और संजोग ऐसा हुआ की पहला में एलिट मुस्लिम ग्रुप के साथ तो दूसरा पहर में पसमांदा मुस्लिम ग्रुप के साथ गुज़रा
दो ही तिन घंटे में कुछ हद तक तस्वीर साफ़ होगई की दर-असल समस्या क्या है और ये खास लोग खास क्यों हुआ करते हैं
ताज्जुब हुआ की तमाम मसलों में वो बातें घायब थी जिनपर सही मायने में चर्चा की जानी चाहिए थी! पहले पुरे पहर में एक इंजिनियर समाज की बात करते रहे और किस तरह मुस्लिम समाज की सही तस्वीर देश और दुनिया के सामने पेश की जाए ये बताते रहे! उनके साथ डायस पर बैठे दुसरे पत्रकार थे (मगर ये मुस्लिम नहीं है) जो ये बताते रहे की इन्टरनेट का इस्तेमाल मुस्लिम इमेज के लिए कितना ज़रूरी है
मुस्लिम मुद्दों की बैठकें हमेशा से ही ऐसी बचकानी होती हैं! आप मुसलमान है तो दंगे की बात कीजिये आर एस एस की बात कीजिये कांग्रेस का रोना रोईये! मतलब काम नहीं बकवास करते रहिये अब मुझे समझ नहीं आता की इन्टरनेट वार करने से कौनसा किसी का भला होना या समाज की समस्या ख़तम हो जानी! और अगर मीडिया सच नहीं दीखता तो कौन सा आपही सच दिखा देंगे जो अस्तित्व में है उसको सुधरने के बजाये अक्सर है लोग दुसरे विकल्पों को खड़ा करने में क्यों लग जाते हैं! और आम आदमी इन्टरनेट से जुड़ भी कितना पाया है मुझे नहीं pata
एक साहब इसी मित्तिंग में कह रहे थे की हम हजारो साल ग़ुलाम रहे हैं इस लिए हमारी मानसिकता ऐसी है (अब इनको कौन कहे की ये प्रचार आर एस एस का है और वो इसे मुसलमानों के खिलाफ ही इस्तेमाल करते हैं)! और यकीनन हम ऐसा क्यों माने की हम गुलाम रहे हैं! जो लोग मानते हैं उन्हें मानने दें
किसी भी सत्ता के अन्दर रहना अगर गुलामी है तो यकीनन आप आज भी ग़ुलाम है और हमेशा रहेंगे क्योकि लोकतंत्र में भी सरकारें बहुमत से नहीं बनती
इसी सरकार को देखे तो पचास प्रतिशत से कम की टोटल पोलिंग में से बहुमत प्राप्त किया है! इसलिए अगर कुल ९० प्रतिशत वोट भी प्राप्त कटी तो ज़ाहिर है की कुल देश का बहुमत इसके खिलाफ है
खैर गिलास आधा खली है या भरा इस पर बहस कभी ख़तम नहीं होगी
इसी मीटिंग में एक लड़की ने मुस्लिम औरतों का मुद्दा भी उठाया जिसपर बात की गुंजाईश ही नहीं थी क्योकि यहाँ बात धरातल की नहीं अंतरजाल की हो रही थी!
यहाँ अंग्रेजी के शान में कसीदे भी पढ़े गए! क्या लगता है ये वैश्विक भाषा से जोड़ने की कोशिश है१ पहली नज़र में भले ऐसा लगे मगर सही मायने में ऐसा है नहीं जहाँ तक मैं सोचता हूँ और खासकर वहां से लौटते हुए जब मैं ऑटो वाले से बात कर रहा था उसके बाद!
उसके विचार से मुस्लिम औरतों में शिक्षा की कमी है बेचारी पढ़ लिख नहीं पाती! सोच कर हंसी सी आई की आज से पंद्रह साल पहले खातून मशरिक और तमाम तरह की उर्दू मासिक पत्रिकाओं का सर्कुलेशन २५ लाख से ऊपर था! मेरे पुश्तैनी गाँव (बिहार के गया के गुरुआ का जेईबीघा) में मेरी बाएँ पढ़ा करती थी! और जब हम वहां जाते तो हमें ये किताबें पड़ने नहीं क्योकि इश्क और सेक्सुअलिटी की की अभिवयक्ति की वजह से इसे बच्चों के लायक नहीं माना जाता था)
उर्दू का एक रूप गुरुमुखी(पंजाबी भाषा जिसमे लिखते हैं) अब भी पूरी तरह से प्रचलित है! शाहमुखी (अरबी स्क्रिप्ट वाली उर्दू) मार दी गयी ज़ाहिर है दायरा संकुचित होगया!
