरा उपाय था अतिरिक्त सुरक्षा वाल्व लगाना। यह उस रात काम नहीं कर पाया था जिससे मिक गैस वायुमंडल से मिल गई थी। इसमें दो नए हौजपाइप जरूर लगाए गए थे, ताकि स्क्रबर गर्म न हो जाए।

मिक गैस पानी के साथ क्रिया कर सकती है। इस बात को ध्यान में रखकर तीन नए उपाय और किए गए थे। हालांकि कुछ विशेषज्ञों के अनुसार ये उपाय इतने साधारण थे कि इनसे फिर मिक गैस रिसने की आशंका कतई कम नहीं होती थी। मसलन जिस चिमनी से मिक गैस निकलती थी, उसे शामियाने से ढंक दिया गया! यह शामियाना पानी से तर रखा जाना था ताकि मिक यदि रिस भी जाए तो पानी से तत्काल रासायनिक क्रिया करके उसे डाइ-मैथिल्स यूरिया में बदला जाए। इसके अलावा फैक्टरी के जिस ओर जयप्रकाशनगर था, उस ओर दीवार पर टाट के बड़े-बड़े परदे लगा दिए गए थे, जिन्हें हमेशा गीला रखा जाना था, ताकि रिसी गैस को पानी तुरंत उदासीन बना सके। छठे बंदोबस्त में वायुसेना के हेलीकाप्टर कारखाने के ऊपर मंडराते रहने वाले थे ताकि जरूरत पड़ने पर कारखाने के ऊपर पानी का छिड़काव किया जा सके। इतनी सावधानी बरते जाने के बावजूद गैस यदि तब भी रिस गई तो उस स्थिति में विशेष सायरन बजाने की व्यवस्था भी की गई थी। सेना के विशेष बचाव दस्ते भी तैयार रखे गए थे, जो सायरन के साथ ही बचाव कार्य में लग जाते।

सारे उपाय एक तरफ, लेकिन चिंता बनी ही रही कि यह अभियान किसकी निगरानी में संपन्न होगा। सरकारी विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों को कारखाने के एक-एक कलपुर्जे की जानकारी तो थी नहीं। यह जानकारी सिर्फ यूनियन कारबाइड के विशेषज्ञों को ही थी और इसीलिए यह काम प्रबंधकों के जिम्मे छोड़ दिया गया था। डाक्टर वरदराजन ने खुद कहा, ”हमसे यह उम्मीद कैसे रखी जा सकती है कि हम कारखाने के एक-एक पुर्जे के बारे में जान लें।“ रिस रही मिक खत्म करने की इस पूरी प्रक्रिया में यूनियन कारबाइड कार्पोरेशन (अमेरिका) के विशेषज्ञों को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया गया। भोपाल कारखाने के जिन अधिकारियों को हादसे के अगले ही दिन संगीन दफाओं में गिरफ्तार किया गया था, उन्हें सोलह दिसंबर को इस शर्त पर रिहा कर दिया गया कि वे इस प्रक्रिया में सरकारी वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की पूरी मदद करेंगे! इनमें अमेरिका से आए विलियम तूमर भी थे, जिन्हें कारखाने में घुसने की इजाजत नहीं दी गई थी कि कहीं वे सबूत मिटाने की कोशिश न करें।

सब खलनायक एक बार फिर नायक बन गए थे।

15 दिसंबर की शाम मुख्यमंत्री ने घोषणा की, ”यूनियन कारबाइड कारखाने में बच रही विषैली गैस को समाप्त करने की तैयारियों पूरी हो चुकी हैं। हालांकि कारखाने में दुबारा उत्पादन यूनियन कारबाइड के पूरे नियंत्राण में रहेगा और किसी भी दुर्घटना के लिए जिम्मेदारी उनकी ही रहेगी लेकिन कारखाना चलाने के लिए अंतिम आदेश मैं खुद दूंगा। मेरे लिए निःसंदेह वह अत्यंत नाजुक और पीड़ादायी घड़ी होगी। नितांत एकाकी क्षणों में व्यक्ति की नियंता पर आस्था और बलवंत हो जाती है। विश्वास हृदय की गहराइयों से पैदा होता है। पिछले दिनों की दुखद घटनाओं ने हम सबको तोड़ कर रख दिया है और ईश्वर पर हमारा विश्वास भी डिगने लगा है। लेकिन हमें ईश्वर पर विश्वास रखना होगा। इसलिए हम इसे आस्था अभियान कहेंगे। हम सबको इसकी सफलता की प्रार्थना करनी चाहिए।“

सारी रात आस्था अभियान की तैयारियां की जाती रहीं। हर सड़क पर पानी के टैंकर और दमकल गाड़ियां खड़ी थीं। हालांकि यह समझना कठिन था कि मिक अगर फिर रिस गई तो ये गाड़ियां भला क्या कर लेंगी? चप्पे-चप्पे पर पुलिस के जवान तैनात थे जो अपनी सुरक्षा के लिए अपने पास पानी से भरी बाल्टी और गीले गमछे, तौलिए रखे हुए थे। कारखाने के उस हिस्से को, जिसमें मिक बननी थी, शामियाने से ढांक रखा गया था। दमकल वाले उसे पानी से तर कर रहे थे। हर पांचवें मिनट कारखाने के ऊपर मंडरा रहे हेलीकाप्टर से पानी का छिड़काव किया जा रहा था।



16 दिसंबर को सुबह साढ़े आठ बजे मुख्यमंत्री की उपस्थिति में कारखाना चालू किया गया। राज्यपाल प्रो. के.एम. चांडी भी, जिन्होंने हादसे के बाद से भोपाल का पानी भी पीना बंद कर रखा था, कारखाने पधारे। बाहर कारखाने के फाटक पर अटलबिहारी वाजपेयी पुलिस वालों से भीतर जाने के लिए झगड़ रहे थे।

पहला दिन खत्म होने तक स्टोरेज टेंक नंबर 619 में रखी 15 टन मिक में से चार टन और फौलादी ड्रमों में रखी 1.2 टन मिक को कीटनाशक में बदल दिया गया था। अगली सुबह यह सारी प्रक्रिया फिर दोहराई गई और शाम होते-होते चार टन मिक और समाप्त हो चुकी थी। तीसरे दिन के खत्म होने तक बारह टन मिथाईन आइसोसाइनाईड कीटनाशक बनाकर खपाई जा चुकी थी। पहले लगाए गए अनुमान के हिसाब से अब सिर्फ चार टन मिक ही बच रही थी, लेकिन बाद में मालूम हुआ कि यूनियन कारबाइड के प्रबंधक इस बारे में भी झूठ बोल रहे थे। कारखाने में कहीं ज्यादा मिक मौजूद थी। कारखाना तीन के बजाए पूरे सात दिन चलाना पड़ा और इस दौरान बारह के बजाए चैबीस टन मिक को खपाना पड़ा। 

भोपाल में आस्था अभियान से जुड़े किसी भी वैज्ञानिक या नेता का सिर उस हफ्ते शर्म से नीचे नहीं झुका था।

लगातार कई दिनों तक भोपाल के लोग यह भी नहीं तय कर पाए कि वे क्या खाएं, क्या न खाएं। क्या हवा और पानी सुरक्षित है? क्या फल और सब्जियां इस्तेमाल करना निरापद है? क्या मछली और मांस इस्तेमाल किया जा सकता है? प्रशासन की ओर से जो सूचनाएं दी गईं, उनमें भ्रम और भी बढ़ा। कहा गया पानी सुरक्षित है, पर कृपया उबालकर पिएं। सब्जियां सुरक्षित हैं, पर पकाने से पहले उन्हें अच्छी तरह धो डालें। इसी तरह कहा गया कि मछली और मांस खाने योग्य है, पर साथ-साथ मांस और मछली बेचने पर प्रतिबंध भी लगा दिया। कत्लखाने अगले आदेश तक के लिए बंद कर दिए गए। कोई अधिकारी यह बताने की हालत में नहीं था कि ये सारे आदेश क्यों और किस आधार पर दिए गए।

पहल की एकलव्य नामक एक संस्था ने। मध्य प्रदेश शासन के अनुदान से गांवों के स्कूलों में विज्ञान-शिक्षण का प्रचार करने वाली इस संस्था ने हवा, पानी, वनस्पति, अनाज व अन्य वस्तुओं की जांच का बीड़ा उठाया। लेकिन बहुत जल्द उसे समझ में आ गया कि तमाम प्रयोगशालाएं सरकारी नियंत्राण में हैं और उनमें काम करने वाले ज्यादातर वैज्ञानिक ऐसे परीक्षणों से कतरा रहे हैं।

जांच सरकार ने भी करवाई। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का एक जांच दल 11 दिसंबर को भोपाल पहुंचा। उस दल ने पाया कि गैस के असर से मवेशी महज तीन मिनट में मर गए थे। मवेशियों की आंखों में पानी बहा था और मुंह से झाग निकला था। गाभिन गायें अचानक जन गई थीं। हल्के असर में आए पशुओं का दूध भी एकाएक सूख गया था और रोज 8 से 10 लीटर दूध देने वाली गायें आधा लीटर दूध भी नहीं दे पा रही थीं।

सरकारी हिसाब से मवेशी ज्यादा नहीं मरे सिर्फ 1047। हां, करीब 7 हजार पर असर जरूर पड़ा और वे बीमार हो गए।

गैस के असर वाले इलाकों में कई जगहों से पानी और मछली वगैरह के नमूने लिए गए। भोपाल की झीलों व ताल तलैया की मछलियों में रक्त की कमी पाई गई।

वनस्पति और मिट्टी पर मिक के असर का अध्ययन केंद्रिय जल प्रदूषण निवारण बोर्ड ने किया। बोर्ड ने नीम के पेड़ पर अध्ययन केंद्रित किया, क्योंकि नीम वातावरण के प्रति अपेक्षाकृत सबसे ज्यादा संवेदनशील होता है। बोर्ड ने पाया कि फैक्टरी के आसपास करीब साढ़े तीन वर्ग किलोमीटर क्षेत्रा में वनस्पतियों पर मिक का सबसे भयानक, इसके बाद साढ़े दस वर्ग किलोमीटर इलाके में बुरा, 16 वर्ग किलोमीटर इलाके में मामूली और 25 वर्ग किलोमीटर इलाके में हल्का असर पड़ा था।

