कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

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बिहारी बहुएं और अंधे लोग

बार बार फोन की घंटी ने उठने पर मजबूर कर दिया फोन सी एन एन की रिपोर्टर का था जो मुझसे ओ पी धनकर नाम के बी जे पी नेता के बयान पर प्रतिक्रिया चाहती थी! कौन सा बयान और कौन हैं ये धनकर
कई दिनों से टी वी और अखबार से दुरी थी सो मुझे कुछ पता ही नहीं था खैर उन्होंने बताया की भाजपा की किसान इकाई के नेता ने हरियाणा में सरकार बनने पर वहाँ के कुंवारे युवाओं को बिहारी लड़कियां लाकर ब्याह करने का वादा किया है! उन्होंने ने सुशिल मोदी नाम के बिहारी नेता के साथ अपने अच्छे रिश्ते की भी दुहाई दी है! खैर मैंने अपनी संतुलित सी प्रतिक्रिया दे दी की ये अच्छी बात नहीं है और इससे समस्या और तस्करों के हौसले बढ़ेंगे!
मगर उत्सुकता में मैं फटाफट इन्टरनेट सर्च करके विस्तार से खबर की पड़ताल की देख कर ताज्जुब हुआ की कई सामाजिक संगठनों के साथ साथ कांग्रेस पार्टी की महिला शाखा ने भी इसकी आलोचना की है और कहा है की इससे तस्करी को बढ़ावा मिलेगा! अब मैं आश्चय्चाकित था अभी कोई साल भर पहले इसी पार्टी की सदस्य और देश की महिला एवं बाल कल्याण मंत्री ने इस प्रकार की शादी को अन्तर जातीय क्षेत्रीय बता कर इसको बढ़ावा दिए जाने की वकालत संसद में की थी! और जब विरोध स्वरुप मैंने उन्हें मेल लिखा तो कोई जवाब भी नहीं आया था!
 भाजपा के कृषक इकायोई के इस नेता के बयान पर कम से कम मुझे कोई ताज्जुब नहीं हुआ हो भी क्यूँ पिछले आठ से ज्यादा वर्षों से समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा इसे न्यायसंगत ठहराते हुए देखा सुना है! तो ज़ाहिर है वोट के खातिर समाज में तमाम विषमता घोलने वाली एक पार्टी के नेता से क्या अपेक्षा की जा सकती है! वैसे भी इससे पहले भी उत्तराखंड त्रासदी के समय हरयाणा के एक धर्म गुरु ने उत्तराखंड वासियों पर असीम अनुकम्पा दीखते हुए अपने शिष्यों की शादी का ऑफर दिया था! 
आह! अब ये बिदाई के समय ख़ुशी के आंसू तो नहीं हैं 
खैर 
वधू तस्करी का सबसे दुखद पहलु यही है की इसे हर प्रकार से न्याय संगत ठहराने की कोई कसर नहीं छोड़ी जाती! अकादमिक शोधार्थी हों या मीडिया या सामाजिक कार्यकर्त्ता समाज का हर तबका इसे लैंगिक असंतुलन के परिणाम के नाम पर एक प्रकार से उचित ठहरा देता है! सारा शोध खानपान में बदलाव और सांस्कृतिक आदान प्रदान पर आधारित हो जाता है! लड़कियों का साक्षात्कार उसी स्थान पर किया जाता है जहाँ उसे कई लोग घेरे खड़े होते हैं ज़ाहिर है साक्षात्कारकर्ता भी उन लड़कियों को उसके शोषको का हिस्सा लगता है (ज़्यादातर मामलों में होता भी है). एक जर्मन पत्रकार को यही दिखने के लिए मैंने पिछले साल एक ही लड़की से दो जगह साक्षात्कार करवाए थे! एक उसी गांव के भीतर जहाँ वो अपने तथाकथित पति के साथ रहती थी और दूसरा अपने एक कार्यकर्त्ता के घर! दोनों ही साक्षात्कार में आसमान ज़मीन का अंतर था! कारण साफ़ है की उसी गांव वातावरण और लोगो के बीच कोई भी लड़की उनके खिलाफ नहीं बोल पाती और अगर बोल दिया तो बाद में बचायेगा कौन ? ऐसे कई मामले मेरे दिमाग में अब भी ताज़ा हैं जिसमे किसी ने खरीद कर लायी गयी इन लड़कियों से बातें की और कुछ दिनों बाद वहाँ से गायब पायी गयीं! सामाजिक रूप से अनुमोदित वधू तस्करी को लिंगानुपात से जोड़ कर केवल अंतर क्षेत्रीय विवाह के बतौर स्थापित करने की कोशिश संभ्रात समाज की वर्गीय साजिश है जिसमे उसके अपने हित छुपे हैं ये किसी से नहीं छिपा की मीडिया शिक्षा और देश की मुख्यधारा (जो दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में ही निहित तथा सिमित है) में क्रियाशील समाज किसी न किसी रूप में लड़कियों का आयात राज्यों से सम्बन्ध रखता है जो उसे वर्गीय और सामाजिक ज़रूरतों के कारण वधू तस्करी को अनुमोदित करने पर मजबूर करता है! यही वो समाज है जिसे अपने घर के काम के लिए भी सस्ते (कई बार बिना वेतन के) घरेलु मजदूर उन्ही तस्करों से खरीदने है! ये वर्ग समाज के भीतर की किसी प्रकार के बदलाव की कोई मुहीम चलने का समर्थन और आशा तो करता है मगर कोई कोशिश नहीं करता!
शायद यही वजह है की दिल्ली से चलने वाली सैकडो संस्थाएं देश के तमाम हिस्सों में समानता और महिला भागीदारी के लिए काम तो करती है मगर दिल्ली के आसपास का ये क्षेत्र अब भी इनके लिए अछूता है जबकि ये पूरा क्षेत्र कठोर पितृसत्तात्मक समाज के कब्ज़े में हैं जहाँ महिला के जीवन का पूरा चक्र खतरे में है! कन्या भ्रूण हत्या हो या जाति अथवा पहचान आधारित सामूहिक बलात्कार या सम्मान हत्यां या वृद्ध महिलायों की सुनियोजित हत्याएं ये सब सामाजिक अनुमोदन दिल्ली की नाक के नीचे घटता है और कभी कभी अखबारों और टीवी की सुर्खियाँ भी बटोरता है मगर ज़मीनी काम का आभाव बदस्तूर जारी है!
पिछले आठ सालों में वधू तस्करी पर काम करते हुए मुझे हमेशा ही तमाम मुद्दों पर अकेला ही जूझना पड़ा! काम करने आफिस चलाने कार्यकर्ताओं को वेतन देने छोटी छोटी ज़रुरतो के लिए पैसा का इंतज़ाम हो या सहज क़ानूनी सहायता और किसी अन्य प्रकार के सहयोग का! ना सरकारें कभी तय्यार हुयी ना ही कोई देशी विदेशी एन जी ओ. रही बात पोलिस और प्रशासनिक महकमे की तो वो  समाज में अशांति फैल जाने का खतरा बता कर अपना पल्ला आसानी से झाड लेने में महारत रखता है!
   इस पुरे मामले को दूसरा रुख देने के क्रम में आयातित लड़कियों के माता पिता को ही गरीबी के कारण अपनी लड़कियां बेच देने के लिए आरोपित किया जाता है (ध्यान रहे की वधू तस्करी में ज़्यादातर मामले आप नब्बे फीसद भी कह सकते हैं पीडिता के माँ बाप की शिकायत पर ही खुलते अथवा रेस्कू आपरेशन होते हैं) और इस तर्क से सरकार और सामाजिक संगठन हरयाणा और पंजाब जैसे राज्यों में जेंडर और महिला भागीदारी पर काम नहीं करने का जायज़ बहाना बना लेते हैं! तो क्या ये महज़ एक विडम्बना भर है की हरयाणा जैसा उन्नत राज्य जहाँ १२५ विकास खंडों में २५० सरकारी गौशाला है वहाँ पुरे राज्य में महिलाओं के केवल तीन शेल्टर होम हैं जिसकी स्थिति किसी भी गौशाला से किसी हाल में बेहतर नहीं है!    
इन राज्यों में लड़कियों के आयात का एक लंबा इतिहास है जो ना केवल यौन उत्पीडन और शोषण से जुड़ा है बल्कि बंधुआ मजदूरी और नव दलितवाद से भी सीधा वास्ता रखता है! और यही कारण है की जातीय तथा धार्मिक रूप से दास रखने का आदी हमारा समाज एक नया समुदाय उत्पन्न कर रहा है जो उनकी सेवा में सदैव ही तत्पर रहे!
अगर आप याद करें की दिल्ली के जघन्य सामूहिक बलात्कार के परिणाम में उम्दा जनाक्रोश कितना जल्दी और चयांत्मक तरीके से ठंडा हो गया सारी बहस एक जगह आकर रुक गयी! मैं महिला विरोधी होने के आरोप के खतरे के बावजूद साफ़ कहूँगा की इस सारे आक्रोश को एक प्रकार से वर्गाधारित चयनात्मक चेतना के रूप में भी देखे जाने की ज़रूरत है! ऐसा आक्रोश भ्रूण हत्या, सम्मान हत्या, डायन हत्या या दलित नव दलित अल्सख्यक लड़कियों के सामूहिक बलात्कार और जघन्य हत्याओं के विरूद्ध नहीं उभरता! हाँ ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों का समर्थन किसी न किसी प्रकार से आ जाता है. भाजपा नेता का बयान भी उसी सामाजिक अनुमोदन और मानसिकता का परिचायक मात्र है!

