हाल ही में मशहर समाजशास्त्री आंद्रे बेते ने अपने एक लेख में एमएन श्रीनिवास को स्मरण किया. श्रीनिवास, विश्वविख्यात भारतीय समाजशास्त्री थे. भारत को आजादी के समय से ही नजदीक से देखने-परखनेवाले. उन्होंने एक बार लिखा. आश्चर्य होता है, क्या भारत के संविधान बनानेवालों ने यह कल्पना की होगी कि वे जिस ऊर्जा का विस्फ़ोट भारतीय राजनीति और समाज में कर रहे हैं, मतदान का अधिकार देकर, उसका असर क्या होगा? यह कहने के बाद प्रो श्रीनिवास ने कहा, भारतीय क्रांति में जी रहे हैं. और इसका सिंबल (प्रतीक) बंदूक नहीं, बैलेट बॉक्स है.
इस बैलेट बॉक्स ने फ़िर कमाल दिखाया. एग्जिट पोल, पूर्व अनुमान और आकलन गलत हए. जनता ने लगभग यूपीए के सिर ताज रख दिया है. 18 वषाब बाद कांग्रेस को अकेले 204 सीटें मिलीं हैं. 1984 के चुनाव में कांग्रेस को 414 सीटें मिली थीं. 1989 में 197. 1991 में 244. 1996 में 140. 1998 में 141. 1999 में 114. 2004 में 145. 1991 के बाद 2009 में कांग्रेस को अकेले इतनी सीटें मिली हैं. 2004 के मुकाबले लगभग 59 सीटों की बढ़त. जो कयास लगाये जा रहे थे या आसार थे, उनके विपरीत परिणाम? क्यों? 31 राज्यों, 1618 भाषाओं, 6400 जातियों, छह बड़े धमाब, छह जातीय समूहों, 29 बड़े पवाब का देश है, भारत. पर, भारतीय मन, मिजाज और संस्कार में मध्यमार्गी हैं. बौद्ध धर्म भले ही देश से बाहर हो, पर देश विचार और कमाब में मध्यमार्गी ही है. अतिवादी नहीं. और कांग्रेस इस मध्यमार्ग की राजनीतिक प्रतििबब है. इसलिए जाति और धर्म के इर्द-गिर्द जो विचार पनपे, वे इस मध्यमार्गी सोचवाले देश को अपने साथ बांध नहीं सके. लगभग 18 वषाब बाद कांग्रेस इसी कारण बढ़ी ताकत के साथ लौटी है.कांग्रेस की सफ़लता का राज?मनमोहन सिंह की उदारीकरण की अर्थनीति (1991) के गर्भ से नया मध्यवर्ग जन्मा और पनपा है. 18 वषाब में एक नयी पीढ़ी आ गयी है. यह पीढ़ी उदारीकरण की देन है. सोच, चिंतन और सपनों के स्तर पर. इसी बीच मध्यवर्ग का आकार भी फ़ैला है. इस मध्यवर्ग या युवा पीढ़ी के लिए जाति, धर्म, क्षेत्र वगैरह मुद्दे नहीं हैं. यह वर्ग दुनिया के विकास के साथ जुड़ना चाहता है. यह वर्ग या पीढ़ी इतिहास या अतीत की गठरी पीठ पर लाद कर नहीं चलना चाहता. इसकी निगाह वर्तमान और भविष्य की ओर है. यह काया और विचार में भी युवा है. इस युवा वर्ग से कांग्रेस ने भावनात्मक रिश्ता बनाया. राहल के नेतृत्व में कांग्रेस ने यह नीति अपनायी. दिल्ली में लगातार कांग्रेस की सभी सीटों पर जीत. दिल्ली विधानसभा में बार-बार जीत. इसके संकेत स्पष्ट हैं. जो दिल्ली कभी भाजपा की गढ़ मानी जाती थी, वह गढ़ अब ध्वस्त हो गया है. जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान से लोग दिल्ली आये या दिल्ली की जिस पीढ़ी ने बंटवारे की पीड़ा ङोली, वह भाजपा के साथ रही. अब उनकी नयी पीढ़ी या पौध विकास का सपना देखती है. वह ग्लोबल होना चाहती है. इसलिए वह कांग्रेस के साथ है. यही स्थिति मुंबई में है. वैसे भी राज ठाकरे के उदय ने शिवसेना के वोट बैंक में गहरी सेंध लगायी है. मुंबई में कई जगहों पर राज ठाकरे को शिवसेना से अधिक वोट मिले हैं. नयी पीढ़ी के सपनों को कांग्रेस ने स्वर दिया. नयी भाषा और नये भाव से. कांग्रेस ने काफ़ी युवाओं को चुनाव में उतारा. खुद मनमोहन सिंह एक सीइओ (चीफ़ एक्जीक्यूटिव ओफ़सर) के रूप में उभरे. न फ़ालतू बात. न आक्रामक तेवर. ईमानदार छवि. मुसलमानों ने पाया कि क्षेत्रीय दल भी उन्हें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते हैं, तो उन्होंने अपने पुराने साथी कांग्रेस के