कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

पप्पू पास होगा क्या ?

इसमें दोराय नहीं कि बदलाव तो जरूरी हैं, लेकिन शैक्षिक सुधार की बेतरतीब कोशिशों से अगर मर्ज कम होने की बजाय बढ़ने का अंदेशा हो तो.? महाशक्ति बनने का स्वप्न संजोए हम क्या शिक्षा के उस स्तर तक पहुंच पाएंगे ?..
देश में इन दिनों शिक्षा के नए-नए पाठ पढ़ाए जा रहे हैं। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल कभी बयान देते हैं कि हाईस्कूल और हायर सेकंडरी से अंक प्रणाली हटाकर ग्रेडिंग सिस्टम लागू किया जाएगा। लेकिन इसके लागू होने से पहले ही अपनी बात काटकर वे कह देते हैं कि आईआईटी की प्रवेश परीक्षा के लिए अब बारहवीं कक्षा में 80 या 85 प्रतिशत तक अंक लाना अनिवार्य होगा।

अब देखिए, एक तरफ़ तो वे बात करते हैं ग्रेडिंग प्रणाली यानी समग्र विकास की और दूसरी तरफ़ 80 प्रतिशत यानी नंबरों की उसी मारामारी की! सौ दिन पूरे भी नहीं हुए कि ग्रेड प्रणाली गई और अगले सौ दिन आने में अभी काफ़ी व़क्त है, मगर ग्रेड से उन्होंने फिर 80 प्रतिशत पर हाई जंप लगा दी। जब इस विसंगति पर हल्ला हुआ, तो यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि उन्होंने तो ऐसा कहा ही नहीं था।

बहरहाल, देश में उत्कृष्ट स्कूल, उत्कृष्ट कॉलेज और उत्कृष्टता के नाम पर सेंट्रल यूनिवर्सिटीज और संस्थानों का एक बड़ा जाल पसरा हुआ है। कपिल सिब्बल के पूर्ववर्ती, अजरुन सिंह जाते-जाते कुछ आईआईटी, आईआईएम और सेंट्रल यूनिवर्सिटीज की लॉटरी कुछ राज्यों के नाम खोल गए।

उनकी अध्यापक परिषद तो देशव्यापी भ्रष्टाचार का शिक्षा-बाÊार बन गई है। अब सिब्बल कहते हैं कि विश्वविद्यालयीन शिक्षा को वास्तविक अर्थो में विश्वस्तर की बनाएंगे। ख़्याल बहुत अच्छा है। यह बात तो 1948 में यूनिवर्सिटी कमीशन के अध्यक्ष के तौर पर डॉ. राधाकृष्णन ने ही कह दी थी। लेकिन 1948 से 2009 के बीच यूनिवर्सिटीÊ का हश्र क्या हुआ? एक Êामाना था, जब इलाहाबाद और बनारस विश्वविद्यालय कैंब्रिÊ और ऑक्सफोर्ड के भारतीय संस्करण माने जाते थे।

आज देश के दौ सौ से अधिक नियमित और दौ सौ के क़रीब डीम्ड एवं प्राइवेट यूनिवर्सिटीज और अखिल भारतीय संस्थान मिलकर इस हालत में हैं कि दुनिया की शीर्ष 200 यूनिवर्सिटीजकी सूची में हमारी एक भी यूनिवर्सिटी नहीं है और केवल दो आईआईटी को बस आख़िरी के स्थान ही मिले हैं।

खेद का विषय है कि हमारी यूनिवर्सिटीज अपराधों के अड्डे बनती जा रही हैं। तमाम प्रतियोगी और शैक्षिक परीक्षाओं के पेपर आउट कराने वाला एक माफिया बाजार पैदा हो गया है। आजादी के पहले चार प्रेसिडंेसियों की यूनिवर्सिटीज से और बाद में जो यूनि. बनीं, उनसे कैसे-कैसे लोग बने, जिन्होंने देश की बौद्धिक ताक़त से विदेशी ताक़त को परास्त कर दिया।

आज हम अपनी ताक़त का विश्वास ही खो बैठे हैं और उच्च शिक्षा के लाल कालीन बिछे रैंप पर बुला रहे हैं ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और अमेरिका की यूनिवर्सिटीजको, ताकि शिक्षा के इस फैशन शो में हमारे छात्र और उनके मालदार अभिभावक शिक्षा की विश्व सुंदरी के दर्शन कर सकें। मानव संसाधन विकास मंत्री ने एक घोषणा यह भी की थी कि हाईस्कूल की बोर्ड परीक्षा ऐच्छिक या वैकल्पिक हो जाएगी।