अभी यक्ष प्रश्न ये हैं की हरयाणा में अगर भाजपा की सरकार आई तो क्या गौशालाओं की तरह महिलाओं और बच्चों के लिए शेल्टर होम की संख्या बढेगी ? क्या वो सम्मान हत्याओं के खिलाफ कानून लाने की हिमायत करेंगे ? क्या वो वधू तस्करी और जबरन शादी के विरूद्ध कार्यपालिका को बेहतर बनाने की दिशा में काम करेंगे ? क्या हरयाणा में भ्रूण हत्या को रोकने और महिला भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए कोई बेहतर उपाय निकालेंगे ? 

लेटस होप की अच्छे दिन आएंगे :)

बलात्कारी मानसिकता से निकलिए


राजधानी में हुए सामूहिक बलात्कार ने सचमुच जनमानस को हिल कर रख दिया और शायद पहली बार सड़क और संसद पर एक ही चर्चा एक ही भाव से चलती रही! आक्रोश की अभिव्यक्ति इतनी ज़बरदस्त थी की अभियुक्त ने न्यायलय में सीधे अपने लिए ही फँसी की सजा मांग ली! हालांकि ये आक्रोश और अभिवक्ति ज़रा सलेक्टिव किस्म की रही है और मामला कुछ कुछ  वर्ग से भी जुड़ता नज़र आता है मगर जो भी हो मुझे महिला आयोग के अध्यक्ष और महिला एवं बाल कल्याण मंत्री के संवेदनशील होने का भी ताजुब भरा अहसास हुआ! सब बलात्कार के लिए कई प्रकार की सजा का अनुमोदन कर रहे हैं! कुछ युवा मिडिया कर्मी तो उनको फाँसी या हमको फांसी जैसे मुहावरे के साथ कार्यकर्म भी कर रहे हैं! तो कुछ फाँसी से कुछ कम मगर उम्र कैद से ज़रा भी कम नहीं पर समझौतावादी होने का आरोप झेलते दिख रहे हैंनपुंसक करने की विधियों पर टीवी कार्यकर्म हो चुके हैं और विद्वान रासायनिक तौर पर सर्जरी पर या सीधे जंग लगे चाकू से बधिया कर देने की चर्चा भी कर रहे हैं! सजा इतना अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चूका है की दुसरे तमाम मामले पीछे धकेल दिए गए हैं इनमे एक आठ वर्षीय दलित बच्ची का मामला हो डिफेन्स कालानी के युवाओं द्वारा दो महीने तक बंधक बना कर एक नाबालिग से बलात्कार का मुद्दा हो या गाज़ियाबाद में सड़क के किनारे बेहोश हालत में मिली एक अनजान लड़की का मामला हो
मगर एक बात सब कह रहे हैं की दिल्ली में दरिन्दे घूम रहे हैं और इसको साबित करने के लिए टीवी की रिपोर्टर रात में रिपोर्टिंग कर रही हैं कहीं ख़ुफ़िया कमरे के साथ तो कहीं खुलेआम! (अगर आप टीवी में काम करने वाले दरिंदों की बात याद करना चाहते हैं तो कर सकते हैं)
विपक्ष की नेता खुलेआम कह रही हैं अगर लड़की बच भी गयी तो न जिंदा रहेगी न मारेगी अख़बार तस्दीक करते हैं और पुराने बलात्कार के मामले की पड़ताल करके बताते हैं की एक बलात्कार ने अमुक लड़की की सारी ज़िन्दगी तबाह कर दी
और मैं सिलसिलेवार उन तमाम मुद्दों याद कर रहा हूँ जो कभी जवलंत थे जिनपर ऐसी ही क्रांतियाँ मच चुकी हैं! आह लोकपाल आन्दोलन से ठीक पहले खाप पंचायतों और सम्मान हत्याओं पर इतनी ही मोमबत्तियां जल चुकी हैंएक बारगी को लगा सम्मान हत्याएं जल्दी अतीत की बात हो जायेंगी और खाप पंचायतें जल्दी ही अवैध घोषित कर दी जायेंगी! मोमबत्ती ब्रिगेड ने सम्मान हत्याओं के लिए मौत की सजा मांगी थी और मांग थी कानून में बदलाव की! ना सम्मान हत्या रुकी ना मौत की सजा का प्रावधान हुआ और ना ही कानून बदला हाँ मोमबत्ती बुझ ज़रूर गयी और फिर जली तो वो लोकपाल को बुलाने के लिए! सम्मान हत्याएं जारी हैं खबर आती है चली जाती हैं किसी को कोई असर नहीं कोई दर्द नहीं
जिस देश में सरकारी आकडे के अनुसार रोज़ दो सौ से अधिक लडकियां वेश्यावृति में धकेल दी जाती हों वहां यौन उत्पीडन पर उभरा जनाक्रोश उत्साहित तो करता है मगर दिशाहीनता और अनिवार्य जागरूकता की कमी तुरंत ही ठंडा पानी डाल जाता है
