
ना ना मै भटका नही हूँ......... मैं भी एक सामाजिक प्राणी हूँ........... मेरी ज़िन्दगी में भरी बदलाव लाने और आज यहाँ पहुचाने में भी इसी दिवाली का योगदान है........
बात तब की है जब मै स्कूल में था शायद पांचवी या छठी में ................ मेरा शहर बिहार के गया का शेरघाटी है, हुआ कुछ यूँ की दिवाली के दिन मैं अपने दोस्तों (मन्नंजय, नौशाद रजनीश,संतोष और एक दो ) के साथ पटाखे खरीदने बाज़ार की तरफ़ निकला! हम छोटे थे सो ढेरो लड़के एक साथ निकला करते थे, वैसे भी मै घर से बाहर कम ही निकल ता था, मेरे पिता श्री एक किसान हैं किसान वो व्यावसायिक किस्म के किसान नही, सामंत किस्म के है! जिस तरह के लोगों के लिए समाज में एक जुमला आम है "रस्सी जल गई मगर ऐठन नही गई" खैर हम बाज़ार पहुचें पटाखे खरीदने लगे सड़क के किनारे पटाखों की दुकानों में बड़ी भीड़ हुआ करती थी तब अब क्या हाल हुआ मुझे नही पता, हम एक छोर पर पटाखे खरीद रहे थे की अचानक मेरी नज़र सड़क की तरफ़ गई, मेरी रूह कप गई पहली बार अहसास हुआ की हमारे शरीर के भीतर सचमुच रूह और आत्मा जैसी कोई चीज़ होती है....... मुझे आज भी वो दृश्य अच्छी तरह याद है और शरीर आज भी सिहर उठता है " बड़े बड़े फूल वाली साडी पहने उस औरत के हाथ से प्लास्टिक का थैला गिरकर गोबर पर फट गया था और उसके आखों से आंसूं............झटके से उस औरत ने गोबर पर से चीनी उठाना शुरू कर दिया था........उसके कुछ बोल आज भी कानों में उसी दर्द के साथ गूंजते हैं ..... बेटा अब का करेंगे रे ..........बड़ी मुश्किल से ख़रीदा था ............... ऐसा नही की मुझे उससे पहले कभी मजबूरी का अहसास नही हुआ था लेकिन वह पता नही क्यों ..............मेरे दिल पर बैठ गया था.....................मगर हमने पटाखे ख़रीदे (हमने एक ग्रुप में पटाखे चलाने थे ) चलाये भी मगर पटाखों की रौशनी में वो औरत मुझे दिखा करती थी...... यहाँ से मैंने तय किया की मै पटाखों में पैसे बरबाद नही करूँगा, तब से आज तक सोचता रहता हूँ की क्या मुझे उस औरत को पैसा देना चाहिए था ताकि वो दुबारा सामान खरीद कर अपनी दिवाली मना सके ............ मुझे आज तक कोई जवाब नही मिला................... मगर सच में यहाँ से हमारे पुरे ग्रुप की दिशा बदल चुकी थी आज मेरे वो साथी कहाँ हैं कैसे हैं मुझे नही पता मगर जब जब दिवाली आती है मै उन्हें याद करता हूँ..................... लगातार परेशान देख कर मनंजय ने एक रास्ता सुझाया की हमें लोगों की मदद करनी चाहिए उस औरत जैसे लोगों से ही हमारा देश बनता है हम भी मजबूर है वो भी .............................. और हमने उस घटना के दस दिनों के बाद ही बच्चों को पढाना शुरू किया .................शास्त्री स्कूल में छुट्टी के बाद उनके यहाँ क्लास चलते थे हम .............मगर हम तब पांचवी या छठी में थे ...................... हमारा साथ देने कोई बड़ा तो कभी नही आया हाँ अक्सर ताने ज़रूर दिए ....... आस पास के गाँव में लक्ष्मी पूजा (तब हम इसे सिर्फ़ लक्ष्मी पूजा के तौर पर ही जानते थे ये नही की ये श्री राम के वनवास के बाद अयोध्या लौटने की खुशी में भी मनाया जाता है) में बाई जी का नाच होता था नौटंकी हुआ करती थी की मनोरजन हो उन औरतों का जो चीनी के गोबर पर गिर जाने पर उठाती थी ताकि अपने बच्चों के लिए मिठाई बना सके.................................. शायद आज भी मै बेचैन हो जाता हूँ उस घटना को याद करके मुझे लगता है की यही वो वजह है की जिसने मुझे बार बार प्रेरणा दिया है, मुझे जिंदा रखा है अब तक, शायद यही वो वजह रही जिसने मुझे अपनी उमर से ज़्यादा बड़ा कर दिया............ यही वो वजह रही होगी की मै मिठाइयां नही खाता.......... यहीं से शफीक के निर्माण की नीव पड़ी.............. शायद यही वजह रही है मेरे असंतोष की, वेदना की ............ यही वो वजह है मुझे ख़ुद को दोषी समझने की.......................

यही से मेरा हम-उम्र दोस्तों से अलगाव शुरू हुआ और किताबों और विचारों की दुनिया से अवगत हुआ.......... और हमेशा ही इन बातों का ख्याल रखने की कोशिश की ..........."मै कैसे बेहतर हो सकता हूँ कैसे बेहतर कर सकता हूँ" ये सच है मै ने आज तक कुछ भी नही किया जो समाज के लिए या किसी एक के लिए भी हो मगर सोचता तो हूँ........ एक ऐसे सपने में खोया हूँ जहाँ ऐसे भौंडे दृश्य नही देखे जायेंगे
अब सवाल है की क्या अब सम्पनता आ गई है मै कहूँगा नही " जिसे कल नज़र आता था उसे आज भी आता है " आज ऐसे दृश्य आज भी मेरी नज़रों से गुज़रते है......................
मै डरता हूँ की मै भूल न जाऊँ अपने संकल्पों को अपने सपनों को ...................... और इस लिए दोस्तों से दूर होता गया ..............ऐसा नही की मुझे किसी लगाओ की ज़रूरत नही ..................... है ........मगर उन सपनो को जीने के लिए ........................ कम से कम कोई तो हो जो देख सके महसूस कर सके....................मैंने दर्द के रिश्ते निभाए हैं .................दुखद सपनो को जिया है ........................और हर समस्या के लिए ख़ुद को दोषी समझा है .......... हा पैतरों को अजमाने की कोशिश की है ............ ताकि कोई गुमान बाकि ना रहे...........कसक न हो उफ़ काश ऐसा किया होता ....................... जो भी हो मगर इतना खुशी ज़रूर मिली है की मै जिंदा दिल इंसान हूँ ............... अपने लिए या किसी के लिए भले कुछ ना किया हो मगर कोशिशें इतनी की है की कभी कभी ख़ुद को झूठ लगा करता है....... अगर आपने सच में पुरा पढ़ा है तो एक बात बता दूँ की बहुत सारी जगह खाली हैं जिसमे असली बात छुपी है जो सोचना पड़ेगा ...............सोचिये या मत सोचिये .............. मुझे क्या फरक पड़ने वाला.............न मै आपके काम का हूँ ना ही आप मेरे काम के ......................
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