साथ खुद को जोड़ा. इन चुनावों में कांग्रेस का नारा था, गुड गवनबस का. इसलिए जनता ने यूपीए को अपने दम बहमत के कगार पर पहंचा दिया. गुजरे वषाब में क्षेत्रीय दलों की ताकत बढ़ी थी. वे खुलेआम अपनी शताब के साथ बड़े दलों को ब्लैकमेल कर रहे थे. सत्ता के लिए निजी डील के लिए. अपने खिलाफ़ भ्रष्टाचार की जांच रुकवाने के लिए. अपने कुकमाब पर परदा डालने के लिए. अब वह स्थिति नहीं रहनेवाली. शायद क्षेत्रीय दलों के अहंकार को रोकने के लिए ही जनता ने यूपीए को अपने बल बहमत के कगार पर पहंचा दिया. अब कांग्रेस, यूपी और बिहार में भी अपना रिवाइवल चाहेगी. इसलिए अब वह राजद, लोजपा या सपा की चिरौरी नहीं करेगी. न कांग्रेस के स्थानीय नेता इन्हें भाव देंगे. इन राज्यों के कांग्रेसी भी उत्साह में होंगे और वे राजद, सपा या लोजपा को उनकी हैसियत का स्मरण कराते रहेंगे.
विचार और कर्म के स्तर पर भी लोगों ने देखा कि जो लल गैरकांग्रेसवाद के नाम पर सत्ता में आये, वे कांग्रेस की घटिया कॉपी बनते गये. जो लोग कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगाते थे, वे खुद घटिया परिवारवाद पर उतर गये. चाहे मुलायम सिंह हों, लालू प्रसाद हों या रामविलास पासवान. इन सबका उदय गैरकांग्रेसवाद अभियान की देन है. तब जनता ने देखा कि ये और भयावह तरीके से परिवार मोह में उलझ गये. अगर इन्होंने एक साफ़ सुथरी वैकल्पिक नीति अपनायी होती, तो ेआज इन्हें ये दिन देखने न पड़ते. इस तरह लोगों ने कांग्रेस की कार्बन कॉपी बनते गैरकांग्रेसी दलों के मुकाबले, ओरिजनल (मूल) कांग्रेस को ही चुना. भाषा और बोलचाल के स्तर पर भी इन चुनावों में फ़र्क दिखा. आडवाणी आक्रामक तेवर में थे. पर, मनमोहन सिंह ने उन्हें उस भाषा या तेवर में जवाब नहीं दिया. भारतीय जनता इन चीजों पर गौर करती है. बिहार में नीतीश कुमार के लिए राजद के बड़े नेताओं ने जिस भाषा और विशेषण का प्रयोग किया, उसे भी जनता ने नहीं स्वीकारा. इसी तरह भाजपा के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी ने बुढ़िया और गुड़िया शब्दों का इस्तेमाल किया. राहल और प्रियंका ने शालीनता से इनके जवाब दिये. भारतीय मानस अपने नेताओं के ऐसे शब्दों पर बड़ा गौर करता है और इसका असर भी इन चुनावों में दिखा.
इन चुनावों में राहल का युवा नेतृत्व स्थापित हो गया है. कांग्रेस के वह स्टार प्रचारक थे. उन्होंने बड़े पैमाने पर युवकों को अपने साथ जोड़ा और एक पॉजिटिव अभियान चलाया. उन्होंने खूब मेहनत की. इसलिए इस जीत का Þोय भी उन्हें मिलेगा. इस चुनाव ने बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की ध्वस्त होती नींव को सामने ला दिया है. प्रकाश करात ने सही कहा है कि लेफ्ट को गंभीर आत्ममंथन की जरूरत है. पूरी दुनिया में साम्यवाद का रूप बदल चुका है. पर, भारत के साम्यवादी आज भी पुराने विचारों और अप्रासांगिक हो गयी नीतियों से चिपके हैं. बंगाल में उनके कैडर राज के आतंक के खिलाफ़ अब लोग मुखर होकर सामने आ रहे हैं. ममता बनर्जी इस नयी ताकत का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणामों ने पूरे देश को चौंकाया है. वहां कांग्रेस का रिवाइवल बदलती राजनीति का संकेत है. बीएसपी और समाजवादी कमजोर हो रहे हैं. पर, आंध्र में जिस तरह कांग्रेस ने दोबारा सफ़लता पायी, तमिलनाडु में जिस तरह यूपीए ने दोबारा कामयाबी हासिल की, राजस्थान में अपनी हाल की सफ़लता को कांग्रेस ने और मजबूत बनाया, इन सबसे कांग्रेस को एक नयी ताकत मिली है और देश की कमान उसके हाथ में है.
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