विवाहित पुरुष द्वारा अपनी पत्नी की सहमति के बिना, यदि किसी अन्य स्त्री के साथ, ऐसीस्त्री की सहमति से सम्भोग किया जाता है तो ऐसे पुरुष की विवाहिता पत्नी को, अपने पतिके विरुद्ध या उसके पति के साथ सम्भोग करने वाली स्त्री के विरुद्ध किसी भी प्रकार कीदण्डात्मक कानूनी कार्यवाही करने का भारतीय दण्ड संहिता में कहीं कोई प्रावधान नहींहै। ( डॉ. पुरुषोत्तम मीणा)
उक्त शीर्षक को पढकर आपको निश्चय ही आश्चर्य हो रहा होगा, कि जिस देश के संविधान में लिंग के आधार पर विभेद करने को प्रतिबन्धित किया गया है। देश के सभी लोगों को समानता का अधिकार दिया गया है। शोषण को निषिद्ध किया गया है, वहाँ पर कोई पति, अपनी पत्नी को सम्पत्ति कैसे मान सकता है? लेकिन इतना सब कुछ होते हुए भी यह बात शतप्रतिशत सही है कि भारतीय दण्ड संहिता के एक प्रावधान के तहत बाकायता लिखित में पत्नी को, अपने पति की सम्पत्ति के समान ही माना गया है।
आगे लिखने से पूर्व मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं न तो स्त्री को, पुरुष से कम मानता हँू और न हीं पुरुष को, स्त्री से अधिक या कम मानता हँू, और न हीं दोनों को एक समान ही मानता हँू। क्योंकि प्रकृति ने ही दोनों को समान नहीं बनाया है, बल्कि दोनों को अपनी-अपनी जगह पर पूर्ण हैं। दोनों में न कोई निम्नतर है, न कोई दूसरे से उच्चतर है। इसलिये मेरा मानना है कि एक स्त्री को पुरुष बनने का निरर्थक एवं बेहूदा प्रयास करके अपने स्त्रेणत्व को नहीं खोना चाहिये और उसे सम्पूर्ण रूप से केवल एक स्त्री ही बने रहना चाहिये और समान रूप से यही बात पुरुष पर भी लागू होती है। ऐसा मानते हुए, उक्त विधिक प्रावधान का विवेचन प्रस्तुत करना इस लेख को लिखने के पीछे मेरा एक मात्र ध्येय है। कृपया इसे शान्तचित्त होकर और बिना किसी पूर्वाग्रह के पढें और हो सके तो इसे पढकर अपनी राय से अवश्य अवगत करावें।
विशेषकर हमारे देश की पढी-लिखी महिलाएँ अवश्य ही उक्त बात को पढकर गुस्सा हो होंगी, सवाल करेंगी, कि उन्हें पति की सम्पत्ति कैसे माना जा सकता है? आखिर महिला कोई वस्तु थोडे ही है, जो उसे सम्पत्ति के समान माना जाये? इसलिये आगे कुछ भी लिखने से पहले, प्रारम्भ में ही उक्त कानूनी प्रावधान के ठीक विपरीत एक अन्य कानूनी प्रावधान को भी संक्षेप में प्रस्तुत करना जरूरी समझता हँू। वह यह कि भारत में केवल पुरुष ही किसी विवाहिता महिला को बहला-फुसला सकता है, कोई महिला किसी पुरुष को नहीं फुसला सकती! बेशक महिला परिपक्व हो, विवाहिता हो। पुरुष चाहे अवयस्क हो और स्त्री चाहे वयस्क हो, फिर भी भारतीय कानून में पुरुष को ही एक स्त्री को फुसलाने के लिये दोषी माना जाने का प्रावधान है। इस बिन्दु पर विशेषकर, महिला पाठकों को विचार करना होगा, कि क्या यह प्रावधान पुरुष के साथ लिंगभेद नहीं करता है?