हमारे बौद्धिक समाज (पढ़े मध्यमवर्गी समाज) की सबसे बड़ी कमजोरी ये है की वो हर चीज़ को अपने सुविधानुसार समझते हैं अगर ऐसा नहीं है तो खेलेआम टेलेविज़न पर बहस करती हुयी एक तथाकथित नारीवादी महिला सम्मान हत्या के विरुद्ध बोलते बोलते खाप पंचायत के नेता से प्रभावित नहीं हो जाती और बाद में खाप पंचायत के प्वाईंट आफ आर्गुमेंट के पक्ष में खड़ी ना हो जाती! हलके ढंग से कहूँ तो कहना चाहूँगा की अगर आप समझते हैं की आपके बच्चे ही होमवर्क नहीं करते तो आपको हमारे देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं खास कर महिला मुद्दों पर काम करने वालों को देख कर संतोष कर लेना चाहिए वो भी कभी होम वर्क नहीं करतेऔर जो बलात्कार के लिए मौत की सजा की बात कर रहे हैं उन्हें याद रहे की धनञ्जय चटर्जी को बलात्कार के लिए ही फाँसी दी गयी थी उससे अपराध कम नहीं हुआ और ना ही होगा!  आप मान भी लें की आपके देश में बलात्कार करने पर बधिया करने या मौत की सजा दे देने का कानून आजायेगा तो इस बात की क्या गारंटी है की जज साहिबान सजा दे ही देंगे या वो बायज नहीं होंगे! अगर आप महिला जज के तहत ऐसे केस की सुनवाई का सोच रहे हैं तो घरेलु हिंसा के मामलों को याद किये जाने की ज़रूरत है!
सबसे पहली बात की हमने ये जानने की कोशिश भी नहीं की आखिर महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के कारण क्या हैंअगर हम इसकी खोज नहीं करते और समाज में एक व्यापक समझ नहीं बना सके तो कानून कितना भी कठोर हो अपराधी कानून लागू करने वालों की सहानुभूति ले जाएगा और केस सही तरीके से तैयार ही नहीं किया जाएगा!
बलात्कार कभी भी सेक्स की इच्छा पूर्ति के लिए किया जाता हो ये संभव नहीं है! बलात्कारी अपनी सेक्स की इच्छा से अधिक इस बात का ख्याल रखता है की वो लक्ष्य (युवती) को  अधिक से अधिक प्रताड़ित कर सके! कई ऐसे भी मामले नज़र आते हैं जिसमे नपुंसकता का इलज़ाम सहने वाले व्यक्ति ने बच्चों या बूढों से यौनाचार करने की कोशिश की और मार डाला! लडको (मर्दों) के साथ गुदा मैथुन के मामले भी नज़र आते हैं! बलात्कार का औजार के रूप में पोषण समाज करता है! जो इससे सम्मान यानी इज्ज़त से जोड़ता है! सम्मान वो शब्द है जो हमें और आपको किसी और परिभाषा में समझाया जाता है मगर असली परिभाषा कुछ और है!
सम्मान की अवधारणा प्रचलित सामाजिक धारणा  (सम्मान के केवल एक व्यक्ति के स्वयं के व्यवहार पर निर्भर करता है) से पूरी तरह अलग है.
सम्मान की अवधारणा महिला के व्यवहार पर निर्भर करती है और कुछ समय के लिए पुरुषों पर भीइस अवधारणा के तहत 'व्यवहारएक व्यक्ति (पढ़ें स्त्री) का मामला नहीं है और यह दूसरों (पढ़ें पुरुष) के व्यवहार पर निर्भर हो जाता है इस लिए इसे नियंत्रित किया जाना चाहिए.
सामाजिकशब्द सम्मान "शक्ति संपन्न समूह" के लिए है जो परिभाषित करनेविस्तार और एक प्रतिस्पर्धी क्षेत्र में अपनी विरासत की रक्षा के लिए संघर्ष की विचारधारा है. सम्मान की इस अवधारणा को पारंपरिक या पितृसत्तात्मक समाजों में पाया जाता है.
सम्मान आदमी के "गर्व करने के लिए दावा" है  जो मूल रूप से अपने परिवारधनऔर उदारता के रूप में या इस तरह के अन्य कारकों में परिलक्षित हो सकता है.
हालांकिसबसे अधिक बारीकी से एक आदमी के "सम्मान" या प्रतिष्ठा उनके परिवार में महिलाओं के यौन आचरणविशेष रूप से उसकी माँबहन(ओं) पत्नी(यों)और बेटी(ओं)से  बंधा हुआ है.  इन महिलाओं द्वारा यौन कोड के संदिग्ध उल्लंघन या उल्लंघन की सम्भावना "आदमी के सम्मान" परिवार के सम्मान "और / या" सम्मान के सांप्रदायिक निधि "एक कबीलेजनजाति या अन्य वंश  पर एक शक्तिशाली हमला के रूप में देखा जाता है.

