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तदपि एक मैं कहउँ उपाई होइ करै जौं दैउ सहाई

चार्ल्स डार्विन के अनुसार जीवन संघर्ष पर टिका है! हम जीने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते है और करते ही रहते हैं उन्होंने प्रतिस्पर्धा को भी रेखांकित करके सीधा संघर्ष कहा है मतलब लड़ाईयों के ज़रिये आपका जीवन चलता है! जो जीतेगा सो जियेगा! शेर हिरन को मरेगा तो भोजन जुटाएगा और हिरन भोजन बनने से बचना चाहता है तो उसे शेर से ज्यादा गति से भागना ही होगा! शेर की हार हिरन का जीवन और हिरन की हार शेर का जीवन है! सो लड़ाई जारी है! डार्विन की थ्योरी “सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट” मशहूर है और यही मूल है आज की व्यवस्था का समाज का और हमारा आपका

इस दर्शन को अधिक मजबूती 1974 में मिली जब रोबर्ट नोजिच्क ने एक्सपीरियेंस मशीन नाम का दर्शन दिया और साबित किया की आप कौन है किन स्थितियों में हैं और आपकी क्षमताएं क्या हैं जैसे तीन सवाल आपको शेष दुनिया से जोड़ेगें! मतलब अगर आप शेर हैं तो हाथी जबतक शक्तिशाली है तबतक आप उसके दुमछल्ले रहेंगे क्यूंकि आपको दूसरे शाकाहारियो का शिकार करना है मगर आप हाथी के कमज़ोर पड़ते ही उसका भी शिकार कर सकते हैं क्यूंकि आप मांसाहारी हैं! हाँ हाथी आपसे दोस्ती रख सकता है या किसी कारण वश आप से दुरी रखता है मगर आपका शिकार नहीं करेगा क्यूंकि वो शाकाहारी है! कुल मिला कर जनम से मिली श्रेष्ठा नवपूंजीवाद का सामाजिक रूप है!
और यही दोनों मिलकर काकटेल तैयार करते हैं आधुनिक सामाजिक राजनैतिक (अगर आर्थिक छोड़ भी दें तो) हालात का! पिछली पूरी सदी जो मानव और नागर अधिकारों के संघर्ष के नाम रही वो आज की स्थिति में पूरी तरह धर्म-मय हो चुकी है! आर्थिक और सामाजिक मुद्दों के आधार पर राजनीति करने वाले दल धराशायी हो चुके हैं! जातीय और धार्मिक पहचान पुख्ता हो कर उभर रही है आखिर ऐसा क्यूँ ? नव उदारवाद और नव पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थक इसकी आसानी से खिल्ली उड़ा देते हैं
एक पल को मान भी लीजिए की पूंजीवाद और नवउदारवाद का तेज़ी से पसरती धार्मिकता और नस्ली पहचान से कोई लेना देना नहीं तो भी कोई ना कोई पहचान तो चाहिए ही जो धन संचय को जायज़ ठहराए धन संचय को सुरक्षा दे सके! सउदी काधनकुबेर व्यापारी और  बादशाह की संपत्ति और खनिज सम्पदा का रखवाला कौन है और क्यूँ
क्या कारण है की पश्चिमी देश जिस खनिज सम्पदा के लिए तमाम लड़ाईयो का आरोप झेलते हैं वो सउदी में कोई बबेला क्यूँ नहीं खड़ा करते? और उस धनकुबेर के मरने पर दक्षिणपंथी कही जाने वाली भाजपा सरकार देश में एक दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित करती है क्या ये मुस्लिम तुष्टिकरण का अंग है या वैश्विक स्थिति में अपनी स्थिति को मजबूत करने की कवायद! याद रहे की इस सउदी बादशाह की व्यापर स्थिति को परखते हुए भी साथ में दो पवित्र मुस्लिम स्थानू का कस्टोडियन कहा जाता है !

तो क्या ये पूंजी व्यापर और शक्ति को संचय करने में धर्म का उपयोग नहीं है ! लोकतंत्र में भी देखें तो क्या श्रीलंका का बहुमत बौद्ध (सिंघली) धर्म और जाति के नाम पर हिन्दुओ (तमिल) के विरुद्ध एकजुट नहीं हुआ ? लिट्टे के आत्मघाती दस्तों ने केवल आतंक फैलाने के लिए आपनी जान दी या सेना ने क्या महज़ जातीय और धार्मिक पहचान के आधार पर हिन्दुओ (तमिलों) को नहीं मारा! और अगर एक पल को श्रीलंकाई हिन्दुओ को राक्षस भी मान लें तो क्या कारण की अब श्रीलंकाई बहुमत (अपेक्षाकृत शांति वाले धर्म की पहचान रखने वाले बौद्ध धर्म के अनुयायी) अब मुसलमानों के विरुद्ध खड़ा है! अगर वजह धन और पूंजी नहीं है तो क्या है (शेष अगली बार)

भयानक जहरीले कचरे से बने हैं भयानक समुद्री डाकू!

अफ्रीका के ऊपरी छोर पर बसा सोमालिया देश पिछले दो वर्षों से लगातार खबरों में है। पुरानी कहानियों के साथ डूब गए समुद्री डाकू यहां अपने नए रूप में फिर से तैरने लगे हैं। हम सब जानते हैं कि कचरे से खाद बनती है पर यदि कचरा बहुत अधिक जहरीला हो तो उससे क्या बनेगा????

सन् 2008 और 2009 में सोमालिया के समुद्री डाकुओं ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुख्याति अर्जित कर ली है। इस दौरान उन्होंने हथियार ढोने वाले जहाज, तेल टेंकर और क्रूज जैसे जहाजों का अपहरण किया है और इनकी रिहाई के बदले उनके मालिकों से भारी मात्रा में धन वसूल किया है।

अनेक राष्ट्रीय सरकारों और गैर सरकारी संगठनों ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानूनों की दुहाई देते हुए इन डाकुओं पर कठोर कार्यवाही की मांग की है। परंतु बहुत कम ने इन जलदस्युओं के इस दावे पर ध्यान दिया है कि सोमालिया में तरह-तरह का जहरीला कचरा फेंकने का जो गैरकानूनी काम चल रहा है, वह इन अपराधों से ज्यादा बड़ा व हानिकारक है। ये डाकू इसी कारण इस धंधों में उतरे हैं!