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि अनेक पुरुषों द्वारा अनेक बार महिला मित्रों को सेक्स के लिये उकसाया जाता है। लेकिन भारतीय सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवस्था में दाम्पत्य जीवन को लेकर जितने भी ग्रंथ लिखे गये हैं, कुछेक अपवादों को छोडकर सबमें पुरुष का ही यह दायित्व निर्धारित किया गया है कि वही अपनी पत्नी या प्रेयसी से प्रणय निवेदन करे। ऐसी संस्कृति तथा सामाजिक परिस्थितियों में में पल-पढकर संस्कारित होने वाले द्वारा पुरुष किसी भी स्त्री के समक्ष प्रणय निवेदन या प्रस्ताव करना स्वभाविक है और पुरुष पर अधिरोपित, पुरुष का एक अलिखित और बाध्यकारी कर्त्तव्य है।
लेकिन किसी कारण से आपसी सम्बन्धों में खटास उत्पन्न हो जाने पर या स्त्री के परिवार के दबाव में या सामाजिक तिरस्कार से बचने के लिये स्त्रियों की ओर से अकसर कह दिया जाता है कि वह तो पूरी तरह से निर्दोष है, उसने कुछ नहीं किया। उसे तो (आरोपी) पुरुष द्वारा सेक्स के लिये उकसाया और फुसलाया गया और विवाह करने के वायदे किये गये। इसलिये मैंने अपने आपको, पुरुष के बहकावे में आकर यौन-सम्बन्धों के लिये स्वयं को पुरुष के समक्ष समर्पित कर दिया! और स्त्री के बयान में इतने से बदलाव के बाद, कानून द्वारा पुरुष को कारागृह में डाल दिया जाता है। एक विवाहित स्त्री भी बडी मासूमियत से उक्त तर्क देकर किसी भी पुरुष को जेल की हवा खिला सकती है। अनेक बार न्याय प्रक्रिया से जुडे सभी लोग, सभी बातों की सच्चाई से वाकिफ होते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं। जिसके चलते अनेक पुरुष कारागृहों में सजा भुगतने को विवश हैं।
इन सब बातों को गहराई से जानने के लिये हमें समझना होगा कि आदिकाल से ही स्त्री को पुरुष के बिना अधूरी माना जाता रहा है, जबकि वास्तव में पुरुष भी स्त्री के बिना उतना ही अधूरा है, जितना कि स्त्री पुरुष के बिना। लेकिन, चूंकि पुरुष प्रधान सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के चलते, पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुष को किसी भी स्थिति में स्त्री से कमजोर नहीं दिखाने के लिये स्त्री के बिना पुरुष को अधूरा नहीं दर्शाया गया है। इस तथ्य के सम्बन्ध में संसार के तकरीबन सभी धर्मग्रंथों में आश्चर्यजनक समानता है। निश्चय ही इसका कारण है, इन धर्मग्रंथों का पुरुष लेखकों द्वारा लिखा जाना और लगातार इन ग्रंथों को पुरुष एवं स्त्री राजसत्ता द्वारा समान रूप से मान्यता प्रदान देते जाना है।
कालान्तर में इसका इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्री को इस प्रकार से संस्कारित किया गया कि उसने अन्तरमन से अपने आपको पुरुष की छाया मान लिखा, परिणामस्वरूप पुरुष स्त्री का स्वामी बन बैठा। भारतीय दण्ड संहिता में भी इसी धारणा को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी गयी है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४९७ में जो प्रावधान किये गये हैं, उनका साफ तौर पर यही अभिप्राय है कि एक विवाहिता स्त्री, अपने पुरुष पति की मालकियत है, जिसके साथ अन्य पुरुष (गैर पति) को सम्भोग करने का कोई हक नहीं है। यपि ऐसी विवाहिता स्त्री के विरुद्ध इस प्रकार के आचरण के लिये, किसी भी प्रकार की कानूनी या दण्डात्मक कार्यवाही करने का भारतीय दण्ड संहिता में कोई प्रावधान नहीं किया गया है। बेशक विवाहिता स्त्री अपने इच्छित पुरुष मित्र के साथ स्वेच्छा से सम्भोग करती पायी गयी हो या वह स्वैच्छा से ऐसा करना चाहती हो। जबकि इसके विपरीत एक विवाहित पुरुष के लिये यह नियम लागू नहीं होता है। अर्थात् एक विवाहित पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के रहते किसी स्त्री से सम्भोग करना भारतीय दण्ड संहिता में अपराध नहीं माना गया है।
यही नहीं उक्त धारा में लिखा गया यह वाक्य सम्पूर्ण रूप से स्त्री को पति की सम्पत्ति बना देता है कि यदि पत्नी अपने पति की सहमति या मौन सहमति से किसी अन्य पुरुष के साथ स्वैच्छा सम्भोग करती है तो यह कृत्य अपराध नहीं है, लेकिन यदि वह अपने पति की सहमति या मौन सहमति के बिना किसी अन्य पुरुष से स्वेच्छा सम्भोग करती है तो ऐसा कृत्य उसके पति के विरुद्ध अपराध माना गया है।जिसके लिये अन्य पुरुष को इस कृत्य के लिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४९७ के तहत जारकर्म के अपराध के लिये पांच वर्ष तक के कारावास की सजा या जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जा सकता है। यपि इसके लिये ऐसी स्त्री के पति को ही मुकदमा दायर करना होगा। अन्य किसी भी व्यक्ति को इस अपराध के लिये मुकदमा दायर करने का अधिकार नहीं दिया गया है। उक्त धारा में या उक्त दण्ड संहिता में कहीं भी यह प्रावधान नहीं किया गया है कि कोई पुरुष अपनी पत्नी की सहमति के बिना किसी अन्य स्त्री से स्वैच्छा सम्भोग करता है तो उसके विरुद्ध भी, उसकी पत्नी को, अन्य स्त्री के विरुद्ध या अपने पति के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने का (पत्नी को) हक दिया गया हो!
