शिवशंकर प्रसाद अपने घर आए मेहमान को पिलाने के लिए लगभग खौलते हुए पानी को हाथ के पंखे से ठंडा कर रहे हैं।

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उन्हें यह चिंता है कि कहीं उनके मेहमान को इस बात की भनक न लग जाए कि यहाँ के लोगों को पीने के लिए ठंडा पानी कभी मयस्सर नहीं होता। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कुछ लोग अपनी बेटियों की शादी इस गाँव में करने से कतराते हैं।
बिहार के गया जिले के सीमावर्ती क्षेत्र में तीस किलोमीटर की परिधि में फैली गेहरौल व तपोवन पहाड़ियों के बीच बसा मोहड़ा एक ऐसा गाँव है, जहाँ के कुएँ और ट्यबवेल से ठंडे पानी के बदले सिर्फ गर्म पानी निकलता है।
चिलचिलाती गर्मी हो या कँपकपाती ठंड, पीने के लिए बस यही गर्म पानी उनका नसीब है। ठंड के मौसम में तो कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती, लेकिन गर्मी के दिनों में अगर जल्दी में प्यास बुझानी हो और मिट्टी के घड़े में पानी नहीं रहा तो उनके लिए एक ही रास्ता है- हाथ के पंखे से पानी ठंडा करके पिया जाए।
इस गाँव के रहने वाले तीस वर्षीय सत्येंद्र कुमार कहते हैं कि हम अपने नए मेहमानों को इस बात की खबर नहीं लगने देते कि हम प्राकृतिक ठंडे पानी से वंचित हैं। इस बात की जानकारी होने पर हमारे गाँव के लड़कों की शादी होने में रुकावट पैदा होती है।
वह कहते हैं कि हमारे बड़े भाई की शादी के बाद मेरी भाभी सिर्फ एक बार इस गाँव में आई थीं। अब वह नवादा शहर में रहती हैं। 1998 के बाद से वह कभी इस गाँव नहीं लौटीं।
एक हजार की आबादी वाले मोहड़ा गाँव के लोग तो सदियों से इसी पानी पर जीते आ रहे हैं, लेकिन भूगर्भशास्त्रियों के लिए अभी तक इस गाँव का पानी अध्ययन का विषय नहीं बन सका।
पटना विश्वविद्यालय के भूगर्भशास्त्र विभाग के अध्यक्ष वीएस दुबे कहते हैं कि हाँ, इस पर अभी तक कोई अध्ययन नहीं हुआ है। बल्कि यूँ कहें कि इस बात की जानकारी तो हमें आपसे पहली बार मिल रही है। हम अवश्य ही इस भूजल के गर्म होने के कारणों का अध्ययन करना चाहेंगे।
तीन तरफ से लंबी पहाड़ियों और चौथी तरफ से नदी से घिरे इस गाँव तक पहुँचने के लिए कम से कम पाँच किलोमिटर दुर्गम पथरीले रास्तों से पैदल चलकर पहुँचा जा सकता है।
वीएस दुबे कहते हैं कि आमतौर पर जिन क्षेत्रों का भूजल गर्म होता है वहाँ की जमीन के नीचे सल्फर की मात्रा अधिक होती है। पानी में उपल्बध ऑक्सीजन से सल्फर की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ऊष्मा निकलती है। हो सकता है कि मोहड़ा गाँव भी सल्फर के ढेर पर बसा हो। लेकिन इस पर निश्चित रूप से तभी किसी नतीजे पर पहुँचा जा सकता है, जब अध्ययन किया जाए।
बिहार के गया जिले के सीमावर्ती क्षेत्र में तीस किलोमीटर की परिधि में फैली गेहरौल व तपोवन पहाड़ियों के बीच बसा मोहड़ा एक ऐसा गाँव है, जहाँ के कुएँ और ट्यबवेल से ठंडे पानी के बदले सिर्फ गर्म पानी निकलता है।
चिलचिलाती गर्मी हो या कँपकपाती ठंड, पीने के लिए बस यही गर्म पानी उनका नसीब है। ठंड के मौसम में तो कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती, लेकिन गर्मी के दिनों में अगर जल्दी में प्यास बुझानी हो और मिट्टी के घड़े में पानी नहीं रहा तो उनके लिए एक ही रास्ता है- हाथ के पंखे से पानी ठंडा करके पिया जाए।
इस गाँव के रहने वाले तीस वर्षीय सत्येंद्र कुमार कहते हैं कि हम अपने नए मेहमानों को इस बात की खबर नहीं लगने देते कि हम प्राकृतिक ठंडे पानी से वंचित हैं। इस बात की जानकारी होने पर हमारे गाँव के लड़कों की शादी होने में रुकावट पैदा होती है।
वह कहते हैं कि हमारे बड़े भाई की शादी के बाद मेरी भाभी सिर्फ एक बार इस गाँव में आई थीं। अब वह नवादा शहर में रहती हैं। 1998 के बाद से वह कभी इस गाँव नहीं लौटीं।
एक हजार की आबादी वाले मोहड़ा गाँव के लोग तो सदियों से इसी पानी पर जीते आ रहे हैं, लेकिन भूगर्भशास्त्रियों के लिए अभी तक इस गाँव का पानी अध्ययन का विषय नहीं बन सका।