पत्तियों तक ने गवाही दी।

मेथी के पौधे भी काफी संवेदनशील पौधे हैं। फैक्टरी से चार वर्ग किलोमीटर दूर तक ये पौधे पूरी तरह नष्ट हो गए थे। हादसे के आठ दिन बाद भी नए पौधे जड़ें पकड़ने को तैयार नहीं थे। नीम, अरंडी, करंज और बेर पूरी तरह बर्बाद हो गए थे। लेकिन तालाबों, तलैयों के किनारे यही पौधे व पेड़ एकदम ठीकठाक व स्वस्थ थे मानो पानी के संसर्ग ने उन्हें अपार जीवनी-शक्ति प्रदान की। वैज्ञानिकों ने इस आधार पर कहा कि भोपाल अगर ताल-तलैयों का शहर न रहा होता तो मिक का कहर और भी भयानक होता।

एहतियात के तौर पर बोर्ड ने सुझाव दिया कि गैस-प्रभावित क्षेत्रों के बेर, आम व पपीते वगैरह कम से कम एक मौसम तक इस्तेमाल न किए जाएं।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का एक दल भी भोपाल गया था। अपने अध्ययन के बाद इन वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी कि बाग-बगीचों के फलों व सब्जियों का कम से कम एक मानसून बीतने तक इस्तेमाल न किया जाए क्योंकि इन पौधों की अनुवांशिकी पर भी मिक का असर पड़ा है। इन वैज्ञानिकों ने तो सारी फसल उखाउ़ डालने और जमीन को कम से कम एक साल तक परती रखने की सलाह भी दी थी।

हादसे के एक महीने बाद लखनऊ में हुई राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में भोपाल पर भी बातचीत हुई। एक वैज्ञानिक ने अपना पर्चा पढ़ते हुए बड़े उत्साह से कहा थाः ”गुलाब प्रेमियों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी कि भोपाल में गुलाब के पौधों पर मिक का कोई खास असर नहीं पड़ा है।“ भर आता है मन ऐसी शोध को देखकर। पर यह एक बहुत कड़वा सच है कि भोपाल कांड के बाद हमारे समाज में, नेतृत्व में, वैज्ञानिकों में, अधिकारियों में ऐसे सैकड़ों गुलाब हैं, जिन पर न तो जहरीली मिक का और न उससे मारे गए हजारों लोगों का कोई असर हुआ है। वे तब भी खिले हुए थे और आज 25 बरस बाद भी खिले हुए हैं।

गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रका”शित पुस्तक ‘हमारा पर्यावरण’ के स्वास्थ्य नामक अध्याय में छपे ‘भोपाल कांड’ के संपादित अंश।

प्याज से बड़ा है देश


गणतंत्र दिवस मना लिया गया!
खुश होने की हजारो वजहें हैं तो दुखी होने की लाखो ! आप खुश होंगे तो आपको सकारात्मक और दुखी होंगे तो नकारात्मक इंसान समझा जाएगा! इस लिए मई ख़ुशी और दुःख का प्रदर्शन नहीं करने जा रहा 
दिन भर सोया जम के सोया! ये प्रतिक है हमारी चेतना का की हर गणतंत्र दिवस के बाद हमारा लोकतंत्र अधिनायकवाद की तरफ बढ़ता ही जाता है! मानवाधिकार कुचलने के लिए आम जनता तैयार होती जाती है! चापलूसी के लबादे में थोडा और मलमल लग जाता है लोकतंत्र के कुरते से कुछ और पैवंद नोच लिए जाते हैं! हमारा लोकतंत्र सोने लगता है! लोगों के दिमाग में अधिनायक वादी सुगबुगाने लगते हैं!  जनता के भीतर ही कुछ लोग समाज के दुश्मन के बतौर खड़े कर दिए जाते हैं! जाति-धरम और क्षेत्र की राजनीति जोर पकड़ लेती है!तो बेहतर है के इस दिन को सोया जाए कम से कम अपना दिमाग इस मुगालते में तो रहे की अभी लोकतंत्र परिपक्व्य नहीं हुआ है सो हो जाएगा!  वैसे ये मुगालता है बड़ी काम की चीज़ जब जैसी स्थिति पैदा करना चाहो कर लो अपने देश के लोग इसमें माहिर हैं! अभी हमारा देश अमरीके की बराबरी किये जारहा है दो साल पहले अस्सी प्रतिशत लोग बीस रूपये से भी कम पर जीवन गुज़र रहे थे! अब दोनों बात सरकार खुदे कहती है किस को  माने किसको नहीं का सवाल ही नहीं उठता जितना मानने को कहा जाए मान लिए आपका भी भला है और देश का भी 
हमारे देश में सबसे बेहतर यही बात है की व्यवस्था जैसा तय करती है सब वैसा ही होता है! अब देखिये जब मुस्लिम आतंकवाद की बात थी तो लगता था की मुसलमान मतलब आतंकवादी किसी घर में दाल जली की दादी अम्मा निकल आई गरियाते की हरामी आतंकवादियों ने में आर डी एक्स डाल दिया! हमने माना हाँ भाई ऐसा होगा फिर दौर आया आतंकी लड़कों के बरी होने का सिलसिला तमाम गैर कश्मीरी आतंकवादी बरी भी हो लिए! और फिर दौर आया हिन्दू आतंकवाद का लो जी सब में हिन्दू आतंकवादी शामिल  साथ में ताल देते हुए चल रहा है भारश्त्राचार का मुद्दा घोटाले पर घोटाला (विपक्ष चिल्लाता रहा अब उस का ज़माना कितना पाक साफ़ था यभी कोई याद करने की चीज़ है क्या) यद्दुराप्पा जी उधर आई कैन सोल्ड एवेरी थिंग का राग अलाप रहे हैं पूछो तो कहत्ते हैं हनुमान चालीसा है बढ़िया है जी कोई सवाल करने की ज़रूरत नहीं! राजा जी ने मोबाइल का कुछ बेच दिया लोग पढ़ गए पीछे क्यों बेचा क्यों बेचा! हद हो गयी बताओ भाई बेचारे ने ख़रीदा नहीं बेचा है गरीबी आई तो बेच दिया! मिडिया बहुत दिन चुप रही क्योकि राजा बाबु की हालत को वो जानते थे की बेचारे के घर की हांड़ी में जाले लग गए थे सो मोबाइल बेच के बन्दे ने चूल्हा जलवाया है 
कोम्मान वेल्थ के लिए शिला आंटी ने ज़रूर हवा पानी बंधा था वरना बनाना रिपब्लिक की इमेज बननी तय थी! अब जी भगवन शिला जी के साथ है तो हल्लाहा मचाने से क्या होगा! कलमाड़ी चाचा की भी खुबे छिछलेदारी हुयी ---मगर अब सब सो गए! जे पी सी या एस पी सी का हल्ला मचा रहे लोग अकल्मन्द हैं सांप निकल जाने पर लकीर नहीं पिटते आखिर गेम ख़तम हो गया तो इन्होने ने भी अपनी मांग ख़तम कर दी! मतलब जो ऐतिकता नैतिकता अधिकार वाधिकार की बातें थी उनको गेम के समापन में संपूर्ण कर दिया 
देश में मंहगाई बढ़ गयी है तो इसमें नया क्या है! मंदिर दरगाहों का चढ़ावा कम कर दो भगवन को कम मिलेगा  तो अपने आप मंहगाई में कमी आएगी! शरद काका के पीछे क्यों पड़े हो भाई! मारना है तो किसानो को मारो साले देस-द्रोही अनाज पैदा ही नहीं करते तो मंहगाई तो बढ़नी ही है!   
खैर जी सत्ता पक्ष और विपक्ष को नया मुद्दा चाहिए था गणतंत्र दिवस आया तो लाल चोंक याद आया 
सवाल देश की इज्जत का था सो अपने घर पर कभी तिरंगा देख कर गुटखे की पाउच समझने वाले भी झंडा वहीँ फहराएंगे की रत लागाये बैठ गए! सारा मुद्दा गया पानी में 
अब टी वी पर बीवी से एक ही बात हो रही थी की तिरंगा और लाल चौक बीबी बोली रे निगोड़े प्याज़ महोदय बोले प्याज़ से बड़ा है देश! पहले लाल चौक तब कडाही 
अब जहाँ बात देश की हो तो कौन बिच में प्याज की बात करे नमक रोटी गयी तेल लेने! अगर ऐसी बात करी तो देश द्रोही कहे जाने से बेहतर है छुपे रहो सो जी बेचारी पत्नियों चुप और महोदय का कामो बन गया

अब मेरे पास बीबी है नहीं जो प्याज की बात करे और न ही अपन इत्ता बड़ा देश भक्त है जो लाल चौक जाने की हिम्मत  करे तो भाई मई सोता हूँ आप को मन में आये कीजिये अपने पिता श्री का कुछ जाने से रहा !
जय गणतंत्र 