इस प्रकार के प्रावधान करने के पीछे विधि-निर्माताओं की सोच रही है कि पत्नी पर, पति का सम्पूर्ण अधिकार है, जिसे छीनने वाले किसी अन्य पुरुष के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही करने का हक उसके पति को होना ही चाहिये। यपि यही हक एक पत्नी को क्यों नहीं दिया गया, इस विषय पर आश्चर्यजनक रूप से सभी विधिवेत्ता मौन हैं।
एक और भी तथ्य विचारणीय है कि तकरीबन सभी भारतीय विधिवेत्ता ऐसे कृत्य के लिये पत्नी को किसी भी प्रकार की सजा दिये जाने के पक्ष में नहीं हैं। जबकि सबके सब ही पुरुष को जारकर्म के अपराध के लिये दोषी ठहराये जाने एवं दण्डित करने के पक्ष में हैं। हाँ भारत के हिन्दू धार्मिक कानूनों के जनक मनु ने अवश्य विवाहिता महिला को ही जारकर्म के लिये दोषी माना है। पुरुष को इसके लिये किसी प्रकार की सजा देने की व्यवस्था नहीं की है।
उक्त विवेचन से निम्न निष्कर्ष निकलते है कि-
१. एक विवाहिता स्त्री अपने पति की सहमति के बिना किसी अन्य पुरुष ये स्वेच्छा सम्भोग नहीं कर सकती।
२. किसी विवाहिता स्त्री से उसके पति की सहमति के बिना या पति की मौन सहमति के बिना कोई पुरुष यह जानते हुए सम्भोग करता है कि वह स्त्री किसी पुरुष की पत्नी है तो ऐसे सम्भोग करने वाले पुरुष के विरुद्ध, ऐसी विवाहिता स्त्री का पति जारकर्म का मुकदमा दायर कर सकता है।
३. यपि यह माना गया है कि जारकर्म घटित होने में स्त्री भी समान रूप से भागीदार होती है, फिर भी भारतीय दण्ड संहिता के तहत स्त्री को जारकर्म के लिये कोई सजा नहीं दी जा सकती, जबकि पुरुष को जारकर्म के लिये दोषी ठहराया जाकर ५ वर्ष तक की सजा दी जा सकती है।
४. जारकर्म का अपराध तब ही घटित होता है, जबकि कोई पुरुष किसी ऐसी महिला की सहमति से सम्भोग करे, जिसके बारे में वह जानता हो कि वह किसी की पत्नी है।
५. किसी विधवा, तलाक प्राप्त या अविवाहित वयस्क स्त्री की सहमति से किसी विवाहित या अविवाहित पुरुष द्वारा किया गया स्वैच्छा सम्भोग जारकर्म का अपराध नहीं है।
६. विवाहित पुरुष द्वारा अपनी पत्नी की सहमति के बिना, यदि किसी अन्य स्त्री के साथ, ऐसी स्त्री की सहमति से सम्भोग किया जाता है तो ऐसे पुरुष की विवाहिता पत्नी को, अपने पति के विरुद्ध या उसके पति के साथ सम्भोग करने वाली स्त्री के विरुद्ध किसी भी प्रकार की दण्डात्मक कानूनी कार्यवाही करने का भारतीय दण्ड संहिता में कहीं कोई प्रावधान नहीं है।
क्या उक्त विवेचन से यह तथ्य स्वतः प्रमाणित नहीं होता कि एक पत्नी की स्वेच्छा सहमति का कोई महत्व या अर्थ नहीं है। क्योंकि विवाहिता स्त्री, अपने पति की यहमति के बिना किसी को सहमति देने के लिये अधिकृत नहीं है। अर्थात् वह अपने पति के अधीन है, उसका पति ही उसकी इच्छाओं का मालिक या स्वामी है और इन अर्थों में वह अपने पति की ऐसी सम्पत्ति या मालकीयत है, जिसके साथ उसके पति की सहमति के बिना कोई पुरुष सम्भोग नहीं कर सकता, बेशक उसकी पत्नी ऐसा करना चाहती हो। और यदि कोई पति अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ सम्भोग करने की सहमति देता है तो पत्नी स्वैच्छा ऐसा करना चाहे तो कर सकती है। जबकि पुरुष को अपनी पत्नी से ऐसी किसी सहमति की जरूरत नहीं है और पति द्वारा अपनी विवाहिता पत्नी की सहमति के बिना, किसी अन्य स्त्री के साथ सम्भोग करने पर भी, पत्नी को किसी भी प्रकार की कानूनी कार्यवाही करने का कोई हक नहीं है। अर्थात् पत्नी के लिये पति की सहमति जरूरी है, लेकिन पति के लिये पत्नी की सहमति जरूरी नहीं है।
मैं समझता हँू कि अब यह समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिये कि सहमति देने वाला पति, स्वामी या मालिक हुआ और सहमति प्राप्त करने की अपेक्षा करने वाली पत्नी स्वामी की सम्पत्ति या मालकीयत या उसे आप जो भी कहें, लेकिन संविधान में प्रदान किये समानता के मूल अधिकार की भावना के अनुसार ऐसी स्त्री को देश की आजाद नागरिक तो नहीं कहा जा सकता!