और  "सम्मान" "शर्म की बात" या "लज्जा" में तब्दील होजाता है  इस दर्शन के अनुसार इस तरह की "लज्जा" से छुटकारा पाने और "सम्मान" बहाल करने के लिए महिला 'अपराधी' को दंडित किया जाना ज़रूरी हो जाता है! 
दुनिया के अधिकांश हिस्से में 'सम्मान'  महिलाओं पर नियंत्रण और उनके के खिलाफ हिंसा के लिए एक तर्क के रूप में इस्तेमाल किया गया है. हम कह सकते हैं कि वर्तमान शब्द 'सम्मान' मानवीय संबंधों का सबसे बड़ा दुश्मन है" 

नियंत्रण की इसी पद्धति के तहत पित्रसत्तात्मक समाज (अपनी) महिलाओं की रक्षा की बात करता है और उनपर हुए यौन हमलो का सामूहिक जवाब देता है! मगर बराबरी या भागीदारी की बात नहीं करता! 

फेसबुक पर वितरित हो रहे कुछ फ़ोटोज़ जिनमे बलात्कारियों की विभस्त सजाएं दिखाई गयी हैं वो उन देशो के हैं जहाँ महिलाओं की आज़ादी लगभग ना के बराबर है!
दूसरी बात कठोर कानून किसी भी व्यवस्था के कमज़ोर होने की निशानी है! नक्सालियों या दुसरे तरह के विद्रोही समूह का कंगारू कोर्ट जिस अपराध के लिए सीधे मौत की सजा देगा उसी अपराध के लिए अधिक से अधिक सात साल या चौदह साल की सजा देगा तो इसका मतलब ये नहीं की विद्रोही कोर्ट ज्यादा सक्षम है इसका मतलब है की कंगारू कोर्ट सक्षम नहीं है और ना ही वो किसी प्रकार से अपने कानून को लागू कर सकता है मगर किसी भी देश की स्थापित सरकार जो कम सजाएं दे रही हैं वो अपने फैसले को सक्षम है और धारणीय (sustainable) है

तीसरी बात की कानून में बदलाव की मांग कर करना और व्यवस्था पर सवाल उठाना दो अलग बातें हैं! व्यवस्था एक समग्र सवाल है और कानून व्यवस्था का एक अंग विशेष मात्र है! व्यवस्था पर सवाल खड़ा करना एक फैशन है मगर उसकी समझ भी होना उतनी ही ज़रूरी हैजैसे इस सामूहिक बलात्कार काण्ड में व्यवस्था का प्रश्न बनता है की एक व्यस्त रूट पर रात आठ बजे से ही सार्वजानिक वाहनों की भरी कमी है जिसके कारण पीड़ित जोड़े को एक लक्सरी बस में चढ़ने को मजबूर होना पड़ा! सवाल ये भी है की आखिर एक स्कुल बस इतनी रात को सड़क पर क्या कर रही थीसवाल ये है की अगर पुलिस चैतन्य होती तो अपराधी पहले ही पकडे जाते (बस में सवार अपराधियों ने आधे घंटे पहले ही क युवक से आठ हज़ार रूपये लुट कर उतार दिया था) . मगर इन तमाम सवालों को नज़र अंदाज़ करके जिस प्रकार कठोर कानून और बधिया किये जाने की बात पर जोर दिया जा रहा वो दरअसल उसी मानसिकता का प्रतिक है जो मानसिकता बलात्कारी की होती है!
अगर आप याद कर सके तो आप पायेंगे की बलात्कार चलन में आया अपेक्षाकृत नया शब्द है इससे पहले इसे इज्ज़त लुट जाना कहते थे!  ये बदलाव  पित्रसत्तात्मक समाज से सामान लैंगिक अवसर वाले समाज की तरफ बढ़ने की निशानी है! बलात्कार हमेशा ही एक सनकी मानसिकता सबक सिखाने और सम्मान को ठेस पहुचने के बदले में किया गया अपराध है! और इसके लिए दी जाने वाली सजा के साथ साथ इसको रोकने के उपायों पर बात करना शुरू होगा! मुद्दों को समग्रता से देखना और समझना होगा उसके समावेशी उपायों पर बात करनी होगी! पित्र्सत्तात्मक समाज से उपजी एक बुराई को समाप्त करने के लिए पित्र्सत्ता से ही उपाय नहीं निकले जा सकते! 

