दुबई का यह हाल उन लोगों के लिए एक सबक है, जो कारोबार न करके सट्टा लगाते हैं और यूँ ही हवा में पैसे पैदा करने का ख्वाब देखते हैं। कोई कितना ही अमीर और ताकतवर हो, अर्थशास्त्र के मूल नियमों का पालन तो उसे भी करना ही होगा। दुबई जल्दी से जल्दी खुद को आधुनिक अर्थव्यवस्था का मॉडल साबित करना चाहता था, किंतु वहाँ के लोगों ने यह भुला दिया कि माँग के बिना अत्यधिक आपूर्ति से समृद्धि नहीं आ सकती।
इसके अलावा अगर विकास के लिए कर्ज लिया गया है तो यह बहुत जरूरी है कि पर्याप्त कमाई भी हो, ताकि ब्याज चुकाया जा सके। इन सुनहरे नियमों का पालन नहीं किया जाए तो मुँह के बल गिरने में देर नहीं लगती। लेकिन सुनहरी दुबई नगरी ने इस कायदे की अनदेखी की और नवंबर के अंतिम सप्ताह में पस्त हो गई।
43 साल पहले 1966 में जब यहाँ तेल मिला तो 38 वर्ग किलोमीटर के इस द्वीप को दुनिया ने जाना। जल्द ही दुबई को भान हुआ कि तेल नाकाफी है और हद से हद उसके सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत ही है।
तेल से लबालब पड़ोसियों के मुकाबले दुबई को हीन होने के अहसास ने घेर लिया। तब दुबई के मौजूदा शासक शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मख्तूम के पिता ने फैसला किया कि दुबई की अर्थव्यवस्था को पर्यटन, जायदाद और वित्तीय सेवाओं के तीन स्तंभों पर खड़ा किया जाए।
उन्होंने दुबई को एक अंतरराष्ट्रीय शहर बनाने का सपना देखा, बिलकुल वैसे ही जैसे अतीत में बगदाद और अन्य बड़े शहर हुआ करते थे। शेख ने सोचा सिमटते हाइड्रोकार्बन राजस्व की कमी तेजी से पनपते होटल व रिसॉर्ट प्रचुर मात्रा में पूरा कर देंगे, क्योंकि ये योरप और एशिया के अमीर पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करेंगे।
इस सपने के नतीजे में सबसे तेजी से विकसित होने वाला जमीन-जायदाद का बाजार अस्तित्व में आया, जिसमें करीब 30 हजार करोड़ डॉलर के प्रोजेक्ट चल रहे हैं। वित्तीय सेवा क्षेत्र का जिम्मा इस विकास कार्य की देखभाल करना था। इसके लिए आठ हजार करोड़ डॉलर का कर्ज लिया गया, जिसमें से करीब छः हजार करोड़ डॉलर तो एकमात्र दुबई वर्ल्ड ने ही दिए थे। यही वह कंपनी है जो राज्य के कई कारोबारों के लिए धन मुहैया करा रही है।
यह शेख की कामयाब राजनीतिक और कारोबारी रणनीति थी कि उन्होंने निवेशकों को इस बात के लिए मना लिया। अमीरात में यह माद्दा है कि वह अपने मौजूदा और भावी वादों को पूरा कर सके। किंतु निर्माण में दुबई का भारी निवेश मुख्य रूप से कर्जे पर आधारित था और अत्यधिक निर्माण के चलते कई भवन खाली थे तथा किराए की दरें गिर रही थीं, इन वजहों से निवेशक परेशान हो गए।

पिछले 20 महीनों से चली आ रही अंतरराष्ट्रीय मंदी ने इन परेशानियों में और इजाफा कर दिया। बड़े-बड़े आकार के दफ्तरों का किराया नहीं चुकाया जा सका और सौदे पूरे नहीं किए जा सके। मूडी की हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि दुबई का कर्जा उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को भी पार कर चुका है और अगले पाँच सालों तक इस वजह से दुबई की प्रगति पर असर पड़ेगा।
मौजूदा आठ हजार करोड़ डॉलर का कर्जा दुबई के जीडीपी से दोगुना है। धनवानों की घटती कमाई ने हालात और बिगाड़ दिए, क्योंकि खाड़ी देशों में पर्यटकों की संख्या में कमी आ गई।
यह संकट शुरू हुआ 25 नवंबर को, जब दुबई ने दुबई वर्ल्ड व उसकी प्रमुख सहयोगी कंपनी नखील (तीन पाम आईलैंड की डेवलपर) को अरबों डॉलरों की कर्ज अदायगी को स्थगित करने को कहा। दुबई वर्ल्ड वह कंपनी है, जिसने अमीरात की अंधाधुंध तरक्की की अगुआई की है।
हमारे देश में बड़े संतोष की बात है की जीडीपी की वृद्धि दर लगातार बरक़रार है! मगर खुश होने को ये काफ़ी नही, बात भले जीडीपी की हो मगर महगाई की वृद्धि दर भी इसी कारण है! मतलब हमारी सरकार किसी कंपनी की तरह हमसे टैक्स वसूल कर देश के चंद (100 से भी कम) लोगों की आर्थिकी की रक्षा में लगी है ............... लोकतंत्र .............क्या आशा की जाए की हम दुबई मामले से कुछ सिखने वाले हैं...........मुझे नही लगता की ऐसा कुछ होगा मगर आशा करने में क्या जाता है...........तो आशा जारी है ......आशा भोंसले ताई की बात नही कर रहा.............उस आशा की बात कर रहा हूँ! जिसके टूट जाने पर विदर्भ और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों में किसान (मुझे मालुम है आपको पता शायद ही हो) आत्म हत्या कर लेते हैं ................