उक्त शीर्षक को पढकर आपको निश्चय ही आश्चर्य हो रहा होगा, कि जिस देश के संविधान में लिंग के आधार पर विभेद करने को प्रतिबन्धित किया गया है। देश के सभी लोगों को समानता का अधिकार दिया गया है। शोषण को निषिद्ध किया गया है, वहाँ पर कोई पति, अपनी पत्नी को सम्पत्ति कैसे मान सकता है? लेकिन इतना सब कुछ होते हुए भी यह बात शतप्रतिशत सही है कि भारतीय दण्ड संहिता के एक प्रावधान के तहत बाकायता लिखित में पत्नी को, अपने पति की सम्पत्ति के समान ही माना गया है।
आगे लिखने से पूर्व मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं न तो स्त्री को, पुरुष से कम मानता हँू और न हीं पुरुष को, स्त्री से अधिक या कम मानता हँू, और न हीं दोनों को एक समान ही मानता हँू। क्योंकि प्रकृति ने ही दोनों को समान नहीं बनाया है, बल्कि दोनों को अपनी-अपनी जगह पर पूर्ण हैं। दोनों में न कोई निम्नतर है, न कोई दूसरे से उच्चतर है। इसलिये मेरा मानना है कि एक स्त्री को पुरुष बनने का निरर्थक एवं बेहूदा प्रयास करके अपने स्त्रेणत्व को नहीं खोना चाहिये और उसे सम्पूर्ण रूप से केवल एक स्त्री ही बने रहना चाहिये और समान रूप से यही बात पुरुष पर भी लागू होती है। ऐसा मानते हुए, उक्त विधिक प्रावधान का विवेचन प्रस्तुत करना इस लेख को लिखने के पीछे मेरा एक मात्र ध्येय है। कृपया इसे शान्तचित्त होकर और बिना किसी पूर्वाग्रह के पढें और हो सके तो इसे पढकर अपनी राय से अवश्य अवगत करावें।
विशेषकर हमारे देश की पढी-लिखी महिलाएँ अवश्य ही उक्त बात को पढकर गुस्सा हो होंगी, सवाल करेंगी, कि उन्हें पति की सम्पत्ति कैसे माना जा सकता है? आखिर महिला कोई वस्तु थोडे ही है, जो उसे सम्पत्ति के समान माना जाये? इसलिये आगे कुछ भी लिखने से पहले, प्रारम्भ में ही उक्त कानूनी प्रावधान के ठीक विपरीत एक अन्य कानूनी प्रावधान को भी संक्षेप में प्रस्तुत करना जरूरी समझता हँू। वह यह कि भारत में केवल पुरुष ही किसी विवाहिता महिला को बहला-फुसला सकता है, कोई महिला किसी पुरुष को नहीं फुसला सकती! बेशक महिला परिपक्व हो, विवाहिता हो। पुरुष चाहे अवयस्क हो और स्त्री चाहे वयस्क हो, फिर भी भारतीय कानून में पुरुष को ही एक स्त्री को फुसलाने के लिये दोषी माना जाने का प्रावधान है। इस बिन्दु पर विशेषकर, महिला पाठकों को विचार करना होगा, कि क्या यह प्रावधान पुरुष के साथ लिंगभेद नहीं करता है?
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि अनेक पुरुषों द्वारा अनेक बार महिला मित्रों को सेक्स के लिये उकसाया जाता है। लेकिन भारतीय सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवस्था में दाम्पत्य जीवन को लेकर जितने भी ग्रंथ लिखे गये हैं, कुछेक अपवादों को छोडकर सबमें पुरुष का ही यह दायित्व निर्धारित किया गया है कि वही अपनी पत्नी या प्रेयसी से प्रणय निवेदन करे। ऐसी संस्कृति तथा सामाजिक परिस्थितियों में में पल-पढकर संस्कारित होने वाले द्वारा पुरुष किसी भी स्त्री के समक्ष प्रणय निवेदन या प्रस्ताव करना स्वभाविक है और पुरुष पर अधिरोपित, पुरुष का एक अलिखित और बाध्यकारी कर्त्तव्य है।
लेकिन किसी कारण से आपसी सम्बन्धों में खटास उत्पन्न हो जाने पर या स्त्री के परिवार के दबाव में या सामाजिक तिरस्कार से बचने के लिये स्त्रियों की ओर से अकसर कह दिया जाता है कि वह तो पूरी तरह से निर्दोष है, उसने कुछ नहीं किया। उसे तो (आरोपी) पुरुष द्वारा सेक्स के लिये उकसाया और फुसलाया गया और विवाह करने के वायदे किये गये। इसलिये मैंने अपने आपको, पुरुष के बहकावे में आकर यौन-सम्बन्धों के लिये स्वयं को पुरुष के समक्ष समर्पित कर दिया! और स्त्री के बयान में इतने से बदलाव के बाद, कानून द्वारा पुरुष को कारागृह में डाल दिया जाता है। एक विवाहित स्त्री भी बडी मासूमियत से उक्त तर्क देकर किसी भी पुरुष को जेल की हवा खिला सकती है। अनेक बार न्याय प्रक्रिया से जुडे सभी लोग, सभी बातों की सच्चाई से वाकिफ होते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं। जिसके चलते अनेक पुरुष कारागृहों में सजा भुगतने को विवश हैं।
