सबसे पहले तो यही सवाल खड़ा हो जाता है की आखिर पूंजीवाद गरीबों के लिए उत्पीडन है या सहभागिता और सामाजिक न्याय का रास्ता! इसपर लगातार बहस चल रही है और मज़े की बात है की बहस में पूंजीवाद की लगातार जीत ही होती है! मगर पूंजीवाद के विरोधियों और सामाजिक स्थिति ने एक बात साफ़ कर दी की विश्व पर किसी का भी एकाधिकार समूचे विश्व के लिए खतरनाक है शायद इसी लिए सामाजिक आंदोलनों और भागीदारी आंदोलनों की समाप्ति की घोषणा के बाद भी ये छिटफुट लगातार जारी है कहीं कहीं जंगल जल ज़मीन की लडाई और तीखी हुयी है
कुछ भी हो मगर भारतीय परिपेक्ष में पूंजीवादी एकाधिकार को लगातार चुनोती मिल रही है मगर अफसोसनाक पहलु है की ये चुनौतियां राजनैतिक विचारधारा के तौर पर हैं आर्थिक विचार के तौर पर सहकारिता जैसी सामाजिक पहलकदमी दम तोड़ चुकी है हालाँकि अमूल जैसे बड़े प्रतिष्ठान सहकारी ही है मगर उनका पूरा चरित्र किसी पूंजीवादी संगठन की तरह बन चूका है नए सहकारी संगठनों का निर्माण नगण्य है! आर्थिक उद्ध्मियों का अकाल है! शैक्षणिक संसथान महज़ कुशल मजदूर पैदा कर रहे हैं! उत्पादन और निर्माण गुज़रे युग की बात है
पत्रकारिता, समाजसेवा और प्रबंधन, प्रौधिगिकी के अलावा ऐसे क्षेत्र ही नहीं है जहाँ युवा अपने कैरियर का चुनाव कर सके उसपर तुर्रा की प्रौधिगिकी (इंजीनियर्स) के छात्र अपना क्षेत्र बदल कर प्रबंधन की और मुड रहे हैं! समाजसेवा पूरी तरह दान आधारित उद्धोग है जिसके मूल में दया और उपकार है साथ ही ये आशा की इससे जनसमुदाय की क्रय क्षमता में वृद्धि होगी! पत्रकारिता और प्रबंधन का भी कुशलता और उत्पादन से कोई खास रिश्ता नहीं है अर्थात हम अपने शैक्षणिक संस्थानों से कुशल मजदूर और बेरोजगार और विकल्पहीन युवाओं को अकुशल मजदूरों के तौर पर तैयार कर रहे हैं! कृषि दिशाहीन सुविधाहीन और उत्पादनहीन होती जा रही है! खदानों पर पूंजीपति कब्जाकर रहे हैं! आदिवासियों और जनजातीय समुदाय के पारंपरिक रोजगार न केवल समाप्त होरहे आपितु अपनी ज़मीनों से बेदखल हो रहे हैं
और वैकल्पिक साधनों के नाम पर कुछ भी नहीं है! सरकारें पुलिस और फ़ौज का उपयोग करके ज़बरदस्ती अपनी ही जनता को उनके साधनों से बेदखल कर रही हैं और कुछ पुनर्वास के नाम पर कुछ नकदी पकड़ा दी जा रही!
आधुनिकीकरण को विकास का नाम देकर पारंपरिक रोजगारों को समाप्त किया जा रहा है! पेड़ को काटकर नदी नालों और छोटे छोटे तगाड (तालाब) पाट कर चौड़ी सड़क बन रही! मगर उन लोगों का क्या जो इन पेड़ से लकडियाँ काट कर पंछी पकड़कर मधुमक्खियों के शहद निकल कर और छोटे छोटे तगाड़ों और नदी नालों से पानीफल और मछलियाँ निकल कर अपनी आजीविका चलते रहे हैं उनके लिए कोई विकल्प उपलब्ध नहीं फलस्वरूप लोग काम की तलाश में शहरों का रुख कर रहे हैं! शहरों पर अनावाशय्क बोझ बढ़ता जा रहा जिसकी प्रतिक्रिया के रूप में प्रांतवाद और क्षेत्रवाद की राजनैतिक बहस छिड़ रही है!
बांस का काम हो मूर्तिकला हो या सुजनी फलिया बिछौना या फिर दर्जियों का काम या ज़री बनाने का पारंपरिक उद्धोग विडम्बना देखिये की जहाँ व्यक्तिक तौर पर इन रोजगारों में लगे लोग भूख मरने के कागार पर हैं मगर बाज़ार में इन चीजों के दाम आसमान छूते हैं! देश के एक बड़े परिवार का दामाद इस धंधे में खरबपति बन गया और भी कई फैशन हाउस बड़ी कमाई कर रहे हैं! हमारे पारंपारिक खिलौने अब बड़े मॉल्स में मिलते हैं गाँव या उत्पादक को सीधे आम बाज़ार नहीं मिलता
सचमुच सोचने वाली बात है की हमारे कृषक लगातार घाटे के कारण खेती छोड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ हम हरा मटर प्याज़ लहसुन और चावल गेंहूँ जैसी चीजें विदेशों से आयत कर रहे हैं! आखिर वो कौन सी वजहें हैं जिनके कारण लाभ जनता को नहीं पहुच पा रहा है (क्रमशः)
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