कुद्र्तुलैन ह्य्दर की उर्दू कहानियाँ आज पड़ना अपने आप में क्रांति होगी मगर ये कहानियाँ ज्यादा से ज्यादा दो दशक भर पहलेतक आम मुस्लिम लड़कियों में आम तौर पर पढ़ी जाती थी!
हमने उर्दू को खो दिया हमने औरतों को (मर्द भी कितने पढ़े लिखे माने जाते हैं, माने जाते तो मोदी कब कहता की ये लुंगी वाले लोग पंचर लगाने वाले लोग) को जाहिल की श्रेणी में खड़ा कर दिया! मैं उर्दू हिंदी किसी का पक्षधर नहीं हूँ मैं तो सिर्फ एक स्थिति रख रहा हूँ
इलीटिस्ट अपने समाज को सही रूप में दिखाना चाहते हैं इस लिए भाषाएँ बदल रहें हैं!
मेरे एक दोस्त के दादा अच्छी फ़ारसी जानते थे उर्दू भी इंग्लिश भी और हिंदी भी संस्कृत में कवितायें भी की हैं उन्होंने मेरा दोस्त संस्कृत पढ़ लेता है इंग्लिश बोलता है हिंदी जानता है मगर उसका उर्दू फारसी से दूर दूर का रिश्ता नहीं! क्यों ??????
वो नहीं जानना चाहता हमारे बारे में अगर जानना होता तो वो अपने दादा की परंपरा निभाता और मामलों में तो निभाता है इसमें क्यों नहीं
सीधा है वो नहीं जानना चाहता तो मैं क्यों ज़बरदस्ती उसे बताऊँ
मैं ने हिन्दू धरम को अच्छी तरह अध्ययन किया तमाम सेक्टों को! विवादों को जानता हूँ आर्यसमाज को जाना समझा बुध्य धरम को पढ़ा जैन धरम को......मुझे जानना था मैंने किताबें खरीदी और पढ़ा
संकृत की क्लास किया ताकि सिख सकूँ.........जितना सिख सका सिखा
मुझे किसी ने हाथ पकड़ कर नहीं बोला ऐसा करो तो मुसलमान ऐसा क्यों करना चाहते हैं.
दरअसल इनका असली उद्देश्य समाज को लगातार अवसाद में रखना है इन्हें लगातार सिखने में लगाना है!
मुसलिम समाज समझता है की साइंस ही तरक्की का सही रास्ता है सही समझता है मगर इसने आजतक तेक्नालोग्य और साइंस में फरक नहीं जाना! इंजीनियर्स की बड़ी फ़ौज तो बना ली मगर एक भी बेहतरीन समाज विज्ञानी पैदा नहीं कर सका! जो हुए सो चल दिए उनकी जगह खली ही रही साहित्यकार पैदा ना कर सका जो शायर बने वो निहायत ही नकारे और चापलूस........फीकी कलम वाले नौटंकीबाज़..........मुस्लिम लीडरशिप तो खैर है ही नहीं और ना हो ये अच्छा भी है क्योकि
आर एस एस जैसे संगठनो को बढावा देने वाले असली लोग यही इलीटिस्ट और कौम की रहनुमाई करने वाले लोग (मजाक उदा रहा हूँ) हैं
दुसरे पहर के कार्यक्रम में पसमांदा मुस्लिम ग्रुप में चर्चा आरक्षण की शुरू हुयी और सच्चर और रंगनाथ मिश्र कमीशन पर बहस चलती रही बचकाना और अहमकाना
ताज्जुब लगा की कुछ लोग इस के बड़े खिलाफ है और उनका मानना है की इस्लाम ऐसी इजाज़त नहीं देता इस्लाम में जाती व्यवस्था नहीं है
हम्म अगर नहीं है तो अली अनवर को "जोलाहवा" पुकारते तो सुना है मगर किसी को सय्यादवा (सय्यद), शेखंडी (शेख) पठान्वा कहते नहीं क्यों आखिर (अच्चा हाँ ये लास्ट वाले शब्द मेरे आविष्कार हैं इसलिए कोई भी जब इस्तेमाल करे तो महामहिम का नाम लिखे वरना केस ठोंक दूंगा)
खैर इन चीजों पर गुस्सा निकलने से कुछ नहीं होना
आखिर समस्या क्या है मुस्लिम समाज की ???????