इन सब बातों को गहराई से जानने के लिये हमें समझना होगा कि आदिकाल से ही स्त्री को पुरुष के बिना अधूरी माना जाता रहा है, जबकि वास्तव में पुरुष भी स्त्री के बिना उतना ही अधूरा है, जितना कि स्त्री पुरुष के बिना। लेकिन, चूंकि पुरुष प्रधान सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के चलते, पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुष को किसी भी स्थिति में स्त्री से कमजोर नहीं दिखाने के लिये स्त्री के बिना पुरुष को अधूरा नहीं दर्शाया गया है। इस तथ्य के सम्बन्ध में संसार के तकरीबन सभी धर्मग्रंथों में आश्चर्यजनक समानता है। निश्चय ही इसका कारण है, इन धर्मग्रंथों का पुरुष लेखकों द्वारा लिखा जाना और लगातार इन ग्रंथों को पुरुष एवं स्त्री राजसत्ता द्वारा समान रूप से मान्यता प्रदान देते जाना है।
कालान्तर में इसका इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्री को इस प्रकार से संस्कारित किया गया कि उसने अन्तरमन से अपने आपको पुरुष की छाया मान लिखा, परिणामस्वरूप पुरुष स्त्री का स्वामी बन बैठा। भारतीय दण्ड संहिता में भी इसी धारणा को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी गयी है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४९७ में जो प्रावधान किये गये हैं, उनका साफ तौर पर यही अभिप्राय है कि एक विवाहिता स्त्री, अपने पुरुष पति की मालकियत है, जिसके साथ अन्य पुरुष (गैर पति) को सम्भोग करने का कोई हक नहीं है। यपि ऐसी विवाहिता स्त्री के विरुद्ध इस प्रकार के आचरण के लिये, किसी भी प्रकार की कानूनी या दण्डात्मक कार्यवाही करने का भारतीय दण्ड संहिता में कोई प्रावधान नहीं किया गया है। बेशक विवाहिता स्त्री अपने इच्छित पुरुष मित्र के साथ स्वेच्छा से सम्भोग करती पायी गयी हो या वह स्वैच्छा से ऐसा करना चाहती हो। जबकि इसके विपरीत एक विवाहित पुरुष के लिये यह नियम लागू नहीं होता है। अर्थात् एक विवाहित पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के रहते किसी स्त्री से सम्भोग करना भारतीय दण्ड संहिता में अपराध नहीं माना गया है।
यही नहीं उक्त धारा में लिखा गया यह वाक्य सम्पूर्ण रूप से स्त्री को पति की सम्पत्ति बना देता है कि यदि पत्नी अपने पति की सहमति या मौन सहमति से किसी अन्य पुरुष के साथ स्वैच्छा सम्भोग करती है तो यह कृत्य अपराध नहीं है, लेकिन यदि वह अपने पति की सहमति या मौन सहमति के बिना किसी अन्य पुरुष से स्वेच्छा सम्भोग करती है तो ऐसा कृत्य उसके पति के विरुद्ध अपराध माना गया है।जिसके लिये अन्य पुरुष को इस कृत्य के लिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४९७ के तहत जारकर्म के अपराध के लिये पांच वर्ष तक के कारावास की सजा या जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जा सकता है। यपि इसके लिये ऐसी स्त्री के पति को ही मुकदमा दायर करना होगा। अन्य किसी भी व्यक्ति को इस अपराध के लिये मुकदमा दायर करने का अधिकार नहीं दिया गया है। उक्त धारा में या उक्त दण्ड संहिता में कहीं भी यह प्रावधान नहीं किया गया है कि कोई पुरुष अपनी पत्नी की सहमति के बिना किसी अन्य स्त्री से स्वैच्छा सम्भोग करता है तो उसके विरुद्ध भी, उसकी पत्नी को, अन्य स्त्री के विरुद्ध या अपने पति के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने का (पत्नी को) हक दिया गया हो!
