कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

स्टेट इज डेड ?

पाकिस्तान मूल के मशहर विचारक, माक्र्सवादी विश्लेषक और ’60 के दशक के दुनिया के चर्चित युवा नेता तारिक अली ने एक मशहूर पुस्तक लिखी, स्ट्रीट फ़ाइटिंग इयर्स (एन आटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ द सिक्सटीज). इस पुस्तक के आरंभ में उन्होंने एक चीनी कहावत कोट किया है. "जब अंगुली चांद की ओर इशारा करती है, तब मूर्ख ही अंगुली को निहारते या देखते हैं. " इन दिनों चर्चा है, चुनाव कराने की. चुनाव प्रचार की. पर यह सब तामझाम चीनी कहावत के संदर्भ में देखें. हम अंगुली देखने जैसी गंभीर भूल कर रहे हैं. जब बड़ी चीजें दावं पर लगी हों, सामने बड़े-बड़े मंजर हों, तब निगाहें सिर्फ़ चुनाव चर्चा पर? चुनाव कराने और चुनाव जीतने तक? नये सांसद और नयी सरकार के कयास तक. दरअसल झारखंड में पिछले 24 दिनों में हई घटनाओं ने पुष्ट कर दिया है कि यहां राजसत्ता है ही नहीं. िहदी में शब्द राजसत्ता है, पर इसका मूल उद्गम अंग्रेजी है. इसलिए इस लेख का शीर्षक अंग्रेजी में है, जो स्वत स्पष्ट है. यह मर्म छूता हआ शीर्षक है. स्टेट इज डेड? हालांकि इसमें प्रश्नवाचक चि: है. इसका संकेत है कि अभी भी इसमें प्राण है और यह जीवित हो सकता है. पर जीवित करेगा कौन? स्टेट एक व्यापक शब्द है. संविधान के तहत इसके अंदर ही राज्यपाल, सरकार, नौकरशाही, पुलिस-प्रशासन, विधायिका वगैरह हैं. पर झारखंड में स्टेट के ये सिंबल कहां और किस हाल में हैं? ट्रेन अपहरण प्रकरण ने स्टेट का चेहरा दिखा दिया है. पुलिस, प्रशासन और रेल अफ़सर पत्रकारों से अनुरोध कर रहे थे कि वे घटनास्थल पर जायें. बगल में बरवाडीह और लातेहार (इन दोनों के बीच वह जगह है, जहां ट्रेन का अपहरण हआ) से भी कोई नहीं जा सका. मंगलवार देर रात तक पुलिस को यह मालूम नहीं था कि यह बंदी अनिश्चितकालीन है. बालूमाथ से जारी प्रेस रिलीज से खबर मीडिया जगत में पहले पहंची. पुलिस को सूचना मीडिया से मिली. यह है पुलिस और प्रशासन का ध्वस्त सूचनातंत्र. जब भी नक्सलियों का बंद होता है, या तो रेलवे ट्रैक पर फ़ोर्स होती है या गाड़ियों का आना-जाना बंद होता है. फ़िर इस पैसेंजर ट्रेन को किसके बूते चलाया गया? कौन लोग जिम्मेदार हैं, निदरेष यात्रियों की जान को जोखिम में डालने के लिए? यह भी सूचना है कि लातेहार के डीसी रांची में थे. ऊंटारी रोड स्टेशन पर विस्फोट किया गया. सूचना है कि पलामू एसपी को इसका पता ही नहीं. उधर ट्रेन अपहरण की बड़ी घटना हई, इधर रांची में कोई रिस्पांस मेकेनिज्म नहीं? कहां पहंच गया है पुलिस और प्रशासन? क्या सिर्फ़ तनख्वाह + एसी में बैठने + भ्रष्टाचार के कारण यह अकर्मण्यता? ओखर कौन जिम्मेदार है इस स्थिति के लिए? मुख्य सचिव और डीजीपी, कितनी नक्सल घटनाओं के बाद जगेंगे? पुलिस और प्रशासन को शर्म नहीं आती कि वे खुद जा नहीं सकते, पर निहत्थे पत्रकारों और आब्जर्वरों को भेज रहे हैं? दरअसल भ्रष्ट राजनेताओं ने राज्य की कार्यसंस्कृति खत्म कर दी है. न कोई एकाउंटेबल है, न किसी के खिलाफ़ कार्रवाई होती है, न क्राइसिस में रिसपांस मेकेनिज्म है. बहादुरशाह के जमाने