एक नजरिए से यह बात उचित है, क्योंकि हाईस्कूल पास करने वाले विद्यार्थी की उम्र 15-16 साल ही होती है, इसलिए वह किसी भी प्रकार की सरकारी-ग़ैर सरकारी नौकरी का पात्र नहीं होता। ऐसे में दसवीं बारहवीं की दो-दो बोर्ड परीक्षाएं क्यों हों? लेकिन अगर कई नौकरियों में न्यूनतम योग्यता का मानदंड हाईस्कूल है, तो फिर बोर्ड परीक्षा हटाकर आप किशोर से युवा होते विद्यार्थी को कहीं का नहीं रखेंगे। स्थानीय प्रमाणपत्र क्वालिफाई करने की दृष्टि से काम का नहीं और बोर्ड परीक्षा होगी नहीं।

तो, न्यूनतम योग्यता से भी वंचित कर हम शिक्षा का यह बेरोÊागारी शास्त्र क्यों रचना चाहते हैं? आजदी से पहले हमारे पास नोबेल पुरस्कार पाने वाली दो महान विभूतियां थीं। रवींद्रनाथ टैगोर, जो स्वयं चलती-फिरती यूनिवर्सिटी थे और दूसरे, सीवी रमण। इन दोनों के बाद जितने भीभारतीयनोबेल विजेता बने, उन सब ने तो भारतीय नागरिक के रूप में यह सम्मान पाया भारतीय यूनिवर्सिटीज से।

हरगोविंद खुराना, डॉ. चंद्रशेखर, डॉ. वेंकटेश्वरन, आदि सबके सब विदेशी यूनिवर्सिटीज और संस्थानों में रहकर शोध करते रहे, वहां के नागरिक भी हो गए। दूसरी तरफ़, तकनीकी और प्रौद्योगिकी शिक्षा के हो-हल्ले के आगे मानविकी के सारे विभाग फीके पड़ गए हैं। इसका एक परिणाम यह है कि उत्कृष्ट संस्थानों के छात्र भी भाषा में सबसे कमजोर होते हैं। अब तो कुलपति तक ग़लत हिंदी-अंग्रेजी बोलते हैं और अपने राजनीतिक आकाओं के दम पर कुर्सी पा जाते हैं। शोध, नवाचार, प्रयोग का आलम तो यह है कि कुलपति तक की पीएचडी पर चोरी का इल्जाम लग जाता है।

हमारा शिक्षा तंत्र विसंगतियों और विडंबनाओं का शिकार आज से नहीं, बल्कि Êादी के बाद से ही है। हमारी सबसे पहली Êारूरत थी भारतीय संविधान के मुताबिक़ अनिवार्य और नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा, मगर हमने 1948 में यूनिवर्सिटी कमीशन बनाकर रिपोर्ट ली। छह साल बाद स्कूल की तरफ़ ध्यान गया, तो स्कूल स्तर का कमीशन बनाया गया, जिसे सेकंडरी या मुदलियार कमीशन कहा गया।

वर्ष 1964 में तीसरा कमीशन बना, जो समग्र शिक्षा पर था, मगर आज तक प्राथमिक शिक्षा आयोग नहीं बना। प्राथमिक शिक्षा को भिखारी बना कर अब कहा जा रहा है कि आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों को उत्कृष्ट स्कूलों या प्राइवेट अंग्रेÊाी माध्यम स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा और उनकी ऊंची फ़ीस सरकार अदा करेगी। ग़रीब के हक़ में शिक्षा का यह फ़ीस-दर्शन सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन ग्रामीणों के लिए खोले गए नवोदय विद्यालयों के दावों और वादों का क्या हुआ? शहरी असरदारों ने येन-केन प्रकारेण नवोदय विद्यालयों की सीटों पर कब्Ê कर लिया।

क्या हम यह गारंटी दे सकते हैं कि 25 प्रतिशत आरक्षण के नाम पर अब ऐसा नहीं होगा और वास्तविक ग़रीबों को ही इसका लाभ मिलेगा? यहां सवाल यह भी है कि सरकार की खींची हुई ग़रीबी रेखा ही जब निर्विवाद नहीं है, तो फिर आरक्षण कैसे विश्वसनीय होगा और उसके लिए हमने ऐसी कौन-सी प्रणाली तैयार की है कि आरक्षण का लाभ पात्र लोगों को ही मिले?