कई संगठन पिछले 10 वर्षों से भी अधिक समय से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से यह मांग करते रहे हैं कि इस जहरीले कचरे को यहां फेंकने पर रोक लगाई जाए। लेकिन दुर्भाग्यवश यह संकट और गहराता ही जा रहा है।
सन् 1997 में इटली की ‘फेमिक्लि क्रिसटिआना’ नाम की एक पत्रिका में ग्रीनपीस की एक महत्वपूर्ण जांच रिपोर्ट छपी थी। यह यहां भयानक जहरीला कचरा फेंकने के मामले की एक जांच पर आधारित थी। इसके अनुसार यह घिनौना काम 1980 के दशक के अंत में प्रारंभ हुआ था। स्विटजरलैंड और इटली की कुछ बदनाम कंपनियों ने वहां के खतरनाक कचरे को ले जाकर सोमालिया में फेंकने का ठेका ले लिया था। बाद की जांच से यह भी पता चला कि इस काम में जिन जहाजों को लगाया गया, वे सोमालिया सरकार के ही थे!
सन् 1992 में सोमालिया गृहयुध्द में उलझ गया। इन कंपनियों को सोमालिया के लड़ाकों से समझौता करना पड़ा। इन गुटों ने कचरा फेंकने में कोई रुकावट नहीं डाली, पर उस काम को जारी रखने के लिए कीमत मांगी। डंपिंग को जारी रखने के बदले में बंदूकों और गोलाबारूद की मांग की। इसके बाद अनेक जहाज कचरा और हथियार लेकर आए और वापस लौटते समय मछली पकड़ने वाले जहाज में परिवर्तित हो गए। सोमालिया के जल में पाई जाने वाली टूना मछली भरकर आगे बिक्री को लेकर चलते बने।

वर्ष 1994 में इटली की एक पत्रकार इलारिया अल्पी की हत्या को लेकर हुई जांच के दौरान एक लड़ाकू बागी नेता बोगोर मूत्ता ने कहा था कि यह तय है कि वे जहाजों में सैन्य सामग्री लेकर आ रहे थे। उसे गृहयुध्द में फंसे हुए अनेक समूहों में बांटा जाना था। आशंका जताई जा रही है कि अल्पी के पास जहरीले कचरे के बदले बंदूक-व्यापार के पुख्ता सबूत थे। इसलिए उनकी हत्या कर दी गई।
ग्रीनपीस की इस रिपोर्ट पर थोड़ी बहुत सनसनी फैली। पर ज्यादा कुछ न होता देख फिर इसके तुरंत बाद यूरोपीय ग्रीनपीस पार्टी ने यूरोपीय संसद में एक प्रश्न पूछा। इसमें सोमालिया में जर्मनी, फ्रांस और इटली के परमाणु बिजलीघरों और अस्पतालों से जहरीला कचरा फेंकने के बारे में जानकारी मांगी गई थी। इसके परिणामस्वरूप इटली में व्यापक जांच पड़ताल प्रारंभ हुई। एक समय था जब सोमालिया इटली के कब्जे में था। इसलिए इटली आज भी अपने आंगन का कचरा सोमालिया के घर में फेंकता है। जांच से पता चलता है कि सोमालिया को करीब 3.5 करोड़ टन कचरा का 'निर्यात' किया गया और बदले में उसे मात्र 6.6 अरब अमेरिकी डालर का भुगतान किया गया था। इस तरह इन सभ्य और साफ सुथरे माने गए देशों ने सोमालिया को अपना कचराघर बना लिया। इतने वजन का कचरा और कहीं नहीं फेंका गया है। इसे भी ये देश 'निर्यात' शब्द से ढंक देते हैं।
निर्यात भी ऐसा कि आयातित कचरे को सोमालिया की आज की पीढ़ी तो छोड़िए, आने वाली न जाने कितनी पीढ़ियां हाथ भी नहीं लगा पाएंगी। आज सोमालिया दुनिया में 'डंपिंग' का सर्वाधिक बड़ा केन्द्र बन गया है। सन् 2004 में आई बॉक्सिंग डे सुनामी के परिणामस्वरूप सोमालिया के समुद्री किनारों पर रहने वाले कई ग्रामीण एक अज्ञात बीमारी के कारण मर गए थे। और समुद्र तट का पूरा पर्यावरण बुरी तरह से तबाह हो गया था।

सन् 2005 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने सोमालिया में गहरी जांच की। वहां के राजनेताओं की घेराबंदी तगड़ी थी। इसलिए पूरा सहयोग नहीं मिल सका था। फिर भी बहुत विश्वसनीय सबूत न पाए जाने के बावजूद इसके निष्कर्ष में कहा गया था कि सोमालिया के समुद्र में, किनारों पर, बंदरगाहों के पिछले हिस्सों में जहरीले और खतरनाक कचरे को फेंकने का काम बदस्तूर जारी है। इसके एक साल बाद यहां के एक गैरसरकारी संगठन 'डारयील बुल्शो गुड' ने एक और जांच की।

उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की जांच से बेहतर सहयोग मिला। जांच में आठ समुद्री इलाकों में ऐसे 15 कचरा कन्टेनरों को चिन्हित किया जिनमें निश्चित तौर पर परमाणु और रासायनिक कचरा मौजूद है। ठीक इसी समय संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व बैंक ने सोमालिया राष्ट्र को पुनर्स्थापित करने के लिए एक साझा आकलन किया। इस योजना में वहां का पर्यावरण सुधारना भी शामिल किया गया है। इसमें यहां 'पाए गए' जहरीले कचरे को हटना भी जोड़ा गया है। इस काम के लिए 4.21 करोड़ अमेरिकी डालर की व्यवस्था करने की अनुशंसा की गई थी। इसमें लोगों को हुई हानि की कोई बात नहीं की गई थी। सफाई की बात करने वाली यह रिपोर्ट यह नहीं बताती कि सोमालिया में जहरीला कचरा पटकना अब भी जारी है।

अमेरिका के मिनिसोटा विश्वविद्यालय की एक शोधकर्ता और अब पर्यावरण न्याय अधिवक्ता जैनब हस ने सोमालिया के निवासियों द्वारा भुगती जा रही लंबी अवधि वाली और गंभीर बीमारियों की पूरी श्रृंखला का पता लगाया है। इसमें कई जन्मजात विकृतियां भी सामने आई हैं। इसमें हाथ-पैरों का विकसित न होना और कैंसर की व्यापकता भी शामिल है। यहां के एक चिकित्सक का कहना है कि उसने सुनामी के बाद के एक साल में जितने कैंसर मरीजों का इलाज किया है, उतना अपनी पूरी जिंदगी में नहीं किया था। जैनब का कहना है कि यूरोप की ये कंपनियां अवैधानिक तरीके से यहां खतरनाक व परमाणु कचरा फेंक रही हैं। अंतराष्ट्रीय समुदाय को यहां की सफाई के लिए और जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें न्यायालय में घसीटने के लिए तुरंत कोई कठोर कार्यवाही करना चाहिए।