ये जो मुसलमान हैं ना


आज का पूरा दिन मुस्लिम मुद्दों के साथ गुज़रा! अपनी ज़िन्दगी का शायद पहला दिन था! वैसे भी आपकी सामाजिक पहचान आप आचार विचार से ज्यादा अहमियत रखती है सो आप चाहे अनचाहे प्रोफाइलिंग का श्हिकर होते हैं फिर अपनी पहचान से जुड़ने की कोशिश करते है मगर मैं सही मायने में मुस्लिम मुद्दे को बेहतर ढंग से समझना चाहता था! समाज में जाकर उन्हें जांचना ज्यादा प्रभावी रहता है मगर व्यावाहारिक रूप में आम जनता और सामाजिक मुद्दा अलग अलग अलग होते हैं! सामाजिक मुद्दे आम लोग तय  नहीं करते ये काम खास लोगों का होता है! और ये खास लोग आम जनता को मवेशियों की तरह हांकते हैं सो ज्यादा ज़रूरी था की इनकी विचार गोष्ठियों में जाया जाए और इन्हें समझने की कोशिश की जाए 
और संजोग ऐसा हुआ की पहला में एलिट मुस्लिम ग्रुप के साथ तो दूसरा पहर में पसमांदा मुस्लिम ग्रुप के साथ गुज़रा 
दो ही तिन घंटे में कुछ हद तक तस्वीर साफ़ होगई की दर-असल समस्या क्या है और ये खास लोग खास क्यों हुआ करते हैं 
ताज्जुब हुआ की तमाम मसलों में वो बातें घायब थी जिनपर सही मायने में चर्चा की जानी चाहिए थी! पहले पुरे पहर में एक इंजिनियर समाज की बात करते रहे और किस तरह मुस्लिम समाज की सही तस्वीर देश और दुनिया के सामने पेश की जाए ये बताते रहे! उनके साथ डायस पर बैठे दुसरे पत्रकार थे (मगर ये मुस्लिम नहीं है) जो ये बताते रहे की इन्टरनेट का इस्तेमाल मुस्लिम इमेज के लिए कितना ज़रूरी है 
मुस्लिम मुद्दों की बैठकें हमेशा से ही ऐसी बचकानी होती हैं! आप मुसलमान है तो दंगे की बात कीजिये आर एस एस की बात कीजिये कांग्रेस का रोना रोईये! मतलब काम नहीं बकवास करते रहिये अब मुझे समझ नहीं आता की इन्टरनेट वार करने से कौनसा किसी का भला होना या समाज की समस्या ख़तम हो जानी! और अगर मीडिया सच नहीं दीखता तो कौन सा आपही सच दिखा देंगे जो अस्तित्व में है उसको सुधरने के बजाये अक्सर है लोग दुसरे विकल्पों को खड़ा करने में क्यों लग जाते हैं! और आम आदमी इन्टरनेट से जुड़ भी कितना पाया है मुझे नहीं pata 
एक साहब इसी मित्तिंग में कह रहे थे की हम हजारो साल ग़ुलाम रहे हैं इस लिए हमारी मानसिकता ऐसी है (अब इनको कौन कहे की ये प्रचार आर एस एस का है और वो इसे मुसलमानों के खिलाफ ही इस्तेमाल करते हैं)! और यकीनन हम ऐसा क्यों माने की हम गुलाम रहे हैं! जो लोग मानते हैं उन्हें मानने दें 
किसी भी सत्ता के अन्दर रहना अगर  गुलामी है तो यकीनन आप आज भी ग़ुलाम है और हमेशा रहेंगे क्योकि लोकतंत्र में भी सरकारें बहुमत से नहीं बनती 
इसी सरकार को देखे तो पचास प्रतिशत से कम की टोटल पोलिंग में से बहुमत प्राप्त किया है! इसलिए अगर कुल ९० प्रतिशत वोट भी प्राप्त कटी तो ज़ाहिर है की कुल देश का बहुमत इसके खिलाफ है 
खैर गिलास आधा खली है या भरा इस पर बहस कभी ख़तम नहीं होगी 
इसी मीटिंग में एक लड़की ने मुस्लिम औरतों का मुद्दा भी उठाया जिसपर बात की गुंजाईश ही नहीं थी क्योकि यहाँ बात धरातल की नहीं अंतरजाल की हो रही थी!
यहाँ अंग्रेजी के शान में कसीदे भी पढ़े गए! क्या लगता है ये वैश्विक भाषा से जोड़ने की कोशिश है१ पहली नज़र में भले ऐसा लगे मगर सही मायने में ऐसा है नहीं जहाँ तक मैं सोचता हूँ और खासकर वहां से लौटते हुए जब मैं ऑटो वाले से बात कर रहा था उसके बाद! 
उसके विचार से मुस्लिम औरतों में शिक्षा की कमी है बेचारी पढ़ लिख नहीं पाती! सोच कर हंसी सी आई की आज से पंद्रह साल पहले खातून मशरिक और तमाम तरह की उर्दू मासिक पत्रिकाओं का सर्कुलेशन २५ लाख से ऊपर था! मेरे पुश्तैनी गाँव (बिहार के गया के गुरुआ का जेईबीघा) में मेरी बाएँ पढ़ा करती थी! और जब हम वहां जाते तो हमें ये किताबें पड़ने नहीं क्योकि इश्क और सेक्सुअलिटी की की अभिवयक्ति की वजह से इसे बच्चों के लायक नहीं माना जाता था) 
उर्दू का एक रूप गुरुमुखी(पंजाबी भाषा जिसमे लिखते हैं) अब भी पूरी तरह से प्रचलित है! शाहमुखी (अरबी स्क्रिप्ट वाली उर्दू) मार दी गयी ज़ाहिर है दायरा संकुचित होगया!
कुद्र्तुलैन ह्य्दर की उर्दू कहानियाँ आज पड़ना अपने आप में क्रांति होगी मगर ये कहानियाँ ज्यादा से ज्यादा  दो दशक भर पहलेतक आम मुस्लिम लड़कियों में आम तौर पर पढ़ी जाती थी! 
हमने उर्दू को खो दिया हमने औरतों को (मर्द भी कितने पढ़े लिखे माने जाते हैं, माने जाते तो मोदी कब कहता की ये लुंगी वाले लोग पंचर लगाने वाले लोग) को जाहिल की श्रेणी में खड़ा कर दिया! मैं उर्दू हिंदी किसी का पक्षधर नहीं हूँ मैं तो सिर्फ एक स्थिति रख रहा हूँ 
इलीटिस्ट अपने समाज को सही रूप में दिखाना चाहते हैं इस लिए भाषाएँ बदल रहें हैं! 
मेरे एक दोस्त के दादा अच्छी फ़ारसी जानते थे उर्दू भी इंग्लिश भी और हिंदी भी संस्कृत में कवितायें भी की हैं उन्होंने मेरा दोस्त संस्कृत पढ़ लेता है इंग्लिश बोलता है हिंदी जानता है मगर उसका उर्दू फारसी से दूर दूर का रिश्ता नहीं! क्यों ??????
वो नहीं जानना चाहता हमारे बारे में अगर जानना होता तो वो अपने दादा की परंपरा निभाता और मामलों में तो निभाता है इसमें क्यों नहीं 
सीधा है वो नहीं जानना चाहता तो मैं क्यों ज़बरदस्ती उसे बताऊँ  
मैं ने हिन्दू धरम को अच्छी तरह अध्ययन किया तमाम सेक्टों को! विवादों को जानता हूँ आर्यसमाज को जाना समझा बुध्य धरम को पढ़ा जैन धरम को......मुझे जानना था मैंने किताबें खरीदी और पढ़ा 
संकृत की क्लास किया ताकि सिख सकूँ.........जितना सिख सका सिखा 
मुझे किसी ने हाथ पकड़ कर नहीं बोला ऐसा करो तो मुसलमान ऐसा क्यों करना चाहते हैं.
 दरअसल इनका असली उद्देश्य समाज को लगातार अवसाद में रखना है इन्हें लगातार सिखने में लगाना है! 
मुसलिम समाज समझता है की साइंस ही तरक्की का सही रास्ता है सही समझता है मगर इसने आजतक तेक्नालोग्य और साइंस में फरक नहीं जाना! इंजीनियर्स की बड़ी फ़ौज तो बना ली मगर एक भी बेहतरीन समाज विज्ञानी पैदा नहीं कर सका! जो हुए सो चल दिए उनकी जगह खली ही रही साहित्यकार पैदा ना कर सका जो शायर बने वो निहायत ही नकारे और चापलूस........फीकी कलम वाले नौटंकीबाज़..........मुस्लिम लीडरशिप तो खैर है ही नहीं और ना हो ये अच्छा भी है क्योकि  
आर एस एस जैसे संगठनो को बढावा देने वाले असली लोग यही इलीटिस्ट और कौम की रहनुमाई करने वाले लोग (मजाक उदा रहा हूँ) हैं 

दुसरे पहर के कार्यक्रम में पसमांदा मुस्लिम ग्रुप में चर्चा आरक्षण की शुरू हुयी और सच्चर और रंगनाथ मिश्र कमीशन पर बहस चलती रही बचकाना और अहमकाना 
ताज्जुब लगा की कुछ लोग इस के बड़े खिलाफ है और उनका मानना है की इस्लाम ऐसी इजाज़त नहीं देता इस्लाम में जाती व्यवस्था नहीं है 
हम्म अगर नहीं है तो अली अनवर को "जोलाहवा" पुकारते तो सुना है मगर किसी को सय्यादवा (सय्यद), शेखंडी (शेख) पठान्वा कहते नहीं क्यों आखिर (अच्चा हाँ ये लास्ट वाले शब्द मेरे आविष्कार हैं इसलिए कोई भी जब इस्तेमाल करे तो महामहिम का नाम लिखे वरना केस ठोंक दूंगा)
खैर इन चीजों पर गुस्सा निकलने से कुछ नहीं होना 
आखिर समस्या क्या है मुस्लिम समाज की ???????
मुझे लगता है एकलौती समस्या है की इस समाज के भीतर अब ना तो करम के साहित्यकार बचे हैं और ना सामाजिक कार्यकर्त्ता (एक नाम होसके तो बताये जो मुस्लिम तो हो मगर मुस्लिम मुद्दों अंगे दंगे या मुस्लिम एजुकेशन के फलाह के अलावा किसी सामाजिक मसले  पर काम करता हो) नहीं ऐसा कोई नाम मेरी नज़र से नहीं गुज़रा 
असली समस्या यही है! एलिटिस्ट समाज पर पूरी तरह से हावी हैं जो ना तो असली मुद्दे को जानते हैं और ना ही जानना चाहते हैं 
देश होने वाली कुल मानव तस्करी में ७० फिसद से ज्यादा भुक्तभोगी  और इस व्यापार से जुड़े ५० फिसद लोग मुसलमान हैं! देश में बच्चों की तस्करी का शिकार सबसे बड़ा हिस्सा मुस्लिम बच्चों का है! मगर आज तक इन सवालों को उठाने की हिम्मत किसी में नहीं हुयी! कंधमाल दंगों के बाद से एक इसाई बच्ची डेल्ही में जब बेचीं गयी तो देश भर में हंगामा मच गया! मगर गुजरात दंगों के बाद वहां से सैकड़ों लडकियां बेच दी गयी तो शाहबानो मामले में हल्ला मचने वाले नरम गद्दों में पड़े थे! आज भी शादियों के नाम पर नौकरी के नाम पर बड़ी संख्या में लडकियां बेचीं जा रही हैं तो हम सोये हैं! हम सरकार से पूछना भी नहीं चाहते की वो ऐसे मुद्दों पर क्या सोचती है 
पिछले दिनों मै एक मामले की जांच के लिए एक सहायक संगठन "शक्तिशालिनी" की पुराणी फाईल्स देख रहा था! मेरा दिमाग देख कर सरक गया की पारिवारिक प्रताड़ना और घर से भागने वाली औरतों के आधे से ज्यादा मामले मुस्लिम औरतों के थे! ये एक प्रकार का इम्पोवार्मेंट भी है की चीजें बाहर निकली हैं! मगर समाज के भितर काम किये जाने की आवश्यकता को भी दर्शाता है   

चाय ख़तम होगई और जोश भी 
और हाँ चुस्की लेने के लिए कमेन्ट मत करियो ना तो अपना समझिये1 नागिन से बच के निकल सकते हो मेरे से ना 
ऑटो वाले से बात की कथा बाद में कहूँगा काफी होगया आज 

