भारतीय संसदीय इतिहास में समय-समय पर ऐसे राजनीतिक दल उभरे जिन्होंने राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय राजनीति में उपस्थिति दर्ज कराई लेकिन कालचक्र से वे उबर नहीं पाए तथा समाप्त हो गए।
चुनावी रंगमंच पर कलाबाजी दिखाने वाले इन दलों में कई का नाम शायद आज की पीढ़ी को याद भी नहीं होंगे जिनमें अखिल भारतीय राम राज्य परिषद, स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी आदि शामिल हैं।
दिलचस्प पहलू यह भी है कि पहला आम चुनाव लड़ने वाली देश की जितनी भी प्रमुख राजनीतिक पार्टियां हैं उन सभी का आजादी के बाद विभाजन हुआ और समाजवादियों में बिखराव सबसे ज्यादा हुआ।
वरिष्ठ समाजवादी नेता और पूर्व सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह समाजवादी पार्टियों की टूटन के बारे में कहते हैं कि 67 के बाद सत्ता से स्वभाव बदला। नीति, नैतिकता, मान्य मूल्य प्रभावित हुए। उन्होंने कहा कि 77 के बाद समाजवादियों में और बिखराव हुआ और इसके नेताओं ने सुविधा एवं सहूलियत के अनुसार नीति स्वीकार करने का काम किया।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री वसंत साठे तो विशेष तौर पर मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य का हवाला देते हुए कहते हैं कि बरसाती मेंढकों की तरह पार्टियां उभर आई हैं जो भाषाई, जातीय और क्षेत्रीय दबदबे को औजार बनाकर लोगों को अपने पक्ष में खड़ी करती रही हैं। उन्होंने कहा कि लेकिन केंद्रीय सत्ता में आने के लिए सिर्फ इतने से काम नहीं चल सकता जहां से क्षेत्रों में किए जाने वाले वादों को पूरा करने के लिए धन आता है। उन्होंने कहा कि पार्टी चलाने के लिए भी धन की आवश्यकता पड़ती है जो सत्ता से दूरी होने पर मुश्किल हो जाता है।
आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के भीतर रह कर काम करने वाली सोशलिस्ट पार्टी पहली बार 1955 में टूटी जब राम मनोहर लोहिया ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनाई। दोनों पार्टियों ने 1957 और 1962 का चुनाव अलग अलग लड़ा। फिर 1965 में मिल गईं और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनी जो उसी साल फिर टूट गई। 67 का चुनाव इन्होंने अलग अलग लड़ा।
सोशलिस्ट फिर 1971 में एकजुट हुए लेकिन कुछ राज्यों में इनके छोटे छोटे गुट रह गए। इन सभी ने 1977 में जनता सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्हीं समाजवादियों की जड़ से मौजूदा समाजवादी पार्टी, जनता दल सेक्युलर, जद यू निकली हैं।
सिंह के अनुसार 1935 में स्थापित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में व्यक्तिगत खुन्नस, आकांक्षा और एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह टूटन का कारण बना। उन्होंने कहा कि सोशलिस्ट पार्टियों के नेता समय के अनुसार बदले नहीं और वे दूसरी पार्टियों में जाते रहे।
देश में आजादी के बाद राजनीतिक दलों के इतिहास पर नजर डालें तो पहले आम चुनाव में 1951-52 में 14 राष्ट्रीय राजनीतिक दल और 59 राज्य स्तरीय पार्टियां चुनाव में उतरी।
चुनाव आयोग के दस्तावेज पर दृष्टिपात करें तो इनमें लोगों से वोट मांगने वाली और कुछ सीटों पर जीत दर्ज करने वाली 50 से अधिक पार्टियों का आज कहीं कोई नामोनिशान नहीं है। जयगुरुदेव प्रायोजित दूरदर्शी पार्टी जैसे दल एकाध चुनाव लड़कर परिदृश्य से लापता हो गए। दूरदर्शी ने 1984 का चुनाव लड़ा था। ऐसी पार्टियों में पुरूषार्थी पंचायत, सत संघ, किसान संघ, लाल कम्युनिस्ट पार्टी, अखिल भारतीय जनसंघ, बोलसेविक पार्टी आफ इंडिया, अखिल भारतीय हिंदू महासभा, अखिल भारतीय राम राज्य परिषद, आल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन, सोशलिस्ट पार्टी आदि शामिल हैं।
दूसरे आम चुनाव में जनसंघ, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी प्रमुखता से लड़ी।
विशेषज्ञों के अनुसार आजाद भारत में दो महत्वपूर्ण राजनीतिक दल बने जो भारतीय जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी थी। जनसंघ की स्थापना नेहरू मंत्रिमंडल से पाकिस्तान के मुद्दे पर अलग हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की तो सी राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी समाजवाद के विरोध में बनाई जिसे राजे रजवाड़ों का समर्थन हासिल था।
भारतीय जनसंघ का ही नया अवतार भारतीय जनता पार्टी है जो 1980 में जनता पार्टी से अलग होकर अस्तित्व में आई। स्वतंत्र पार्टी ने 62, 67 और 71 के चुनाव लड़े तथा उन क्षेत्रों में अच्छा वोट हासिल किया जहां रजवाड़ों का प्रभाव था।