पटना विश्वविद्यालय के भूगर्भशास्त्र विभाग के अध्यक्ष वीएस दुबे कहते हैं कि हाँ, इस पर अभी तक कोई अध्ययन नहीं हुआ है। बल्कि यूँ कहें कि इस बात की जानकारी तो हमें आपसे पहली बार मिल रही है। हम अवश्य ही इस भूजल के गर्म होने के कारणों का अध्ययन करना चाहेंगे।
तीन तरफ से लंबी पहाड़ियों और चौथी तरफ से नदी से घिरे इस गाँव तक पहुँचने के लिए कम से कम पाँच किलोमिटर दुर्गम पथरीले रास्तों से पैदल चलकर पहुँचा जा सकता है।
वीएस दुबे कहते हैं कि आमतौर पर जिन क्षेत्रों का भूजल गर्म होता है वहाँ की जमीन के नीचे सल्फर की मात्रा अधिक होती है। पानी में उपल्बध ऑक्सीजन से सल्फर की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ऊष्मा निकलती है। हो सकता है कि मोहड़ा गाँव भी सल्फर के ढेर पर बसा हो। लेकिन इस पर निश्चित रूप से तभी किसी नतीजे पर पहुँचा जा सकता है, जब अध्ययन किया जाए।

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दुबे कहते हैं कि पानी में सल्फर की जरूरत से अधिक मात्रा हानिकारक है। स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि गर्मी के दिनों में यहाँ के लोगों के शरीर पर छोटे फफोले निकलना आम बात है। लेकिन ग्रामीणों की मानें तो इस पानी की कुछ खूबियाँ भी हैं। ग्रामीण रामबली कहते हैं कि जब हम अपने गाँव से दूसरे गाँव जाते हैं तो हम अनुभव करते हैं कि हमारी पाचन क्रिया दूसरे गाँव में उतनी अच्छी नहीं रहती। हमारे गाँव का पानी पाचन तंत्र को दुरुस्त रखता है।
मोड़हा गाँव के गर्म पानी का असर यहाँ की फसलों पर भी दिखता है। गर्म पानी की धारा से खेतों में पानी के प्रवेश वाले हिस्सों की फसलें झुलस जाती हैं। रामबली कहतें हैं कि फसलों को झुलसने से बचाव के लिए हम आमतौर पर वैसे दिन सिंचाई करते हैं जिस दिन तेज हवा चलती है। हवा के झोंकों से नालों में बहने वाला पानी जल्दी ठंड हो जाता है।
सड़क और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित इस गाँव में ही प्रखंड विकास पदाधिकारी का कार्यालय है। पर इस कार्यालय में हमेशा ताला लटका रहता है। गाँव के लोगों का कहना है कि 26 जनवरी और 15 अगस्त को अधिकारी यहाँ आकर झंडा फहराने की रस्म पूरी करते हैं और फिर कभी नजर नहीं आते।
कोई चार साल पहले यह गाँव तब चर्चा में आया था जब दशरथ माझी नामक एक वृद्ध ने बाईस वर्षों की अनथक कोशिशों के बाद अकेले दम पर गेहलोर पहाड़ी के एक हिस्से को काट कर इस गाँव तक पहुँचने का रास्ता बनाया था। इससे इस गाँव की दूरी 75 किलोमीटर से घटकर मात्र एक किलोमीटर रह गई थी। उनके इस कारनामे पर बिहार सरकार ने दशरथ को सम्मानित भी किया था।
मोड़हा गाँव के गर्म पानी का असर यहाँ की फसलों पर भी दिखता है। गर्म पानी की धारा से खेतों में पानी के प्रवेश वाले हिस्सों की फसलें झुलस जाती हैं। रामबली कहतें हैं कि फसलों को झुलसने से बचाव के लिए हम आमतौर पर वैसे दिन सिंचाई करते हैं जिस दिन तेज हवा चलती है। हवा के झोंकों से नालों में बहने वाला पानी जल्दी ठंड हो जाता है।
सड़क और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित इस गाँव में ही प्रखंड विकास पदाधिकारी का कार्यालय है। पर इस कार्यालय में हमेशा ताला लटका रहता है। गाँव के लोगों का कहना है कि 26 जनवरी और 15 अगस्त को अधिकारी यहाँ आकर झंडा फहराने की रस्म पूरी करते हैं और फिर कभी नजर नहीं आते।
कोई चार साल पहले यह गाँव तब चर्चा में आया था जब दशरथ माझी नामक एक वृद्ध ने बाईस वर्षों की अनथक कोशिशों के बाद अकेले दम पर गेहलोर पहाड़ी के एक हिस्से को काट कर इस गाँव तक पहुँचने का रास्ता बनाया था। इससे इस गाँव की दूरी 75 किलोमीटर से घटकर मात्र एक किलोमीटर रह गई थी। उनके इस कारनामे पर बिहार सरकार ने दशरथ को सम्मानित भी किया था।
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