इस प्रकार के प्रावधान करने के पीछे विधि-निर्माताओं की सोच रही है कि पत्नी पर, पति का सम्पूर्ण अधिकार है, जिसे छीनने वाले किसी अन्य पुरुष के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही करने का हक उसके पति को होना ही चाहिये। यपि यही हक एक पत्नी को क्यों नहीं दिया गया, इस विषय पर आश्चर्यजनक रूप से सभी विधिवेत्ता मौन हैं।
एक और भी तथ्य विचारणीय है कि तकरीबन सभी भारतीय विधिवेत्ता ऐसे कृत्य के लिये पत्नी को किसी भी प्रकार की सजा दिये जाने के पक्ष में नहीं हैं। जबकि सबके सब ही पुरुष को जारकर्म के अपराध के लिये दोषी ठहराये जाने एवं दण्डित करने के पक्ष में हैं। हाँ भारत के हिन्दू धार्मिक कानूनों के जनक मनु ने अवश्य विवाहिता महिला को ही जारकर्म के लिये दोषी माना है। पुरुष को इसके लिये किसी प्रकार की सजा देने की व्यवस्था नहीं की है।
उक्त विवेचन से निम्न निष्कर्ष निकलते है कि-
१. एक विवाहिता स्त्री अपने पति की सहमति के बिना किसी अन्य पुरुष ये स्वेच्छा सम्भोग नहीं कर सकती।
२. किसी विवाहिता स्त्री से उसके पति की सहमति के बिना या पति की मौन सहमति के बिना कोई पुरुष यह जानते हुए सम्भोग करता है कि वह स्त्री किसी पुरुष की पत्नी है तो ऐसे सम्भोग करने वाले पुरुष के विरुद्ध, ऐसी विवाहिता स्त्री का पति जारकर्म का मुकदमा दायर कर सकता है।
३. यपि यह माना गया है कि जारकर्म घटित होने में स्त्री भी समान रूप से भागीदार होती है, फिर भी भारतीय दण्ड संहिता के तहत स्त्री को जारकर्म के लिये कोई सजा नहीं दी जा सकती, जबकि पुरुष को जारकर्म के लिये दोषी ठहराया जाकर ५ वर्ष तक की सजा दी जा सकती है।
४. जारकर्म का अपराध तब ही घटित होता है, जबकि कोई पुरुष किसी ऐसी महिला की सहमति से सम्भोग करे, जिसके बारे में वह जानता हो कि वह किसी की पत्नी है।
५. किसी विधवा, तलाक प्राप्त या अविवाहित वयस्क स्त्री की सहमति से किसी विवाहित या अविवाहित पुरुष द्वारा किया गया स्वैच्छा सम्भोग जारकर्म का अपराध नहीं है।
६. विवाहित पुरुष द्वारा अपनी पत्नी की सहमति के बिना, यदि किसी अन्य स्त्री के साथ, ऐसी स्त्री की सहमति से सम्भोग किया जाता है तो ऐसे पुरुष की विवाहिता पत्नी को, अपने पति के विरुद्ध या उसके पति के साथ सम्भोग करने वाली स्त्री के विरुद्ध किसी भी प्रकार की दण्डात्मक कानूनी कार्यवाही करने का भारतीय दण्ड संहिता में कहीं कोई प्रावधान नहीं है।
क्या उक्त विवेचन से यह तथ्य स्वतः प्रमाणित नहीं होता कि एक पत्नी की स्वेच्छा सहमति का कोई महत्व या अर्थ नहीं है। क्योंकि विवाहिता स्त्री, अपने पति की यहमति के बिना किसी को सहमति देने के लिये अधिकृत नहीं है। अर्थात् वह अपने पति के अधीन है, उसका पति ही उसकी इच्छाओं का मालिक या स्वामी है और इन अर्थों में वह अपने पति की ऐसी सम्पत्ति या मालकीयत है, जिसके साथ उसके पति की सहमति के बिना कोई पुरुष सम्भोग नहीं कर सकता, बेशक उसकी पत्नी ऐसा करना चाहती हो। और यदि कोई पति अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ सम्भोग करने की सहमति देता है तो पत्नी स्वैच्छा ऐसा करना चाहे तो कर सकती है। जबकि पुरुष को अपनी पत्नी से ऐसी किसी सहमति की जरूरत नहीं है और पति द्वारा अपनी विवाहिता पत्नी की सहमति के बिना, किसी अन्य स्त्री के साथ सम्भोग करने पर भी, पत्नी को किसी भी प्रकार की कानूनी कार्यवाही करने का कोई हक नहीं है। अर्थात् पत्नी के लिये पति की सहमति जरूरी है, लेकिन पति के लिये पत्नी की सहमति जरूरी नहीं है।
मैं समझता हँू कि अब यह समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिये कि सहमति देने वाला पति, स्वामी या मालिक हुआ और सहमति प्राप्त करने की अपेक्षा करने वाली पत्नी स्वामी की सम्पत्ति या मालकीयत या उसे आप जो भी कहें, लेकिन संविधान में प्रदान किये समानता के मूल अधिकार की भावना के अनुसार ऐसी स्त्री को देश की आजाद नागरिक तो नहीं कहा जा सकता!
एक कविता भी है सुन लें {मगर सन्दर्भ ये नही}
मैं जी रहा हूँ, उस तरह
जिस तरह से लोग मरते हैं।
जब घिर जाते होंगे, चहुँ ओर से-
शायद तब ही लोग-खुदकुशी करते हैं।
मगर मैं कायर हूँ,
नहीं है, मुझमें हिम्मत इतनी-
कि कर सकूँ खुदकुशी और पा लूँ निजात!
