कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

एक संतोष, ढेरों आशंकाएं



विजेता का जयगान मीडिया और बुद्धिजीवियों का स्वभाव है, इसलिए इसमें कोई हैरत नहीं कि लोकसभा चुनाव के अप्रत्याशित नतीजों के बाद कांग्रेस और उसके नेताओं के उन पहलुओं में भी गुण ढूंढे जा रहे हैं, जिनकी सामान्य स्थितियों में आलोचना की जाती. बहरहाल, अंगरेजी की कहावत , ‘सफ़ल होने से ज्यादा बड़ी सफ़लता कोई और नहीं होती’ के चरितार्थ होने को अगर दरकिनार कर दें, तो हम ताजा जनादेश के मतलब को व्यापक और दूरगामी लोकतांत्रिक संदभाब में कहीं बेहतर ढंग से समझ सकते हैं. इस जनादेश ने कुछ मिथकों को तोड़ा है, सकारात्मक राजनीति के लिए अनुकूल स्थितियां पेश की हैं, लेकिन जनतांत्रिक आकांक्षाओं के लिए नयी चुनौतियां भी इससे सामने आयी हैं.सबसे बड़ा मिथक उत्तर प्रदेश से आये नतीजों से टूटा है. ये मिथक यह था कि जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बीच जिस पार्टी या नेता का कोई जातिगत वोट बैंक नहीं है, वह चुनाव नहीं जीत सकता. कांग्रेस के बारे में आम धारणा थी कि देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य में उसका सांगठनिक ढांचा नष्ट हो चुका है, ऐसे में उसके वोट तो बढ़ सकते हैं, लेकिन वे वोट सीटों में तब्दील नहीं हो सकते. जानकार पत्रकारों ने चुनाव रिपोटिर्ंग के दौरान लिखा कि इस बार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए काफ़ी सदभावना है. लेकिन यह भविष्यवाणी वो भी नहीं कर पाये कि यह सदभावना चुनावी सफ़लता में बदलेगी. संभवत यूपी में कांग्रेस के पुनरूद्धार का संदेश यह है कि कोई पार्टी अपने नेता एवं एजेंडे के नाम पर भी वोट पा सकती है और अगर वह बुद्धिमानी से उम्मीदवार चुने, तो उन वोटों से जीत भी हासिल कर सकती है. इस लिहाज से यूपी के ताजा नतीजों का बिहार के लिए भी एक संदेश है, जहां भी कांग्रेस के फ़िर से खड़ा हो सकने की संभावना को न्यूनतम माना जाता है.यह साफ़ है कि कांग्रेस के लिए समर्थन की एक अंतर्धारा कुछ अपवादों को छोड़ कर पूरे देश में थी. तभी 18 साल बाद कोई राजनीतिक पार्टी लोकसभा की 200 से ऊपर सीटें जीत पायी है. इसका एक दूसरा परिणाम यह है कि भारतीय जनता पार्टी 18 साल में अपने सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच गयी है.भाजपा के वोटों में भी गिरावट साफ़ है और यही रुझान एक सकारात्मक संभावना पैदा करता है. बहुसंख्यक समुदाय में उत्पीड़ित होने का भाव भरने, उसकी आशंकाओं को भुनाने और हिंदुत्व के नाम पर राजनीतिक गोलबंदी करने की भाजपा और संघ परिवार की रणनीति को 2004 में देश की जनता ने बुद्धि के साथ मतदान से ठुकराया था. 2009 में यह परिघटना और आगे बढ़ी है.देश के भूगोल में ऐसे इलाके सिकुड़े हैं, जहां भाजपा प्रमुख ताकत है. यानी अब ऐसे राज्यों की संख्या बढ़ी है, जहां लोगों के पास दो धर्मनिरपेक्ष विकल्प हों. दूरगामी राजनीति के लिहाज से यह एक संतोषजनक घटनाक्रम है. कहा जा सकता है कि 1980-90 के दशकों में भारतीय राजनीति में क्रमिक रूप से उभरा सांप्रदायिक फ़ासीवाद का खतरा ताजा चुनाव परिणामों के साथ काफ़ी घट गया है और अब धर्मनिरपेक्ष भारत के भविष्य के प्रति ज्यादा आश्वस्त हुआ जा सकता है.