जाति ही पूछो सजन की


दस्तूर है सो लिख रहा हूँ! वरना लिखना बुरी बात है क्योकि जब आप लिख देते हैं तो वो प्रमाणिक मन जाता है! सबूत बन जाता है इसी लिए लोग नहीं लिखते या लिखते हैं तो मिटा देते हैं छुपा देते हैं 
हमारी मज़बूरी भी है आखिर ऐसी आपाधापी में कोई भी क्यों लिखे और माना की लिख भी रहा हो तो लिखे क्या 
और मैं भी क्या लिख रहा हूँ बकवास ही कर रहा हूँ ना! और ये भी जानता हूँ की मेरी बकवास दर्ज की जा रही हैं! अब सवाल की क्या बकवास भी सबूत बना करती है तो दोस्तों सच कहा जाए तो बकवास ही इतिहास बना करता है है जो बात आप मजाक में कहते हैं उसको जब सच मान लिया  जाता है तो खून की नदिया बह जाती हैं! प्रोफ़ेसर ओक की बात कल तक  मजाक था अब तर्क बन गया कल क़त्ल ए आम की वजह बनेगी! सोचो की अगर हनुमान अखाड़े वाले कहें की भाई बाबरी मस्जिद बनवा देते हैं मगर शर्त है की देश भर का मुसलमान इसी मस्जिद में नमाज़ पड़ेगा! या ये कहें की दुसरे पक्ष को मस्जिद के सामने आत्म हत्या करनी होगी! या ऐसा ही कुछ बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी कहे की मंदिर बनवा लो मगर दुसरे पक्ष के नेता आत्महत्या करें! (आप मुझे पागल समझ रहे हैं ना ?) मगर जो भी हो सोचो अगर सच में ऐसा हुआ तो ???????????????नहीं कैसे होगा पिछले २०० साल में इस मुद्दे ने हजारो जान ली है तो ऐसा आफर क्यों नहीं आसकता? वैसे नोट करलो ऐसा कोई आफर नहीं आएगा क्योकि दाहिने चलने वालों को दिमाग नहीं होता! समाज के अधिकतर नियम ऐसी बेवकूफियों से निकल कर आयें हैं! सड़क के किनारे चाय पीते हुए कही गयी बात समाज की संरचना तय करती है! 
अब सोचो एक लड़की और एक लड़के की शादी करने से क्या होता है ???????
कंफिउज़ होने की ज़रूरत नहीं अब मैं बात कर रहा हूँ तो ज़ाहिर है गन्दी ही करूँगा 
सोचो सोचो 
अब इसके पीछे कौन है ये जानना हमारा काम नहीं 
सिम्पल यार सेक्स और बच्चा हाँ यही इसी को थोडा इज्ज़त से बोलो परिवार बनेगा और इसकी शुरुआत चाहे जैसे करो अंजाम वही होगा! दो युवा अपने माँ बाप की मर्ज़ी और भगवान् के आशीर्वाद से जब मिलते हैं तो सेक्स करते हैं और जब खुद की मर्जी से मिलते हैं तो सेक्स करते हैं! बच्चे पैदा करते हैं उनको पालते हैं फिर उनको किसी से मिलते हैं और मर जाते हैं! 
ओहो मै कुछ ज्यादा नहीं कहना चाहता बस पूछना चाहता हूँ " बस इसी चक्कर में ज़िन्दगी घुमती है और इसमें कुछ मसाले मिल जाते हैं जो ज़िन्दगी को खट्टी मीठी बनाते हैं इस मसाले को को जनून कहते हैं 
यही जनून इंसान को पागल बना देता है कम्पलीटली बद-दिमाग.....कुछ संकी धरम करम करते हैं कुछ सब कुछ बर्बाद कर देते हैं कुछ लोग बनाने की कोशिश करते हैं! जो कुछ नहीं करते वो खेलते हैं अपने आस पास के लोगों से सम्मान हत्या करने वाले यही लोग है जो अपने बच्चों को मार डरते है ये वजह देकर की ये उनकी इज्ज़त ख़राब कर रहे थे या ख़राब हो रहे हैं उनकी शिकायत होती है की हमने पैदा किया हमने पाला तो तुम अपनी मर्ज़ी से कुछ मत करो 
नहीं मैं इनलोगों के लिए कामांध होकर पैदा करने की बात नहीं करूँगा मगर एक राय ज़रूर दूंगा की अपने बच्चों को कंडोम का फ्लेवर और सेक्स के आसन भी बताया करें आखिर युवा इन बातों को कैसे जानेगा! उन्हें बताये की हमारी संस्कृति किन किन  आसनों में सेक्स की इजाज़त देती है! हमें बताये की कंडोम का इस्तेमाल कैसे करें और किस फलेवर का हमारी संस्कृति या हमारा धरम किस फ्लेवर का इस्तेमाल करने की इजाज़त देता है! 
आपको पता है ऐसी ही बकवास कई सवाल खड़ा कर देती है "सभी समाज पर इसलिए इसी बातों से बचिए 
कोई लड़का लड़की पसंद आये तो उसका उपनाम पूछो जानो वो किस धरम जाति सामाजिक परिवेश आदि से है  

फिल्म अभी बाकी है मेरे दोस्त

बडे लोगों की बातें भी बड़ी होती है. कई बार आप और मेरे जैसे लोग इन बातों के पीछे की सच्चाई देख ही नही पाते (धर्म से फुर्सत तो होले) और उसकी कीमत चुकाते हैं. कुछ ही दिन हुए हैं पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ने में और अब शुरू होगा लोगों को सुझाव और उपदेश देने का सिलसिला. कीमतें और ऊपर ना जाएं इसके लिए आपको कुछ इस तरह की बातें सुनाई देंगी:

१. ज्यादा से ज्यादा लोक परिवहन का उपयोग करें.
२. बेहतर माइलेज देने वाली गाडियाँ खरीदें.
३. पेट्रोल बर्बाद करने वाली गाड़ियों को बनाना बंद करें या उनपर टेक्स लगाएं, आदि-आदि.





पहले सुझाव देना कितना जायज़ है इसकी ही बातें कर लें. सच तो यह है की वैश्वीकरण ने (अच्छे या बुरे के लिए) हमें दुनिया से जोड़ दिया है और हमें अब चीज़ें जरूरत के अनुसार मिल सकती है . आप में से कईयों को सन् १९९१ से पहले की 'राशनिंग' और 'कोटा' याद होगा. हालांकि तेल जैसी कई चीज़ें हैं जो अभी भी कंट्रोल में हैं, पर सरकार पर दबाव तो दोनों तरफ से रहता है, एक तरफ कम्पनी तो दूसरी तरफ जनता. सब्सिडी दे देकर पैसा खत्म कर लो तो फिर और तेल कहाँ से खरीदोगे, पर कीमत बढाओ तो एक साथ कई चीजों के दाम बढ़ जाते हैं, जनता त्राहि-त्राहि करने लगती है. हेलर ने इसे केच-२२ की संज्ञा दी है 



दूसरी बात अमेरिका और अन्य देशों की, कीमतें अमेरिका के लोगों को भी परेशान कर रही हैं, कभी उनके राष्ट्रपति को हमारा खाना ज्यादा लगने लगता है कभी गाड़ियों की बढ़ती सख्या से उनका हाजमा बिगड़ जाता है . उनके कबाड़खानों में बड़ी (पेट्रोल पीने वाली) गाड़ियों की लाइने लग रही है मतलब साफ है .



(वैसे नेता सभी जगह एक जैसे होते हैं, वहाँ के नेता भारत को दोष देते हैं और भारतीय उनको) इससे एक बात तो पक्की है कि हम अपने पूर्वजों से अच्छी ज़िंदगी जी रहे हैं, कैसे, आगे पढिए, कीमतें मांग और पूर्ति के द्वारा निर्धारित होती हैं, (जब ज्यादा पैसा कम उपलब्ध सामान को खरीदना चाहता है तो कीमतें बढ़ती हैं) अब वैश्विकरण के कारण हम अपने पैसे से अमेरिका के हिस्से का तेल खरीद सकते हैं (जो पहले संभव नही था). इससे कीमतें बढ़ रही हैं और अमेरिका खीज रहा है (पर हमारे वामपंथी वही पुराना राग अलाप रहे हैं). मैं मानता हूँ कि हमारे देश में अभी भी कई चिंताजनक चीजें हैं पर यह भी उतना ही सच है कि हमारे पास अवसर भी कई गुना बढ़ गया है और साथ ही बढा है पैसा .



अब आयें सुझावों पर, लोक परिवहन का उपयोग कोई शौक से नही करता, हर आदमी यही सोचता है किसी दिन हमारी भी गाडी होगी. आप कहेंगे जो दिनभर में बमुश्किल दल-रोटी कमा पाता है वह ऐसे सपने नही देख सकता. गलत, किसी रिक्शेवाले को देखें कि उसने रिक्शा कैसे सजाया है या फिर 'झंकार बीट' वाले ऑटो को आपको समझ आ जाएगा की इसका पैसे से कोई संबंध नही है . यह शान तो बढाता है पर उससे ज्यादा आपको बंधनों से मुक्त कर देता है, आप अपनी मर्जी के मालिक होते हैं जो सबसे बड़ी अनुभूति है. तो किसी को यह बताने की ज़रूरत नही की लोक परिवहन का उपयोग करें क्योंकि जो मजबूर है वो तो कर ही रहा है उपयोग.



अब बात १०० कि.मी.प्र.ली एवरेज देने वाली गाड़ियों की, आपको क्या लगता है, अगर सभी ये बाइके खरीद ले तो कीमतें स्थिर रहेंगी. मेरा मानना है ज़रूरी नही है, कैसे, ऐसे की अब आप उतने पैसे में लगभग ६० कि.मी. ज्यादा चल पाएँगे तो वो जगहें जो पहले आपकी पहुंच से दूर थी अचानक पास आ जाएंगी. लीसा टाकिज सिहोर की पिक्चर, भोजपुर में भोले बाबा के दर्शन या हलाली डैम पर पिकनिक सब उसी कीमत पर, वाह. पर यही बात आप जैसे कई लोगों को समझ में आएगी और इस प्रकार पेट्रोल उतना ही जलेगा और कीमतें भी यथावत बढ़ती रहेंगी.



एक सवाल यह भी है कि मर्सिडीज़ और रोल्स-रायस जैसी गाडियाँ चलाने वालों पर टेक्स लगाया जाए या नही. आप खुद सोचिये टेक्स लगाने से क्या उनको फर्क पड़ेगा नही, हाँ दलाल नामक जंतु जो हमारे देश में होता है उसके पास एक सेवा और उपलब्ध हो जाएगी. और ये टेक्स अपनी जेब से तो भरेंगे नही, बड़ी बड़ी कंपनियों के मालिक इसे सीधे हमसे ही वसूल लेंगे.



