मेरा घर जी टी रोड (दिल्ली कलकत्ता रोड) से किनारे ही हैं! और मेरे गाँव के आसपास ढेर सारे ढाबे थे! यूँ तो मेरा गाँव करीब हज़ार घर आबादी का था जिसमे सबके सब मुसलमान ही हैं! मगर इसके चौराहे पर एक बड़ी भव्य सी मंदिर है मंदिर के पास ही महज़ दो हलवाई (मधेशी गोत्र का बनिया परिवार) ही हिन्दू हैं! सड़क के दूसरी ओर दलितों के २०-२५ घर हैं मगर ये गाँव से दूर हैं और तब ये मंदिर आते भी नहीं थे!
ऐसे में पुरे क्षेत्र में सांप्रदायिक उन्माद का फैल जाना परस्पर डर पैदा करता था! दूध और दूसरी आवश्यक वस्तु लाने वाले लोग हिन्दू ही थे! सो उन्हें आने में डर लगता और गाँव से बाहर की आबादी हिन्दुओं की थी इसलिए मुसलामानों को डरना स्वाभाविक था! मुझे पाता नहीं की सच क्या था मगर अक्सर सुनने में आता की यहाँ दंगा हो गया वहां दंगा हो गया! इंतज़ाम दोनों तरफ से था, रामकुमार साव(पडोसी हलवाई) को वचन दिया गया चाहे कुछ हो जाए उनके परिवार को आंच नहीं आएगी! सो वो ना डरें और लगातार दुकान खोले ताकि सबकुछ सामान्य लगे! फिर आया मुंबई का बम विस्फोट और दंगा आग यहाँ भी भड़की! चौराहे वाली मंदिर में गाँव के कुछ लड़कों ने डायनामाईट लगा दिया और उसे उड़ने का असफल प्रयास हुआ! इंसानियत और स्वय की तमाम पहचानो के संघर्ष का सबसे उज्जवल चेहरा मैंने पहली बार देखा! जब मेरे गाँव के बूढ़े बुज़ुर्ग जाकर मंदिर में लेट गए और कहा मंदिर उडी तो इसीमे हमारी लाश भी दफ़न हो जायेगी! यकीनन वहां जाकर सोने वाले लोग मुसलमान थे और अपने बच्चों को सामाजिकता सिखाने के लिए वहां जाकर लेट गए थे! खैर मंदिर को कुछ नहीं हुआ और बाद के समय में वो और भव्य हो गयी! आजभी वहां शिलापट्ट पर मुस्लिम दान दाताओं के नाम देखे जा सकते हैं! इस मंदिर के लिए कोई बाहरी चंदा नहीं लिया गया!
दूसरी मजेदार कथा उसी समय की है शायद कुछ पहले या कुछ बाद की सुबह सुबह शर्मा जी (मेरे अब्बी के मित्र जाति के भूमियार हैं) के बड़े पुत्र पधारे! गोलियां के पैकेट और बम्ब के मसलों के साथ कहने लगे "बाऊ जी ने समान भेजा है! समय खतरनाक है, कभी भी दंगा छिड़ सकता है इस लिए"
ये मेरे लिए ताज्जुब भरा था और सीख भी!
ये सब घटनाएँ तब की हैं जब मैं बच्चा था और सही से स्कूल भी नहीं जाता था! दिमाग हर बात को अपनी डायरी में नॉट कर रहा था! समाज के भयंकर बंटवारे और दहशत के दौर में जब लोग एक दुसरे से टूट रहे थे मैं जुड़ रहा था! फिर इसी दौरान मेरे मौलवी साहब का भी आगमन हुआ (नास्तिकों का ब्लॉग पर मेरी पोस्ट देखें)
अब बात बदलता हूँ!
१९९० के चुनाव में नक्सल पार्टी लिबरेशन ने आई पी ऍफ़ के बैनर तले चुनाव लड़ा! मगर जंगल पार्टी, पार्टी यूनिटी और एम् सी सी जैसी पार्टियां अब भी भूमिगत थीं और इनको चुनौती देने वाली अली सेना लोरिक सेना पांडव सेना जैसी प्रतिक्रिया वादी पार्टियाँ भी मौजूद थी!
जगार्र्नाथ मिश्र की राजनैतिक इमेज समाप्त हो चुकी थी कांग्रेस से नफरत भर गयी थी! कांग्रेसियों का धंधा मंदा पड़ रहा था! ऐसे समय में मशहूर नक्सल नेता रामाधार सिंह विधायक बन के आये थे! ये घोर नक्सल नेता जहाँ एक तरफ सर्वहारा वोट लेकर आया वहीँ राजपूत होनी की वजह से भूमिहार राजपूत और पठानों का एक मुश्त वोट भी ले गए! मेरे अब्बी घोर कांग्रेसी थे (आज भी हैं) ज़ाहिर है उनके दिन भी लद गए थे! विधायक जी से महज़ जातीय रिश्ता हो सकता था! जो बना भी मगर तब तक मेरे अब्बी का साम्राज्य (बाद में समझ आया काला साम्राज्य) ताश के पत्तो की तरह ढहने लगा था!
(सेंटी हो रहा हूँ फिर बाद में )
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