‘इको टेरा’ नामक एक गैरसरकारी संगठन सोमालिया से बहुत घनिष्ठ संबंध रखता है। पर वह कंपनियों के मूल के बारे में कुछ भी कहने से हिचक रहा है। इसकी वजह शायद पत्रकार इलारिया अल्पी की हत्या ही है। हां वह स्थिति को तो घातक बता ही रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के क्षेत्रीय प्रतिनिधि अहमदो ऑड अबदुल्ला भी इस मामले में इतने ही संवेदनशील हैं। उन्होंने भी यह स्वीकार किया है कि सोमालिया के समुद्री तटों पर जहर फैलाना, फेंकना जारी है। उन्होंने सुरक्षा की दृष्टि से उन सामाजिक संस्थाओं के नाम बताने से इंकार कर दिया है, जिनकी जांच से उन्हें ये तथ्य मिले हैं। डंपिंग के जिम्मेदारों को न्याय के सामने लाना टेढ़ी खीर है। यूरोपीय यूनियन के नियम 259/93 और 92/3/यूराटॉम के अंतर्गत वे मूल देश जहां से चिकित्सा और परमाणु का कचरा निर्यात हुआ है, न केवल इसके लिए पूर्णत: उत्तरदायी हैं बल्कि उस कचरे को वापस उठाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर है।

सोमालिया में अभी भी बहुत से कंटेनरों की जांच होना बाकी है। कागजी खानापूरी में हो रही देरी से अनेक दस्तावेज भी नष्ट हो गए हैं। इससे कानूनी कार्यवाही में भी दिक्कतें आ सकती हैं। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ के सूत्रों का कहना है कि सोमालिया में खतरनाक पदार्थों को ढूंढ़ना भूसें के ढेर में सुई ढूंढ़ने जैसा है। ऐसा इसलिए नहीं है कि वे यह नहीं जानते कि यह कचरा कहां है। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि काम शुरू कहां से किया जाए? यह तो वहां के समुद्र में चारों तरफ पड़ा है।

यूरोप के इन देशों के लोगों को सोचना चाहिए कि उनके यहां ऐसी सफाई, ऐसी बिजली, ऐसा स्वास्थ्य किस काम का, जिसे टिकाए रखने के लिए सोमालिया में भयानक गंदगी, भयानक बीमारी और भयानक अंधेरा फैल चला है।  क्रिस मिल्टर की रिपोर्ट से 

बाहरी ०१

मैं जिस जगह में पैदा हुआ वहां मैं बाहरी था साथियों के साथ खेलते पढ़ते हुए बराबर अहसास रहता की मैं यहाँ का नहीं हूँ और जैसे ही ये बात भूल जाता कोई याद दिला देता! "पठान शैतान लम्बे लम्बे कान" जैसी कवितायेँ कोर्स में तो नहीं थी मगर सबको एक सामान रूप से याद थीं जबतक होश कम रहा खुद भी बड़े लय में गाते रहे और जब पता चला की हम खुद ही पठान हैं तो बदन से खून ही सुख गया जैसे! 
अब बड़ा होगया हूँ अब बड़े से देश में बड़े मज़े से रहता हूँ लोग याद दिलाते हैं की तुम बाहरी हो जी चाहता है साथ में जोड़ दूँ जन्मजात बाहरी हूँ! पहले बच्चा था अब बच्चा नहीं रहा मैं जानता हूँ एक बाहरी की क्या सीमाएं हैं सो मैं उससे बाहर नहीं आता अपने विकास और संभावनाओं को  को सीमित रखना बचपन से सिखा गया है! मगर आप अगर समझते हैं की मैं अपने बाहरी टैग से परेशां हूँ तो आप ग़लत हैं ये मुझे संतोष देता है की मैं इन में से नहीं हूँ मैं अलग हूँ और अलग होना अपने आप में मज़ेदार हैं! 
इमानदारी से कहूँ तो मैं सचमुच देशभक्त नहीं हूँ और ना कभी बन सकूँगा अगर मैं कहूँ की मैं देशभक्त हूँ तो यकीनन झूठ होगा वैसे मैं गद्दार भी नहीं बनसकता क्योकि गद्दार बन्ने के लिए अपना होना ज़रूरी है सो बाहरी का टैग मुझे बेवफा और गद्दार की श्रेणी से अलग कर देता हैं ये मुझे रोमांचित कर देता हैं! 
बेसिर बेपैर की परेशानियों से बचा निकालता है! 
मुझे उन लोगों पर अफ़सोस आता है जो मेरे जन्मस्थान पर पुश्तैनी थे बेचारे जैसे ही बड़े हुए और बड़े स्तर  पर बाहरी की श्रेणी में आ खड़े हुए उनकी बिलबिलाहट और गुस्सा  कभी मेरी ख़ुशी का कारण  बन जाता है तो कभी दुःख का 
आखिर बेचारों को वो प्रशिक्षण नहीं मिल पाया जो मुझे मिला था! बचपन में ज़लील हो जाना बुरा नहीं है बुरा तो तिल तिल के जीने में है 
अच्छा लोग कहेंगे तुम ऐसा क्यों कह रहे हो अपनी जन्मभूमि के बारे में तुम बेहद घटिया इंसान हो और उसने तुम्हें ये दिया वो दिया! सही बात है दिया तो है मगर इस की ट्रेनिंग भी बचपन में ही मिल गयी थी जब कहा जाता की हमने तुम्हें ज़मीं दी रहने के लिए तो हमारा जवाब होता मुफ्त में दी थी क्या ??? सो ये सब बकवास बात है कोई देता है तो लेता है और व्यापार में प्यार कहाँ 
मैं नहीं मानता के देश गाँव मुहल्लों के बाहर होता है! वो एक समन्वय हो सकता है जनसंगठन हो सकता है सामान लोगों जिसमे मेरे तरह के कुछ अजीब लोग भी शामिल हो का समूहीकृत  संगठन  हो सकता है देश नहीं हो सकता! जब भी मैं देश की सोचता हूँ तो अपने आपको बिहारी पाता हूँ और कुछ  भी नहीं ना तो निचे वाली यूनिट में फिट हो पाता  हूँ और ना ही ऊपर वाली में! मतलब मुझे गया या मगध  के अस्तित्व की चिंता नहीं है और जिस कसबे ने मुझे बाहरी टैग दिया वो तो पक्के तौर पर दुश्मनों की कैटेगरी में नज़र आता है ना हिंदुस्तान के स्तर पर अपने आप को फिट पाता हूँ! रही बात कानूनी  फड्डे की तो हर बाहरी की तरह मैं भी बहुत बड़ा डरपोक हूँ कानून मानता हूँ और डर से मानता हूँ स्वेच्छा से मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता 
वैसे तो मैं संयुक्त राष्ट्र के भी सभी कानून मानता हूँ मगर उसके पीछे भी डर ही है स्वेच्छा  बिलकुल नहीं

(मूड बना तो जारी रहेगा ...................) 

