नई दिल्ली। पंडित जवाहर लाल नेहरु जनता को दो बैलों की जोड़ी पर मुहर लगाने को कहते थे, उनकी पुत्री इंदिरा गांधी जब पहली बार प्रधानमंत्री बनी तो उन्हें गाय और बछड़े से लोगों को वाकिफ कराने की जद्दोजहद उठानी पड़ी और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई चुनाव प्रचार के दौरान शुरू में जलते दीपक को याद रखने को कहते थे, लेकिन अब ये चुनाव चिह्न इतिहास के पन्नों में कैद हैं।
आजादी के बाद तीसरे आम चुनाव के समय से मार्किंग प्रणाली लागू किए जाने के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों को सिंबल [चुनाव चिह्न] आबंटित करने की परंपरा शुरू की गई, लेकिन पार्टियों में टूटन के साथ ही कुछ चुनाव निशान इतिहास बनते गए। चुनाव आयोग ने चुनाव चिह्न आदेश 1968 में पारित किया था जिसके आधार पर इनका आवंटन होता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, चुनाव चिह्न विशेष तौर पर भारतीय चुनाव में महत्वपूर्ण हैं जहां बड़ी संख्या में अनपढ़ मतदाता हैं जो उम्मीदवार की बजाय इन निशानों को आसानी से याद रखते हैं।
राजनेता भी इन चुनाव चिह्नों को लेकर बहुत सतर्क रहे हैं अत: इनके लिए वे संघर्ष भी करते रहे हैं। ये चुनाव चिह्न न सिर्फ उन्हें अपनी पार्टी का प्रचार करने में मददगार होते हैं बल्कि इनसे वे अपने अनुकूल जनता को संदेश भी देने का प्रयास करते रहे हैं।
देश में सबसे पहले जो प्रमुख चुनाव चिह्न विलुप्त हुआ वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दो बैलों की जोड़ी ही था जो दो दशक तक नेहरु और उसके बाद कुछ समय तक उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के लिए भाग्यशाली साबित हुआ। नेहरू के निधन के बाद 1969 में कांग्रेस में विभाजन के उपरांत इस चुनाव निशान को चुनाव आयोग ने जब्त कर लिया।
कांग्रेस जब 1971 में बंटी तो उसे गाय और बछड़ा चुनाव चिह्न आवंटित हुआ जबकि उससे अलग हुए धड़े को चरखा चलाती महिला मिला। कांग्रेस 1978 में फिर टूट गई जिसके साथ ही गाय और बछड़े की जगह पंजे ने ले ली जो अब यही पार्टी का प्रतीक बना हुआ है।
अलग हुए धड़े कांग्रेस [एस]को चरखा मिला जिसे महाराष्ट्र में शरद पवार से लेकर असम में शरद चंद्र सिन्हा तक ने संभाला।
चुनाव चिह्नों के इतिहास पर यदि निगाह डाली जाए तो एकमात्र भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सिंबल बाली और हसिया 1952 से अब तक उसके पास बना हुआ है और वह इसी पर जनता का समर्थन मांगती रही है। हालंाकि इस पार्टी में भी टूट हुई थी लेकिन अलग हुए गुट मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को हसिया हथौड़ा सितारा आवंटित हुआ जिसे लेकर पार्टी 1967 से चुनाव में उतर रही है।
मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की नींव दरअसल पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ के अवशेष पर पड़ी है, जिसका 1977 में जनता पार्टी में विलय हो गया था, लेकिन 1980 में यह गुट उससे अलग हो गया और भाजपा अस्तित्व में आई जिसे कमल का फूल चुनाव चिह्न आवंटित किया गया। इससे पहले भारतीय जनसंघ के नेता के तौर पर वाजपेई और आडवाणी सहित उनके सहयोगी जलता दीपक के लिए वोट मांगते थे।
