‘पारो’ कहते ही सबके दिमाग में देवदास का जुमला याद आ जाता है। प्यार और मासूमियत का दूसरा नाम ‘पारो’। पर समाज बदलते देर नहीं लगती। ‘पारो’ अब चंद्रमुखी बना दी गई है। भद्दी गालियों की फेहरिस्त में जुड़ गया है ‘पारो’ का नाम। हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह नए रूप में बहुत प्रचलित नाम है।
यह तो सभी जानते हैं कि गालियों का भी एक सामाजिक अस्तित्व होता है और वो स्वभाव से नारी शोषण को प्रतिबिंबित करता है। ‘पारो’ का यह स्वरूप भी कुछ ऐसा ही है। पारो वो लड़कियां हैं, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, असम और उड़ीसा आदि राज्यों से वंश बढ़ाने या औरत की कमी पूरी करने के लिए खरीदकर लाई जाती हैं। यह सच है कि इन्हें प्रत्यक्षत: वेश्याएं नहीं कहा जा सकता। इन्हें रखैल कहना भी उचित नहीं होगा।
हरियाणा के किसी भी गांव का दौरा करने पर आप हजारों की संख्या में ऐसी महिलाओं को देख सकते हैं। आप कैथरीन के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत मर्द (कर्ता), यौनकार्य (कर्म), और नारी (कारक) से सहमत होंगे। पारो कैथरीन मैकनिन की परिभाषा का सटीक व दमदार उदाहरण है। यहां खेती और पशुपालन से लेकर तथाकथित नारी कर्तव्यों तक, सारे कार्य औरतें ही निपटाती हैं। जिन पत्नियों को दहेज सहित सामाजिक मान-मर्यादा के साथ विधिवत ब्याह कर लाया जाता है उनकी स्थिति दोयम दर्जे की होती है तो खरीदकर अनजान जगह से लाई गई लड़कियों के दर्जे का अनुमान लगाना कठिन नहीं।
सीधे तौर पर यह मानव तस्करी का मामला भले न लगे मगर अप्रत्यक्ष तौर पर इसे यही कहना उपयुक्त होगा। मानवीय मूल्यों (मौलिक अधिकारों सहित) के हनन के अपने स्वरूप में यह एक तरह की मानव तस्करी ही है। आइए इसकी कुछ बानगी देखें।
‘कन्या भ्रूण हत्या और लैंगिक असमानता के बड़े विरोधी हमारे एक तथाकथित क्रांतिकारी साथी हैं। समाज में काफी सम्मान पाते हैं। बिरादरी की नाक हैं। सम्पर्क बढ़ा तो पता चला कि इनके दो बेटे हैं। बेटी एक भी नहीं। पत्नी और विधवा मां घर के अलावा खेत खलिहान भी देखती हैं और इन महाशय ने समाज सुधारने का बीड़ा उठाया हुआ है। गुड़गांव के सोहणा प्रखण्ड के एक गांव में ग्राम प्रधान और स्थानीय राजनेता ने अपनी ही स्त्री का बलात्कार अपने दामाद व दो अन्य मित्रों के साथ संयुक्त रूप से किया। इसकी न कोई प्राथमिकी दर्ज होनी थी और न ही हुई। पंचायत भी क्यूं बैठती। दबे जुबान पूरा गांव हकीकत जानता है। मगर कोई कुछ नहीं कहता। यह कोई अजूबा नहीं क्योंकि सभी छलनियों में छेद हैं।
यह स्त्री जिसके साथ यह सब हुआ वह कोई पारो नहीं बल्कि स्थानीय महिला है। आप कल्पना कर सकते हैं कि जब इनका यह हाल है तो ‘पारो’ जैसी स्त्रियों का क्या हाल होगा। हमारे आंदोलन के साथी के एक चचेरे भाई हैं। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। बातों-बातों में खुल गए, कहने लगे दिल्ली आना चाहते हैं उनको नौकरी पाने में मैं कुछ मदद करूं।
उम्र 40 के करीब हो चुकी है। विवाह नहीं हो पाया। सोचते हैं पारो ले आएं। इसके लिये कमाना पडेग़ा। इसलिए दिल्ली आएंगे। फिर वहीं से पारो ले आएंगे। उन्होंने बात भी कर रखी है। करीब 15 हजार का खर्च है। वो कहते हैं, कि आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने पर विवाह होना कठिन है। वैसे भी लड़कों का विवाह उनके भाग्य पर निर्भर करता है। विडम्बना है कि यहां एक तरफ लड़कों को विवाह के लाले पडे हैं वहीं दहेज के आंकड़े आसमान छू रहे हैं।
सामान्यत: यह माना जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या एक नगरीय समस्या है। मगर यह कहते हुए हम भूल जाते हैं कि जमीन से जुड़े मध्यवर्गीय (व्यापक अर्थों में) तबके में आरम्भ से ही नवजात कन्याओं को मारने के अनेकों तरीके प्रचलित हैं। नाक दबा कर, नमक चटाकर, अफीम चटाकर, दूध में डुबाकर, और मर्दों के साथ सुलाकर जिनसे दब कर वे दम तोड़ देती थीं।
ऐसी कई तकनीकों का भरपूर इस्तेमाल किया जाता रहा है। परिणाम सामने है। हम लोगों को कन्या भ्रूण हत्याओं का परिणाम भुगतते देख रहे है। ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पारो भी अनुपलब्ध होगी। तब बचेगा बस थोथा पुरुषार्थ, मर्यादा, सम्मान, सम्पत्ति और कुछ भी नहीं। (भारतीय पक्ष द्वारा प्रकाशित तथा चरखा फीचर्स द्वारा प्रसारित )
1 टिप्पणी:
MAINE AAJ FIRST TIME AAPKA ARTICLE PADHA...WAKAI..BAHUT JWLANT LIKHTE HAI AAP...
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