इस दुश्मन और नकाबपोश दुनिया से।
उन नाते रिश्तों से जो बन गये हैं-
कभी न भरने वाले जख्मों के नासूर।
नहीं, नहीं,
केवल इसलिये ही नहीं, बल्कि
मैं नहीं कर सकता खुदकुशी,
क्योंकि-
यह केवल कायरता ही नहीं है,
सबसे घिनौना अपराध भी है।
कैसे हो सकता है कोई इतना क्रूर?
कर सकता है, जो खुद का खून!
न तो वह मानव है,
और न हीं हकदार है वह
जीव, मानवता और
संवेदनाओं की बात करने का!
मगर मैं मर-मर कर भी जिन्दा हूँ!
शायद इसलिये भी जिन्दा हूँ-
शायद इतने से संकल्प में,
एक हल्के और धुंधले से विश्वास में-
हालातों के भंवरों के थपेड़े सहकर भी
यदि रह सका जिन्दा! और
शायद ऊपर वाले को मेरी याद आ जाये।
एक ऐसा ताजा हवा का झोंका आ जाये॥
खिल उठे जीवन की उमंगों का पौधा
एक पल को मैं जी सकूँ, वह जीवन
पहाड़ों से दुःख काटे हैं, जिसकी आशा में
घुट-घुट कर सहे हैं,
अपनों के उपहास और यातनाएँ।
यद्यपि-
दिखता नहीं सूरज का उजास!
फिर भी न जाने क्यों है विश्वास?
अभी खत्म नहीं हुआ है, सब कुछ!
शेष है अभी भी तो मेरे पास।
अपनों के दर्दों की सौगात।
किसी की दी हुई सौगात-
यों ही ठुकराई भी तो नहीं जाती।
फैंकी भी नहीं जाती ऐसी सौगात!
क्या मैं संभाल सकूँगा,
इस सौगात को?
अन्त समय तक,
तब तक, जब तक-
देने वालों का दिल न भरे!
मैं जानता हूँ कि-
होगा वही जो होता आया है।
इतिहास में हजारों मुझ जैसों के साथ!
मगर हर हाल में जीना है।
हाँ, शुकून है इतना कि-
और कुछ हो न हो!
इतना क्या कम है?
आज तक किसी ने, न चलाई तलवार!
नहीं उठाई बन्दूक!
लेकिन,
कल ये भी हो सकता है।
आखिर-
धन, दौलत और
एश-ओ-आराम
किसे बुरे लगते हैं।
इनके सामाने क्या औकात है मेरी?
हँू तो सिर्फ मैं एक इंसान ही ना।
एक ऐसा इंसान, जिसकी कीमत
जन्म देने वालों तक की नजर में,
जानवरों से भी कम है!
जिसे अपमानित करने में
शायद उन्हें भी मिलता सुकून ऐसा,
सांप को कुचलने में मिलता हो जैसा।
एश-ओ-आराम के नशे में धुत्त
नरपिशाचों की नजर में क्या है इंसान?
है तो श्वांस लेता एक छोटा सा पिंजरा।
कल को हो गया छेद, टूट जायेगा पिंजरा॥
उड़ने तक पिंजरे से, इस पंछी के-
ढोना ही होगा इस पिजरें को।
पता नहीं, है ये कर्त्तव्य या मेरा अधिकार?
शायद ऊपर वाले को मेरी याद आ जाये।
एक ऐसा ताजा हवा का झोंका आ जाये॥
खिल उठे जीवन की उमंगों का पौधा,
कुम्हलाये हुए पत्तो में जान आ जाये।
एक पल को मैं जी सकूँ, वह जीवन
उम्मीद में जिसकी काटे हैं-पहाड़ों से दुःख,
सह लिया जिसकी खातिर सब कुछ!
काश! बदल जाये हवा का रुख?
हो जाये करम ऊपर वाले का और
मेरे घर के दरवाजे पर भी दे दस्तक
ठण्डी हवा का वह झौंका,
जिसकी उम्मीद में-
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिन्हें अब तो-
अपने कहने में भी दर्द होता है।
जिसकी उम्मीद में-
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिन्हें अब तो-
अपने कहने में भी दम घुटता है।
जिसकी उम्मीद में-
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिन्हें अब तो-
अपने कहने में भी श्वांस अटकती है।
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिनके लिये
किया था, बलिदान खुशियों का!
उनके लिये अब तो-
दुआ करने में भी जबान अटकती है।
कितना मूर्ख हूँ मैं भी !
जिन्हें, मेरे स्नेह,
मेरे उत्पीड़न,
मेरे उपहास,
मेरे कोमल अहसास,
मेरी खुशियों और
मेरे जीवन तक की परवाह नहीं रही।
वहाँ मेरी दुआओं का क्या मोल होगा?
परन्तु न जाने क्यों मेरे रोम-रोम से
अभी भी उनके लिये
दुआएँ निकलती हैं।
मैं जी रहा हूँ, उस तरह
जिस तरह से लोग मरते हैं।
जब घिर जाते होंगे, चहुँ ओर से-
शायद तब ही लोग-खुदकुशी करते हैं।
मगर मैं कायर हूँ,
नहीं है, मुझमें हिम्मत इतनी-
कि कर सकूँ खुदकुशी और पा लूँ निजात!