बड़ा कमबख्त देश है| लेकिन क्या कीजिये, तुम्हारा और हमारा देश है, इसी में मरना है और इसी में जीना है,


                           डाक्टर जाकिर हुसैन के भाषण का सम्पादित अंश 


प्यारे विद्यार्थियों ,

मुझे मालूम नहीं कि दुनियां तुम क्या करना चाहते हो? हो सकता है कि तुम्हारा हौसला हो व्यापार और कारोबार या नौकरी करके बहुत सारी दौलत कमायें और चैन से अपनी और अपने ख़ानदान की जिन्दगी बिताने का काम करें, अगर ऐसा है तो परमात्मा तुम्हारा मनोरथ सफल करे, लेकिन चाहे तुम धन - दौलत की फिक्र में लग जाओ, इतन ध्यान रखना कि सफलता के लिए यह जरुरी नहीं है कि अपने कर्तव्यों को त्यागकर और अपनी सारी बड़ी इच्छाओं को पैरों तले रौंदकर ही उस तक पहुंचा जाए, जो अपने स्वार्थ के लिए इतना अँधा हो जाएँ कि अपने राष्ट्र को हानि पहुँचाने से भी न चुके, वह आदमी नहीं जानवर है|
अगर तुम अपना जीवन देश की सेवा में लगाना चाहते हो तो मुझे तुमसे कुछ कहना है, तुम जिस देश में यंहा से निकलकर जा रहे हो, वह बड़ा अभागा देश है, अनपढ़ों का देश है, अन्याय का देश है, कठोरताओं का देश है, क्रूर परम्पराओं का देश है, भाई - भाई में नफरत का देश है, बीमारियों का देश है, सस्ती मौत का देश है, गरीबी और अँधेरे का देश है, भूख और मुसीबत का देश है, यानि कि बड़ा कमबख्त देश है|

लेकिन क्या कीजिये, तुम्हारा और हमारा देश है, इसी में मरना है और इसी में जीना है, इसलिए यह देश तुम्हारी हिम्मत के इम्तहान, तुम्हारी शक्तियों का प्रयोग, तुम्हारे प्रेम की परख की जगह है|
डाक्टर जाकिर हुसैन
हमारे देश को हमारी गर्दनो से उबलते खून की जरुरत नहीं है| इसे हमारे माथे के पसीने की बारहमासी दरिया की दरकार है| जरुरत है काम की, खामोश और सच्चे काम की| हमारा भविष्य किसान की टूटी झोपड़ी, कारीगर की धुएं से काली छत और देहाती स्कूल के फूस के छप्पर तले बन और बिगड़ सकता है| जिन जगहों का नाम मैंने लिया है, उनमें सदियों तक के लिए हमारी किस्मत का फैसला होगा| और इन जगहों का काम धीरज चाहता है और चाहता है संयम, इसमें थकन भी ज्यादा है और कदर भी कम होती है| जल्दी नतीजा भी नहीं निकलता है| हाँ कोई धीरज रख सके तो जरुर फल मीठा मिलता है| 

प्यारे विद्यार्थियों, इस नये हिंदुस्तान को बनाने के काम में तुमसे जहाँ तक बन पड़े, हाथ बटाना मगर याद रहे कि अगर स्वभाव में आतुरता है तो तुम उस काम को अच्छी तरह नहीं कर सकते| इस काम में बड़ी देर लगती है| अगर तबीयत में जल्दबाजी तो तुम काम बिगाड़ दोगे, क्योंकि अगर जोश में बहुत सा काम करने की आदत है और उसके बाद ढीले पड़ जाते हो तो भी यह कठिन काम शायद तुमसे नहीं बन सकेगा, क्योंकि इसमें बहुत समय तक बराबर एक सी मेहनत चाहिए| अगर असफलता से निराश हो जाते हो तो इस काम को मत छूना क्योंकि इसमें असफलताएं जरूरी हैं - बड़ी असफलताएं और पग - पग पर असफलताएं| इस देश कि सेवा में कदम - कदम पर खुद देश के लोग ही तुम्हारा विरोध करेंगे, वे लोग जिन्हें हर परिवर्तन से हानि होती है| वे जो इस वक्त चैन से हैं और डरते हैं कि शायद परिस्थितियाँ बदले, तो वे दूसरों की मेहनत के फलों से अपनी झोलियाँ न भर पाएंगे| लेकिन याद रखो, ये सब थक जाने वाले हैं, इन सबका दम फुल जायेगा| तुम ताजादम हो, जवान हो| तुम्हारे मन में अगर संशय होगा और आत्मविश्वास का अभाव होगा तो इस काम में बड़ी कठिनाइयाँ सामने आयेंगी क्योंकि संशय से वह शक्ति पैदा नहीं होती, जो इस कठिन काम के लिए अपेक्षित है| गंदे हाथ और मैले मन से भी तुम इस काम को नहीं कर सकोगे क्योकि यह बड़ा पवित्र काम है| 
सारांश यह है कि तुम्हारे सामने अपना जौहर दिखाने का अदभुत अवसर है| मगर इस अवसर का उपयोग करने के लिए बहुत बड़े नैतिक बल की आवश्यकता है| जैसे कारीगर होंगे, वैसी ही इमारत होती है, काम चुकि बड़ा है, एक की या थोड़े से आदमियों की थोड़े दिन की मेहनत से पूरा न होगा, दूसरों से मदद लेनी होगी और दूसरों की मदद करनी होगी, तुम्हारे पीढी के सारे हिन्दुस्तानी नवजवान अगर अपना सारा जीवन इसी एक धुन में बिता दे, तब कहीं यह नाव पार लगेगी|
जब जाति - पाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदाय, प्रान्त आदि के झगड़ों के चलते देश टूटता नजर आ रहा है, जिस देश में अनेक जातियां बसती है, जहाँ विभिन्न संस्कृतियाँ प्रचलित है, जहाँ एक का सच दुसरे का झूठ है, उस देश में नवजवानों से इस तरह मिलकर काम करने की आशा कुछ कम ही है| वोट बिकते हैं, राजनीतिज्ञ बिकते हैं, वे देश को भी बेच सकते हैं | 
सेवा की राह में, जिसकी चर्चा मैं कर रहा हूँ , सचमुच ही बड़ी कठिनाइयाँ हैं | इसलिए ऐसे क्षण भी आएंगे की तुम थककर शिथिल हो जाओगे | बेदम से हो जाओगे और तुम्हारे मन में संदेह भी पैदा होने लगेगा कि यह जो कुछ किया, सब बेकार तो नहीं था? उस समय उस भारत माता के चित्र का ध्यान करना जो तुम्हारे ह्रदयपट पर अंकित हो, यानि उस देश के चित्र का ध्यान, जिसमे सत्य का शासन होगा, जिसमे सबके साथ न्याय होगा, जहाँ अमीर - गरीब का भेदभाव नहीं होगा, बल्कि सबको अपनी - अपनी क्षमताओं को पूर्णतया विकसित करने का अवसर मिलेगा, जिसमें लोग एक दुसरे पर भरोसा और एक दूसरे की मदद करेंगे, जिसमें धर्म इस काम में नहीं लाया जायेगा कि झूठी बातें मनवाएं और किन्ही स्वार्थों की आड़ बने, बल्कि वह जीवन को सुधारने और सार्थक बनाने का साधन होगा | उस चित्र पर दृष्टि डालोगे तो तुम्हारी थकन दूर हो जाएगी और नये सिरे से अपने काम में लग जाओगे | फिर भी अगर चारों तरफ कमीनापन और खुदगर्जी, मक्कारी और धोखेबाजी और गुलामी में संतोष देखो तो समझना कि अभी काम समाप्त नहीं हुआ है | मोर्चा जीता नहीं गया है | इसलिए संघर्ष जारी रखना चाहिए, और जब वह वक्त आये, जो सबका आना है और इस मैदान को छोड़ना पड़े तो यह संतोष तुम्हारे लिए पर्याप्त होगा कि तुमने यथाशक्ति उस समाज को स्वतंत्र करने और अच्छा बनाने का प्रयत्न किया, जिसने तुम्हें आदमी बनाया था |