स्वतंत्र पार्टी से वाराणसी से चुनाव लड़ने वाले धर्मशील चतुर्वेदी ने कहा कि इस पार्टी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में अच्छी सफलता प्राप्त की थी लेकिन पीलू मोदी की अध्यक्षता वाली इस पार्टी के भारतीय लोकदल में विलय के साथ इसका अस्तित्व खत्म हो गया।
राजाजी ने 1959 में स्वतंत्र पार्टी बनाई थी जो जमींदारों, उद्योगपतियों की हितैषी मानी गई और इसने कंट्रोल लाइसेंस परमिट राज का विरोध किया।
भारतीय जनसंघ ने 1952 में 3.1 प्रतिशत वोट तीन सीट, 1957 में 5.9 प्रतिशत वोट चार सीट, 1962 में 6.4 प्रतिशत वोट और 14 सीट तथा 1967 में 9.4 प्रतिशत वोट 35 सीट हासिल की।
भारत में जिस प्रकार का लोकतंत्र है उसमें राजनीतिक दलों के गठन और उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। इसी का नतीजा था कि जेबी कृपलानी, रफी अहमद किदवई और कुछ अन्य ने 1951 में कांग्रेस छोड़कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई थी। इसी प्रकार आजादी के बाद कुछ सालों तक एक पार्टी देश में चर्चा में रहती थी जिसे राम राज्य परिषद के नाम से जाना जाता था। इस पार्टी के नेताओं में करपात्रीजी और महंत अवैद्यनाथ शामिल थे। यह पार्टी भी चुनावों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेती थी लेकिन अब उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसने 1980 तक चुनाव लड़ा।
आल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ने 1952 और 1957 के चुनावों में शिरकत की और बाद में अन्य दलों ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों का एजेंडा हथिया लिया। अब इस वर्ग के हितों के हिमायती के तौर पर कांशीराम द्वारा स्थापित बसपा उभरी है।
आजादी के बाद कांग्रेस और भाकपा भी विभाजन से अछूती नहीं रही। कांग्रेस में पहला प्रमुख विभाजन 1969 में हुआ जब कांग्रेस [ई] और कांग्रेस [ओ] बने। उसके बाद यह 1977 में पराजय के बाद टूटी और इस टूट का नेतृत्व के ब्रह्मानंद रेड्डी तथा देवराज अर्स ने किया। कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन 1964 में हुआ जिसके बाद माकपा का उदय हुआ। देश की सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कषगम है जिसकी स्थापना सीएन अन्नादुरै ने 1957 ने की और यह 1926 में ईवी रामास्वामी नायकर द्वारा शुरू किए गए सामाजिक बराबरी तथा आत्मसम्मान आंदोलन की उपज थी। इसमें विभाजन से अन्नाद्रमुक अस्तित्व में आई।
इसके बाद कई अन्य क्षेत्रीय दल उभरे जिनमें शिवसेना, बीजद, अगप आदि शामिल हैं। मजहब के आधार पर अकाली दल और मुस्लिम लीग जैसी पार्टियां भी देश में बनी हुई हैं हालांकि इसके खिलाफ संविधानसभा में प्रस्ताव पारित किया गया था।
जय हो : इतेमाद खान से नर्गिस तक
खंडवा। देश को पहला किन्नर विधायक देने वाले मध्य प्रदेश से अब एक अन्य किन्नर लोकसभा में जाने की तैयारी कर रहा है। किन्नर नरगिस मौसी मध्य प्रदेश की खंडवा लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतर रही हैं। इंडियन जस्टिस पार्टी ने उन्हें अपना उम्मीदवार भी घोषित कर दिया है।
नरगिस मौसी ने राजनीति में आने और खुद को मिल रहे जनसमर्थन के बारे में कहा कि आम मतदाता जानता है कि हमारी जरूरत केवल तन ढकने को कपड़ा और पेट भरने को रोटी तक सीमित है। संपत्ति जुटाने या बैंक बैलेंस बढ़ाने से हमारा कोई सरोकार नहीं है जबकि मौजूदा राजनीति में चुनाव मैदान में उतरने वाले ज्यादातर लोगों का लक्ष्य अपना घर भरना होता है।
नरगिस मौसी ने बताया कि पिछले दिनों टिकट के सिलसिले में वह केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव से भी मिली थीं। लेकिन, कांग्रेस से दलीय समझौते के कारण राष्ट्रीय जनता दल [राजद] मध्य प्रदेश में कोई प्रत्याशी नहीं उतारना चाहता। इसके बाद उन्होंने इंडियन जस्टिस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उदित राज से मुलाकात की, जिन्होंने सहर्ष उन्हें अपनी पार्टी का टिकट दे दिया।
नरगिस मौसी ने कहा कि बड़ी संख्या में किन्नर भी उनका चुनाव प्रचार करेंगे। उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह रेल का इंजन है।
इससे पहले राज्य में एक अन्य किन्नर शबनम मौसी ने 1998 में शहडोल जिले की सोहागपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा था और जीत दर्ज की थी। देखना है कि अब नरगिस मौसी देश की संसद में पहुंच पाती हैं या नहीं। मगर हम चाहेंगे की समाज के हाशिये पर जा रहे किन्नरों की संसद में भागीदारी सुनिश्चित होगी ताकि हम गर्व से कहें "हम हैं दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के गौरवशाली नागरिक"
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