सहकारिता से निकलेगा सामाजिक न्याय का रास्ता


सबसे पहले तो यही सवाल खड़ा हो जाता है की आखिर पूंजीवाद गरीबों के लिए उत्पीडन है या सहभागिता और सामाजिक न्याय का रास्ता! इसपर लगातार बहस चल रही है और मज़े की बात है की बहस में पूंजीवाद की लगातार जीत ही होती है! मगर पूंजीवाद के विरोधियों और सामाजिक स्थिति ने एक बात साफ़ कर दी की विश्व पर किसी का भी एकाधिकार समूचे विश्व के लिए खतरनाक है शायद इसी लिए सामाजिक आंदोलनों और भागीदारी आंदोलनों की समाप्ति की घोषणा के बाद भी ये छिटफुट लगातार जारी है कहीं कहीं जंगल जल ज़मीन की लडाई और तीखी हुयी है  
कुछ भी हो मगर भारतीय परिपेक्ष में पूंजीवादी एकाधिकार को लगातार चुनोती मिल रही है मगर अफसोसनाक पहलु है की ये चुनौतियां राजनैतिक विचारधारा के तौर पर हैं आर्थिक विचार के तौर पर सहकारिता जैसी सामाजिक पहलकदमी दम तोड़ चुकी है हालाँकि अमूल जैसे बड़े प्रतिष्ठान सहकारी ही है मगर उनका पूरा चरित्र किसी पूंजीवादी संगठन की तरह बन चूका है नए सहकारी संगठनों का निर्माण नगण्य है! आर्थिक उद्ध्मियों का अकाल है! शैक्षणिक संसथान महज़ कुशल मजदूर पैदा कर रहे हैं! उत्पादन और निर्माण गुज़रे युग की बात है 
पत्रकारिता, समाजसेवा और प्रबंधन, प्रौधिगिकी के अलावा ऐसे क्षेत्र ही नहीं है जहाँ युवा अपने कैरियर का चुनाव कर सके उसपर तुर्रा की प्रौधिगिकी (इंजीनियर्स) के छात्र अपना क्षेत्र बदल कर प्रबंधन की और मुड रहे हैं! समाजसेवा पूरी तरह दान आधारित उद्धोग है जिसके मूल में दया और उपकार है साथ ही ये आशा की इससे जनसमुदाय की क्रय क्षमता में वृद्धि होगी! पत्रकारिता और प्रबंधन का भी कुशलता और उत्पादन से कोई खास रिश्ता नहीं है अर्थात हम अपने शैक्षणिक संस्थानों से कुशल मजदूर और बेरोजगार और विकल्पहीन युवाओं को अकुशल मजदूरों के तौर पर तैयार कर रहे हैं! कृषि दिशाहीन सुविधाहीन और उत्पादनहीन होती जा रही है! खदानों पर पूंजीपति कब्जाकर रहे हैं! आदिवासियों और जनजातीय समुदाय के पारंपरिक रोजगार न केवल समाप्त होरहे आपितु अपनी ज़मीनों से बेदखल हो रहे हैं 
और वैकल्पिक साधनों के नाम पर कुछ भी नहीं है! सरकारें पुलिस और फ़ौज का उपयोग करके ज़बरदस्ती अपनी ही जनता को उनके साधनों से बेदखल कर रही हैं और कुछ पुनर्वास के नाम पर कुछ नकदी पकड़ा दी जा रही! 
आधुनिकीकरण को विकास का नाम देकर पारंपरिक रोजगारों को समाप्त किया जा रहा है! पेड़ को काटकर नदी नालों और छोटे छोटे तगाड (तालाब) पाट कर चौड़ी सड़क बन रही! मगर उन लोगों का क्या जो इन पेड़ से लकडियाँ काट कर पंछी पकड़कर मधुमक्खियों के शहद निकल कर और छोटे छोटे तगाड़ों और नदी नालों से पानीफल और मछलियाँ निकल कर अपनी आजीविका चलते रहे हैं उनके लिए कोई विकल्प उपलब्ध नहीं फलस्वरूप लोग काम की तलाश में शहरों का रुख कर रहे हैं! शहरों पर अनावाशय्क बोझ बढ़ता जा रहा जिसकी प्रतिक्रिया के रूप में प्रांतवाद और क्षेत्रवाद की राजनैतिक बहस छिड़ रही है! 
बांस का काम हो मूर्तिकला हो या सुजनी फलिया बिछौना या फिर दर्जियों का काम या ज़री बनाने का पारंपरिक उद्धोग विडम्बना देखिये की जहाँ व्यक्तिक तौर पर इन रोजगारों में लगे लोग भूख मरने के कागार पर हैं मगर बाज़ार में इन चीजों के दाम आसमान छूते हैं! देश के एक बड़े परिवार का दामाद इस धंधे में खरबपति बन गया और भी कई फैशन हाउस बड़ी कमाई कर रहे हैं! हमारे पारंपारिक खिलौने अब बड़े मॉल्स में मिलते हैं गाँव या उत्पादक को सीधे आम बाज़ार नहीं मिलता   
सचमुच सोचने वाली बात है की हमारे कृषक लगातार घाटे के कारण खेती छोड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ हम हरा मटर प्याज़ लहसुन और चावल गेंहूँ जैसी चीजें विदेशों से आयत कर रहे हैं! आखिर वो कौन सी वजहें हैं जिनके कारण लाभ जनता को नहीं पहुच पा रहा है (क्रमशः)

बड़ा कमबख्त देश है| लेकिन क्या कीजिये, तुम्हारा और हमारा देश है, इसी में मरना है और इसी में जीना है,


                           डाक्टर जाकिर हुसैन के भाषण का सम्पादित अंश 


प्यारे विद्यार्थियों ,

मुझे मालूम नहीं कि दुनियां तुम क्या करना चाहते हो? हो सकता है कि तुम्हारा हौसला हो व्यापार और कारोबार या नौकरी करके बहुत सारी दौलत कमायें और चैन से अपनी और अपने ख़ानदान की जिन्दगी बिताने का काम करें, अगर ऐसा है तो परमात्मा तुम्हारा मनोरथ सफल करे, लेकिन चाहे तुम धन - दौलत की फिक्र में लग जाओ, इतन ध्यान रखना कि सफलता के लिए यह जरुरी नहीं है कि अपने कर्तव्यों को त्यागकर और अपनी सारी बड़ी इच्छाओं को पैरों तले रौंदकर ही उस तक पहुंचा जाए, जो अपने स्वार्थ के लिए इतना अँधा हो जाएँ कि अपने राष्ट्र को हानि पहुँचाने से भी न चुके, वह आदमी नहीं जानवर है|
अगर तुम अपना जीवन देश की सेवा में लगाना चाहते हो तो मुझे तुमसे कुछ कहना है, तुम जिस देश में यंहा से निकलकर जा रहे हो, वह बड़ा अभागा देश है, अनपढ़ों का देश है, अन्याय का देश है, कठोरताओं का देश है, क्रूर परम्पराओं का देश है, भाई - भाई में नफरत का देश है, बीमारियों का देश है, सस्ती मौत का देश है, गरीबी और अँधेरे का देश है, भूख और मुसीबत का देश है, यानि कि बड़ा कमबख्त देश है|