मुझे लगता है एकलौती समस्या है की इस समाज के भीतर अब ना तो करम के साहित्यकार बचे हैं और ना सामाजिक कार्यकर्त्ता (एक नाम होसके तो बताये जो मुस्लिम तो हो मगर मुस्लिम मुद्दों अंगे दंगे या मुस्लिम एजुकेशन के फलाह के अलावा किसी सामाजिक मसले पर काम करता हो) नहीं ऐसा कोई नाम मेरी नज़र से नहीं गुज़रा
असली समस्या यही है! एलिटिस्ट समाज पर पूरी तरह से हावी हैं जो ना तो असली मुद्दे को जानते हैं और ना ही जानना चाहते हैं
देश होने वाली कुल मानव तस्करी में ७० फिसद से ज्यादा भुक्तभोगी और इस व्यापार से जुड़े ५० फिसद लोग मुसलमान हैं! देश में बच्चों की तस्करी का शिकार सबसे बड़ा हिस्सा मुस्लिम बच्चों का है! मगर आज तक इन सवालों को उठाने की हिम्मत किसी में नहीं हुयी! कंधमाल दंगों के बाद से एक इसाई बच्ची डेल्ही में जब बेचीं गयी तो देश भर में हंगामा मच गया! मगर गुजरात दंगों के बाद वहां से सैकड़ों लडकियां बेच दी गयी तो शाहबानो मामले में हल्ला मचने वाले नरम गद्दों में पड़े थे! आज भी शादियों के नाम पर नौकरी के नाम पर बड़ी संख्या में लडकियां बेचीं जा रही हैं तो हम सोये हैं! हम सरकार से पूछना भी नहीं चाहते की वो ऐसे मुद्दों पर क्या सोचती है
पिछले दिनों मै एक मामले की जांच के लिए एक सहायक संगठन "शक्तिशालिनी" की पुराणी फाईल्स देख रहा था! मेरा दिमाग देख कर सरक गया की पारिवारिक प्रताड़ना और घर से भागने वाली औरतों के आधे से ज्यादा मामले मुस्लिम औरतों के थे! ये एक प्रकार का इम्पोवार्मेंट भी है की चीजें बाहर निकली हैं! मगर समाज के भितर काम किये जाने की आवश्यकता को भी दर्शाता है
चाय ख़तम होगई और जोश भी
और हाँ चुस्की लेने के लिए कमेन्ट मत करियो ना तो अपना समझिये1 नागिन से बच के निकल सकते हो मेरे से ना
ऑटो वाले से बात की कथा बाद में कहूँगा काफी होगया आज
3 टिप्पणियां:
एक बेहतरीन लेख़
bahut khub
मुस्लिम मुद्दे को बेहतर ढंग से समझना चाहता था! समाज में जाकर उन्हें जांचना ज्यादा प्रभावी रहता है मगर व्यावाहारिक रूप में आम जनता और सामाजिक मुद्दा अलग अलग अलग होते हैं! सामाजिक मुद्दे आम लोग तय नहीं करते ये काम खास लोगों का होता है! और ये खास लोग आम जनता को मवेशियों की तरह हांकते हैं सो ज्यादा ज़रूरी था की इनकी विचार गोष्ठियों में जाया जाए और इन्हें समझने की कोशिश की जाए
और संजोग ऐसा हुआ की पहला में एलिट मुस्लिम ग्रुप के साथ तो दूसरा पहर में पसमांदा मुस्लिम ग्रुप के साथ गुज़रा...मुझे दुःख है की गलत जगह सही आदमीं पंहुचा......कुछ गोस्ठियों में दिल्ली आने के बाद अपन भी पहुचे...लगा मिसफिट हूँ इनके लिए हम...
कभी ऐसी गोस्ठियों का इफ्फेक्ट क्या रहा सोचता हूँ तो पाता हूँ...केवल गर्द फैलाना...
- म्म अगर नहीं है तो अली अनवर को "जोलाहवा" पुकारते तो सुना है मगर किसी को सय्यादवा (सय्यद), शेखंडी (शेख) पठान्वा कहते नहीं क्यों आखिर (अच्चा हाँ ये लास्ट वाले शब्द मेरे आविष्कार हैं इसलिए कोई भी जब इस्तेमाल करे तो महामहिम का नाम लिखे वरना केस ठोंक दूंगा)....अच्छी बात है बिना नाम के इस्तेमाल कर्नेगे केस ठोकना है तो ठोकिये जल्दी से कुछ नाम हो जायेगा...और नहीं सुना नाम तो इससे क्या सोशल साइनटिस्ट बोल रहे हैं ना की जातिवाद कभी मुश्लिम समाज में नहीं रहा तो सीधे से मान जाइये वर्ना याद है ना एक शाही इमाम भी है अभी जिन्दा...
कई बार तो लगता है कुरान साथ में ले कर चलना चहिये और कहीं भी किसी जगह का पानी पिने से पहले पन्ने पलट कर देखना चाहिए इसकी इजाजत है की नहीं....
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