दावत देती है
हमारे सिरों को मातम मनाने का
जैसे हों वे धरती के दो धुव्रांत
तब मुझे दिख जाती हैं
हम दोनों के बीच में पड़ी
कौंधती खंजर-सी
विदाई
नींद काफूर हो जाती है मेरी
और मैं अपलक देखने लगता हूँ उसे
क्या तुम्हें भी
दिखाई दे रही है वो
जैसे दिख रही है मुझे?
..................................................................
तट पर हम गले मिले और अलग हुए,
सुनहरी लहरों में छिप गई हमारी नाव !
द्वीप पर हम थे, हमारा पुराना घर था
मन्दिर की चाबी हमारे पास थी
हमारे पास थी अपनी गुफ़ा
अपनी चट्टानें, देवदार और समुद्री चि़ड़ियाँ
हमारी अपनी थी दलदल
और हमारे ऊपर तारे भी अपने।
हम छोड़ देंगे द्वीप
निकल जाएंगे अपने ठिकाने की तरफ़
हम लौटेंगे, पर सिर्फ़ रात में।
बन्धुओं कल हम जल्दी उठेंगे
सूर्योदय से पहले
जब चमकीली आभा छाई होती है पूरब में
जब नींद से सिर्फ़ पृथ्वी उठ रही होती है
लोग अभी सो रहे होंगे,
उनकी चिन्ताओं के सीमान्त से बाहर
हम मुक्त होकर जान सकेंगे अपने आप को ।
दूसरे लोगों से निश्चित ही भिन्न होंगे ।
सीमान्त के पास पहुँचने पर
चुप्पी और ख़ामोशी में हम देखेंगे-
मौन बैठा हुआ वह उत्तर में हमें कुछ कहेगा ।
ओ सुबह, बताओ किसे ले गई थीं तुम अन्धकार में
और किसका स्वागत कर रही है
तुम्हारी मुस्कराहट ?
..........................................................
यदि तुम चाहते हो
कि बच्चों के बिछौने पर
खिल-खिल जाएँ गुलाबी फूल
यदि तुम चाहते हो
कि लद जाए तुम्हारा बगीचा
किस्म किस्म के फूलों से
यदि तुम चाहते हो
कि घने काले मेघ आ जाएँ खेतों तक
पैगाम लेकर हरियाली का
और हौले-हौले खोले
मुंदी हुई पलकें बसंत की
तो तुम्हें आज़ाद करना ही होगा
उस क़ैदी परिन्दे को
जिसने घोंसला सजा रखा है
मेरी जीभ पर।
...............................................
उजले नीले फूलों की मंजरी से लदी टहनी की ओर
मैं देख रहा हूँ।
तुम... मानो मृण्मयी वसन्त ऋतु,
मेरी प्रियतमा
और मैं तुम्हारी ओर देखता हुआ।
धरती पर पीठ टिकाकर मैं आकाश को देखता हूँ
जैसे कि तुम मधुमास हो, आकाश हो तुम ही
मैं तुम्हें देख रहा हूँ, प्रियतमा।
रात के अँधेरे में गाँव-देश में
मैंने सूखे पत्तों से आग जलाई थी
मैं छू रहा हूँ उसी आग को
तुम नक्षत्रों के नीचे जलते अग्निकुण्ड की तरह हो
मेरी प्रियतमा
मैं तुम्हें छू रहा हूँ।
इन्सानों में घुल-मिलकर ही बचना है मुझे
मेरा प्यार है इन्सानों के लिए ही
गति की तरंगों पर बहने को, प्यार करता हूँ
प्यार करता हूँ सोचने को
अपने संग्राम को प्यार करता हूँ
और इसी संग्राम की आंतरिक सतहों में
मनुष्य के आसन पर आसीन हो तुम
मेरी प्रियतमा...
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
......................................................................
कल रात मैंने सपने में तुम्हें देखा
सिर ऊँचा किए
धूसर आँखों से तुम देख रही हो मुझे
तुम्हारे गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
काली अँधेरी रात में
कहीं ख़ुशी की ख़बर-जैसी
घड़ी की टिकटिक आवाज़...
हवा में फुसफुसा रहा है महाकाल
मेरे कैनरी के लाल पिंजरे में
गीत की एक कली,
हल से जोती गई ज़मीन पर
मिट्टी का सीना फोड़कर निकलते अंकुर की
दूर से आती आवाज़,
और एक महिमान्वित जनता के
वज्रकंठ से उच्चरित
न्याय अधिकार।
तुम्हारी गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
उम्मीदों के टूटने का अभिशाप लिए
मैं जाग उठा हूँ,
सो गया था
किताब पर चेहरा रखकर।
इतनी सारी आवाज़ों के बीच
तुम्हारी आवाज़ भी क्या मुझे सुनाई नहीं दी?