लेकिन क्या कीजिये, तुम्हारा और हमारा देश है, इसी में मरना है और इसी में जीना है, इसलिए यह देश तुम्हारी हिम्मत के इम्तहान, तुम्हारी शक्तियों का प्रयोग, तुम्हारे प्रेम की परख की जगह है|
डाक्टर जाकिर हुसैन
हमारे देश को हमारी गर्दनो से उबलते खून की जरुरत नहीं है| इसे हमारे माथे के पसीने की बारहमासी दरिया की दरकार है| जरुरत है काम की, खामोश और सच्चे काम की| हमारा भविष्य किसान की टूटी झोपड़ी, कारीगर की धुएं से काली छत और देहाती स्कूल के फूस के छप्पर तले बन और बिगड़ सकता है| जिन जगहों का नाम मैंने लिया है, उनमें सदियों तक के लिए हमारी किस्मत का फैसला होगा| और इन जगहों का काम धीरज चाहता है और चाहता है संयम, इसमें थकन भी ज्यादा है और कदर भी कम होती है| जल्दी नतीजा भी नहीं निकलता है| हाँ कोई धीरज रख सके तो जरुर फल मीठा मिलता है| 

प्यारे विद्यार्थियों, इस नये हिंदुस्तान को बनाने के काम में तुमसे जहाँ तक बन पड़े, हाथ बटाना मगर याद रहे कि अगर स्वभाव में आतुरता है तो तुम उस काम को अच्छी तरह नहीं कर सकते| इस काम में बड़ी देर लगती है| अगर तबीयत में जल्दबाजी तो तुम काम बिगाड़ दोगे, क्योंकि अगर जोश में बहुत सा काम करने की आदत है और उसके बाद ढीले पड़ जाते हो तो भी यह कठिन काम शायद तुमसे नहीं बन सकेगा, क्योंकि इसमें बहुत समय तक बराबर एक सी मेहनत चाहिए| अगर असफलता से निराश हो जाते हो तो इस काम को मत छूना क्योंकि इसमें असफलताएं जरूरी हैं - बड़ी असफलताएं और पग - पग पर असफलताएं| इस देश कि सेवा में कदम - कदम पर खुद देश के लोग ही तुम्हारा विरोध करेंगे, वे लोग जिन्हें हर परिवर्तन से हानि होती है| वे जो इस वक्त चैन से हैं और डरते हैं कि शायद परिस्थितियाँ बदले, तो वे दूसरों की मेहनत के फलों से अपनी झोलियाँ न भर पाएंगे| लेकिन याद रखो, ये सब थक जाने वाले हैं, इन सबका दम फुल जायेगा| तुम ताजादम हो, जवान हो| तुम्हारे मन में अगर संशय होगा और आत्मविश्वास का अभाव होगा तो इस काम में बड़ी कठिनाइयाँ सामने आयेंगी क्योंकि संशय से वह शक्ति पैदा नहीं होती, जो इस कठिन काम के लिए अपेक्षित है| गंदे हाथ और मैले मन से भी तुम इस काम को नहीं कर सकोगे क्योकि यह बड़ा पवित्र काम है| 
सारांश यह है कि तुम्हारे सामने अपना जौहर दिखाने का अदभुत अवसर है| मगर इस अवसर का उपयोग करने के लिए बहुत बड़े नैतिक बल की आवश्यकता है| जैसे कारीगर होंगे, वैसी ही इमारत होती है, काम चुकि बड़ा है, एक की या थोड़े से आदमियों की थोड़े दिन की मेहनत से पूरा न होगा, दूसरों से मदद लेनी होगी और दूसरों की मदद करनी होगी, तुम्हारे पीढी के सारे हिन्दुस्तानी नवजवान अगर अपना सारा जीवन इसी एक धुन में बिता दे, तब कहीं यह नाव पार लगेगी|
जब जाति - पाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदाय, प्रान्त आदि के झगड़ों के चलते देश टूटता नजर आ रहा है, जिस देश में अनेक जातियां बसती है, जहाँ विभिन्न संस्कृतियाँ प्रचलित है, जहाँ एक का सच दुसरे का झूठ है, उस देश में नवजवानों से इस तरह मिलकर काम करने की आशा कुछ कम ही है| वोट बिकते हैं, राजनीतिज्ञ बिकते हैं, वे देश को भी बेच सकते हैं | 
सेवा की राह में, जिसकी चर्चा मैं कर रहा हूँ , सचमुच ही बड़ी कठिनाइयाँ हैं | इसलिए ऐसे क्षण भी आएंगे की तुम थककर शिथिल हो जाओगे | बेदम से हो जाओगे और तुम्हारे मन में संदेह भी पैदा होने लगेगा कि यह जो कुछ किया, सब बेकार तो नहीं था? उस समय उस भारत माता के चित्र का ध्यान करना जो तुम्हारे ह्रदयपट पर अंकित हो, यानि उस देश के चित्र का ध्यान, जिसमे सत्य का शासन होगा, जिसमे सबके साथ न्याय होगा, जहाँ अमीर - गरीब का भेदभाव नहीं होगा, बल्कि सबको अपनी - अपनी क्षमताओं को पूर्णतया विकसित करने का अवसर मिलेगा, जिसमें लोग एक दुसरे पर भरोसा और एक दूसरे की मदद करेंगे, जिसमें धर्म इस काम में नहीं लाया जायेगा कि झूठी बातें मनवाएं और किन्ही स्वार्थों की आड़ बने, बल्कि वह जीवन को सुधारने और सार्थक बनाने का साधन होगा | उस चित्र पर दृष्टि डालोगे तो तुम्हारी थकन दूर हो जाएगी और नये सिरे से अपने काम में लग जाओगे | फिर भी अगर चारों तरफ कमीनापन और खुदगर्जी, मक्कारी और धोखेबाजी और गुलामी में संतोष देखो तो समझना कि अभी काम समाप्त नहीं हुआ है | मोर्चा जीता नहीं गया है | इसलिए संघर्ष जारी रखना चाहिए, और जब वह वक्त आये, जो सबका आना है और इस मैदान को छोड़ना पड़े तो यह संतोष तुम्हारे लिए पर्याप्त होगा कि तुमने यथाशक्ति उस समाज को स्वतंत्र करने और अच्छा बनाने का प्रयत्न किया, जिसने तुम्हें आदमी बनाया था |

हिमांशु कुमार ने फेसबुक पर शेयर किया है 

छत्तीसगढ़ के डी. जी.पी. श्री विश्वरंजन के लेख पर मेरा कमेन्ट!