हिमांशु कुमार ने फेसबुक पर शेयर किया है 

बोलो देशभक्ति जिंदाबाद


काफी दिनों से लिखना चाह रहा हूँ लिख नहीं पा रहा वजह साफ़ है अप्रासंगिक लिखना मेरी आदत है! मगर आज शायद कुछ लिख जाए लेख का कोई सर पैर नहीं है क्योकि इतनी सारी बातें दिमाग का दही कर रही हैं अब भला गुस्से में दिमाग बंद ही रहता है अरे मेरा तो गुस्से में दिमाग बंद हो जाता है मगर  दल्ले किसम के लोगों का दिमाग हमेशा बंद रहता है
हाल में लोकपाल अन्ना रामदेव जाने क्या क्या हुआ केंद्र की सरकार की दलाली ने सर आसमान पर उठा लिया मगर ताज्जुब की बात रही देशभक्तों की पार्टी की मध्य प्रदेश की सरकार ने किसानो की ज़मीं गिरवी रख के ऋण दिया और फिर ज़मीनों को सीधे विदेशी कंपनी को सौंप देने की गुपचुप तैय्यारी कर ली मामला तो बाद में खुला मगर भैय्या देखो भगवान् की लीला की मामला भले अदालत में खुला मगर क्या मजाल की मुख्यधारा की  मिडिया जरा भी कुछ छपे वो तो नासपीटे स्थानीय हिंदी अख़बारों ने मामले को अपनी तरफ से  खूब उछलने की कोशिश की मगर नाकारे भूल गए की राष्ट्रवाद की दुहाई देकर राष्ट्र को बेच देना कोई नयी परंपरा नहीं है! छत्तीसगढ़ की सरकार ने तो हदे कर दिया हाई कोर्ट तक दोद्लाते रहे और एक डैम बेच कर ही दम लिया बाद में मामला खुल गया कुछ देशद्रोही हर जगह होते हैं न इसलिए वरना क्या मजाल की राष्ट्रवादी एक बार कुछ बेच दे तो पकड़ा जाए
अब एक राष्ट्रवादी पुलिस अगर किसी महिला आतंकी को गोली मार कर इन्साफ करदे या उनके यौन्नंग में पत्थर डाल कर कहे की ये लो अपना जल जंगल जमीं तो इसमें बुरा क्या है
हमारे देश के युवा हर समय अपनी माँ बहन लेकर खड़े होते हैं की जब जिसका दिल चाहे देश का नाम लेकर रंगे की गोली या पोअत्थर जो चाहे डाल दे !
खाखी वर्दी वाले जो करते हैं वो देशभक्ति के लिए करते हैं अब वो बलात्कार हो बर्बरता हो हत्या हो या जो उनकी मर्ज़ी देश के लिए किया गया हर काम जायज़ है! कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक सेना पुलिस पर तरह तरह के आरोप लगते रहे और देशद्रोही इनपर लगाम लगाने की मांग करते रहे वो तो भला हो कुछ देशभक्तों का जो सामने आकर खड़े होगये ताकि देश की हिफाज़त हो सके और जहाँ तहां थप्पड़ चलने लगे तब जाके गद्दारों को समझ आया और ज़रा सहमे हैं
और पुलिस बलों में मनोबल आया नहीं तो कौन माई का लाल सोनी सोरी जैसी आतंकवादी औरत को जो इतनी शातिर है की फरार रहते हुए भी अपनी सरकारी अध्यापिका की नौकरी नहीं छोड़ी इतना बेहत तरीके से यातना दे सकता था

बिना अकल लगाये जो लिखना है लिखो ना हम तुम्हारा कुछ उखाड़ सकते हैं ना तुम मेरा

पप्पू पास होगा क्या ?

