कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

श्मशान-शिला की चिकनी पीठ

पागलों की कोई जाति नहीं होती

न धर्म होता है

वे लिंग-भेद से भी परे होते हैं

उनका चाल-चलन अपना ही होता है

उनकी शुद्धता को जानना

बड़ा कठिन है।



पागलों की भाषा सपनों की भाषा नहीं

वह तो किसी दूसरे ही यथार्थ की भाषा

उनका प्रेम चांदनी है

जो पूर्णिमा में उमड़ता-बहता है।



जब वे ऊपर की ओर देखते हैं

तो ऐसे देवता लगते हैं

जिन्हें कभी सुना-गुना ही न हो

जब हमें लगता है कि

यूँ ही कंधे झटक रहे हैं वे

तो उड़ रहे होते हैं उस वक़्त वे

अदृश्य पंखों के साथ।



उनका विचार है कि

मक्खियों में आत्मा होती है

देवता टिड्डे बन कर हरी टांगों पर फुदकते हैं

कभी-कभी तो उन्हें वृक्षों से

रक्त टपकता दिखाई देता है

कभी-कभी गलियों में

शेर दहाड़ते दिखाई देते हैं।



कभी-कभी बिल्ली की आँखों में

स्वर्ग चमकता देखते हैं

इन कामों में तो वे हमारे जैसे ही हैं

फिर भी चींटियों के झुण्ड को गाते हुए

केवल वही सुन सकते हैं।



जब वे सहलाते हैं पवन को तो

धरती को धुरी पर घुमाते हुए

आंधी को पालतू बनाते हैं

जब वे पैरों को पटक कर चलते हैं तो

जापान के ज्वालामुखी को

फटने से बचा रहे होते हैं।



पागलों का काल भी दूसरा होता है

हमारी एक सदी

उनके लिए एक क्षण-भर होती है

बीस चुटकियाँ ही काफ़ी है उनके लिए

ईशा के पास पहुँचने के लिए

आठ चुटकियों में तो वे बुद्ध के पास पहुँच जाएंगे।



दिन भर में तो वे

आदिम विस्फोट में पहुँच जाएंगे

वे बेरोक चलते रहते हैं

क्योंकि धरती चलती रहती है



पागल जैसे

पागल नहीं होते। 

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धरती ने मुझे सिखलाया है-
सब कुछ स्वीकारना
सब कुछ के बाद
सबसे परे हो जाना
हर ऋतु में बदलना
यह जानते हुए कि
स्थिरता मृत्यु है
चलते चले जाना है
अन्दर और बाहर।

अग्नि ने मुझे सिखलाया है-
तृष्णा में जलना
नाचते-नाचते हो जाना राख
दुख से होना तपस्वी
काली चट्टानों के दिल और
सागर के गर्भ में
प्रकाश जागते हुए
ध्यानमग्न होना।

जल ने मुझे सिखलाया है-
बिना चेतावनी
आँख और बादल में से
टप-टप टपकना
आत्मा और देह में
गहराई तक रिसना
और इन दोनों को देना सँवार
फूल और आँसू से
स्वयं होना मुक्त
नाव और ठाँव से
और विलय हो जाना
स्मृतियों के किनारे
उस अतल नील में।

पवन ने मुझे सिखलाया है-
बाँस के झुरमुट में निराकार गाना
पत्तियों के माध्यम से भविष्य बतलाना
बीजों को पर-पंख
हवा-सा दुलराना
आंधी-सा रुद्र होना।

पंचभूतों ने मुझे यह सिखलाया-
जोड़ना-जुड़ना
टूटना-बिखरना
रूप बदलते रहना
जब तक न मिले मुक्ति
मुझे सारे रूपों से। 

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गली में गिरी सुबह की ओस पर

मैं लिख रहा हूँ तेरा नाम

जैसे पहले भी किसी कवि ने

लिखा था नाम- स्वतंत्रता का

हरेक चीज़ पर।



तेरा नाम लिखने लगा तो

मिटाना कठिन हो जाएगा

धरती और आकाश पर

क्रांति के साथ

प्रेम के लिए भी जगह है

तेरे नाम की सेज पर

सो रहा हूँ मैं

तेरे नाम की चहचहाट के साथ

जागता हूँ मैं

जहाँ-जहाँ मैं स्पर्श करता हूँ

उभर आता है तेरा नाम

झरते पत्तों के घसमैले रंगों पर

प्राचीन गुफाओं की स्याह दीवारों पर

कसाई की दुकान के दरवाज़े पर

गीले रंगों पर

ताज़े लहू पर

जुत रहे खेतों पर

चांदनी के फड़फड़ाते पंखों पर

काफ़ी और नमक पर

घोड़े की नाल पर

नृतकी की मुद्रा पर

तारों के कंधों पर

शहद औज़हर पर

नींद पर, रेत पर, जड़ों पर

कुल्हाड़ी पर, बन्दूक की गोली पर

फांसी के तख़्ते पर

मुर्दाघर के ठंडे फर्श पर

श्मशान-शिला की चिकनी पीठ पर

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