(मोहल्ला लाइव पर छपे छत्तीसगढ़ के डी. जी.पी. श्री विश्वरंजन के लेख पर पर मेरा कमेन्ट! मैं नक्सालियों की हिंसा का पैरोकार नहीं हूँ मगर पुलिस की तानाशाही के खिलाफ अवश्य हूँ! विश्वरंजन के लेख से जो मन में शंकाएं हुयी साफ़ साफ़ कह दी! लोकतंत्र में विश्वाश का मतलब ये नहीं होता की सरकार को गुंडई का लाइसेंस दे दिया जाए! सच ये है की आज़ादी के ६३ साल बाद भी आम जनता खाकी वर्दी से कापती है! हाँ ये बात अलग है की यही डरने वाले लोग पुलिस की हर उस कारवाई को जायज़ ठहरा देते हैं जब वो किसी को आतंकवादी या नक्सली कह कर मार गिराते हैं! हम हर प्रकार की हिंसा की कड़ी आलोचना करते हैं!  चाहे वो कानूनी हो या गैरकानूनी! हम मानवीय समाज की कल्पना करते हैं और यहाँ खून खराबे की कोई इजाज़त नहीं )

महामहिम,

मैं २७ साल का हूँ! आपकी भाषा में रोमानी नक्सली हूँ! माले के साथ जुड़ा रहा था बाद में समाजवादी(?) हो गया! अब भटक रहा हूँ किसी सच्ची राह में! लोकतंत्र में विश्वाश है भीड़तंत्र में नही!

आपके लेख के बाद कुछ बातें मन में आई हैं सार्वजानिक तौर पर कहने की जुर्रत कर रहा हूँ

लेख के अंत में आप स्वय ही साबित करते हैं की कवि या चित्रकार होने का मतलब ये नहीं की आदमी संवेदनशील हो या क्रूर ना हो! मुझे लगता है आप अपना परिचय दे रहे है की आप कवि तो हैं मगर संवेदनशीलता की उम्मीद ना की जाए! तो हजुर आपसे है भी नहीं!

हम जानते हैं और मानते हैं की नक्सली दूध के धुले नहीं हैं! एक डाक्टर एक सामाजिक कार्यकर्त्ता नक्सली हो सकता है बल्कि आदर्श स्थिति में उसे होना ही चाहिए! क्योकि लोकतान्त्रिक सरकारें दबाव गुटों के बिना नहीं चलती है! आप चाहते हैं की आपके अधिकारी अदालतों को जवाबदेह ना हों और सीधे नक्सल विरोधी अभियान चलायें!

आप नक्सालियों को सिख देना चाहते हैं की वो दस्तावेजीकरण बंद कर दें ठीक वैसे ही जैसे पुलिस नहीं करती! ऍफ़ आई आर दर्ज करने से लेकर फर्जी मुठभेड़ें अंजाम देकर ही सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की जा सकती है!
छत्तीसगढ़ के डी. जी.पी. श्री विश्वरंजन
उनके उद्देश्य तो साफ़ है वो लाल सत्ता स्थापित करना चाहते हैं और इसके लिए विध्वंस का रास्ता अपना रहे हैं! इसमें कौन सी चेतावनी देने वाली बात है! ये देश और दुनिया का हर बच्चा जानता है!
आप ये सब बता कर आखिर स्वय को “घोर बौद्धिक” के अलावा क्या साबित करना चाह रहे हैं!
विरोध पुलिस या सरकार की उन बातों का नहीं है की उन्होंने किसी को गिरफ्फ्तर क्यों किया है! विरोध मानवाधिकारों को कुचल देने का है! आप छत्तीसगढ़ में भारतीये गणतंत्र के त्रतिनिधि हैं! वहां की आम जनता के अभिभावक भी दोहरी ज़िम्मेदारी है और आप दस्तावेजीकरण के विरोध में बोल रहे हैं ये आपकी औप्नेवेशिक मानसिकता नहीं दर्शाता तो और क्या है आप किसी भी हाल में निबट लेना चाहते हैं! आदिवासियों या आम जनता को बिना आदालत गए सलटा देना चाहते हैं! और एक पत्रिका में लिख कर घोषणा करते हैं !

महामहिम,

आप जानते हैं! की आम जनता पुलिस वालों से किस कदर खौफ खाती है ??? आपकी बड़ी मेजों के सामने आकर हर कांपने वाला इंसान अपराधी नहीं होता वो नैतिक तौर पर स्वय को अपराधी मान लेता है!
क्या मैं आशा करूँ की आप मेरे इस खुले पत्र को सकारात्मक रूप से लेंगे और अपने काम के साथ साथ पुलिस मनुअल में सुधर के लिए आवश्यक कदम उठाएंगे ???
क्या आप आदिवासी लड़कियों की तस्करी के खिलाफ विशेष कार्यबल बनाने की दिशा में मुख्यमंत्री जी को पत्र लिखेंगे या कोई विशेष अध्यन करवाने के लिए गृह विभाग को अनुशंषा पत्र लिखेंगे ?????

क्या आप बस्तर में शोशल आडिट को मुस्तैदी से अंजाम दिलवाने के लिए आरक्षी अधीक्षक को कहेंगे ????
क्या आप बस्तर में बाल अशिकारों को सुनिश्चित करने की बात करेंगे ????

क्या आप वादा करते हैं की पुलिस कर्मी या कोई भी अपराधी या सलवा जुडूम का कार्यकर्त्ता किसी महिला की आबरू से खिलवाड़ नहीं करेगा ?????

क्या आप सुनिश्चित करते हैं की आप कानून के प्रहरी के रूप में हर कानूनी अपराधी को कानूनी रास्तों से सजा दिलवाएंगे ????????

अगर हाँ तो आपके पीछे सारा देश खड़ा है

अगर नहीं तो माफ़ कीजिये मैं आपको अपराधी और नक्सालियों की भषा में राजनैतिक और औधोगिक दलाल ही कहूँगा


(महामहिम शब्द का उपयोग किसी अविवादित पद के लिए किया जाता है! यहाँ सनद रहे की तानाशाह भी अविवादित हुआ करते हैं )