तो फिर पेट्रोल की बढ़ती कीमतों से बचने का क्या रास्ता है. सबसे आसान रास्ता है, पेट्रोल का उपयोग ही बंद कर दे,( पर उससे भी कुछ नही होगा क्योंकि आपके चारों तरफ तो हर चीज़ तेल से ही चल रही) फिर तो अपने पूर्वजो को याद करके भीम-बैठका जैसे किसी जंगल में रहने चले जाएं या फिर इस लड़ाई को लड़ते हुए शहीद हो जाएं. आज के समय में महंगा ही सस्ता है यह गाँठ बाँध ले, एक ३३ का एवरेज देने वाला स्कूटर १०९ का एवरेज देने वाली बाइक से कहीं अच्छा है क्योंकि वो आपको फालतू घूमने से बचाता है और इसी के साथ बचाता है आपका पैसा . सभी की बचत किसी की बचत नही होती.
ऐसे सोचिये चादर तंग हो तो पांव कम फैलाएं (और वो आपकी चादर फाड़ता रहे) इसको कहते हैं देशभक्त सोच 


आपको ऐसा लग रहा होगा की में भविष्य की बहुत खराब छवि पेश कर रहा हूँ. तो आप ही मुझे बताएं की आने वाला समय कैसा होगा अच्छा या बुरा. क्या कहा अच्छा, तो आप गलत सोचते हैं. और अगर आपने कहा बुरा तो भी आप गलत सोचते हैं. 



हम नही जानते की आने वाला समय कैसा होगा और वह क्या मोड़ लेगा. हमारे पास आज है जो जैसा भी है हमारा है और उसी के साथ हमें रहना है. और हमारा कल है जिससे हमें सीखना चाहिऐ.


  (मेरी डायरी से )


महिला आरक्षण से आगे


अक्सर बड़े बड़े लोगों की चर्चो में छोटे छोटे लोगों के बड़े बड़े मुद्दे हाशिये पर चले जाते है! महिला आरक्षण बिल के राज्यसभा में पास होने के बाद जहाँ एक तरफ खुशियों का माहोल है तो दूसरी तरफ बहस जारी है की आखिर इस आरक्षण का परिणाम क्या होगा! मगर चाहे जो हो इस आपाधापी में हम कृषकों और कृषि मजदूरों को भूल चुके हैं। थोडा पीछे जाएँ तो पिछले संसदिये चुनाव में उत्तर प्रदेश के संसदीय क्षेत्र रायबरेली के दो प्रखण्डों क्रमश: हरचन्दपुर और महाराजगंज के गांवों की दिवारों पर उकेरे गये नारों को याद कर आश्चर्य ही होता है।
इन नारों की बानगी देखें ''महिलाओं को किसान का दर्जा जो दिलायेगा, वोट हमारा पायेगा'' और ''जितनी होगी भागीदारी, उतनी होगी हिस्सेदारी''। वास्तव में नारी सशक्तिकरण और महिला आरक्षण् के झूंनझूनों के बीच ये जन-नगाडा हमारी आजादी और लोकतांत्रिक परिपक्वता की स्पष्‍ट पहचान है। ये सही है कि हमने अपनी आजादी के साथ साथ महिलाओं के अधिकार आंदोलन को गंभीरता से लिया है और जुझारू नारीवादियों के संघर्षों ने अपना रंग दिखाया है। जिसके फलस्वरूप कई कानून अमल में आये। मगर आज जब समाज महिलाओं को सशक्त स्थिति में पाता है तो उसकी शिकायत होती है कि पुरूषों को नारियों की प्रताड़ना से कौन बचाये शायद यही वजह है कि पुरूषों को नारियों के शोषण से बचाने के लिये तथाकथित आंदोलन सुगबुगा रहा है और अब तो कई संस्थाएं इस पर कार्य करने लगी हैं। 

मगर सवाल उठता है कि क्या वास्तव में महिलायें स्वछंद या स्वतंत्र हैं। अगर हां तो क्या परिसम्पित्तयों पर उनका अधिकार है या क्या वो स्वयं की अर्जित आय को व्यय करने का अधिकार रखती हैं और क्या उनके श्रम का अनुदान उन्हें मिल पाता है। 

कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमति सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र से महिलाओं ने जो किसान होने की मान्यता मांगी है उसका अपना कारण भी है और आंदोलनों का इतिहास भी। शायद आपको ताज्जुब लगे मगर सच तो ये है कि जब भी जमीन और पट्टे की बात होती है तो महिलाओं को परिवार का मुखिया माना जाता है। दिल्ली की सल्तनत में रजिया सुल्ताना को जिस संकीर्णता का शिकार होना पड़ा था वो आज भी जारी है और लैंगिक असमानता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि महिलाओं को किसान क्रेडिट कार्ड जैसी योजना का कोई लाभ नहीं मिलता सीधे सीधे कहें तो औरतों को किसान नहीं माना जाता। मार्था चैन के 1991 सर्वेक्षण परिणाम में साफ है कि महिलाओं की मालिकाना भूमि भागीदारी लगभग नगन्य है। यही अध्ययन स्पष्‍ट करता है कि महिलाओं का भूमि उत्तराधिकार मात्र 13 प्रतिशत है। 

दुखद ये है कि भूमि पर महिलाओं की भागीदारी का प्रश्‍न 1946-47 के बंगाल के तेभागा आंदोलन से ही उठ खड़ा हुआ था और अपने परिवार के पुरूषों के साथ भूमिपतियों से लड़ती हुई महिलाओं ने घरेलु हिंसा और भूमि अधिकार की बात छेड़ी थी। इस आंदोलन में चुल्हे चौके छोड़ दरातों और झाडु लेकर बाहर निकली महिलाओं ने अधिकार और सम्मान का दर्शन तो समझा मगर परिवार के भीतर की स्थितियों के परिर्वतन नहीं समझ सकीं फलस्वरूप आंदोलन की समाप्ति के बाद पुन: अपने परिवार के पुरूषों के अधीन हो गई। कुछ ऐसा ही तेंलंगाना आंदोलन के बाद हुआ भूमि अधिकार के संघर्षों में महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर अपनी भूमिकाओं का निर्वाह किया मगर घरेलु मोर्चे पर पुन: मात खा गई। मगर जब 1978 में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में मठ के विरूध्द बोधगया भूमि आंदोलन में जब महिलाओं ने अपने सरोकार की बातें की तो कई प्रकार के विरोध हुए मगर बातचीत और आंदोलनात्मक आवश्‍यकताओं ने आखिर मार्ग प्रशस्त किया। घर के पुरूषों ने जब कहा कि जमीन किसी के नाम हो इससे क्या फर्क पड़ता है तब औरतों ने पूछा कि तुम विरोध क्यों करते हो। जमीन हमारे नाम होने दो।लेकिन तब जिला अधिकारी ने पट्टे महिलाओं को देने से इंकार कर दिया उन्हें महिलाओं के परिवार प्रमुख की भूमिका पर आपत्ति थी। वो पट्टे किसी नाबालिग पुरूष के नाम करने को तैयार थे। मगर महिलाओं के नाम कतई नहीं। अब महिलाओं को वाहिनी के कार्यकर्ताओं का पूरा समर्थन था और आखिर में सरकार की अधिसूचना के माध्यम से 1983 में जमीन के पट्टे महिलाओं के नाम भी किये गये। भूमि अधिकार के मामले मे महिलाओं की विश्‍व में पहली जीत थी। बोधगया आंदोलन न केवल भूमि अधिकार के लिये महत्वपूर्ण है बल्कि कार्य बंटवारे और वित्तरहित श्रम का प्रश्‍न सामाजिक समानता के समक्ष लाने का संघर्ष भी है। यहां उल्लेखनीय है कि इस इस भूमि आंदोलन का प्रमुख नारे  ''जमीन किसकी जोते उसकी'' पर प्रश्‍न उठाया कि जमीन जो बोये या काटे उसकी क्यों नहीं। वास्तव में इसके पीछे भी वजह थी कि आंदोलन के पुरूष साथियों ने महिलाओं से पूछा था कि अगर जमीन वो लेंगीं तो जोतेगा कौन जवाब में महिलाओं ने कहा था कि अगर जमीन पुरूष लेंगें तो उन्हें बोयेगा या काटेगा कौन तो फिर काम का परितोषिक अथवा मालिकाना हक क्यों नहीं। महिलायों के भूमि अधिकार पर बिल का एक ड्रामा पहले भी हो चूका है मगर अफ़सोस ये महज़ ड्रामा ही रहा वास्तव में आज भी महिलाएं  कृषि भूमि उतराधिकार प्राप्त नहीं कर सकती क्योकि ये अभी तक विधिसम्मत हुआ ही नहीं! शाहबानो मामले में इस्लाम को खतरे में बता रहे मुस्लिम पहरुआ शरियत की इस अनदेखी (इस्लाम महिलायों के भूमि अधिकार को अनिवार्य करता है) कर रहे हैं और २००५ में  मुस्लिम परसनल ला बोर्ड ने प्रधान मंत्री को मात्र एक ज्ञापन देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली! ज़ाहिर खेत और किसान जब अप्रासंगिक हुए जारहे हैं तब इन अधिकारों का क्या फायदा! खेत और ज़मीन आज पिछड़ेपन की निशानी बनते जारहे हैं तब इन पर बात कौन करे मगर सच तो यही है की देश की बहुसंख्यक महिला आबादी अपने भूमि अधिकार की बाट जोह रही है और दुखद ये है की उनकी आवाज़ संसद तक पहुचने वाला कोई नहीं! 


