कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

दम तोड़ती भाषाएँ, जटिल होता समाधान


भारत की कई भाषाएँ विलुप्ति के कगार पर हैं। एक आँकड़े के मुताबिक 196 भाषाएँ ऐसी हैं जिनके गायब होने का खतरा है और विलुप्ति की ये दर दुनिया में सबसे ज्यादा भारत में है, इनमें से अधिकांश क्षेत्रीय और कबीलाई भाषाएँ हैं। ये भाषाएँ अंग्रेजी और हिंदी के बढ़ते वर्चस्व के बीच हाशिए पर जा रही हैं। संयुक्त राष्ट्र की शैक्षणिक और सांस्कृति संस्था यूनेस्को के हाल के एक अध्ययन के मुताबिक आदिवासी भाषाओं पर खतरा बढ़ता ही जा रहा है और इन्हें बचाने की आपात स्तर पर कोशिशें करनी होंगी।

कई भाषाविदों और विशेषज्ञों ने भाषाओं की विलुप्ति के इस संकट पर चिंता जताई है। दुनिया में सबसे तेजी से भाषाओं के गायब होने की दर भारत में ही है। इसके बाद नंबर आता है अमेरिका का, जहाँ 192 ऐसी भाषाएँ हैं और फिर तीसरे नंबर पर है इंडोनेशिया जहाँ 147 भाषाएँ दम तोड़ रही हैं।

यूनेस्को के अध्ययन के मुताबिक हिमालयी राज्यों जैसे हिमाचल, जम्मू और कश्मीर और उत्तराखंड में करीब 44 भाषाएँ-बोलियाँ ऐसी हैं जो जन-जीवन से गायब हो रही है। जबकि पूर्वी राज्यों उड़ीसा, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में ऐसी करीब 42 भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं।

भाषाओं का इस भयानक तेजी के साथ अदृश्य होते जाना सामाजिक विविधता के लिए भी चिंता की बात है। 1962 के एक सर्वे में भारत में 1,600 भाषाओं का अस्तित्व बताया गया था और 2002 के आँकड़े बताते हैं कि 122 भाषाएँ ही सक्रिय रह पाईं।

जानी-मानी संस्कृतिकर्मी डॉक्टर कपिला वात्सायायन का कहना है कि यह समस्या गंभीर है और सरकार को शिक्षा ढाँचे में इन दुर्लभ भाषा बोलियों को जगह देनी होगी। उनका कहना है कि जिस तरह से दुनिया में जैव विविधता सिकुड़ रही है उसी तरह भाषाई विविधता भी सिकुड़ रही है। उनके मुताबिक ये एक अत्यंत जटिल मामला है क्योंकि इसका अर्थ ये भी है कि इन भाषाओं को मान्यता देनी होगी और विधि सम्मत भी बनाना होगा।

माना जाता है कि बाजार की जरूरतों का भी भाषाओं के साथ इस खिलवाड़ में हाथ रहा है। कमी बुनियादी ढाँचे या संसाधनों की नहीं है, कमी यही है कि इन भाषाओं को बाजार की स्वीकृति नहीं मिली है। लिहाजा ये शिक्षा के समूचे सिस्टम में भी नजर नहीं आती हैं।

भाषाओं के बीच परस्पर आवाजाही को जहाँ भारत जैसे विविधता वाले देश में एक बौद्धिक सांस्कृतिक स्वीकार्यता मिली है, वहीं हिंदी के बढ़ते प्रचलन ने और हिंदी प्रदेशों के भीतर मुख्य भाषा के रूप में हिंदी की वर्चस्ववादी उपस्थिति ने उसी की उपभाषाओं और बोलियों का गला घोंटा है।

हिंदी आदिम समाजों की मातृभाषाएँ मुख्यधारा से बेदखल की गई हैं। कला और सांस्कृतिक विरासत के लिए भारतीय राष्ट्रीय ट्रस्ट की कमलिनी सेनगुप्ता का मानना है कि बाजार शक्तियाँ, इन भाषाओं के विकास में रुकावट बनी हुई हैं। उनका कहना है कि भारत सरकार उस भाषा को मान्यता नहीं देती जिसे बोलने वाले लोगों की संख्या दस हजार से कम हो। इसका अर्थ यह है कि इन भाषाओं को तरक्की के लिए कोई संसाधन हासिल नहीं होते और उन्हें मान्यता का तो सवाल ही नहीं।

कमलिनी कहती है कि इसीलिए इन भाषाओं का पहला संघर्ष तो मान्यता के लिए ही होता है। फिर उन्हें कुछ संसाधन मिल सकते हैं, शायद स्कूलों की पढ़ाई में जगह मिल जाए। कमलिनी का कहना है कि इस सारी बहस में बात वहीं अटक जाती है कि जो छात्र इन भाषाओं में पढ़ेगें उन्हें आखिरकार नौकरियाँ तो मुख्यधारा की भाषाओं में ही मिलेंगी।

यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर की भाषाओं में एक तिहाई सब सहारा अफ्रीकी क्षेत्र में बोली जाती हैं। आशंका है कि अगली सदी के दौरान इनमें से दस फीसदी भाषाएँ विलुप्त हो जाएँगी।

भाषाविदों और नीति नियंताओं के इतर भाषाओं को दुर्लभता के कगार से खींच लाने में आखिर और किसकी भूमिका हो सकती है। तो इस पर जानकारों की राय में समाजों, जातियों, समुदायों और निजी कोशिशों को भी आगे आना होगा।

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