कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

हरामखोरी की हसरत


फोटो हरियाणा की एक बस्ती का है! डेल्ही का नहीं ;)



............बस्ती से बहार आते हुए तैमूर नगर गुरुद्वारे के पास वाले सुलभ शौचालय के सामने से गुज़रे तो देखा की शौचालय का स्टाफ एक आदमी पर चिल्ला रहा था की स्टाफ हो तो अपनी पहचान दिखाओ 
मतलब यहाँ भी स्टाफ चलाया जा रहा था! अक्सर बसों में किराया ना देने वाले लोग अपने को स्टाफ बताते रहे हैं दिल्ली की रिवायत है और दिल्ली क्या कई जगह ऐसे स्टाफ बताया जाता है! कालेज और विश्व-विद्यालय के छात्र अगर बस वालों को किराया दें तो ये उनकी तौहीन मानी जाती है (बेईमानी का प्रशिक्षण यहीं से शुरू हो जाता है) मैंने भी बचपन में अक्सर सोचा है की काश मैं भी बस का स्टाफ होता तो मुझे भी किराया नहीं देना पड़ता! मगर नहीं अपनी किस्मत में स्टाफ बनना था ही नहीं! सो मैंने बसों में किराया देना शुरू कर दिया पहले मज़बूरी में और बाद में स्वेच्छा से! अपने छात्र जीवन में भी हमेशा किराया दिया अक्सर मजाक उड़ाया गया की नालायक किराया देता है! डरपोक साला (वैसे ये सच था मुझे कंडक्टर से हमेशा डर लगता रहा है अब भी इसी लिए तो कम दुरी के लिए कभी बस का इस्तेमाल नहीं करता) फिर भी देता रहा आज भी देता हूँ! स्टाफ नहीं चला सका अब सुलभ शौचालय की बात आई है तो बिन्देश्वरी पाठक से कई बार मिला भी हूँ हम दोनों बिहारी भी हैं पटना गया लाइन के एक ही धंधे में हैं तो अगली बार ट्राई करूँगा की सुलभ शौचालय में स्टाफ चला सकूँ! और मुफ्त में कुछ कर पाने की ख़ुशी हासिल कर सकूँ! और दोस्तों को गर्व से बता सकूँ की मैंने भी बेईमानी और हरामखोरी की परम्परा कायम रखी है

(डायरी से 5 जून 2010)

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