इन चुनाव चिह्नों के दुरूपयोग संबंधित विवाद भी उठते रहे हैं और कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह ने लालकृष्ण आडवाणी की विवादास्पद और चर्चित रथयात्रा के दौरान कमल के फूल निशान से हिंदु भावनाओं के दोहन का आरोप लगाते हुए इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जिस पर चुनाव आयोग ने सुनवाई भी शुरू की थी। भारतीय चुनावों में हाथी पहले आम चुनाव से ही मौजूद रहा है और उसने दलित राजनीति का प्रतिनिधित्व किया है। पहले यह डा. भीमराव अम्बेडकर की पार्टी [आल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन][1952 और 1957 में] का था, फिर 1962 में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया का निशान बना जो अंबेडकर की पार्टी की तरह ही अनुसूचित जातियों के हितों के लिए समर्पित होने का दावा करती थी। अब यह कांशीराम द्वारा स्थापित बसपा का प्रतीक है।
इस हाथी की सवारी असम गण परिषद, नगालैंड पीपुल्स पार्टी, सिक्किम संग्राम परिषद और पीएमके आदि ने भी की है। अब भी यह चिह्न असम में अगप को मिला है जबकि देश के अन्य हिस्सों में बसपा इसका उपयोग करेगी।
जानवरों को चुनाव चिह्न के तौर पर इस्तेमाल करने के चलन को हालांकि चुनाव आयोग ने पशु प्रेमियों और पर्यावरणवादियों के आग्रह पर रोक दिया है, लेकिन जो पहले से चले आ रहे हैं उनका उपयोग जारी है, जिनमें शेर भी है जो कई राज्यस्तरीय पार्टियों का निशान रहा है।
कुछ अन्य चुनाव चिह्न ऐसे हैं जिनपर देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग पार्टियां लोगों से वोट मांगती हैं। ऐसे निशान में साइकिल प्रमुख है जिस पर उत्तर प्रदेश में सपा चलती है तो आंध्र प्रदेश में तेदेपा इसकी सवारी करती है।
उगता हुआ सूरज जहां दक्षिण की द्रमुक का चुनाव चिह्न है, वहीं यह पूर्व में एससीआर, वीआईएसएच, यूजीएफजी आदि का प्रतीक रहा है। दो पत्तियां इसी प्रकार अन्ना द्रमुक और तृणमूल कांग्रेस का निशान हैं।
दर असल चुनाव आयोग ने तीसरे आम चुनाव से पहले जो व्यवस्था बनाई है उसके अनुसार राष्ट्रीय दलों के लिए चुनाव चिह्न आरक्षित हैं, लेकिन क्षेत्रीय दलों के लिए जो निशान उपलब्ध होते हैं वह अलग अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों को आवंटित किए जाते हैं। चुनावों पर बारीक निगाह रखने वालों के अनुसार समय के प्रवाह के साथ कुछ ऐसे चुनाव निशान मतदाताओं की निगाहों से ओझल हो गए, जिन्होंने कची अच्छी खासी पैठ बनाई थी। इनमें स्वतंत्र पार्टी का सितारा, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की झोपड़ी, हिंदु महासभा का घोड़े पर सवार सैनिक और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का बरगद शामिल है जिनसे नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और यहां तक कि वाजपेई और आडवाणी भी दूरी बनाने की जनता को सलाह देते थे।
वे कौन लोग हैं जो पृथ्वी को नारंगी की शक्ल में देखते हैं और इसे निचोड़कर पी जाना चाहते हैं यह तपी हुई अभिव्यक्ति है उस ताकत के खिलाफ---जो सूरज को हमारे जीवन में---उतरने से रोकती है---जो तिनके सा जला देती है---और कहती है---यह रही तुम्हारे हिस्से की रोशनी।'
कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी
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मन्दिरा इंसान दो तरह के होते हैं! अच्छे लोग और बुरे लोग........मगर इतना भर कह देने से सब कुछ ठीक नहीं होजाता! दुनिया रंगीन है यह...
याद भूले बिसरे चुनाओ चिन्हों की
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