कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

आहें न भरीं, शिकवे न किए...

कभी आपने सोचा कि अगर हमारी दुनिया में फुरसतिए न होते, तो क्या होता? मैंने सोचा तो मुझे फिलहाल तो एक ही बात समझ में आई- शायद लतीफे न होते, चुटकुले न होते, पैरोडी न होती, लफ्फाजियां न होतीं। यानी ढेर सारी खुशी देने वाली बातें न होतीं। फुरसती आदमी की च्क्रिएटिविटीज् की उम्र, मेरे अपने अनुभव के अनुसार, बहुत कम होती है। इसकी वजह शायद यह है कि जिंदगी में खुद फुरसत की उम्र ही बहुत कम होती है। पहले ग़मे-रोजगार, फिर ग़मे-यार, कभी ग़मे-दौरां, कभी ग़मे-दुनिया के मसलों से उलझता इंसान थक-हारकर इस क़दर निढाल हो जाता है कि उसके सारे कस-बल ढीले पड़ जाते हैं।चलिए, छोड़िए साहब मैं भी अच्छी-भली बात को कहां मोड़ने लगा था। सोचा था कि फुरसतियों के कुछ कमाल आपके साथ मिल-बैठकर फिर से बांचूंगा और मैं लगा वही अपनी फलसफे की पुरानी ढपली बजाने। हां, तो जनाब मुलाहिज फरमाइएगा। जमाना गुजरा किसी फुरसतिए ने या कहिए फुरसती गैंग ने ग़ालिब के एक शेर की हिंदी कर डाली थी। जरा देखिए :
मूल शेर है :
उनके देखे से जो आती है मुंह पर रौनकवो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
और हिंदी में कहा गया :
उनके देखे से जो आ जाती है मुख पर शोभावो समझते हैं कि रोगी की दशा उत्तम है
किसी भोपाली ने तुलसी बाबा की रामचरित मानस पर भी हाथ साफ कर दिया। इसे भी देख लें :
कोमल चरण कठिन पद गामीकवन हेतु विचरहु वन स्वामी
भोपाली अनुवाद :
सख्त है जमीं और नाजुक हैं पांवऐसी क्या पड़ी थी मियां जो छोड़ा था गांव
किसी व़क्त कानों में लाउडस्पीकर से आती आवाÊा में जो सुना था, वह भी बताए देता हूं। च्नहीं मिलेगा, नहीं मिलेगा, नहीं मिलेगा, तुझे राम भजन बिन मन का आनंद नहीं मिलेगाज्। कुछ समझे आप। जी हां, बिल्कुल सही समझे आप। यह फिल्म च्संबंधज् में मुकेश के गाए गीत- च्चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेलाज् का धार्मिक-आध्यात्मिक वर्शन है। बचपन में अपने स्कूल के सालाना जलसे में भी एक फिल्मी क़व्वाली की पैरोडी सुनी थी, जो अब तक यादों में ऐसी बसी है कि भुलाए नहीं भूलती। 1945 में रिलीज हुई फिल्म जीनत में एक क़व्वाली थी- आहें न भरीं शिकवे न किए कुछ भी न जुबां से काम लिया, इस दिल को पकड़कर बैठ गए, हाथों से कलेजा थाम लिया। इस क़व्वाली ने बड़ी धूम मचाई थी। इसकी पैरोडी जो हमारे स्कूल में गाई गई वो कुछ इस तरह थी- उस्ताद ने अपने हाथों में मोटा सा जो डंडा थाम लिया, हमको धमाधम पीट दिया, कुछ भी न रहम से काम लिया।
सच कहूं तो ऐसी ढेर सारी आवाजों आपके कानों में भी पड़ी होंगी। आपने भी इंज्वाय किया होगा। मैं भी करता रहा हूं। कर रहा हूं और करते रहना चाहता हूं। इस के साथ ही मन ही मन उन च्अज्ञातज् कलाकारों को दाद भी देता रहता हूं, जिनने यह सारा काम सिर्फ मौज के लिए बिना किसी आर्थिक प्रलोभन के किया। मगर इसी तरह का काम बाकायदा एक पेशे की तरह भी होता रहा है, जिसमें काम के बदले अनाज नहीं नाम और दाम दोनों मिलते थे।
देख तेरे संसार की हालत..
मैं जिस संसार की बात ऊपर कर रहा था, वह है हमारा फिल्मी संसार। 1931 में इस गूंगों के संसार को Êारा Êाुबान क्या मिली, इसने इतना भरपूर और इतनी तरह से बोलना शुरू किया कि पूछिए मत। हर एक निर्माता की कोशिश होती कि वह दर्शक का मनोरंजन इस तरह करे कि वह बार-बार उसी की फिल्में देखने आए। इसी कोशिश में पैरोडी के चलन ने जोर पकड़ लिया, जिसे लोगों ने पसंद भी किया और दाद भी दी। 1936 में वाडिया मूवीटोन की फिल्म च्जंगल प्रिंसेसज्, जिसमें च्फीयरलेस नाडियाज् हीरोइन थी, उसमें एक पैरोडी मीनू द मिस्टिक पार्टी ने गाई थी- च्गाओ, गाओ ऐ मेरे साधु, सब ही भुलाओ ग़म..ज्। यह 1933 में रिलीज हुई फिल्म च्पूरन भगतज् में के.सी. डे के अत्यंत लोकप्रिय गीत- च्जाओ, जाओ ऐ मेरे साधु, रहो गुरु के संगज् की पैरोडी थी।