में मुगल सल्तनत लाल किले तक सिमट गयी थी. हमारे मौजूदा शासकों के शासन में संविधान का शासन, शहरों में सिमट गया है. वह भी भगवान भरोसे. ऐसी अराजकता के लिए दोषी किसी जिले के एसपी से लेकर ऊपर बैठे लोगों पर कार्रवाई होती है? झारखंड के भ्रष्ट नेताओं ने थोक तबादलों से अच्छे अफ़सरों का मनोबल तोड़ डाला या उन्हें राज्य से विदा कर दिया है. दूसरी ओर खुली लूट है. मंत्री से लेकर अफ़सरों तक ने झारखंड की विकास योजनाओं को विफ़ल बना दिया. नरेगा तक में लूट हई. जब इस कदर भ्रष्टाचार होगा और गरीब त्रस्त होंगे, तो कैसे उनके मन में इस संविधान, सिस्टम और व्यवस्था के प्रति सम्मान जगेगा? इस बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था को इसके संचालकों ने एक ‘डिस्क्रेडिटेड, इनइफ़ीसियेंट, करप्ट’ सिस्टम बना दिया है. अंतत नक्सलियों ने अपनी मरजी से ट्रेन का अपहरण किया. अपनी मरजी से छोड़ा. बंद का यह असर है कि स्कूटर, मोटरसाइकिल और साइकिल तक लोग नहीं चला रहे. यह नक्सलियों का खौफ़ है. कहां है राजसत्ता का प्रताप और अस्तित्व? चंदवा में एक मालगाड़ी के ड्राइवर की उग्रवादियों ने पिटाई की और कहा कि बंद के दिन फ़िर गाड़ी मत चलाना. अब इस ड्राइवर पर सरकार का भय है या नक्सलियों का ? क्या वह अगली बार से ट्रेन चलायेगा? जो सरकार या व्यवस्था आम नागरिकों की हिफ़ाजत न कर पाये, उसे नैतिक रूप से क्या करना चाहिए? दरअसल जनता भी दोषी है. जनता अगर ऐसे ही शासकों को पालेगी- पोसेगी, तो यही हालात होंगे. नक्सली और पुलिस द्वंद्व में वही पिसेगी. 30 मार्च से 22 अप्रैल (दोपहर तक की घटनाएं) के बीच की नक्सली घटनाओं पर निगाह डालिए. 24 दिनों में 37 बड़ी घटनाएं. राज्य के विभिन्न हिस्सोंे में (संपूर्ण घटनाएं बॉक्स में देखें) नक्सलियों द्वारा अलग-अलग वारदात. यह सब सीधे राष्ट्रपति शासन में दिल्ली की छत्रछाया में हआ. हर घटना के बाद सूचना आती है कि राज्यपाल के यहां शीर्ष बैठक हई. राज्यपाल गंभीर. प्रशासन और पुलिस कड़क. पर हर घटना के बाद शब्दवीर पुलिस-प्रशासन कमजोर दिखते हैं. नक्सली ताकतवर. 12 अप्रैल से 22 अप्रैल के बीच पांच बार नक्सली बंद करा चुके हैं. 12 अप्रैल को, 13 अप्रैल को, फ़िर 15-16 अप्रैल को और 22 अप्रैल को. यह खुला सच है कि जब नक्सली बंद कराते हैं, तो झारखंड में सब कुछ ठहर जाता है. रांची का संपर्क पूरे राज्य से टूट जाता है. ओधकारिक तौर पर नहीं, सुझाव के तौर पर पुलिस और प्रशासन के लोग नागरिकों और बस चालकों को मूव करने से मना करते हैं. 24 दिनों में 37 गंभीर घटनाएं (30 मार्च से 22 अप्रैल दोपहर तक). एक-एक दिन में दो-दो घटनाएं. कभी तीन. 16-17 अप्रैल को तो लगभग आठ घटनाएं. हालांकि नक्सलियों ने 4 अप्रैल, 7 अप्रैल, 14 अप्रैल और 18-19 अप्रैल को कुछ नहीं किया. यानी 22 दिनों में पांच दिन अपनी कार्रवाई ठप रखी. सच यह है कि 19 दिनों में 37 बड़ी घटनाएं. इसी बीच पहले चरण के चुनाव हए. गढ़वा, गुमला, लातेहार (नेतरहाट - गारू इलाका) और पलामू - चतरा वगैरह के कई इलाकों में तो बिना सुरक्षा चुनाव हए. पहली बार सुना कि पहले चरण के चुनावों में 2000 ‘माइक्रो आब्जर्वर’ तैनात किये