तो क्या महिला आरक्षण महज़ ड्राइंग रूम तक ही सीमित रहेगा और आँगन वाले घर अछूते रह जायेंगे अन्तरिक्ष तक की उड़न वाली लड़कियां(भले वो अमरीकी नागरिक हों) हिंदुस्तान की असली पहचान है और क्या हिंदुस्तान की राजनीति पर अब इलीट पूरी तरह हावी हो गए और क्या खेत ज़मीन बैल हल जैसे शब्दों को भूल जाना बेहतर है या सोनिया गाँधी ज़मीन पर औरतों के अधिकार पर ध्यान देंगी  

शिमला में बाल मजदूरी


शिमला रेलवे स्टेशन से नीचे सरकार ने एक बस्ती बसायी है नाम दिया है कुष्‍ठ कालोनी। यह वह कॉलोनी है जहाँ सरकार ने कुष्ठे रोगीयों का पुर्नवास किया है। कॉलोनी के पास ही एक अनाधिकृत बस्ती बसी है नाम है महाशिव कॉलोनी। इस बस्ती में करीब 70 परिवार रहते हैं। अधिकतर परिवार प्रवासी हैं और अलग अलग राज्यों से रोजगार की तलाश में यहॉ 10 वर्ष पूर्व आये हैं। उल्लेखनीय हैं कि ये सभी परिवार अनुसूचित जाति व अनुसूचित जन जाति से हैं। शायद यही कारण है कि बदहाली और मजबुरीयों को देखने के लिये ज्यादा मेहनत करने की आवश्ययकता नहीं है। यहाँ बदहाली का तांडव स्पष्ट दिख जाता है। बच्चों से लेकर बुजुर्गो के चेहरे से उन दयनीय स्थिति और मजबुरी का अहसास स्पष्टत रूप से देखा जा सकता है।इस बस्ती का हर बच्चा 4-5 साल की उम्र से ही भीख मॉगने निकल जाता है और थोडा अधिक उम्र होने पर कबाड चुनने के काम में लग जाता है।


कुछ एैसी ही स्थिति है फन वर्ल्ड और महासु पिक्स, देवीधार मन्दिर शिमला में । यह वह पर्यटन स्तम्भ है जहाँ मंद मौसम में भी सैकडों पर्यटक रोज आते हैं। और कुफरी से उक्त स्थल तक घोडे चढना इन पर्यटकों का रोमांच दूगना करदेता है। दो किलोमीटर के इस सफर में पर्यटक जहाँ शाही सवारी के मद में और घोडों की टॉपों से झुम उठते हैं। वहीं इन टापों से घोडों की लगाम थामने वाले हाथों का बचपन कुचला जाता है। मगर टापों की आवाज इन बच्चों की आवाजों को दबा जाती है। यही वजह है कि इतना बडा पर्यटन स्थल होने के बावजुद सरकारी अमले को घोडे चलाने वाले ये बच्चे दिखाई नहीं देते। सुबह से शाम तक ये बच्चे अनवरत चक्कर लगाते रहते हैं ये चक्कर समान्य तौर 10 से 15 बार का होता है। 8 से 15 साल के ये बच्चे एक साथ दो से चार घोडे संचालित करते हैं। अक्सर देखने में आता है कि कम उम्र के ये बच्चे घोडे नहीं सम्भाल पाते और पर्यटक गिर जाते हैं। जिसके बाद पर्यटक तो गुस्से में इन बच्चों के साथ मार पीट करते ही है इनके ठेकेदार भी इन बच्चों की जर्बदस्त पिटाई करते हैं। यहाँ काम करने वाले अधिसंख्यक बच्चें प्रवासी हैं जो गॉव के लोगों अथवा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ काम की तालाश में यहाँ आये हैं। यहाँ जितने भी घोडा चलाने वालों की युनियन हैं उनमें धडल्ले से बच्चों को घोडा वाहक बनाया जा रहा हैं जो उस दूर्गम रास्ते पर यात्रियों के अवागमन के साधन हैं। यहाँ ना केवल बाल श्रम का मामला है बल्कि इस पुरे प्रकरण में सबसे दूखद पहलु है कि ये बाल श्रमिक दिन भर के कार्य के बाद रात के समय घोडों के चारा खिलाने के लिये जंगल की तरफ लेकर चले जाते हैं। जहाँ उन्हें आराम और घोडों की रखवाली दोनों साथ साथ करनी पडती है। कई बार घोडों को वन विभाग के क्षेत्रों में प्रवेश करने पर इन बच्चों को वनकर्मीयों का शोषक भी बनना पडता है। ये तो संगठित बाल मजदूरों के उदाहरण मात्र हैं मगर यहाँ तो हर कदम बाल मजदूर अपनी बदहाली से आपका स्वागत करते मिल जायेंगें।
यहाँ काम करने वाले बच्चें अधिक्तर उत्तर प्रदेश ,बिहार, झारखण्ड और नेपाल से आते हैं। इनमें नेपाली बच्चों में अधिसंख्यक तो अपने मॉ बाप के साथ आये हैं। इनमें कुछेक घरों से भागकर अथवा पडोसीयों द्वारा लाये गये हैं। मगर पुरबिया राज्यों से आने वाले बच्चें पडोसीयों अथवा गाँव के किसी व्यक्ति द्वार लाये गये हैं। बाल मजदूरी पर काम करने वाले अनुभवी कहते हैं कि यह पडोसी या गॉव के भाई चाचा जैसे लोग दरअसल बाल मजदूरों के दलाल होते हैं। कुफरी में भी स्थितियाँ लगभग एक समान है। अधिसंख्यक बच्चे मानते हैं कि उनके काम का भुगतान उसे किया जाता है जो उन बच्चों को लेकर आया था। इसका कारण बताया जाता है कि यह दलाल पैसों को आसानी से उन बच्चों के घर पहूंचा देते हैं। मगर इसमें उन वयस्कों का कितना हिस्सा होता है बच्चों को नहीं पता। स्थानीय निवासी बताते हैं कि जिस ठेकेदार को अपने काम के लिये बच्चों की आवश्यकता होती है वह यहाँ काम करने वाले उन राज्यों के लोगों को बच्चे लाने के लिये पैसे देते है।
वास्तव में यह बच्चे शिमला में सीजन के दौरान और अधिक हो जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे बरसात के दिनों में जंगल भी फूल दिख्नेने लगते हैं। मगर शिमला के इन बरसाती फूलों की जडें बिहार उत्तर प्रदेश और नेपाल जैसी जगहों पर है। सबसे अधिक अफसोसजनक बात यह है कि बरसाती फूलों की तरह ये बच्चे भी अपनी हाडतोड मेहनत के बाद एक सीजन से ज्यादा काम करने के लायक नही रह पाते क्योंकि सीजन के काम 24 धंटे चलते हैं और लगातार काम करवाने के लिये इनके मालिक इन बच्चों को अफीम जैसे नशों का आदि बना देते हैं।
शिमला में बाल श्रम का ये संगठित रूप वास्तव में बाल अधिकारों और मानवीय मूल्यों के विरूद्व ही नहीं आपितु न्यूनतम मजदूरी और काम के घंटे तय ना होना अपने आप में बंधुआ मजदूरी की श्रेणी में ही रखा जा सक्ता है। जो सरकार और प्रशासन को सीधे तौर पर चुनौती देती है भले ही हिमाचल सरकार राज्य में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन के लक्ष्य को पुरा करने का दावा करे मगर ये बच्चे बंधुआ मजदूर हैं जिन्हें काम के बाद निकाल फेका जाता है। यह सम्पूर्ण समाजिक जीवन के लिये एक चुनौती हैं जो समान रूप से सभी राज्यों व देशों की स्थिति को सीधा प्रभावित करती है। आवश्यकता है कि शिमला प्रशासन अपने क्षेत्र को इस श्रम जाल से मुक्त रखे ताकि देवभूमि अपनी अपनी पावनता सदैव ही बरकरार रखे।

एक ऐसा कस्बा भी हैं जहां हर घर में तलाकशुदा महिलाएं है



प्रदेश के भोपाल जिला मुख्यालय से करीब 57 किलोमीटर दूर मांडा स्टेट से पहले भरत गंज की आबादी पन्द्रह हजार के आस पास है। लगभग 70 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस क्षेत्र के हर चैथे घर में एक तलाकशुदा औरत मिल जाएगी। मजेदार पहलू यह है कि अधिकतर तलाकशुदा औरतों की आयु 25 वर्ष से कम है। अशिक्षा और भीषण गरीबी के चलते लड़कियों की शादी 6 वर्ष से 15 वर्ष तक की आयु में हो जाती है। बाल विवाह कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए ये विवाहित मासूम लड़कियों को 16-17 वर्ष की आयु में ही मां तबदील कर देते हैं। कहने को तो शरतगंज में एक कन्या महाविद्यालय हैं। परन्तु यहां के लोग लड़कियों को पढ़ाने में रूचि नहीं रखते। अधिकतर महिलाएं बीड़ी बनाने का व्यवसाय करती हैं।
तलाकशुदा महिलाओं की यही दर शरतगंज से सटे दारूपुर, सूत्रा, मौहल्ला, नई बस्ती तथा कड़ी छिवहती आदि क्षेत्रों में है। तलाक पर होने वाली बहसों और सेमिनारों से बेखबर महिलाओं के अधिकारों से अनभिज्ञ इन महिलाओं ने तलाक या पति द्वारा छोड़े जाने को अपने जीवन का एक अंग मान लिया है। ऐसी ज्यादातर महिलाएं बीड़ी व छपाई का कारोबार कर रही हैं। कुछ महिलाओं के अभिशवक तो न्यायालय की शरण में चले गऐ हैं, जबकि कुछ अपमान और विवादों से बचने के लिए चुप्पी साध बैठे हैं।
शरतगंज के बाजार के पास कसाई कार्य करने वाले साबिर, जब भी अपनी बेटी शकीना का जिक्र करते हैं, तो जोर-जोर से रोने लग जाते हैं, साबिर पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हौंने अपने बेटी के ससुराल वालों की ज्यादती के खिलाफ आवाज उठाई और सरकार तक गए और मुकदमें व पैरवी कर समाचार पत्रों की सुर्खिया बने। चार बेटियों में तीसरे नम्बर की बेटी शकीना का विवाह शरतगंज के ही ऐजाज उर्फ डाक्टर से 1991 में किया था। डाक्टर की बाजार में सिलाई की दुकान हैं। विदाई के कुछ दिन उपरांत ही दहेज की मांग की जाने लगी। ऐजाज नकद पचास हजार रूपये या फिर एक रंगीन टेलीविजन तथा मोटर साईकिल चाहते थे।
शकीना वापस मायके आ गई और फिर बाद में पुलिस की मध्यस्थता से विदाई हुई। छः मास के भीतर उसे करंट लगाया गया और मार पिटाई करके घर से निकाल दिया गया। ऐजाज का तब कहना था कि वह न तो शकीना को रखेगा न ही तलाक देगा और दूसरी शादी भी करेगा। साबिर चाहते थे कि मामला रफा-दफा हो जाए और शकीना को तलाक मिल जाए। इस्लामिक कानून के अनुसार डाक्टर चार शादियां कर सकता है। परन्तु बिना तलाक के शकीना की दूसरी शादी आसान नहीं है। साबिर को शबीना के सुसराल वालों ने कोई सामान नहीं लौटाया और पुलिस ने भी एजाज का ही पक्ष लिया। स्थानीय विधायक से लेकर शहर कोतवाल तक साबिर ने न्याय की गुहार की, मगर कोई सुनवाई नहीं हुई, मगर अपनी बेटी से हुई ज्यादती का बदला लेने के लिए साबिर अब भी संघर्ष जारी रखे हुए हैं।
कटरा से ही अख्तर हुसैन की दो बेटियां, जो कि 24 तथा 21 वर्ष की है, का जीवन नरकीय हो गया है। बड़़ी बेटी की शादी हुसैन ने 1985 में की थी, तब वह 13 वर्ष की थी, जबकि दूसरी बेटी की शादी 1987 में की थी, मगर आज तक दोनों लड़कियों ने ससुराल में कदम नहीं रखा। तलाक के मामले में एक विपरीत किस्म का मामला प्रकाश में आया है,
इसमें लड़की के मायके वालों ने लड़के को बांधकर उससे जबरन तलाक दिलवा दिया। लड़की अकसर मायके वालों से ससुराल के अावों का रोना रोया करती थी। हेदरून नामक इस युवती का निकाह हसनैन खां से हुआ था। हैदरून के परिवार यह विवाह किसी और परिवार में करना चाहते थे, मगर उसके लिए तलाक का होना जरूरी था। हसनैन खां साईकिल पर कहीं जा रहे थे कि उसे बांधकर जबरी तलाक दिलवा दिया गया। इसी तरह गाड़ीवान मुहल्ले के बकाडल्ला हो या लोहारान मुहल्ले के रमजान, बाजार के मटक आदि ऐसे हज़ारों पिता हैं, जिनके जीवन की तकलीफें पढ़ी जा सकती हैं।
एक तरफ जहां दहेज के लोभी और पुरुष प्रधान मानसिकता वाली जमात है, वहीं दूसरी तरफ ऐजाज टेलर मास्टर साबिर जैसे लोग है, जो सिर्फ अपनी बेटियों के लिए ही नहीं लड़ते बल्कि दूसरों को भी अन्याय से लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। यमुनानगर में विवाह के बाद तलाक एक फैशन हो गया है। तलाकशुदा औरतों के पास मजदूरी करके रोटी जुटाने का एक मात्र विकल्प रह गया है। ऐसी परिस्थितियों में महिलाओं और उनके बच्चों का भविष्य फिलहाल अनिश्चित है।