हमारी विचारधाराएँ कैसे बनती हैं 2


मेरा घर जी टी रोड (दिल्ली कलकत्ता रोड) से किनारे ही हैं! और मेरे गाँव के आसपास ढेर सारे ढाबे थे! यूँ तो मेरा गाँव करीब हज़ार घर आबादी का था जिसमे सबके सब मुसलमान ही हैं! मगर इसके चौराहे पर एक बड़ी भव्य सी मंदिर है मंदिर के पास ही महज़ दो हलवाई (मधेशी गोत्र का बनिया परिवार) ही हिन्दू हैं! सड़क के दूसरी ओर दलितों के २०-२५ घर हैं मगर ये गाँव से दूर हैं और तब ये मंदिर आते भी नहीं थे! 
ऐसे में पुरे क्षेत्र में सांप्रदायिक उन्माद का फैल जाना परस्पर डर पैदा करता था! दूध और दूसरी आवश्यक वस्तु लाने वाले लोग हिन्दू ही थे! सो उन्हें आने में डर लगता और गाँव से बाहर की आबादी हिन्दुओं की थी इसलिए मुसलामानों को डरना स्वाभाविक था! मुझे पाता नहीं की सच क्या था मगर अक्सर सुनने में आता की यहाँ दंगा हो गया वहां दंगा हो गया! इंतज़ाम दोनों तरफ से था, रामकुमार साव(पडोसी हलवाई) को वचन दिया गया चाहे कुछ हो जाए उनके परिवार को आंच नहीं आएगी! सो वो ना डरें और लगातार दुकान खोले ताकि सबकुछ सामान्य लगे! फिर आया मुंबई का बम विस्फोट और दंगा आग यहाँ भी भड़की! चौराहे वाली मंदिर में गाँव के कुछ लड़कों ने डायनामाईट लगा दिया और उसे उड़ने का असफल प्रयास हुआ! इंसानियत और स्वय की तमाम पहचानो के संघर्ष का सबसे उज्जवल चेहरा मैंने पहली बार देखा! जब मेरे गाँव के बूढ़े बुज़ुर्ग जाकर मंदिर में लेट गए और कहा मंदिर उडी तो इसीमे हमारी लाश भी दफ़न हो जायेगी! यकीनन वहां जाकर सोने वाले लोग मुसलमान थे और अपने बच्चों को सामाजिकता सिखाने के लिए वहां जाकर लेट गए थे! खैर मंदिर को कुछ नहीं हुआ और बाद के समय में वो और भव्य हो गयी! आजभी वहां शिलापट्ट पर मुस्लिम दान दाताओं के नाम देखे जा सकते हैं! इस मंदिर के लिए कोई बाहरी चंदा नहीं लिया गया! 
दूसरी मजेदार कथा उसी समय की है शायद कुछ पहले या कुछ बाद की सुबह सुबह शर्मा जी (मेरे अब्बी के मित्र जाति के भूमियार हैं) के बड़े पुत्र पधारे! गोलियां के पैकेट और बम्ब के मसलों के साथ कहने लगे "बाऊ जी ने समान भेजा है! समय खतरनाक है, कभी भी दंगा छिड़ सकता है इस लिए" 
ये मेरे लिए ताज्जुब भरा था और सीख भी! 
ये सब घटनाएँ तब की हैं जब मैं बच्चा था और सही से स्कूल भी नहीं जाता था! दिमाग हर बात को अपनी डायरी में नॉट कर रहा था! समाज के भयंकर बंटवारे और दहशत के दौर में जब लोग एक दुसरे से टूट रहे थे मैं जुड़ रहा था! फिर इसी दौरान मेरे मौलवी साहब का भी आगमन हुआ (नास्तिकों का ब्लॉग पर मेरी पोस्ट देखें)

अब बात बदलता हूँ! 
१९९० के चुनाव में नक्सल पार्टी लिबरेशन ने आई पी ऍफ़ के बैनर तले चुनाव लड़ा! मगर जंगल पार्टी, पार्टी यूनिटी और एम् सी सी जैसी पार्टियां अब भी भूमिगत थीं और इनको चुनौती देने वाली अली सेना लोरिक सेना पांडव सेना जैसी प्रतिक्रिया वादी पार्टियाँ भी मौजूद थी! 
जगार्र्नाथ मिश्र की राजनैतिक इमेज समाप्त हो चुकी थी कांग्रेस से नफरत भर गयी थी! कांग्रेसियों का धंधा मंदा पड़ रहा था! ऐसे समय में मशहूर नक्सल नेता रामाधार सिंह विधायक बन के आये थे! ये घोर नक्सल नेता जहाँ एक तरफ सर्वहारा वोट लेकर आया वहीँ राजपूत होनी की वजह से भूमिहार राजपूत और पठानों का एक मुश्त वोट भी ले गए! मेरे अब्बी घोर कांग्रेसी थे (आज भी हैं) ज़ाहिर है उनके दिन भी लद गए थे! विधायक जी से महज़ जातीय रिश्ता हो सकता था! जो बना भी मगर तब तक मेरे अब्बी का साम्राज्य (बाद में समझ आया काला साम्राज्य) ताश के पत्तो की तरह ढहने लगा था! 
 (सेंटी हो रहा हूँ फिर बाद में )