शिक्षा बाजार का खेल बन गई है। सरकारी स्कूल, मास्टर और शिक्षा प्रशासन, सबमें कामचोरी और रिश्वतखोरी घर कर गई है और कर्मठ व्यक्ति अन्याय का शिकार हैं। ऐसे में, क्या 25 प्रतिशत आरक्षण के शिगूफ़े से एक नए प्रकार के भ्रष्टाचार का कोई नया दरवाÊ नहीं खुल जाएगा? हम समय पर किताबें नहीं दे सकते, कई बार समय पर परीक्षा ही नहीं करवा पाते और सरकारी हो या ग़ैर सरकारी, अध्यापक का न्यूनतम वेतन निर्धारित कर कानून नहीं बना सकते, शिक्षक को कहीं भी, किसी भी काम में लगा सकते हैं, तो इन चुनौतियों को हम नीतियों के ऐसे कौन-से वस्त्र पहनाएंगे कि शिक्षा अनावृत Êार आए? जिस शिक्षा व्यवस्था से शांति पैदा हुई, अहिंसा, सौहाद्र्र, रोÊागार और आत्मविश्वास, ऐसे में इन चुनौतियों से मुक़ाबले का कौन-सा एजेंडा है हमारे पास?

देश में शिक्षक और बच्चों का अनुपात 1:42 है। और उसमें भी महाराष्ट्र में 15 प्रतिशत से लेकर झारखंड में 42 प्रतिशत तक शिक्षकों की अनुपस्थिति पाई गई है। केरल में प्राथमिक विद्यालयों में औसतन छह शिक्षक हैं, जबकि बिहार, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में यह औसत दो से भी कम है।

टाइम्स-क्यूएसद्वारा जारी दुनिया की टॉप 200 यूनिवर्सिटीÊ की सूची में भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी नहीं है। इस सूची में आईआईटी मुंबई और दिल्ली को जगह मिली है, जिन्हें सामान्य अर्थो में यूनिवर्सिटी में नहीं गिना जाता। वे भी क्रमश: 163वें और 181वें स्थान पर हैं। सूची में अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी पहले स्थान पर है, जबकि उसके पीछे ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी और अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी है।
इसरो के प्रमुख जी.माधवन नायर का कहना है कि उच्च शिक्षा की हालत बहुत ठीक नहीं है और यह सिस्टम केवल वाहियात स्नातकों को पैदा कर रहा है।
भारत में कॉलेज जाने की उम्र के महज 10 फ़ीसदी लोग ही उच्च अध्ययन कर पाते हैं, जबकि विकसित देशों में यह तादाद 35 से 50 फ़ीसदी तक होती है। विगत 50 वर्षों में कॉलेज जाने वाले विद्यार्थी 60 गुना बढ़े हैं, लेकिन यूनिवर्सिटी कॉलेजों की संख्या क्रमश: केवल 11.6 गुना और 12.5 गुना ही बढ़ी है। देश में उच्च शिक्षा पर जीडीपी का 0.39 प्रतिशत से भी कम ख़र्च हो रहा है। यह ब्राजील, रूस और चीन जैसे देशों से भी काफ़ी कम है। चीन तो हमसे तीन गुना ख़र्च कर रहा है। शायद इसीलिए शीर्ष विश्वविद्यालयों की सूची में जापान के 11 शिक्षण संस्थान हैं, जबकि हांगकांग की पांच यूनिवर्सिटीÊ को मिलाकर चीन के भी इतने ही संस्थान शामिल हैं।

दुनिया का हर तीसरा निरक्षर भारत में रहता है। देश के क़रीब 16 फ़ीसदी गांवों में तो प्राथमिक शिक्षा भी उपलब्ध नहीं है। देश में शिक्षा ख़र्च का 95 फ़ीसदी से भी Êयादा हिस्सा वेतन पर चला जाता है, जबकि कई मामलों में बाक़ी चीÊाों पर एक फ़ीसदी ही ख़र्च होता है।

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