इसमें दोराय नहीं कि बदलाव तो जरूरी हैं, लेकिन शैक्षिक सुधार की बेतरतीब कोशिशों से अगर मर्ज कम होने की बजाय बढ़ने का अंदेशा हो तो.? महाशक्ति बनने का स्वप्न संजोए हम क्या शिक्षा के उस स्तर तक पहुंच पाएंगे ?..
देश में इन दिनों शिक्षा के नए-नए पाठ पढ़ाए जा रहे हैं। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल कभी बयान देते हैं कि हाईस्कूल और हायर सेकंडरी से अंक प्रणाली हटाकर ग्रेडिंग सिस्टम लागू किया जाएगा। लेकिन इसके लागू होने से पहले ही अपनी बात काटकर वे कह देते हैं कि आईआईटी की प्रवेश परीक्षा के लिए अब बारहवीं कक्षा में 80 या 85 प्रतिशत तक अंक लाना अनिवार्य होगा।

अब देखिए, एक तरफ़ तो वे बात करते हैं ग्रेडिंग प्रणाली यानी समग्र विकास की और दूसरी तरफ़ 80 प्रतिशत यानी नंबरों की उसी मारामारी की! सौ दिन पूरे भी नहीं हुए कि ग्रेड प्रणाली गई और अगले सौ दिन आने में अभी काफ़ी व़क्त है, मगर ग्रेड से उन्होंने फिर 80 प्रतिशत पर हाई जंप लगा दी। जब इस विसंगति पर हल्ला हुआ, तो यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि उन्होंने तो ऐसा कहा ही नहीं था।

बहरहाल, देश में उत्कृष्ट स्कूल, उत्कृष्ट कॉलेज और उत्कृष्टता के नाम पर सेंट्रल यूनिवर्सिटीज और संस्थानों का एक बड़ा जाल पसरा हुआ है। कपिल सिब्बल के पूर्ववर्ती, अजरुन सिंह जाते-जाते कुछ आईआईटी, आईआईएम और सेंट्रल यूनिवर्सिटीज की लॉटरी कुछ राज्यों के नाम खोल गए।

उनकी अध्यापक परिषद तो देशव्यापी भ्रष्टाचार का शिक्षा-बाÊार बन गई है। अब सिब्बल कहते हैं कि विश्वविद्यालयीन शिक्षा को वास्तविक अर्थो में विश्वस्तर की बनाएंगे। ख़्याल बहुत अच्छा है। यह बात तो 1948 में यूनिवर्सिटी कमीशन के अध्यक्ष के तौर पर डॉ. राधाकृष्णन ने ही कह दी थी। लेकिन 1948 से 2009 के बीच यूनिवर्सिटीÊ का हश्र क्या हुआ? एक Êामाना था, जब इलाहाबाद और बनारस विश्वविद्यालय कैंब्रिÊ और ऑक्सफोर्ड के भारतीय संस्करण माने जाते थे।

आज देश के दौ सौ से अधिक नियमित और दौ सौ के क़रीब डीम्ड एवं प्राइवेट यूनिवर्सिटीज और अखिल भारतीय संस्थान मिलकर इस हालत में हैं कि दुनिया की शीर्ष 200 यूनिवर्सिटीजकी सूची में हमारी एक भी यूनिवर्सिटी नहीं है और केवल दो आईआईटी को बस आख़िरी के स्थान ही मिले हैं।

खेद का विषय है कि हमारी यूनिवर्सिटीज अपराधों के अड्डे बनती जा रही हैं। तमाम प्रतियोगी और शैक्षिक परीक्षाओं के पेपर आउट कराने वाला एक माफिया बाजार पैदा हो गया है। आजादी के पहले चार प्रेसिडंेसियों की यूनिवर्सिटीज से और बाद में जो यूनि. बनीं, उनसे कैसे-कैसे लोग बने, जिन्होंने देश की बौद्धिक ताक़त से विदेशी ताक़त को परास्त कर दिया।

आज हम अपनी ताक़त का विश्वास ही खो बैठे हैं और उच्च शिक्षा के लाल कालीन बिछे रैंप पर बुला रहे हैं ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और अमेरिका की यूनिवर्सिटीजको, ताकि शिक्षा के इस फैशन शो में हमारे छात्र और उनके मालदार अभिभावक शिक्षा की विश्व सुंदरी के दर्शन कर सकें। मानव संसाधन विकास मंत्री ने एक घोषणा यह भी की थी कि हाईस्कूल की बोर्ड परीक्षा ऐच्छिक या वैकल्पिक हो जाएगी।

एक नजरिए से यह बात उचित है, क्योंकि हाईस्कूल पास करने वाले विद्यार्थी की उम्र 15-16 साल ही होती है, इसलिए वह किसी भी प्रकार की सरकारी-ग़ैर सरकारी नौकरी का पात्र नहीं होता। ऐसे में दसवीं बारहवीं की दो-दो बोर्ड परीक्षाएं क्यों हों? लेकिन अगर कई नौकरियों में न्यूनतम योग्यता का मानदंड हाईस्कूल है, तो फिर बोर्ड परीक्षा हटाकर आप किशोर से युवा होते विद्यार्थी को कहीं का नहीं रखेंगे। स्थानीय प्रमाणपत्र क्वालिफाई करने की दृष्टि से काम का नहीं और बोर्ड परीक्षा होगी नहीं।

तो, न्यूनतम योग्यता से भी वंचित कर हम शिक्षा का यह बेरोÊागारी शास्त्र क्यों रचना चाहते हैं? आजदी से पहले हमारे पास नोबेल पुरस्कार पाने वाली दो महान विभूतियां थीं। रवींद्रनाथ टैगोर, जो स्वयं चलती-फिरती यूनिवर्सिटी थे और दूसरे, सीवी रमण। इन दोनों के बाद जितने भीभारतीयनोबेल विजेता बने, उन सब ने तो भारतीय नागरिक के रूप में यह सम्मान पाया भारतीय यूनिवर्सिटीज से।

हरगोविंद खुराना, डॉ. चंद्रशेखर, डॉ. वेंकटेश्वरन, आदि सबके सब विदेशी यूनिवर्सिटीज और संस्थानों में रहकर शोध करते रहे, वहां के नागरिक भी हो गए। दूसरी तरफ़, तकनीकी और प्रौद्योगिकी शिक्षा के हो-हल्ले के आगे मानविकी के सारे विभाग फीके पड़ गए हैं। इसका एक परिणाम यह है कि उत्कृष्ट संस्थानों के छात्र भी भाषा में सबसे कमजोर होते हैं। अब तो कुलपति तक ग़लत हिंदी-अंग्रेजी बोलते हैं और अपने राजनीतिक आकाओं के दम पर कुर्सी पा जाते हैं। शोध, नवाचार, प्रयोग का आलम तो यह है कि कुलपति तक की पीएचडी पर चोरी का इल्जाम लग जाता है।