हमारी विचारधाराएँ कैसे बनती हैं


हमारी  विचारधाराएँ  कैसे  बनती  हैं  ? मैं  सोचता  हूँ  की  हर  विचारधारा  के  अपने  व्यक्तिक  कारण  हैं , और  यही  व्यक्तिक  कारण  तमाम  वैचारिक  द्वंदों  को  जनम  भी  देती  हैं  और  समुहवादी संकल्पना भी तैयार करती हैं! विचार एक प्रकार का नशा है जो जीवन भर आपका पीछा नहीं छोड़ता! और हर व्यक्तिक जीवन समाज पर अपना प्रभाव अपनी विचारधारा के ज़रीये ही छोड़ता है, ये बात अलग है की वर्ग विशेष उसे नकारात्मक समझा है या सकारात्मक 
अभी मैंने अपने चैतन्य जीवन का पहला दशक पार किया है और पुरे दशक जिस अथक संघर्ष का सामना किया वो किसी नेपोलियन किसी मुसोलनी किसी बिस्मार्क से कम नहीं ऐसा मैं समझता हूँ वैसे हर इंसान स्वय के लिए ऐसा ही समझता है! एक पुरे दशक के संघर्षों ने जीवन के इतने रंग दिखाए हैं की कभी कभी तो सब झूठ ही लगता है!  
बिनायक सेन को उम्रकैद दिए जाने के बाद से मेरे निजी जीवन पर गंभीर प्रभाव हुआ है! वैचारिक बदलाव की प्रकिर्या में ये एक गंभीर झटका है! 
सिलसेवार याद करता हूँ तो याद आता है की मैंने जहाँ जनम लिया वो भूमि किसी लैंड माइंस से भरी युद्ध भूमि से किसी तरह कम नहीं थी! ७या ८ की उम्र से ही शिलापूजन और हिन्दू मुस्लिम दंगे की ख़बरों से सहमा हुआ इलाका अर्ध-सैनिक बलों के जूतों से गूंजता ही रहता था ऊपर से हर महीने दो महीने पर किसी रिश्तेदार के नक्सलियों के हाथों मारे जाने की खबर भी आजाती थी! ये २०वि सदी का अंतिम दशक की शुरुआत थी! भय और  अविश्वाश के वातावरण में शांतिकाल की बात इतिहास की फटी किताबों की कहानियों की तरह सुनाई जाती थी! याद करता हूँ तो याद आता है की बंदूकों को साफ़ करते हुए परिवार के लोग समरसता की बातें बताया करते थे! मेरे अब्बी (पिता) मुझे अक्सर कहा करते की आम इंसान बुरा नहीं होता मगर सियासतदान उनकी परेशानियों का नाजायज़ फायदा उठाया करर्ते हैं! जो भी हो मैं अपने ननिहाल नहीं जा पाता था वहां रहना खेलना और मस्ती करना मज़ा देता था मगर जाति का पठान होना कोठी क्षेत्र (वर्त्तमान में झारखण्ड का चरता जिला) में नक्सलियों के हाथों मारे जाने के लिए काफी था मुसलमान होने की वजह से हुन्द्दंगियों का शिकार होजाना भी स्वाभाविक था! और इन सब से बच जाने पर अर्ध सैनिक बलों का शिकार होना कोई अनहोनी नहीं होती! तितार्फे खतरे की वजह से मुझे ननिहाल नहीं भेजा जाता था! मुझसे बड़े भाइयों को पहले ही शहरों के लिए रवाना कर दिया गया था! मैंने बचपन अकेला ही गुज़ारा! यही वो दौर था जब मैंने पहली बार एयर गन से निशाना लगाना सिखा और भी दो नाली से होते हुए रायफल तक चलाना सिखा! और ये सब कुछ किसी विशेष परिश्थिति के लिए था! भय की सिहरन साफ़ महसूस होती थी 
९५   के बाद ये बादल कुछ छटे मैं ननिहाल गया! हुमाजान नाम का गाँव है सिल्दाहा बाज़ार के पास चतरा जिला तब शायद हजारीबाग था! मेरे नाना बड़े सामाजिक किसम के बड़े दिल वाले इंसान थे! इनकी एकलौती खानदान थी जिसे ना तो नक्सालियों ने कभी टोका ना ही पुलिस ने! 
इस गाँव की कुल आबादी कम से कम दो सौ घर थी दूर दूर फैले जंगलों के बीच ये गाँव काफी खुबसूरत हुआ करता था! करीब १०० घर शेखों के और १०० घर दूसरी हिन्दू जातियों के थे! यहाँ हमारा ननिहाल ही एकलौता पठान था जो कुछ ही बरस पहले वहां जाकर आबाद हुआ था! नाना ने १९८० में अपना पुश्तैनी इलाका छोड़ कर इस जगह को चुना था ताकि वो अपना अंतिम जीवन पूरी तरह आज़ाद हो कर जी सकें! बड़े सूफी विचारों के थे वो भी! शायद उन्हें पाता ही नहीं था की वो जहाँ शांति की तलाश में जा रहे हैं वहां जिंदा रहना ही अपने आप में एक चमत्कार था! अब जो हो किसी एक व्यक्ति के लिए समाज कहाँ रुकता है भला  
इस गाँव में अर्ध सैनिक बलों के लिए कैम्प लगा और बाद में जला दिया गया! मैंने देखा की पुलिस की जिप की घरघराहट सुनते ही लोग भागते हुए जंगल में घुस जाते थे! लालटेन धीमी कर दी ज़ाती थी! जवान लडकियां अनाज की कोठियों के पीछे छुप ज़ाती बच्चों को बिस्तर पर ज़बरदस्ती लिटा कर मुंह छिपा दिया जाता! मैंने कभी देश पर आकर्मण नहीं देखा मगर मैं समझता हूँ ऐसा ही कुछ हुआ करता होगा! ऐसी अफरा तफरी मच ज़ाती की लगता जैसे कोई विदेशी आकर्मंकारी घुस आया हो बर्बादी के इरादे से 
मैं समझता था की थाने की पुलिस इमानदार होती है वो सिर्फ चोर डाकुओं को पकडती है! अर्ध सैनिक बलों के लिए तो पहले से ही विश्वाश था ये कमीने होते हैं और सरकार इन्हें मारने के लिए ही भेजती है! मगर यहाँ ये भी भरम टूट गया! थाने की पुलिस को नंगा नाच करते देखा तो सोचा इनकी शिकायत करनी चाहिए! तब तक मुझ कलम से लिखने की इजाज़त नहीं थी पेन्सिल से ही लिखा करता था सो अपनी पेन्सिल से ही कई ख़त एस पी को लिखा! सब बातें लिखी मैंने कहा मैं गवाही दूंगा मगर एस पी साहब ने या तो ख़त नहीं देखा या एक बच्चे की बात को दिल पर नहीं लिया! 
इसी दौरान मुझे अपने दोस्तों से पता चला था की अर्ध सैनिक बलों के  पास ऐसा यंत्र होता है जिससे ये किसी के घर में होने वाली बात भी सुन लेते हैं! और सरकार इन्हें उन्हीं इलाकों में भेजती है जहाँ सरकार के खिलाफ विद्रोह हुआ हो! और इन्हें गोली चलाने के लिए किसी से आदेश नहीं लेना पड़ता इनके पास दरों गोलियां होती हैं जिनका हिसाब भी देना नहीं होता! मैं ने सोचना शुरू किया की हम तो देश भक्त ही हैं सब लोग झंडा फहराते हैं! मेरे कमरे में अब्बी ने भगत सिंह और सुभाष बाबू की तस्वीर भी लगवाई थी! हम चोरी डकैती भी नहीं करते! अवैध असलहा भी नहीं है फिर हम लोग देश द्रोही कैसे हुए! मेरे अब्बी  क्षेत्र के जाने माने ठेकेदार थे सारा ठेका सरकारी ही होता है! क्षेत्र के विधायक जी भी हमेशा आते हैं बड़ा बाबु और छोटा बाबु(इंस्पेक्टर और सब इंस्पेक्टर) भी हमेशा आते हैं! अगर हम लोग देश द्रोही हैं तो आखिर ये क्यों आते हैं!     
मेरे घर से एकाध किलो मीटर की दुरी पर अर्ध सैनिक बलों का कैम्प था जहाँ की सुबह गूलियों की आवाज़ से होती थी! शूरू शुरू में लगा की ये रात में जिनको पकड़ कर लाते हैं उनको जान से मारने के लिए गोली चलते हैं मगर बाद में पाता चला की वहां शूटिंग रेंज भी है जहाँ ये शूटिंग परैक्टिस करते हैं! मगर बात बड़ी सीधी सी रही डर तो हर हाल में लगता था 
मैं हाल तक पंजाबियों से सख्त नफरत करता था इसका बीज वहीँ पड़ा था! क्योकि ज़्यादातर पुलिस वाले पंजाबी होते थे और बात बात में गाली देना समान छीन लेना हर मामले में दखल देना इनकी आदत में शुमार था 
जी टी रोड पर बनी पान गुमटियों और किराना दूकान से मुफ्त में समान लेना कोई नयी बात नहीं थी!  
(----जारी रहेगा) 
सपाट ढंग से पिछले पुरे दो दशक को रखने की कोशिश कर रहा हूँ! जैसा मैंने समझा और जो अनुभव किया