कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

एक धर्मनिरपेक्ष रूढ़िवादी की स्वीकारोक्ति

मणिशंकर अय्यर उन अंग्रेजी लेखकों में से हैं जिन्हें अपनी धर्मनिरपेक्षता पर गर्व है और जिनका दृढ़ विश्वास है कि धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों की बलि चढ़ाकर हम धर्मनिरपेक्ष भारत को सुरक्षित नहीं रख सकते। पिछले दो दशकों में धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता विशेषकर हिंदुत्व को लेकर देश में तीखी बहसें हुई हैं।
मणिशंकर अय्यर ने पत्र-पत्रिकाओं में लिखे अपने लेखों में गहरी बौद्धिक तैयारी का परिचय देते हुए बार-बार यह रेखांकित करने की कोशिश की है कि धर्मनिरपेक्षता इस देश के लिए क्यों जरूरी है। यह किताब उन्होंने इन तमाम लेखों का इस्तेमाल करके तैयार की है जबकि कुछ हिस्सा बिलकुल नए सिरे से लिखा गया है।
दरअसल, बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने मणिशंकर अय्यर को काफी विचलित किया और उन्होंने भारतीय धर्मनिरपेक्षता के सच्चे स्वरूप को समझने के लिए इतिहास और राजनीति के तमाम जरूरी संदर्भों का मर्म ढूँढने की कोशिश की। वे मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता शब्द की उत्पत्ति जरूर भारत के बाहर हुई और इसका अर्थ भी गैर भारतीय है लेकिन हमारे आधुनिक राष्ट्र के निर्माण में और कोई भी शब्द इतना करीबी रिश्ता नहीं रखता जितना कि यह शब्द।
एक तरफ वीर सावरकर की स्थापना है कि जिन (मुसलमानों और ईसाइयों) की 'पुण्यभूमि' कभी भी उनकी 'पितृभूमि' नहीं रही, वे अभारतीय हैं तो दूसरी ओर गाँधी जी का हिंदू धर्म या हिंदू दृष्टिकोण है जिसमें सभी धर्मों का आदर है और उनके मानने वालों का भी।
ऐसा पारंपरिक दृष्टिकोण जिसमें सभी नए विचारों, मूल्यों और विश्वासों को समाहित कर लिया गया। मणिशंकर लिखते हैं : हमारे राष्ट्र तथा शासन व्यवस्था में मुसलमानों की भूमिका को लेकर हिंदू सांप्रदायिक लोगों में जो कुछ भ्रम की स्थिति पैदा हुई है, वह तीन जटिल अवधारणाओं के कारण पैदा हुई है।
वह ऐतिहासिक रूप से सातवीं शताब्दी में पश्चिम एशिया की अरब जागरूकता के कारण पैदा हुई है। वह है, कौम, (राष्ट्र) वतन, (राज्य) तथा उम्मा (धार्मिक समुदाय)। मिस्रवासी यह कहेंगे कि एक कौम के हिस्से के रूप में हम अरब हैं, मूल निवासी के रूप में मिस्र हमारा वतन है तथा एक मुसलमान के रूप में हम इस्लामी उम्मा के हिस्से हैं। पुस्तक में प्रसिद्ध विद्वान रशीदुद्दीन खाँ की एक स्थापना का हवाला देते हुए कहा गया है कि कैसे हिंदू सांप्रदायिक लोगों ने इस सूची में बुरे शासकों को ढूँढकर सारे मुसलमानों को बुरा और आक्रमणकारी बनाने की कोशिश की है।
रशीदुद्दीन खाँ ने भारतीय मुस्लिम शासकों में से अच्छे (कश्मीर के जैनुल आबेदीन, बीजापुर के इब्राहीम आदिल शाह व गोलकुंडा के कुली कुतुब शाह) तथा बुरे (गजनी, खिलजी तथा औरंगजेब) शासकों की एक सूची बनाई है। वे यहाँ दो प्रकार के मुसलमानों को अलग-अलग करके देखते हैं।
एक वे लोग हैं, जिनकी दृष्टि सीमित है तथा दूसरे लोग वे हैं, जिनकी संवेदना बड़ी गहरी है : गजनी बनाम अलबरूनी, खिलजी बनाम अमीर खुसरो, औरंगजेब बनाम दारा शिकोह, जिन्ना बनाम आजाद। जाहिर है, यह पुस्तक मुसलमानों को लेकर फैलाए गए भ्रमों की भी पोल खोलती है और बड़े जोरदार तरीके से दलील देती है कि एक भारतीय के लिए धर्मनिरपेक्ष नजरिया रखना क्यों जरूरी है और क्यों बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता देश के लिए घातक है। यह किताब, जिसका हिंदी अनुवाद मो. अलीम ने किया है, सभी को पढ़नी चाहिए।

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