कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

भूखे हैं बच्चे मेरे गाँव के

हमर पापा के कई दिन से काम न मिलल हे। आऊघर में खाए ला कुछोन हे। त भूखे पेट न रहल जा। ई फेदवा [ताड़ का फल] गिरल मिलल हे, त खाईत हिई।' ये करुणा भरी आवाजें सुखाड़ से तस्त्र गया जिले के कोंच प्रखंड के बिझहरा के गरीब बच्चे ओम प्रकाश [5], चन्द्रमुनी कुमारी [12], कलावती कुमारी [10], पिंकी कुमार [14], नीतू कुमारी [9] की हैं।

खेतों में काम नहीं मिलने के कारण इन गरीबों के घर में दो जून की रोटी के लाले पड़ने लगे है। बच्चे गांव के बगीचे में ताड़ के पेड़ के नीचे बैठे फेदा गिरने के इंतजार में दिनभर बिता देते हैं। ताड़ से एक फेदा गिरते ही उसे लेने के लिए नंगे बदन गरीब बच्चों के बीच अपाधापी मचती है। काम के अभाव में गांव के आधा से अधिक गरीब मजदूर दूसरे शहर को पलायन कर गए हैं। जो गांव में रह गए हैं, उनके बच्चे दूसरे का जानवर चरा कर किसी तरह अपना पेट पाल रहे है। जबकि कई बच्चे तो सिर्फ फेदा खा कर दिन काटते है। फेदा खाते बच्चों से पूछा तो उन्होंने बताया कि घर में राशन नहीं है। कई दिनों से चूल्हा नहीं जला।

बच्चों ने कहा- पानी न पड़े से 'बाबू के काम न मिलइत हई। बच्चों की आखों में 'भूख' की पीड़ा स्पष्ट दिखाई दे रही थी। बच्चों ने बताया कि स्कूल जाते थे। लेकिन अब जाना बंद कर दिया है। विद्यालय में तो दोपहर का भोजन मिल जाता है। लेकिन सुबह और शाम का भोजन कहां से मिलेगा।

गांव के संपन्न लोगों की भैंस और गाय दिनभर चराने पर सुबह और शाम के भोजन का जुगाड़ होता है। बच्चों ने कहा- घूमते-घूमते एक-दो गो रोज फेदा मिल जा हे। जेकरा खा के रात में घर चल जा हिअई।

गौरतलब है कि सूबे की सरकार गरीबों के उत्थान के लिए कई योजनाएं चला रही है। वहीं प्रशासनिक उपेक्षा के कारण इन योजनाओं के लाभ से गांव के मजदूर वंचित हैं। गांव पहुंची जागरण टीम ने बिझहरा के लोगों को गरीबी और अन्य कई परेशानियों से जूझते देखा। लोगों के पीले और मुरझाए चेहरे।

बताते हैं कि रोजगार नहीं मिलने के अभाव में भूख से जूझने को विवश हैं। हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि पूरे गांव में लोगों को दो वक्त की रोटी के लिए क्या-क्या जतन नहीं करना पड़ता।

बिझहरा के मजदूरों के घरों पर सावन और भादो में प्रतिदिन किसानों का तांता लगा रहता था। इस बार सूखे की स्थिति में किसानों के समक्ष स्वयं के खाद्यान्न का संकट खड़ा हो गया है। सावन के महीने में भी एक बूंद पानी नहीं बरसा। धान के बिचडे़ खेतों में ही पूरी तरह नष्ट हो गए। जिसके कारण एक दिन भी किसान काम देने के लिए घर पर बुलाने नहीं आए। जबकि इस ओर अभी तक जनप्रतिनिधियों या पदाधिकारियों का आगमन नहीं हुआ है, ताकि देख कर महसूस कर सकें कि बारिश न होने पर गरीबों के घरों में चूल्हा जल भी रहा है या नहीं।



