आने वाले सालों में हिमाचल प्रदेश की पहचान शायद 'एपल स्टेट' के रूप में न हो। वजह यह कि सेब उत्पादन का क्षेत्र सिकुड़ रहा है। इसके लिए जिम्मेदार है दो दशक से मौसम की दगाबाजी और लगातार बढ़ता तापमान।
जिला कांगड़ा स्थित पालमपुर कृषि विवि में क्लाइमेट चेंज पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों ने यह खुलासा किया है। शोध में इस बात का पता चला है कि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिग का असर गहराने के कारण हिमाचल से सेब का नामोनिशान मिट सकता है। लगभग ढाई दशक से हिमाचल में जिन ऊंचाई वाले इलाकों में पहले सेब की भरपूर फसल हुआ करती थी, अब वहां पैदावार घट रही है। इसकी गुणवत्ता पर भी बदलते मौसम का असर पड़ा है। 25 साल पहले की तरह सेब की क्वालिटी अब देखने को नहीं मिल रही। आकार भी इससे प्रभावित हुआ है।
शोध में पता चला है कि पिछले 22 साल के दौरान हिमाचल में 0.3 से लेकर 1.7 डिग्री सेल्सियस तक तापमान में वृद्धि हुई है। यह वृद्धि उन इलाकों में हुई, जो पूरी तरह से सेब बेल्ट के रूप में जाने जाते हैं। इनमें शिमला, लाहुल-स्पीति, चंबा जिले के जनजातीय इलाके, मंडी व कुल्लू के ऊंचाई वाले शामिल हैं।
वैज्ञानिकों ने बताया कि इन इलाकों में हुई तापमान की वृद्धि सेब के वजूद पर संकट खड़ा कर रही है। विवि के कुलपति डा। तेज प्रताप ने बताया कि सेब की फसल को पनपने के लिए आठ सौ से लेकर बारह सौ ठंडे घंटे [चिलिंग आवर] चाहिए। कभी सेब की भरपूर फसल पैदा करने वाले क्षेत्रों में अब चिलिंग आवर पूरे नहीं हो रहे हैं। मतलब हिमाचल की सेब की बेल्ट में इतनी ठंड नहीं हो पा रही है कि सेब के जरूरी चिलिंग आवर पूरे हो सकें। अच्छा ही है चलो अब सीमेंट प्लांट और एजूकेशन हब में सेब की क्या ज़रूरत
इतिहास के झरोखे से
....अहोम नरेश ने की थी पहली बगावत
गुवाहाटी। अंग्रेजों के खिलाफ पहली बगावत मंगल पांडेय ने नहीं की थी बल्कि सिपाही विद्रोह से 30 साल पहले 1827 में अहोम के प्रिंस ने अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह किया था। यह जानकारी दो वर्ष पूर्व खोजी गई पांडुलिपि से मिली है।
प्रिंस गमाधर कोनवार ने अपने विश्वासी धनंजय बोरगोहेन के साथ असम को स्वतंत्र कराने के लिए मरियानी में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था। एक साल बाद अंग्रेजों ने यानडाबो के साथ संधि कर इसे अहोम में मिला लिया। प्रिंस को इतिहास में समुचित स्थान दिलाने के लिए बने समूह के सचिव जिंतू हजारिका ने कहा, 'इतिहास को भारत के स्वाधीनता आंदोलन में कोनवार के योगदान को स्वीकार करना चाहिए जो दो साल पहले तीस पृष्ठ के 'सांची पात' या वृक्ष के छाल पर पांडुलिपि की खोज के बाद प्रकाश में आया। पांडुलिपि को कोनवार के निकट सहयोगी मोखम बरूआ ने ताई भाषा में डायरी के रूप में लिखा है।
हजारिका ने कहा कि शिवसागर जिले के देवधाई गांव के ताई के शिक्षक मृदुल फूकन द्वारा खोजे जाने से पहले यह पिछली दो शताब्दियों से बरूआ के वंशजों के पास पड़ी हुई थी।
अहोम के राजा प्रताप सिंघा के निकट संबंधी कोनवार ने यानदाबो संधि पर हस्ताक्षर के बाद 1826 में जोरहट के नानकचारी में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। उन्होंने रोंगपुर में ब्रिटिश शस्त्रागार में आग लगा दी और नागा पहाड़ियों की ओर भाग गए लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर 1828 में अंडमान भेज दिया।
हजारिका ने कहा कि भले ही कोनवार और उनके सहयोगी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में विफल रहे लेकिन इससे असम में विद्रोह की छिटपुट घटनाओं को प्रोत्साहन मिला। हजारिका के समूह ने नानकचारी में तीन दिवसीय कार्यक्रम करवाने की योजना बनाई है जहां कोनवार ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी।
वह मोखम बरूआ की पांडुलिपि को तीन भाषाओं ताई, असमिया और अंग्रेजी में प्रकाशित करवाने की योजना बना रहे हैं।
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