हमारे सिरों को मातम मनाने का
जैसे हों वे धरती के दो धुव्रांत
तब मुझे दिख जाती हैं
हम दोनों के बीच में पड़ी
कौंधती खंजर-सी
विदाई
नींद काफूर हो जाती है मेरी
और मैं अपलक देखने लगता हूँ उसे
क्या तुम्हें भी
दिखाई दे रही है वो
जैसे दिख रही है मुझे?
..................................................................
तट पर हम गले मिले और अलग हुए,
सुनहरी लहरों में छिप गई हमारी नाव !
द्वीप पर हम थे, हमारा पुराना घर था
मन्दिर की चाबी हमारे पास थी
हमारे पास थी अपनी गुफ़ा
अपनी चट्टानें, देवदार और समुद्री चि़ड़ियाँ
हमारी अपनी थी दलदल
और हमारे ऊपर तारे भी अपने।
हम छोड़ देंगे द्वीप
निकल जाएंगे अपने ठिकाने की तरफ़
हम लौटेंगे, पर सिर्फ़ रात में।
बन्धुओं कल हम जल्दी उठेंगे
सूर्योदय से पहले
जब चमकीली आभा छाई होती है पूरब में
जब नींद से सिर्फ़ पृथ्वी उठ रही होती है
लोग अभी सो रहे होंगे,
उनकी चिन्ताओं के सीमान्त से बाहर
हम मुक्त होकर जान सकेंगे अपने आप को ।
दूसरे लोगों से निश्चित ही भिन्न होंगे ।
सीमान्त के पास पहुँचने पर
चुप्पी और ख़ामोशी में हम देखेंगे-
मौन बैठा हुआ वह उत्तर में हमें कुछ कहेगा ।
ओ सुबह, बताओ किसे ले गई थीं तुम अन्धकार में
और किसका स्वागत कर रही है
तुम्हारी मुस्कराहट ?
..........................................................
यदि तुम चाहते हो
कि बच्चों के बिछौने पर
खिल-खिल जाएँ गुलाबी फूल
यदि तुम चाहते हो
कि लद जाए तुम्हारा बगीचा
किस्म किस्म के फूलों से
यदि तुम चाहते हो
कि घने काले मेघ आ जाएँ खेतों तक
पैगाम लेकर हरियाली का
और हौले-हौले खोले
मुंदी हुई पलकें बसंत की
तो तुम्हें आज़ाद करना ही होगा
उस क़ैदी परिन्दे को
जिसने घोंसला सजा रखा है
मेरी जीभ पर।
...............................................
उजले नीले फूलों की मंजरी से लदी टहनी की ओर
मैं देख रहा हूँ।
तुम... मानो मृण्मयी वसन्त ऋतु,
मेरी प्रियतमा
और मैं तुम्हारी ओर देखता हुआ।
धरती पर पीठ टिकाकर मैं आकाश को देखता हूँ
जैसे कि तुम मधुमास हो, आकाश हो तुम ही
मैं तुम्हें देख रहा हूँ, प्रियतमा।
रात के अँधेरे में गाँव-देश में
मैंने सूखे पत्तों से आग जलाई थी
मैं छू रहा हूँ उसी आग को
तुम नक्षत्रों के नीचे जलते अग्निकुण्ड की तरह हो
मेरी प्रियतमा
मैं तुम्हें छू रहा हूँ।
इन्सानों में घुल-मिलकर ही बचना है मुझे
मेरा प्यार है इन्सानों के लिए ही
गति की तरंगों पर बहने को, प्यार करता हूँ
प्यार करता हूँ सोचने को
अपने संग्राम को प्यार करता हूँ
और इसी संग्राम की आंतरिक सतहों में
मनुष्य के आसन पर आसीन हो तुम
मेरी प्रियतमा...
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
......................................................................
कल रात मैंने सपने में तुम्हें देखा
सिर ऊँचा किए
धूसर आँखों से तुम देख रही हो मुझे
तुम्हारे गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
काली अँधेरी रात में
कहीं ख़ुशी की ख़बर-जैसी
घड़ी की टिकटिक आवाज़...
हवा में फुसफुसा रहा है महाकाल
मेरे कैनरी के लाल पिंजरे में
गीत की एक कली,
हल से जोती गई ज़मीन पर
मिट्टी का सीना फोड़कर निकलते अंकुर की
दूर से आती आवाज़,
और एक महिमान्वित जनता के
वज्रकंठ से उच्चरित
न्याय अधिकार।
तुम्हारी गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
उम्मीदों के टूटने का अभिशाप लिए
मैं जाग उठा हूँ,
सो गया था
किताब पर चेहरा रखकर।
इतनी सारी आवाज़ों के बीच
तुम्हारी आवाज़ भी क्या मुझे सुनाई नहीं दी?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें