कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

एक नारी सब पर भारी

पिछले पाँच दशक से जारी उग्रवाद से जर्जर हो चुके मणिपुर में एक निहत्थी युवती पिछले आठ साल से भी अधिक समय से महात्मा गाँधी के आंदोलन के औजार से बड़ी लड़ाई लड़ रही है। सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून, 1952 के खिलाफ वह पिछले आठ वर्षों से आमरण अनशन पर है। बात-बात पर हिंसा से रक्तरंजित पूर्वोत्तर में अन्याय का विरोध करने के लिए शर्मिला ने अहिंसा की राह चुनी। अन्य बागियों की तरह बंदूक उठाने की जगह बापू के सत्याग्रह का कठिन रास्ता अपनाया। पिछले आठ वर्षों से उनका अनवरत उपवास जारी है। उपवास तोड़ने के लिए उन पर कई तरह का दबाव डाला गया।

पुलिस उन्हें गिरफ्तार करती है, अदालत जेल भेजती है, फिर वह रिहा होती हैं
सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून, 1952
यह कानून सुरक्षाबलों के किसी भी रैंक के अधिकारी को संदेह के आधार पर किसी को भी गोली मारने, बिना वारंट गिरफ्तार करने और तलाशी लेने का असीम अधिकार देता है।

और अस्पताल पहुँचा दी जाती हैं। इस तरह अस्पताल का कमरा ही उनका घर बन गया है। नाक से जबरन उनके शरीर में पेय पदार्थ डाला जाता है। इस तरह उन्हें रोज यातना के दौर से गुजरना पड़ता है। उनकी जिंदगी जेल और अस्पताल में बीत रही है। फिर भी उनका आंदोलन जारी है। मणिपुर की लौह महिला के नाम से विख्यात ईरम शर्मिला का कहना है कि यदि गाँधीजी जिंदा होते तो इस कानून के खिलाफ पूरे देश में आंदोलन करते।


इम्फाल के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में एक कैदी के रूप में एक बिस्तर पर लेटी शर्मिला बताती हैं- 'हर हाल में मैं अपना अनशन जारी रखूँगी। मुझे भरोसा है कि लोग मेरे साथ हैं। उनके सहयोग से मेरा सपना सच होगा।' खुद को जिंदा रखने के लिए वे कई घंटे तक योग करती हैं। मध्यमवर्गीय परिवार की शर्मिला हाईस्कूल के बाद की शिक्षा ग्रहण करने की स्थिति में नहीं थीं। उनकी माँ ईरम सखीदेवी बेटी को देखने सिर्फ इसलिए नहीं जाती हैं कि शर्मिला कहीं भावुक होकर अपने संकल्प से डोल न जाए।

नारी शक्ति की आधुनिक कड़ी में मणिपुर की शर्मिला को शामिल किया जा सकता है, जो सुरक्षाबलों को असीम अधिकार देने वाले कानून के खिलाफ उपवास पर बैठी हैं। शर्मिला की आवाज बुलंद करने के लिए सभी के समर्थन की दरकार है, क्योंकि उनका यह सत्याग्रह निजी नहीं है। उनका विरोध सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून, 1952 से है जिसके तहत सुरक्षाबलों के हाथों कई निर्दोष मारे जा चुके हैं। किसी भी लोकतांत्रिक देश में इस तरह के कानून का लंबे समय तक रहने का कोई औचित्य नहीं है, खासकर तब जब उसके सार्थक परिणाम नहीं निकलें।

पिछली बार उन्हें अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर रिहा किया गया था लेकिन दो दिन बाद ही हमेशा की तरह आत्महत्या के प्रयास के आरोप में जेल और फिर अस्पताल भेज दिया गया।