लेकिन शायद ऐसी ही आश्वस्ति अब जनतांत्रिक आकांक्षाओं को लेकर नहीं हो सकती. कहा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी को यह जीत इसलिए मिली कि मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले पांच साल में बेहतर प्रदर्शन किया. सवाल है कि वह प्रदर्शन क्या था? कुछ उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं. मसलन, राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, सूचना का अधिकार कानून, ओदवासी एवं अन्य वनवासी भूमि अधिकार कानून, किसानों की कर्ज माफ़ी, वगैरह. इस बात की तरफ़ भी ध्यान खींचा गया है कि विश्वव्यापी ओर्थक मंदी का भारत पर उतना बुरा असर नहीं पडा, जितना दुनिया के बहुत के देशों पर पड़ा है. कांग्रेस के नेता कहते हैं कि अमेरिका में 16 बैंक ध्वस्त हो गये, जबकि भारत में एक भी बैंक के साथ ऐसा नहीं हुआ.ये तमाम बातें सही हैं. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मनमोहन सिंह सरकार के इन सभी कदमों के पीछे असली प्रेरक कारण वामपंथी दलों का दबाव था. रोजगार गारंटी हो या सूचना का अधिकार कानून, मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी कभी उसके लिए उत्साहित नजर नहीं आयी. यह जोड़ी रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता को लागू पर अड़ी हुई थी और इसके लिए सारी तैयारियां कर ली गयी थीं, यह हम सभी जानते हैं. यह सिर्फ़ वामपंथी दलों का दबाव था कि ऐसा नहीं हुआ. अगर ऐसा हो गया होता और भारतीय बैंकों में विदेशी निवेश की इजाजत मिल गई होती तो कोई बैंक ध्वस्त नहीं हुआ, जैसे दावे करने की स्थिति में कांग्रेस के नेता नहीं होते. इसी तरह बहुत से सार्वजनिक प्रतिष्ठानों का विनिवेश वामपंथी दलों के दबाव में रुका.यह एक विडंबना ही है कि जिन दलों ने ओर्थक सुरक्षा और सार्वजनिक निवेश पर सरकार को मजबूर किया, उन्हें इस चुनाव में अनपेक्षित हार का सामना करना पड़ा है और जिस सरकार ने अनिच्छा से उन कदमों को अपनाया, उसे उसका फ़ायदा मिला है. जिस पार्टी ने पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण की संभावनाओं को रोका, उसके साथ गंठजोड़ कर कांग्रेस पार्टी ने विकास करने वाली पार्टी के रूप में कामयाबी हासिल कर ली है। बहरहाल, यहां सवाल Þोय लेने का नहीं है. असली सवाल यह है कि मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी जिन नव-उदारवादी नीतियों की प्रतीक है, अब उन पर कोई सियासी या संसदीय ब्रेक नहीं होगा.इस लिहाज से ताजा चुनाव नतीजे देश के उच्च और उच्च मध्यवर्ग के हसीन सपनों को पूरा करने वाले हैं. इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी नयी पारी में मनमोहन सिंह की सरकार कॉरपोरेट मीडिया की डालिर्ंग होगी. वहां एक ऐसा आवरण बुना जायेगा, जिसमें बहुत से जनतांत्रिक सवाल दब सकते हैं. नयी सरकार के गठन के साथ यह जनतांत्रिक ताकतों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. क्या ये ताकतें संसद के बाहर विरोध और संघर्ष की कोई रणनीति और व्यावहारिक कार्यक्रम अपना सकती हैं, जिससे मनमोहन सिंह को यह पैगाम दिया जा सके कि देश की जनता ने उन्हें कोई ब्लैंक चेक नहीं दे दिया है. देश की प्रगतिशील शक्तियां शायद इसी रूप में इन चुनाव परिणामों को देख सकती हैं. धर्मनिरपेक्षता के ज्यादा सुरक्षित होने का संतोष और ओर्थक एवं विदेश नीतियों के ज्यादा दक्षिणपंथी होने की आशंका इस मौके पर की संभवत सबसे ठोस तसवीर है. (सत्येंद्र रंजन)

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