संसदीय चुनाव की गहमागहमी में अक्सर सामाजिक मुद्वों की तिलांजलि दे दी जाती है और धर्म जाति क्षेत्र की दुहाईयों का बाजार गर्म होता है। तमाम आदर्शवादी स्थितियों की संकल्पनाओं के बावजूद आम आदमी की रोजमर्रा के मुद्वे कहीं दूर छुट जाते हैं। वैसे भी नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने आम आदमी की परिभाषा और कल्पनाओं को बदल कर रख दिया है। आज हम हिन्दुस्तान को कृषि प्रधान देश नहीं बल्कि साइबर व तकनीकी देश मानते हैं भले ही बिल गेट्स हमें साइबर कुली की उपमा दें। चाहे जो हो इस आपाधापी में हम अक्सर कृषकों और कृषि मजदूरों को भूल चुके हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश के संसदीय क्षेत्र रायबरेली के दो प्रखण्डों क्रमश: हरचन्दपुर और महाराजगंज के गांवों की दिवारों पर उकेरे गये नारों को देखकर आयचर्य ही होता है।
इन नारों की बानगी देखें ''महिलाओं को किसान का दर्जा जो दिलायेगा, वोट हमारा पायेगा'' और ''जितनी होगी भागीदारी, उतनी होगी हिस्सेदारी''। वास्तव में नारी सशक्तिकरण और महिला आरक्षण् के झूंनझूनों के बीच ये नगाडा हमारी आजादी और लोकतांत्रिक परिपक्वता की स्पष्ट पहचान है। ये सही है कि हमने अपनी आजादी के साथ साथ महिलाओं के अधिकार आंदोलन को गंभीरता से लिया है और जुझारू नारीवादियों के संघर्षों ने अपना रंग दिखाया है। जिसके फलस्वरूप कई कानून अमल में आये। मगर आज जब समाज महिलाओं को सशक्त स्थिति में पाता है तो उसकी शिकायत होती है कि पुरूषों को नारियों की प्रताड़ना से कौन बचाये शायद यही वजह है कि पुरूषों को नारियों के शोषण से बचाने के लिये तथाकथित आंदोलन सुगबुगा रहा है और अब तो कई संस्थाएं इस पर कार्य करने लगी हैं।
मगर सवाल उठता है कि क्या वास्तव में महिलायें स्वछंद या स्वतंत्र हैं। अगर हां तो क्या परिसम्पित्तयों पर उनका अधिकार है या क्या वो स्वयं की अर्जित आय को व्यय करने का अधिकार रखती हैं और क्या उनके श्रम का अनुदान उन्हें मिल पाता है। कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमति सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र से महिलाओं ने जो किसान होने की मान्यता मांगी है उसका अपना कारण भी है और आंदोलनों का इतिहास भी। शायद आपको ताज्जुब लगे मगर सच तो ये है कि जब भी जमीन और पट्टे की बात होती है तो महिलाओं को परिवार का मुखिया माना जाता है। दिल्ली की सल्तनत में रजिया सुल्ताना को जिस संकीर्णता का शिकार होना पड़ा था वो आज भी जारी है और लैंगिक असमानता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि महिलाओं को किसान क्रेडिट कार्ड जैसी योजना का कोई लाभ नहीं मिलता सीधे सीधे कहें तो औरतों को किसान नहीं माना जाता। मार्था चैन के 1991 सर्वेक्षण परिणाम में साफ है कि महिलाओं की मालिकाना भूमि भागीदारी लगभग नगन्य है। यही अध्ययन स्पष्ट करता है कि महिलाओं का भूमि उत्तराधिकार मात्र 13 प्रतिशत है।
दुखद ये है कि भूमि पर महिलाओं की भागीदारी का प्रश्न 1946-47 के बंगाल के तेभागा आंदोलन से ही उठ खड़ा हुआ था और अपने परिवार के पुरूषों के साथ भूमिपतियों से लड़ती हुई महिलाओं ने घरेलु हिंसा और भूमि अधिकार की बात छेड़ी थी। इस आंदोलन में चुल्हे चौके छोड़ दरातों और झाडु लेकर बाहर निकली महिलाओं ने अधिकार और सम्मान का दर्शन तो समझा मगर परिवार के भीतर की स्थितियों के परिर्वतन नहीं समझ सकीं फलस्वरूप आंदोलन की समाप्ति के बाद पुन: अपने परिवार के पुरूषों के अधीन हो गई। कुछ ऐसा ही तेंलंगाना आंदोलन के बाद हुआ भूमि अधिकार के संघर्षों में महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर अपनी भूमिकाओं का निर्वाह किया मगर घरेलु मोर्चे पर पुन: मात खा गई। मगर जब 1978 में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में मठ के विरूध्द बोधगया भूमि आंदोलन में जब महिलाओं ने अपने सरोकार की बातें की तो कई प्रकार के विरोध हुए मगर बातचीत और आंदोलनात्मक आवश्यकताओं ने आखिर मार्ग प्रशस्त किया। घर के पुरूषों ने जब कहा कि जमीन किसी के नाम हो इससे क्या फर्क पड़ता है तब औरतों ने पूछा कि तुम विरोध क्यों करते हो। जमीन हमारे नाम होने दो।लेकिन तब जिला अधिकारी ने पट्टे महिलाओं को देने से इंकार कर दिया उन्हें महिलाओं के परिवार प्रमुख की भूमिका पर आपत्ति थी। वो पट्टे किसी नाबालिग पुरूष के नाम करने को तैयार थे। मगर महिलाओं के नाम कतई नहीं। अब महिलाओं को वाहिनी के कार्यकर्ताओं का पूरा समर्थन था और आखिर में सरकार की अधिसूचना के माध्यम से 1983 में जमीन के पट्टे महिलाओं के नाम भी किये गये। भूमि अधिकार के मामले मे महिलाओं की विश्व में पहली जीत थी। बोधगया आंदोलन न केवल भूमि अधिकार के लिये महत्वपूर्ण है बल्कि कार्य बंटवारे और वित्तरहित श्रम का प्रश्न सामाजिक समानता के समक्ष लाने का संघर्ष भी है। यहां उल्लेखनीय है कि इस इस भूमि आंदोलन का प्रमुख नारे ''जमीन किसकी जोते उसकी'' पर प्रश्न उठाया कि जमीन जो बोये या काटे उसकी क्यों नहीं। वास्तव में इसके पीछे भी वजह थी कि आंदोलन के पुरूष साथियों ने महिलाओं से पूछा था कि अगर जमीन वो लेंगीं तो जोतेगा कौन जवाब में महिलाओं ने कहा था कि अगर जमीन पुरूष लेंगें तो उन्हें बोयेगा या काटेगा कौन ?
यहां ध्यान रहे खेत में काम करना मर्दो के काम के तौर पर मान्यता ही नहीं रखता बल्कि इसे रचना कर्म की तरह मान्यता प्राप्त है। ठीक उसी तरह जैसा कि संतान जन्म देना। तो फिर काम का परितोषिक अथवा मालिकाना हक क्यों नहीं। जरूरत है कि वक्त कि नजाकत समझा जाये और महिलाओं को भूमि अधिकार देने में कोई कोताही ना बरती जाये।
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