महोदय
मैं ये खुला पत्र
क्षोभ और दुःख के साथ लिख रहा हूँ, मुझे इतना अधिक गुस्सा है की मैं सोच भी नहीं
पा रहा की बात शुरू कैसे की जाए, मैं सिलसिलेवार कह देता हूँ
अख़बारों के ज़रिये
मुझे पता चला की आपके कमीशन ने संसदीय चुनाव में प्रतेयाशियों के खर्च की सीमा बढ़ा
कर चालीस लाख कर दिया है जिस पर मुझे आपत्ति नहीं है जिसके पास पैसा होगा खर्च कर
ले और लोग तो उससे ज्यादा ही करेंगे मगर आचार संहिता के नाम पर जो ज़ुल्म किया गया
है वो संभ्रातवादी सनक के अलावा कुछ नहीं है, मुझे पता चला है की आपके कमीशन ने कई
प्रकार से प्रचार करने को रोक दिया है!
मैं अभी टी सी एन
के संपादक के साथ एक हफ्ते के अध्यययन टूर पर था जहाँ मैंने प्रशाषण की बेजा हरकते
देखी, मुझे सब सनक के अतिरिक्त कुछ नहीं लगा, इस विविधता के देश में जो आजतक अपने
नागरिको को ठीक से भोजन नहीं दे पाया जो आज भी १० से ३० रूपये तक के लोगों को
गरीबीरेखा से बाहर निकलने के अर्थशास्त्रिय नौटंकी कर रहा है वहाँ दीवारों पर नारे
लिखने माइक बजने से रोक देने कम गाडियां और गिनती के कार्यकर्ताओं को प्रचार करने
की अमेरिकी नक़ल इस देश के नागरिको (जिन्हें आप और संभतवादी राजनैतिक दल शायद
नागरिक भी नहीं समझते) को क्रूर मजाक है! क्या आप को पता है की इस देश में हजारो
हज़ार ऎसी लोग हैं जो माइक और चोंगे को किराये पर लगा कर अपना पूरा जीवन चलते हैं
यही उनका कुटीर उद्धोग है यही उनका कारखाना वो दहेज में मिले पैसे से पूंजी लगते
हैं और बेटी के दहेज से लेकर जिंदगी के तमाम उपकर्म करते हैं! क्या आपको पता है की
इस देश में बैनर लिखने वाले पुरे पांच साल चुनाव का इंतज़ार करते हैं उनका सीज़न है
चुनाव लगातार लिखने का ठेका मिल जाता है और उनके जिंदगी के बड़े काम हो जाते हैं
बेटी की शादी हो या बेटे की दुकान लगाने के लिए पूंजी का इन्तेजाम या घर की छत ठीक
करना,
ये छोटी छोटी
चीजें आपको भले छोटी लगे मगर यही छोटी चीजें ही हैं जो लोगों को शहर की ओर पलायन
का कारण बनती है जहाँ वो कुछेक सौ हज़ार की नौकरी करते है बीमार होते हैं और मर
जाते हैं और मजदूरों की एक खेप हमेशा तैयार रहती है, क्या आप जानते है की चुनाव के
दौरान चुनावी कैसेट में गाने वाले गवैय्यों के लिए ये कितना बड़ा मौका होता है ? वो
तमाम टैलेंट जो अपनी औकात ना होने की वजह से कुछ नहीं कर पाते ऐसी कैसेटो को
रिकार्ड करवाते हैं जो उनके लिए पैसा और नाम दोनों की वजह बनती है!
मगर ये आप लोग
क्या कर रहे हैं, कैसा अर्थशास्त्र है आप लोगों का
कैसी गणितीय गणना
है आपकी
क्या मैं पूछ
सकता हूँ की अगर एक प्रयाताशी प्रचार के इन माध्यमों पर खर्च नहीं करेगा तो कहाँ
करेगा क्या आप का ध्येय ४० लाख रूपये में शराब और रूपये बंटवाने का है ?
एक संसदीय
क्षेत्र में विधान्सभानुसार दो गाड़ियों का प्रावधान भी बचकाना ही है उसपर से
गाड़ियों में केवल ५ कार्यकर्त्ता, हद है
क्या आपको पता है
आपके इस देश में आपका कानून अदालत प्रशासन एक सीमा के बाद दम तोड़ देता है! फिर
इतना आदर्शवाद क्यूँ
इस देश में एक
बड़ी जनसख्या है राजनैतिक कार्यकर्ताओं की जो गांव से लेकर शहरो तक फैली है वो
समाजिक और राजनैतिक कार्यकर्त्ता हैं जिंदगी भर किसी विचारधारा या समुदाय विशेष के
हित के मुद्दे उठाते हैं वो दबाव गुट के अनिवार्य अंग है उन्हें कोई दल सरकार या
समाज कोई पैसे नहीं देता, उनके लिए भी चुनाव एक उत्सव है भाषण कला के जरिया दल
विशेष में अपनी उपस्थिति दर्ज करने का समाज में अपना प्रभाव दिखाने का या फिर वही
अर्थशास्त्रिय चिंता कुछ पैसा बनाने का
हो सकता है ये
नैतिक तौर पर गलत समझा जाए मगर जिस राजनीति में मगरमच्छ बैठकर पैसा खा रहे हों
वहाँ इन केकड़ों पर लगाम का क्या मतलब है ? अगर देश में अचल पड़ा काला धन चुनाव के
कारण ही बाहर निकलता है तो बुरा क्या है ? क्या सारा फैसला नीति और नैतिकता इन्ही
१० से ३० रूपये कमाने वाले पर लागू होती है!
राजनैतिक दल अरबो
रुपया खर्च कर विदेशी कंपनियों से अपना प्रचार कराएँ आपको आपत्ति नहीं है और वो
राजनैतिक दल विदेशियों को उतना ही पैसा देते हैं जितना बताते है इस पर विश्वाश
करने का कम से कम मेरे पास कोई कारण नहीं है,
मगर अगर यही पैसा देश के नंगे भूखे लोगो की क्रय शक्ति बढ़ाने में लग जाए तो
आपत्ति है! मुझे आपकी आपत्ति पर आपत्ति है
हम अंतिम आदमी और
छोटे दबाव गुटों या राजनैतिक दलों को राजनैतिक तौर पर ख़ारिज करने की इस गणितीय
साजिश को मुंहतोड जवाब देंगे
मैं चाहता हूँ की
आपका कमीशन ये नोट करे की मैं आचार संहिता का उलंघन करने के उद्देश्य से अगला
चुनाव लडूंगा और मेरे प्रचार में वो तमाम चीजें शामिल की जाएँगी जिन्हें आपने
प्रतिबंधित किया है
भवदीय
आपके देश का
एकलौता महान नागरिक
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