(१)
हँसी-हँसी में दिल दुखाना बेवकूफी है
सरे बाज़ार ज़मीर लुटाना बेवकूफी है
बहुत नाज़ होगा तुमको अपने हुस्न पर
बेपरदा कर इसको दिखाना बेवकूफी है
जानता हूँ दो घूँट के हो होंशमंद तुम
बात-बात पर बोतल लगाना बेवकूफी है
गले लगकर मिटा लो गिले-शिकवे सारे,
दिल के घावों को सजाना बेवकूफी है
पसंद न आए तो नकार दो ‘कविराज’
हर बात पर ताली बजाना बेवकूफी है
(२)
हँसी-हँसी में दिल दुखाना बेवकूफी है
सरे बाज़ार ज़मीर लुटाना बेवकूफी है
बहुत नाज़ होगा तुमको अपने हुस्न पर
बेपरदा कर इसको दिखाना बेवकूफी है
जानता हूँ दो घूँट के हो होंशमंद तुम
बात-बात पर बोतल लगाना बेवकूफी है
गले लगकर मिटा लो गिले-शिकवे सारे,
दिल के घावों को सजाना बेवकूफी है
पसंद न आए तो नकार दो ‘कविराज’
हर बात पर ताली बजाना बेवकूफी है
(२)
सिकुड़न जारी है...
इंसान
सिकुड़ रहा
भीतर ही भीतर
समय
ऐसे सिकुड़ा
बचा ही नहीं
परिवार
सिकुड़ गया
पति-पत्नि तक
प्रेम
जन्मता/मरता
मात्र बिस्तर पर
हरियाली?
मायने बदल गये
हरे-हरे नोट
धर्म
मन से निकला
‘मत’ नया घर
.
.
.
आश्चर्य!
सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत.....
(३)
इंसान
सिकुड़ रहा
भीतर ही भीतर
समय
ऐसे सिकुड़ा
बचा ही नहीं
परिवार
सिकुड़ गया
पति-पत्नि तक
प्रेम
जन्मता/मरता
मात्र बिस्तर पर
हरियाली?
मायने बदल गये
हरे-हरे नोट
धर्म
मन से निकला
‘मत’ नया घर
.
.
.
आश्चर्य!
सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत.....
(३)
समय बदल गया है...
गधा गाड़ी,
गधा खींचता था
आदमी हाँकता था
गधे की पीठ पर
बैंत के निशान...
अब कहाँ?
आधुनिक दौड़ में
गधा ढो नहीं सकता
आदमी को
अब
आदमी खींचता है
आदमी हाँकता है
घास
गधा नहीं,
आदमी खाता है
गाड़ी
गधा नहीं,
आदमी खींचता है
पीठ
गधे की नहीं,
आदमी की है
सच में
समय बदल गया है...
बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है ..
गधा गाड़ी,
गधा खींचता था
आदमी हाँकता था
गधे की पीठ पर
बैंत के निशान...
अब कहाँ?
आधुनिक दौड़ में
गधा ढो नहीं सकता
आदमी को
अब
आदमी खींचता है
आदमी हाँकता है
घास
गधा नहीं,
आदमी खाता है
गाड़ी
गधा नहीं,
आदमी खींचता है
पीठ
गधे की नहीं,
आदमी की है
सच में
समय बदल गया है...
बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है ..
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