कुंदनलाल सहगल के गीतों के जादू ने उस दौर में हर शख्स को दीवाना बना रखा था। अब ऐसे में उनके गीत इस पैरोडी के चक्कर से कैसे बच पाते। 1937 में बनी फिल्म च्एशियाई सिताराज् में उनकी महान फिल्म च्देवदासज् (1936) के एक लोकप्रिय गीत- च्बालम आय बसो मोरे मन मेंज् की पैरोडी बनी च्मैया, आन फंसी मैं बन में..ज्।उस दौर के मशहूर लेखक-निर्देशक केदार शर्मा एक कदम और आगे बढ़ गए। उन्होंने फिल्मी गीत की बजाय मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल की एक ग़जल- च्कभी ऐ हक़ीक़ते-मुंतजर नजर आ लिबासे मजाज मेंज् का सहारा लेकर फिल्म च्करोड़पतिज् (1936) में एक पैरोडी रच डाली- च्कभी ऐ हक़ीक़ते-रसभरी, नजर आ लिबासे शराब मेंज्..।
साहिर लुधियानवी भी इस काम में काफी आगे थे। उन्होंने कवि प्रदीप के एक गीत- च्देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसानज् (नास्तिक, 1954) की पैरोडी बनाई- च्देख तेरे भगवान की हालत क्या हो गई इंसान, कितना बदल गया भगवानज् (रेल्वे प्लेटफार्म, 1955)। साहिर ने इक़बाल के मशहूर कलाम च्सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमाराज् को भी नहीं बख्शा। गुस्से से भरे साहिर ने फिल्म च्फिर सुबह होगीज् (1958) में कहा- च्चीनो-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा, रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमाराज्। खैर यह तो देश में ग़रीबों की हालत देखकर जाहिर किया गया गुस्सा था, जिसका निशाना शायर नहीं, बल्कि देश के हालात थे। मगर इससे बहुत पहले 1936 में इसी च्सारे जहां से अच्छाज् की सचमुच की पैरोडी बनी थी फिल्म च्सुनहरा संसार मेंज्। गीतकार विजय कुमार बी.ए. ने लिखा- ‘सारे जहां से अच्छा, साबुन बना हमारा’।
कवि प्रदीप के लिखे और गाए, 1954 की फिल्म ‘जागृति’ का एक अत्यंत लोकप्रिय गीत है- ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं, झांकी हिंदुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की, वंदे मातरम्, वंदे मातरम्..’ इस पर फिल्मों की कोई पैरोडी तो याद नहीं है, पर फिर वही हमारे फुरसतियों ने ज़रूर 3-4 तरह की पैरोडीज़ बना डाली थीं, जो उस समय खूब मज़े से यहां-वहां गाई जाती थीं। उनमें से एक ही नमूने के तौर पर सुनाता हूं-‘आओ बच्चों तुम्हें खिलाएं टाफी हिंदुस्तान की, इस टाफी पर मोहर लगी है जे.बी. मंघाराम की, अंडे, चाय गरम, अंडे, चाय गरम..।’पैरोडी का सिलसिला फिल्मों में पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ है, मगर वो कहते हैं न कि वो बात नहीं रही। कभी-कभी कुछ सुनाई भी दे जाता है, पर बात बनती नहीं। सो अपनी उम्मीदें तो पूरी तरह सिर्फ उन फुरसतियों पर ही टिकी हैं, जो इन दिनों संता-बंता और एस.एम.एस. के लतीफे गढ़ने में जुटे हैं। मैं कहूंगा, ऐ भाई, ज़रा इधर भी।
और..
जाते-जाते एक बात और बता दूं। फिल्म ‘जागृति’ के प्रदीप वाले गीत- ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की..’ की लोकप्रियता का अंदाज़ आप इस से भी लगा सकते हैं कि पाकिस्तान ने इस गीत को मय संगीतकार हेमंत कुमार की धुन के अपने देश के प्रशस्ति गीत के रूप में ले लिया और आज तक वहां बड़ी शान से बजाया जाता है।इस गीत के बोल बदलकर कुछ इस तरह कर दिए गए थे- ‘आओ बच्चों सैर कराएं तुमको पाकिस्तान की, जिसकी खातिर हमने दी क़ुरबानी लाखों जान की, पाकिस्तान ज़िंदाबाद, पाकिस्तान ज़िंदाबाद’। इस मामले में कवि प्रदीप, हेमंत कुमार या किसी और ने कभी कोई शिकायत नहीं की। होना भी नहीं चाहिए। इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि दोनों देश एक ही सुर में, एक ही बात करें। और यूं भी कहते हैं न कि आपकी नकल आपकी सबसे बड़ी प्रशंसा है। फिर प्रशंसा पर क्या झगड़ा।और वैसे भी झगड़े की बात में तो अपनी दिलचस्पी ही कहां है। अपनी दिलचस्पी तो है ज़िंदगी की बेहतर बातों में। सो बना रहे यह

1 टिप्पणी:

उम्मतें ने कहा…

इस आलेख का टाइटल और उसकी पैरोडी उधार ली है ! शुक्रिया !