उनकी प्रोफाइल जानने से पहले उनके विचार जानिए। वह कहते हैं-'पेंशन लेना स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी की फीस वसूलना है।' इन साहब को फाके मंजूर हैं, लेकिन सरकार से वह पेंशन लेना नहीं, जो उनका हक है। यह शख्स हैं स्वतंत्रता सेनानी एवं पूर्व विधायक राम एकबाल वरसी। यह वही वरसी हैं, जिन्हें डा. राम मनोहर लोहिया 'पीरो का गांधी' कहते थे। पीरो बिहार के भोजपुर जिले का अनुमंडल है।
राजनीति के मौजूदा दौर में वरसी जैसे लोग भले ही अप्रासंगिक दिखें। लेकिन लोकतंत्र और सदाचार में हमारी आस्था को बल प्रदान करते हैं। पेंशन न लेना शायद उतनी बड़ी बात नहीं, जितनी उसके पीछे की भावना। उन्हें भूखे रहना मंजूर हैं। लेकिन सरकार से सहायता लेना नहीं। वरसी 85 साल के हैं, देश की आजादी के लिए लड़े बाद में विधायक भी बने, लेकिन न तो उन्होंने कभी सेनानी पेंशन ली और न विधायक पेंशन।
ऐसा क्यों? वरसी का सरल उत्तर है कि उनकी पेंशन का पैसा आम जनता की गाढ़ी कमाई का है। उसे गरीबों, किसानों एवं मजलूमों पर खर्च होना चाहिए। बकौल राम एकबाल वरसी आजादी की लड़ाई उसकी कीमत वसूलने के लिए नहीं लड़ी।
वरसी [तरारी] गांव में उनका पुराना खपरैलनुमा घर वीरान हो चला है। महज दो बीघे पुश्तैनी खेत से पर्याप्त उपज न मिलने एवं आजीविका के लिए गांव में विकल्प न होने से वरसी जी के इकलौते पुत्र शिवजी सिंह यहां से पलायन कर गए। वह अब केंद्रीय मंत्री डा. कांति सिंह के सहायक हैं और पटना में रहते है। पत्नी एवं भाई के स्वर्गवासी होने के बाद वरसी जी अब गाहे-बगाहे ही गांव का रुख करते है। बहुत दिनों तक डालमियानगर स्थित कंपनी क्वार्टर में रहने के बाद स्वास्थ्य कारणों से अब अधिकांश समय पटना में रहते है।
इसका मतलब यह नहीं कि वह रिटायर्ड जीवन जी रहे हैं। वह किसानों के कल्याण के लिए समय-समय पर गांवों में बैठकें करते है। ग्रामीणों में स्वावलंबी बनाने का दम भरते है। स्वदेशी के प्रयोग पर जोर देते है कि इसी से लोग स्वावलंबी हो होंगे। समय के पाबंद वरसी जी को आसपास की साफ-सफाई करते रोज देखा जा सकता है। अपनी थोड़ी बहुत जरूरतें हैं तो उसके लिए लोगों से सहायता लेते हैं। लेकिन केवल एक रुपया प्रति समर्थक। उनके प्रशंसक उन्हे स्थायी रूप से अपने घर रखने की कोशिश करते है। लेकिन यह वरसी जी को स्वीकार नहीं। इसलिए गांवों का भ्रमण कर किसानों को पारंपरिक खेती के लिए प्रेरित करते है। उनका मानना है कि कृषि कार्य में मशीनों के उपयोग से बेरोजगारी बढ़ी है और देश में कल-कारखानों की तुलना में खेत-खलिहानों को अधिक अहमियत दी जानी चाहिए।
क्या कोई सुन रहा है जो राम एकबाल वरसी से प्रेरणा लेगा ?
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