१०० रूपये की नवाबी

नवाबों की सल्तनत भले ही खत्म हो गई हों लेकिन उनकी नवाबी आज भी कायम है। भले ही उनके पास शाही महल और खजाना न हो लेकिन भत्ते के रूप में मिल रहे चंद रुपए ही उनकी नवाबी ठाठ को बताने के लिए काफी हैं। अब राजस्थान की मुस्लिम रियासत को ही देख लीजिए। सिर्फ सौ रुपए का मासिक भत्ता तय हुआ है लेकिन खुशी अपार क्योंकि यह उन्हें पुरानी आन-बान-शान की याद दिलाता है।

राजस्थान में मुस्लमान रियासत रहे टॉक के पूर्व नवाब के वारिसों के लिए भत्ते की रकम छोटी हो या बड़ी इसका कोई मोल नहीं है। लेकिन इन वारिसों ने इस रकम में बढ़ोत्तरी के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी है। अब इन नवाबी खानदान के 570 वारिसों में से किसी को भी हर महीने कम से कम सौ रुपए मिलेंगे। टॉक की अंजुमन सोसाइटी खानदान ए अमीरिया के पूर्व सचिव अस्मत अली खान कहते हैं कि ये राशि छोटी हो सकती है लेकिन इसमें समाहित सम्मान बहुत बड़ा है।

इस काूननी जंग का फैसला 13 साल बाद इनके हक में आया है। अब इन्हें बीस साल का बकाया भी मिलेगा। टॉक के जिला प्रशासन ने हिसाब लगाकर बताया कि ये राशि एक करोड़ सोलह लाख नब्बे हजार रुपए तक जा पहुंची है।

एक अनुमान के अनुसार खानदानी भत्तों की यह राशि ब्रिटिश राज के दौरान 1944 में शुरू हुई थी। यह उन रियासतों में शुरू की गई थी जिनके हुक्मरानों के शासन चलाने के अधिकार अंग्रेजों ने छीन लिए थे। तब से ही यह भत्ता मिलता जा रहा है। राज्य के फाइनेंस डिपार्टमेंट ने 1979 में भत्ते की राशि दो रुपए से बढ़ाकर 40 रुपए कर दी थी। बाद में 1987 के दौरान स्टेट गवर्नमेंट ने इसे फिर से घटा दिया था। गवर्नमेंट का यह फैसला अंजुमन को बुरा लगा और उन्होंने इसके खिलाफ हाईकोर्ट में केस दायर कर दिया। कोर्ट ने 2006 में भत्ते की राशि बढ़ाकर कम से कम सौ रुपए कर दी। स्टेट गवर्नमेंट को यह बात गंवारा न हुई और वह इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस अपील को खारिज कर दिया।

इस पूरे मामले में कानूनी लड़ाई लड़ने वाले अंजुमन के पूर्व सचिव अस्मत अली खान कहते हैं कि इस छोटी सी रकम में इतिहास की यादें समाई हैं। मुट्ठी में जब यह भत्ते की राशि आती है तो लगता है जैसे गुजरे जमाने का गौरव सजीव हो गया हो। वैसे अस्मत अली खान को अब तक महज 13 रुपए 64 पैसे ही भत्ते के रूप में हर माह मिलते थे। उनका कहना है कि अब बढ़ी हुई रकम हमे ईद के त्योहार से पहले मिलने का मौका मिला ह। इसलिए हमारी खुशियां दोगुनी हो गई हैं।

इन्हीं वारिसों में से एक मोहम्मद रफीक कहते हैं कि यूं तो हम नवाबी खानदान के वारिस है लेकिन बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं। उनके लिए बकाया रकम मिलना एक बड़ा सहारा होगा। वह कहते हैं कि ये एक इज्जत से जुड़ा मुद्दा है। वे हमें खानदानी आन-बान-शान की याद दिलाता है। राजस्थान में आजादी से पहले रियासतें तो बहुत थी मगर टॉक राजस्थान में अकेली मुस्लिम रियासत थी। टॉक 1815 से 1947 तक अपनी रियासत की राजधानी रहा है। इसे 1817 में एक मुसलमान शासक ने स्थापित किया था। अब इन पूर्व नवाबी खानदान के वारिसों को जब ये राशि मिलती है तो इसके आइने में वे अपने अतीत की झलक दिखती है

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