43 साल पहले 1966 में जब यहाँ तेल मिला तो 38 वर्ग किलोमीटर के इस द्वीप को दुनिया ने जाना। जल्द ही दुबई को भान हुआ कि तेल नाकाफी है और हद से हद उसके सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत ही है।
तेल से लबालब पड़ोसियों के मुकाबले दुबई को हीन होने के अहसास ने घेर लिया। तब दुबई के मौजूदा शासक शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मख्तूम के पिता ने फैसला किया कि दुबई की अर्थव्यवस्था को पर्यटन, जायदाद और वित्तीय सेवाओं के तीन स्तंभों पर खड़ा किया जाए।
उन्होंने दुबई को एक अंतरराष्ट्रीय शहर बनाने का सपना देखा, बिलकुल वैसे ही जैसे अतीत में बगदाद और अन्य बड़े शहर हुआ करते थे। शेख ने सोचा सिमटते हाइड्रोकार्बन राजस्व की कमी तेजी से पनपते होटल व रिसॉर्ट प्रचुर मात्रा में पूरा कर देंगे, क्योंकि ये योरप और एशिया के अमीर पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करेंगे।
इस सपने के नतीजे में सबसे तेजी से विकसित होने वाला जमीन-जायदाद का बाजार अस्तित्व में आया, जिसमें करीब 30 हजार करोड़ डॉलर के प्रोजेक्ट चल रहे हैं। वित्तीय सेवा क्षेत्र का जिम्मा इस विकास कार्य की देखभाल करना था। इसके लिए आठ हजार करोड़ डॉलर का कर्ज लिया गया, जिसमें से करीब छः हजार करोड़ डॉलर तो एकमात्र दुबई वर्ल्ड ने ही दिए थे। यही वह कंपनी है जो राज्य के कई कारोबारों के लिए धन मुहैया करा रही है।
यह शेख की कामयाब राजनीतिक और कारोबारी रणनीति थी कि उन्होंने निवेशकों को इस बात के लिए मना लिया। अमीरात में यह माद्दा है कि वह अपने मौजूदा और भावी वादों को पूरा कर सके। किंतु निर्माण में दुबई का भारी निवेश मुख्य रूप से कर्जे पर आधारित था और अत्यधिक निर्माण के चलते कई भवन खाली थे तथा किराए की दरें गिर रही थीं, इन वजहों से निवेशक परेशान हो गए।

पिछले 20 महीनों से चली आ रही अंतरराष्ट्रीय मंदी ने इन परेशानियों में और इजाफा कर दिया। बड़े-बड़े आकार के दफ्तरों का किराया नहीं चुकाया जा सका और सौदे पूरे नहीं किए जा सके। मूडी की हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि दुबई का कर्जा उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को भी पार कर चुका है और अगले पाँच सालों तक इस वजह से दुबई की प्रगति पर असर पड़ेगा।
मौजूदा आठ हजार करोड़ डॉलर का कर्जा दुबई के जीडीपी से दोगुना है। धनवानों की घटती कमाई ने हालात और बिगाड़ दिए, क्योंकि खाड़ी देशों में पर्यटकों की संख्या में कमी आ गई।
यह संकट शुरू हुआ 25 नवंबर को, जब दुबई ने दुबई वर्ल्ड व उसकी प्रमुख सहयोगी कंपनी नखील (तीन पाम आईलैंड की डेवलपर) को अरबों डॉलरों की कर्ज अदायगी को स्थगित करने को कहा। दुबई वर्ल्ड वह कंपनी है, जिसने अमीरात की अंधाधुंध तरक्की की अगुआई की है।
हमारे देश में बड़े संतोष की बात है की जीडीपी की वृद्धि दर लगातार बरक़रार है! मगर खुश होने को ये काफ़ी नही, बात भले जीडीपी की हो मगर महगाई की वृद्धि दर भी इसी कारण है! मतलब हमारी सरकार किसी कंपनी की तरह हमसे टैक्स वसूल कर देश के चंद (100 से भी कम) लोगों की आर्थिकी की रक्षा में लगी है ............... लोकतंत्र .............क्या आशा की जाए की हम दुबई मामले से कुछ सिखने वाले हैं...........मुझे नही लगता की ऐसा कुछ होगा मगर आशा करने में क्या जाता है...........तो आशा जारी है ......आशा भोंसले ताई की बात नही कर रहा.............उस आशा की बात कर रहा हूँ! जिसके टूट जाने पर विदर्भ और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों में किसान (मुझे मालुम है आपको पता शायद ही हो) आत्म हत्या कर लेते हैं ................
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