पारो : एक औरत ये भी


 ‘पारो’ कहते ही सबके दिमाग में देवदास  का जुमला याद आ जाता है। प्यार और मासूमियत का दूसरा नाम ‘पारो’। पर समाज बदलते देर नहीं लगती। ‘पारो’ अब चंद्रमुखी बना दी गई है। भद्दी गालियों की फेहरिस्त में जुड़ गया है ‘पारो’ का नाम। हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह नए रूप में बहुत प्रचलित नाम है।
यह तो सभी जानते हैं कि गालियों का भी एक सामाजिक अस्तित्व होता है और वो स्वभाव से नारी शोषण को प्रतिबिंबित करता है। ‘पारो’ का यह स्वरूप भी कुछ ऐसा ही है। पारो वो लड़कियां हैं, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, असम और उड़ीसा आदि राज्यों से वंश बढ़ाने या औरत की कमी पूरी करने के लिए खरीदकर लाई जाती हैं। यह सच है कि इन्हें प्रत्यक्षत: वेश्याएं नहीं कहा जा सकता। इन्हें रखैल कहना भी उचित नहीं होगा। 
                            
हरियाणा के किसी भी गांव का दौरा करने पर आप हजारों की संख्या में ऐसी महिलाओं को देख सकते हैं। आप कैथरीन के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत मर्द (कर्ता), यौनकार्य (कर्म), और नारी (कारक) से सहमत होंगे। पारो कैथरीन मैकनिन की परिभाषा का सटीक व दमदार उदाहरण है। यहां खेती और पशुपालन से लेकर तथाकथित नारी कर्तव्यों तक, सारे कार्य औरतें ही निपटाती हैं। जिन पत्नियों को दहेज सहित सामाजिक मान-मर्यादा के साथ विधिवत ब्याह कर लाया जाता है उनकी स्थिति दोयम दर्जे की होती है तो खरीदकर अनजान जगह से लाई गई लड़कियों के दर्जे का अनुमान लगाना कठिन नहीं। 
सीधे तौर पर यह मानव तस्करी का मामला भले न लगे मगर अप्रत्यक्ष तौर पर इसे यही कहना उपयुक्त होगा। मानवीय मूल्यों (मौलिक अधिकारों सहित) के हनन के अपने स्वरूप में यह एक तरह की मानव तस्करी ही है। आइए इसकी कुछ बानगी देखें।
‘कन्या भ्रूण हत्या और लैंगिक असमानता के बड़े विरोधी हमारे एक तथाकथित क्रांतिकारी साथी हैं। समाज में काफी सम्मान पाते हैं। बिरादरी की नाक हैं। सम्पर्क बढ़ा तो पता चला कि इनके दो बेटे हैं। बेटी एक भी नहीं। पत्नी और विधवा मां घर के अलावा खेत खलिहान भी देखती हैं और इन महाशय ने समाज सुधारने का बीड़ा उठाया हुआ है। गुड़गांव के सोहणा प्रखण्ड के एक गांव में ग्राम प्रधान और स्थानीय राजनेता ने अपनी ही स्त्री का बलात्कार अपने दामाद व दो अन्य मित्रों के साथ संयुक्त रूप से किया। इसकी न कोई प्राथमिकी दर्ज होनी थी और न ही हुई। पंचायत भी क्यूं बैठती। दबे जुबान पूरा गांव हकीकत जानता है। मगर कोई कुछ नहीं कहता। यह कोई अजूबा नहीं क्योंकि सभी छलनियों में छेद हैं।
यह स्त्री जिसके साथ यह सब हुआ वह कोई पारो नहीं बल्कि स्थानीय महिला है। आप कल्पना कर सकते हैं कि जब इनका यह हाल है तो ‘पारो’ जैसी स्त्रियों का क्या हाल होगा। हमारे आंदोलन के साथी के एक चचेरे भाई हैं। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। बातों-बातों में खुल गए, कहने लगे दिल्ली आना चाहते हैं उनको नौकरी पाने में मैं कुछ मदद करूं।
उम्र 40 के करीब हो चुकी है। विवाह नहीं हो पाया। सोचते हैं पारो ले आएं। इसके लिये कमाना पडेग़ा। इसलिए दिल्ली आएंगे। फिर वहीं से पारो ले आएंगे। उन्होंने बात भी कर रखी है। करीब 15 हजार का खर्च है। वो कहते हैं, कि आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने पर विवाह होना कठिन है। वैसे भी लड़कों का विवाह उनके भाग्य पर निर्भर करता है। विडम्बना है कि यहां एक तरफ लड़कों को विवाह के लाले पडे हैं वहीं दहेज के आंकड़े आसमान छू रहे हैं।
सामान्यत: यह माना जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या एक नगरीय समस्या है। मगर यह कहते हुए हम भूल जाते हैं कि जमीन से जुड़े मध्यवर्गीय (व्यापक अर्थों में) तबके में आरम्भ से ही नवजात कन्याओं को मारने के अनेकों तरीके प्रचलित हैं। नाक दबा कर, नमक चटाकर, अफीम चटाकर, दूध में डुबाकर, और मर्दों के साथ सुलाकर जिनसे दब कर वे दम तोड़ देती थीं।
ऐसी कई तकनीकों का भरपूर इस्तेमाल किया जाता रहा है। परिणाम सामने है। हम लोगों को कन्या भ्रूण हत्याओं का परिणाम भुगतते देख रहे है। ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पारो भी अनुपलब्ध होगी। तब बचेगा बस थोथा पुरुषार्थ, मर्यादा, सम्मान, सम्पत्ति और कुछ भी नहीं। (भारतीय पक्ष द्वारा प्रकाशित तथा चरखा फीचर्स द्वारा प्रसारित  )

बदहाल बचपन : उनकी नज़र से....


सरकारी दस्तावेजों में भले ही बाल श्रम एक अपराध हो और उसके लिये सजा या जुर्माने का प्रावधान हो मगर वास्तव में देश के अधिकांश भाग में बाल श्रम जबरिया तरीके से व्याप्त है, और इसके अस्तिव का सबसे शर्मनाक पहलु तो ये है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य की राज्यधानी से चंद किलोमीटर की दूरी पर एक अलग ही दुनिया बसती है। एक ऐसी दुनिया जहां विकास की किरणें फुटती और फिर मद्विम हो जाती हैं, और इस समाज की वास्तविक समस्या क्या है और इसकी शुरूआत कहां से करें ये भी एक दुविधा है। इस क्षेत्र का मुख्य व्यवसाय खेती रहा है मगर सम्पन्न खेती क्या होती है ये भी यहां के लागों के लिए एक अंजाना सा नाम है । कृषि न हाने के कारण इस क्षेत्र के लागों ने ड्राइवरी को अपना मुख्य पेशा बना लिया। हालाकिं इधर के 2 -3 वर्षो में मेवात में शिक्षा पर जोर शोर से काम शुरू हुआ है मगर यहां हुआ सर्वशिक्षा अभियान का सबसे बडा घोटाला सारी स्थितियों पर प्रश्‍न चिन्ह है। ।
मेवात के एक जनकार्यक्रम में ये रिपोर्ट रिलीज़ की गयी
प्रदेश में व्याप्त आजाद मनुष्य के अधिकारों का हनन करती बंधुआ मजदूरी हो स्त्री पुरूष के समान कार्य का असमान वेतन हो न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी का भुगतान हो बेरोजगारी, लैंगिक असमानता अथवा मानवीय तस्करी या अशिक्षा, गरीबी ये तमाम समस्यायें इस क्षेत्र मे अपने चरम अवस्था पर हैं। मगर अफसोस की बात यह है कि प्रशासनिक इक्षाशक्ति की कमी व स्थानीय समाजिक नेतृत्व के ना होने ने इस क्षेत्र को लगातार गर्त में धकेला जा रहा है।
बाल अधिकारों की घोर उपेक्षा और कदम दर कदम नजर आने वाले, बाल श्रमिकों ने हमारे संगठन को इस विषय को अपने हाथ में लेकर सच्चाइ सामने लाने को मजबुर किया और तमाम तरह की समस्‍याओं को झेलने के बावजुद हमने मेवात के 3 ब्लाक पुनहाना, नगीना और फिरोजपुर झिरखा में 14 वर्ष या उससे कम के कुल 498 बाल मजदूर चिन्हित किये! जिसके तीस प्रतिशत अर्थात 150 बाल श्रमिको को अध्ययन के दायरे में लाया गया और सर्वेक्षण नमुनों के अतिरिक्त समूह सम्मिलन व अवलोकन के माघ्यम से अघ्ययन सम्पन्न हुआ! आइयें अब जरा इन कारणों की असलियत से आपको भी परिचित कराते चलें।
अधिकांश समस्याओं को मेवों की अपनी या फिर अल्पसंख्यकों का मामला बताकर सरकार के द्वारा पल्ला झाड लेने व सुनियोजित तरीके से वर्ग विशेष को मुख्यधारा से काट कर रखने की सरकारी कुचेष्टा स्पष्‍ट दिख जाती हैं। इन सब के बावजुद ये उल्लेखनीय है कि गुडगांव व फरीदाबाद जैसे शहरों से लगा ये जिला हरियाणा का सबसे पिछडा जिला है। सर्व शिक्षा अभियान और विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं की पोल खोलता देश में ये जिला शै‍क्षणिक नजरिये से पिछडापन में अव्वल है। मेवों पर एक बडा आरोप उनको अधिक बच्चे पैदा करना है। मगर वास्तविकता तो ये है कि अधिकांश बच्चों की मौत हो जाना अधिक संतान पैदा करने की प्रमाणिक वजह है। वहीं अन्य विकासात्मक योजनाओं के लागु न होने का ठीकरा स्थानीय राजनैतिक नेत्त़व के माथे फोड दिया जाता है। साथ ही इनसे सम्बंधित किसी भी मुद्वे को समाजिक समस्या के बजाय मेवों की अपनी समस्या के रूप में देखा जाना प्रशासन की दोहरी नीति का स्पष्‍ट उदाहरण है। एक ऐसा क्षेत्र जहां ना तो कोइ संभावना है न ही कोइ वर्तमान सकारात्मक स्थिति। कहते हैं कि किसी भी समाज को अनिवार्य रूप से रोजगार और रोटी की आवश्यकता होती है। ये वो क्षेत्र है जो शुन्य क्षेत्र है जहां संभावनाएं उपजने से पहले ही दम तोड देती है। एक बात उल्लेखनीय है कि हरियाणा सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी 93 रू का दस प्रतिशत भी इन्हें नहीं मिल पाता। रोजगार की संभावनाओं के ना होने और परिवार का बडा आकार बच्चों को काम करने पर मजबूर किये जाने की एक बडी वजह तो अवश्य मानी जा सकती है। किन्तु ऐसा नहीं कह सकते कि बाल मजदूरों का परिवार उन्हें पढाना ही नहीं चाहता । इस क्षेत्र के अध्ययन के दौरान इन बाल मजदूरों के अभिभावकों में 80 फीसद उनके पढ़ाई के लिये चिन्तित दिखे मगर इच्छाशक्ति की कमी स्पष्‍ट दिखी। एक सवाल जो अक्सर उन्होनें हमारे सामने रखा कि, अगर बच्चे पढ भी जायें तों क्या होगा और क्या उन्हें नौकरी मिल जायेगी, और कि अगर शिक्षा उनके रोजगार में सहायक नहीं तो फिर पढाइ के बजाय काम सीखना और काम करना कहां से गलत है। बच्चों कि अधिक संख्या हो या ना हो मगर पहले तो खाना चाहिये दो बच्चें ही हों और खाने को एक रोटी तो पहले रोटी कमाना पडेगा ना।
वहां एक गैराज में काम करने वाला 13 वर्षीय बच्चा अकबर (बदला हूआ नाम, यहां बाल न्याय (बच्चों की देख भाल एवं संरक्षण) अधिनियम 2000 की धारा 21 के तहत बच्चों की पहचान गुप्त रखी गयी है ) अपने अभिवावको को जवाब कुछ यूं देता है। नौकरी का क्या करना है कुछ भी कर लेंगें, नौकरी मांगने से नहीं मिलती है सर! लेनी पडती है पहले पढें फिर देखेंगें, तीन साल का बच्चा क्या करता है। मगर जिन्दा रहता है ना और नहीं रहता तो क्या ऐसा जिन्दा रहना जरूरी है क्या बदमाशी कौन करता है। बच्चा या बडा आदमी? आगे कहता है हमारे साथ क्या क्या होता है ,पता है किसी को ? इसी लाइन में आदमी बिगडता है । कौन और किसको! छोडिये जी हर महिने 150 रू बाप को देता हूं। जबकि मै घर पर केवल रात में खाना खाता हूं। हमारे साथी से बात करते करते अकबर अक्सर भावुक हो जाता है! वे ये जानता है कि आज वो जो जो झेल रहा है इन सबके बावजुद अपने हालात में कोइ बदलाव नहीं ला पायेगा। हां कुछ दिनों बाद वो अपने चेले या छोटू के साथ वहीं कर सकता है जो अबतक उसके साथ होता है। वो बडी मासूमीयत से पूछता है कि आखिर वो अपने मां बाप को जेल कैसे भेज सकता है। वो ये जानना चाहता है कि आखिर अपनी शिकायत कहां करे ताकि भले ही उसके मां बाप जेल चले जायें मगर उसकी पढायी का इंतजाम हो सके।
वो जानता है कि शिक्षा उसके जीवन को और आने वाली पीढी को भी दिशा दे सकता है। उसके गुस्से का कारण केवल उसका ना पढ पाना ही नहीं बल्कि वो बार बार अपना इशारा कहीं और करता है। वो अपने उस्ताद को मार देना चाहता है और किसी भी हाल में गैराज में रात गुजारना नहीं चाहता। ओवर टाइम करने पर कुछ पैसा मिलता है खाना भी अच्छा मिलता है। मगरे ओवरटाइम बडा भारी पडता है क्योंकि उस्ताद उसका यौन शोषण करता है और उसके मना करने पर पीटता है। वो आगे कहता है कि जब उसके साथ पहली बार उस्ताद ने गलत काम किया तो उसने अपने बाप से शिकायत की के उस्ताद बहुत मारता है तो बाप का कहना था कि उस्ताद की मार से ही काम सीखता है। बार बार आनाकानी करने पर जम के पिटाइ हुई और तभी से वो ये सब झेल रहा है, और अब वह इस बात पर अडा हुआ है की मौका मिला अपने बाप व उस्ताद से बदला जरूर लेगा । वो यह भी कहता है कि अगर आज नही तो कभी और लेंगें जवान होकर बदला तो लेंगें । उसे अफसोस है अपने जन्म पर! कहता है बच्चें गरीबी की वजह से काम नहीं करते बल्कि उनकी किस्मत ही खराब होती है कि वो ऐसे मां बाप के बच्चे होते हैं। वो बताता है कि सबसे के साथ ये शोषण होता है, मगर कुछ दिनों के बाद जब दूसरा टोली आ जाता है तो वो भी अपने उस्ताद के साथ मिल कर वही करता है जो उसके साथ हुआ। शिकायत क्‍यों नहीं करते के जवाब में वो बताता है क्या कहें और किससे कहें मां बाप ही नहीं समझते तो कौन समझेगा। ये तो काम करवाने के लिये पैदा करते हैं हमारे साथ क्या होता है या क्या होगा इससे इनको कोइ फर्क नहीं पडता। इसी लिये मुझे इनसे नफरत है। दुसरे बच्चों को खेलता देखकर कैसा लगता है। फिरोजपुर झिरखा ब्लाक के एक ढाबे में काम करने वाला 11 वर्षीय मायुम आजम कहता है। कैसा लगेगा कुछ नहीं लगता हमारे पास इतना कुछ नहीं है कि रोटी भी खा सके जिन्दा हैं ये कम है क्या ऐसी निराशाजनक सोच कई बच्चों की है। मगर इस पर उम्र का असर भी दिखता है। बाल मजदूरी को स्थानीय स्थितियों के अनुकुल मानते हुये न्यूनतम मजदूरी 8 घंटे के अतिरिक्त काम हेतु अतिरिक्त मजदूरी व उनकी स्वयं की स्थितियों , शोषणों विशेष कर यौन शोषण से सम्बंधित प्रश्‍न पुछे गये। बाल श्रमिको की सबसे बडी त्रासदी यही है यही वो वजह है जिसके कारण बच्चे किसी भी हाल में रात के समय कार्यस्थल पर रूकना नहीं चाहते। पुनहाना फिरोजपुर झिरखा के एक ढाबे में काम करने वाला एक तेरह वर्षीय बच्चा बताता है कि वो इस ढाबे मे विगत तीन वर्षों से काम कर रहा है इसके बावजुद वो कभी भी चाहे कितना भी जोर हो नहीं रूका। क्योंकि उसे पता है कि रूकने पर क्या होता है। वो बताता है कि रोडवेज के गाडी वाले अक्सर अपने खाने में से कुछ देकर या फिर टाफी चाकलेट आदि देकर फुसलाने की कोशिश करते है। ढाबे का मालिक अच्छा आदमी है मगर कारीगर अक्सर ही फुसलाने की कोशिश में लगे रहते है। लगभग 100 में शायद दस ही ऐसे लडके होंगें जिनके साथ कुछ नहीं होता होगा यानी यौन शोषण!
नगीना का एक रिक्शा चालक बच्चा बताता है कि ये बात कोइ नई बात नहीं है। और इस तरह का काम ज्यादातर बडे लडके नये लडकों के साथ करते हैं और इसके बदले उनकी मदद भी करते है। जैसे पैसेंजर दे देना या फिर और कोइ और मदद जिससे उसकी आमदनी अच्छी हो सके। पुनहाना के गैराज में काम करने वाला एक बच्चा बताता है कि इतना गुस्सा आता है की क्या कहें मगर हम कर भी क्या सकतें हैं। छोटी सी उम्र में लगातार 10 से 12 घंटे तक काम करने वाले बच्चों की स्वास्थ्य की स्थिति का अनुमान लगाना कोई मुश्किल नहीं मगर फिर भी आइये एक नजर देखें, मानसिक प्रताडना से हमारा अभिप्राय बच्चों जबदस्ती करना उनके अंगो से छेडछाड करना गोद में बिठाना गाल मलना या फिर बच्चें को पकड कर उसके परिवार की महिला सदस्यों के संदर्भ में आपत्तिजनक बात करना। अश्‍लील चित्र दिखाकर उत्तेजित करना आदि है। वहीं अन समूहों में हस्त मैथुन का बढता चलन अपने आप ही तमाम स्थितियों को स्पष्‍ट करता है।
मेवात में बाल श्रमिकों का परिचय एक बदहाल बचपन जो असमय ही बुढापे में बदल गया से कुछ अधिक नहीं! एक ऐसा बचपन जिसे समाज ने अपनी अकांक्षाओं के भारी कदमों के तले रौंद दिया गया है। आवश्यकता है व्यापक जनांदोलनों की और असे राकने के लिए सरकारी इच्छा शक्ति की ताकि मेव मुख्यधारा के सभ्य नागरीक हो सकें 
                         (मेवात में इम्पावर पीपुल के अध्ययन पर आधारित एवं चरखा द्वारा प्रसारित)