हमारा शिक्षा तंत्र विसंगतियों और विडंबनाओं का शिकार आज से नहीं, बल्कि Êादी के बाद से ही है। हमारी सबसे पहली Êारूरत थी भारतीय संविधान के मुताबिक़ अनिवार्य और नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा, मगर हमने 1948 में यूनिवर्सिटी कमीशन बनाकर रिपोर्ट ली। छह साल बाद स्कूल की तरफ़ ध्यान गया, तो स्कूल स्तर का कमीशन बनाया गया, जिसे सेकंडरी या मुदलियार कमीशन कहा गया।

वर्ष 1964 में तीसरा कमीशन बना, जो समग्र शिक्षा पर था, मगर आज तक प्राथमिक शिक्षा आयोग नहीं बना। प्राथमिक शिक्षा को भिखारी बना कर अब कहा जा रहा है कि आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों को उत्कृष्ट स्कूलों या प्राइवेट अंग्रेÊाी माध्यम स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा और उनकी ऊंची फ़ीस सरकार अदा करेगी। ग़रीब के हक़ में शिक्षा का यह फ़ीस-दर्शन सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन ग्रामीणों के लिए खोले गए नवोदय विद्यालयों के दावों और वादों का क्या हुआ? शहरी असरदारों ने येन-केन प्रकारेण नवोदय विद्यालयों की सीटों पर कब्Ê कर लिया।

क्या हम यह गारंटी दे सकते हैं कि 25 प्रतिशत आरक्षण के नाम पर अब ऐसा नहीं होगा और वास्तविक ग़रीबों को ही इसका लाभ मिलेगा? यहां सवाल यह भी है कि सरकार की खींची हुई ग़रीबी रेखा ही जब निर्विवाद नहीं है, तो फिर आरक्षण कैसे विश्वसनीय होगा और उसके लिए हमने ऐसी कौन-सी प्रणाली तैयार की है कि आरक्षण का लाभ पात्र लोगों को ही मिले?

शिक्षा बाजार का खेल बन गई है। सरकारी स्कूल, मास्टर और शिक्षा प्रशासन, सबमें कामचोरी और रिश्वतखोरी घर कर गई है और कर्मठ व्यक्ति अन्याय का शिकार हैं। ऐसे में, क्या 25 प्रतिशत आरक्षण के शिगूफ़े से एक नए प्रकार के भ्रष्टाचार का कोई नया दरवाÊ नहीं खुल जाएगा? हम समय पर किताबें नहीं दे सकते, कई बार समय पर परीक्षा ही नहीं करवा पाते और सरकारी हो या ग़ैर सरकारी, अध्यापक का न्यूनतम वेतन निर्धारित कर कानून नहीं बना सकते, शिक्षक को कहीं भी, किसी भी काम में लगा सकते हैं, तो इन चुनौतियों को हम नीतियों के ऐसे कौन-से वस्त्र पहनाएंगे कि शिक्षा अनावृत Êार आए? जिस शिक्षा व्यवस्था से शांति पैदा हुई, अहिंसा, सौहाद्र्र, रोÊागार और आत्मविश्वास, ऐसे में इन चुनौतियों से मुक़ाबले का कौन-सा एजेंडा है हमारे पास?

देश में शिक्षक और बच्चों का अनुपात 1:42 है। और उसमें भी महाराष्ट्र में 15 प्रतिशत से लेकर झारखंड में 42 प्रतिशत तक शिक्षकों की अनुपस्थिति पाई गई है। केरल में प्राथमिक विद्यालयों में औसतन छह शिक्षक हैं, जबकि बिहार, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में यह औसत दो से भी कम है।

टाइम्स-क्यूएसद्वारा जारी दुनिया की टॉप 200 यूनिवर्सिटीÊ की सूची में भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी नहीं है। इस सूची में आईआईटी मुंबई और दिल्ली को जगह मिली है, जिन्हें सामान्य अर्थो में यूनिवर्सिटी में नहीं गिना जाता। वे भी क्रमश: 163वें और 181वें स्थान पर हैं। सूची में अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी पहले स्थान पर है, जबकि उसके पीछे ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी और अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी है।
इसरो के प्रमुख जी.माधवन नायर का कहना है कि उच्च शिक्षा की हालत बहुत ठीक नहीं है और यह सिस्टम केवल वाहियात स्नातकों को पैदा कर रहा है।
भारत में कॉलेज जाने की उम्र के महज 10 फ़ीसदी लोग ही उच्च अध्ययन कर पाते हैं, जबकि विकसित देशों में यह तादाद 35 से 50 फ़ीसदी तक होती है। विगत 50 वर्षों में कॉलेज जाने वाले विद्यार्थी 60 गुना बढ़े हैं, लेकिन यूनिवर्सिटी कॉलेजों की संख्या क्रमश: केवल 11.6 गुना और 12.5 गुना ही बढ़ी है। देश में उच्च शिक्षा पर जीडीपी का 0.39 प्रतिशत से भी कम ख़र्च हो रहा है। यह ब्राजील, रूस और चीन जैसे देशों से भी काफ़ी कम है। चीन तो हमसे तीन गुना ख़र्च कर रहा है। शायद इसीलिए शीर्ष विश्वविद्यालयों की सूची में जापान के 11 शिक्षण संस्थान हैं, जबकि हांगकांग की पांच यूनिवर्सिटीÊ को मिलाकर चीन के भी इतने ही संस्थान शामिल हैं।

दुनिया का हर तीसरा निरक्षर भारत में रहता है। देश के क़रीब 16 फ़ीसदी गांवों में तो प्राथमिक शिक्षा भी उपलब्ध नहीं है। देश में शिक्षा ख़र्च का 95 फ़ीसदी से भी Êयादा हिस्सा वेतन पर चला जाता है, जबकि कई मामलों में बाक़ी चीÊाों पर एक फ़ीसदी ही ख़र्च होता है।