इस दुश्मन और नकाबपोश दुनिया से।
उन नाते रिश्तों से जो बन गये हैं-
कभी न भरने वाले जख्मों के नासूर।
नहीं, नहीं,
केवल इसलिये ही नहीं, बल्कि
मैं नहीं कर सकता खुदकुशी,
क्योंकि-
यह केवल कायरता ही नहीं है,
सबसे घिनौना अपराध भी है।
कैसे हो सकता है कोई इतना क्रूर?
कर सकता है, जो खुद का खून!
न तो वह मानव है,
और न हीं हकदार है वह
जीव, मानवता और
संवेदनाओं की बात करने का!
मगर मैं मर-मर कर भी जिन्दा हूँ!
शायद इसलिये भी जिन्दा हूँ-
शायद इतने से संकल्प में,
एक हल्के और धुंधले से विश्वास में-
हालातों के भंवरों के थपेड़े सहकर भी
यदि रह सका जिन्दा! और
शायद ऊपर वाले को मेरी याद आ जाये।
एक ऐसा ताजा हवा का झोंका आ जाये॥
खिल उठे जीवन की उमंगों का पौधा
एक पल को मैं जी सकूँ, वह जीवन
पहाड़ों से दुःख काटे हैं, जिसकी आशा में
घुट-घुट कर सहे हैं,
अपनों के उपहास और यातनाएँ।
यद्यपि-
दिखता नहीं सूरज का उजास!
फिर भी न जाने क्यों है विश्वास?
अभी खत्म नहीं हुआ है, सब कुछ!
शेष है अभी भी तो मेरे पास।
अपनों के दर्दों की सौगात।
किसी की दी हुई सौगात-
यों ही ठुकराई भी तो नहीं जाती।
फैंकी भी नहीं जाती ऐसी सौगात!
क्या मैं संभाल सकूँगा,
इस सौगात को?
अन्त समय तक,
तब तक, जब तक-
देने वालों का दिल न भरे!
मैं जानता हूँ कि-
होगा वही जो होता आया है।
इतिहास में हजारों मुझ जैसों के साथ!
मगर हर हाल में जीना है।
हाँ, शुकून है इतना कि-
और कुछ हो न हो!
इतना क्या कम है?
आज तक किसी ने, न चलाई तलवार!
नहीं उठाई बन्दूक!
लेकिन,
कल ये भी हो सकता है।
आखिर-
धन, दौलत और
एश-ओ-आराम
किसे बुरे लगते हैं।
इनके सामाने क्या औकात है मेरी?
हँू तो सिर्फ मैं एक इंसान ही ना।
एक ऐसा इंसान, जिसकी कीमत
जन्म देने वालों तक की नजर में,
जानवरों से भी कम है!
जिसे अपमानित करने में
शायद उन्हें भी मिलता सुकून ऐसा,
सांप को कुचलने में मिलता हो जैसा।
एश-ओ-आराम के नशे में धुत्त
नरपिशाचों की नजर में क्या है इंसान?
है तो श्वांस लेता एक छोटा सा पिंजरा।
कल को हो गया छेद, टूट जायेगा पिंजरा॥
उड़ने तक पिंजरे से, इस पंछी के-
ढोना ही होगा इस पिजरें को।
पता नहीं, है ये कर्त्तव्य या मेरा अधिकार?
शायद ऊपर वाले को मेरी याद आ जाये।
एक ऐसा ताजा हवा का झोंका आ जाये॥
खिल उठे जीवन की उमंगों का पौधा,
कुम्हलाये हुए पत्तो में जान आ जाये।
एक पल को मैं जी सकूँ, वह जीवन
उम्मीद में जिसकी काटे हैं-पहाड़ों से दुःख,
सह लिया जिसकी खातिर सब कुछ!
काश! बदल जाये हवा का रुख?
हो जाये करम ऊपर वाले का और
मेरे घर के दरवाजे पर भी दे दस्तक
ठण्डी हवा का वह झौंका,
जिसकी उम्मीद में-
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिन्हें अब तो-
अपने कहने में भी दर्द होता है।
जिसकी उम्मीद में-
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिन्हें अब तो-
अपने कहने में भी दम घुटता है।
जिसकी उम्मीद में-
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिन्हें अब तो-
अपने कहने में भी श्वांस अटकती है।
घुट-घुट कर सहे हैं मैंने-
हजारों उपहास और यातनाएँ।
उन अपनों के, जिनके लिये
किया था, बलिदान खुशियों का!
उनके लिये अब तो-
दुआ करने में भी जबान अटकती है।
कितना मूर्ख हूँ मैं भी !
जिन्हें, मेरे स्नेह,
मेरे उत्पीड़न,
मेरे उपहास,
मेरे कोमल अहसास,
मेरी खुशियों और
मेरे जीवन तक की परवाह नहीं रही।
वहाँ मेरी दुआओं का क्या मोल होगा?
परन्तु न जाने क्यों मेरे रोम-रोम से
अभी भी उनके लिये
दुआएँ निकलती हैं।
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