2 नवंबर, 2000 का दिन शर्मिला के लिए नई चुनौती लेकर आया। उस दिन सेना ने दस नागरिकों को उग्रवादियों के नाम पर मार गिराया था। उस घटना ने उन्हें यह सख्त फैसला लेने पर मजबूर कर दिया। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून यूँ तो 1952 में बना, पर लागू 1958 में किया गया। इसे अशांत घोषित क्षेत्र में लागू किया जाता है। यह कानून सुरक्षाबलों के किसी भी रैंक के अधिकारी को संदेह के आधार पर किसी को भी गोली मारने, बिना वारंट गिरफ्तार करने और तलाशी लेने का असीम अधिकार देता है।

1958 के करीब मणिपुर में उग्रवाद आरंभ हुआ। 1978 आते-आते पूरे मणिपुर में उग्रवाद पसर चुका था। वहाँ तीस से अधिक उग्रवादी विचारधारा वाले समूह इस वक्त सक्रिय हैं। 1980 में पूरे राज्य को अशांत घोषित करके इस विशेष कानून को लागू कर दिया गया। सेना के उग्रवाद विरोधी अभियान और विशेष कानून को लागू करने के बावजूद उग्रवादी संगठनों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। जनता के दबाव में राज्य के कुछ हिस्से से इस कानून को उठाया गया।

प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने इस कानून को ज्यादा मानवीय बनाने की घोषणा की

सवाल यह उठता है कि क्या गाँधी के देश में ही गाँधी के तरीके से लड़ाई का तरीका अप्रासंगिक हो गया है? लेकिन मुश्किलें लाख आएँ हौसला अडिग हो तो लड़ाई थमती नहीं है।

और रेड्डी आयोग का गठन किया। आयोग ने भी कानून में संशोधन की सिफारिश की। आयोग की सिफारिशों को सेना के विरोध के कारण आज तक लागू नहीं किया गया है। रेड्डी आयोग की सिफारिशें प्रधानमंत्री कार्यालय में धूल खा रही हैं। राजनीतिक समस्याओं का समाधान राजनीतिक ढंग से ही संभव है।


सेना का तर्क है कि उग्रवादी संगठनों पर लगाम लगाने के लिए इस कानून को बनाए रखा जाना जरूरी है। इसके अभाव में काम करना मुश्किल हो जाएगा। नागरिक संगठनों का आरोप है कि सेना इस कानून की मदद से खुलेआम मानवाधिकार का हनन करती है। अपनी माँग पर पूरे देश का ध्यान आकर्षित करने के लिए दो वर्ष पूर्व शर्मिला जेल से रिहा होते ही गुपचुप दिल्ली पहुँचीं और सीधे राजघाट स्थित बापू की समाधि गई थीं।

लगता है कि वहाँ उसे बापू असहाय नजर आए। शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित ईरान की शिरीन इबादी जब भारत आईं तो एम्स में भर्ती शर्मिला से मिलने गई थीं। शर्मिला के दिल्ली जाने और जंतर-मंतर पर धरना देने का एकमात्र मकसद पूरे देश को अपने अनवरत उपवास की वजह बताना था। लेकिन लगता तो यही है कि इस देश में गाँधीजी के नाम पर राजनीति करने वालों की संवेदना कुंद हो चुकी है, क्योंकि गाँधीजी के तरीके से लड़ाई लड़ने वाली इस महिला की सुध लेने और उपवास की वजह को दूर करने का प्रयास अब तक नहीं हुआ है।

सवाल यह उठता है कि क्या गाँधी के देश में ही गाँधी के तरीके से लड़ाई का तरीका अप्रासंगिक हो गया है? लेकिन मुश्किलें लाख आएँ हौसला अडिग हो तो लड़ाई थमती नहीं है। नवंबर, 2000 से आमरण अनशन कर रहीं शर्मिला के सरोकार को आवाज देने के मकसद से पिछले पाँच माह से शर्मिला कनबा लुप के बैनर तले सैकड़ों महिलाएँ बारी-बारी से भूख हड़ताल कर रही हैं। यह संगठन शर्मिला को बचाने के लिए सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून, 1952 को हटाने की अपील कर रहा है। अलग-अलग महिला संगठन बारी-बारी से इसमें शामिल हो रहे हैं। कारवाँ जारी है, और रहेगा!

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