गये? कौन हैं, ये माइक्रो आब्जर्वर? ये सामान्य आदमी हैं. चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त. कैमरे से सुसज्जित. इनसे उम्मीद की गयी कि ये नक्सलियों के इलाके में संवेदनशील बूथों के फ़ोटो उतारेंगे या जहां अपराधियों या बाहबलियों का आतंक है, वहां जाकर बूथ पर मतदान में हो रही धांधली को कैमरे में कैद करेंगे. यह सोच की दरिद्रता है या यह भयभीत राजसत्ता का कदम? जहां बहादुर पुलिसवालों के पसीने छूट रहे हैं, वहां निहत्था कॉमन मैन तसवीर उतारेगा? यह सोच डरावना भी है, घृणा पैदा करनेवाला भी और गुस्से से भरनेवाला. डरावना इस अर्थ में कि राजसत्ता ने अपने आप को इस कदम से असहाय और अक्षम सिद्ध कर दिया है. जब राजसत्ता ही भयभीत है, तब आम नागरिक किस हाल में होगा? घृणा पैदा करनेवाला इसलिए कि माइक्रो आब्जर्वर बहाल करने की यह सोची-समझी रणनीति बेकसूर और निर्बल लोगों की बलि देने की है. जहां पुलिस या अर्धसैनिक बल मोरचा नहीं संभाल रहे, वहां एक कॉमन मैन स्थिति संभालेगा? गुस्सा पैदा करनेवाला भी, क्योंकि इस राजसत्ता को नागरिक इसलिए कर देते हैं, क्योंकि बदले में राजसत्ता उन्हें सुरक्षा देती है. राजनीतिशास्त्र में स्टेट (राजसत्ता) के उदय पर अनेक विचार हैं. शायद जॉन लाके ने कहा था कि स्टेट और नागरिक के बीच एक सोशल कांट्रेक्ट (सामाजिक करार) है. इस करार में राजसत्ता का मूल फ़र्ज है, नागरिकों को सुरक्षा देना. पर क्या हो रहा है? शासकों की सुरक्षा बढ़ती गयी और नागरिक और राज्य अरक्षित होते गये. राजसत्ता के हर नुमाइंदे की सुरक्षा में लगी सायरन गाड़ियां, दरअसल कॉमन मैन के असुरक्षित होने की मर्सिया (सायरन गाड़ियों की निकलती आवाज) गाती घूमती हैं. कर्कश और डरावने स्वर में. 2002-03 से 2006-08 तक नक्सलियों द्वारा मारे गये पुलिस व अर्धसैनिक बल के जवानों के मुआवजों में 27.85 करोड़ खर्च हए. पिछले दस दिनों में दो राज्यों, छत्तीसगढ़ और झारखंड में 35 जवान माओवादियों से लड़ते हए मारे गये. पिछले पांच वषाब में इन्हीं राज्यों में अर्धसैनिक बलों के नौ सौ जवान मारे गये. यही कारण है कि पुलिस में भयानक रोष है. 16 अप्रैल को प्रथम चरण के चुनाव हए. अफ़सर इनकार करेंगे पर सच यह है कि कई इलाकों में पुलिस के जवानों ने जाने से मना कर दिया. सशस्त्र बल में यह हक्मउदूली? यह सबसे खतरनाक संकेत है. इससे अधिक क्रूर तथ्य और क्या हो सकता है कि होमगार्ड के जवानों को एके 47 थमा दिया गया. 1981 में इन जवानों को गोली चलाने का अनुभव था. जो एके 47 चला नहीं सकते, उन्हें एके 47 शहीद बनने के लिए थमाये गये? एनसीसी के लड़के बूथ सुरक्षा में लगाये गये? क्या यह कदम डरी और मरी हई व्यवस्था का नहीं है? जहां अर्धसैनिक बल या बीएसएफ़ के लोग हथियारबंद होकर नहीं जा रहे, वहां कैमरा लटकाए ‘माइक्रो आब्जर्वर’ मोरचा संभालने भेजे गये? क्या कुछ सोचने-समझने की शक्ति, व्यवस्था में बची है या नहीं? या यह एक चालाक और क्रूर कोशिश है सामान्य लोगों की बलि देने की. आला अफ़सर शायद इस बहस में लगे हैं कि इलेक्शन कराना है कि एंटी नक्सल ऑपरेशन कराना है? सही है कि यह एंटी नक्सल ऑपरेशन का दौर नहीं है, वैसे भी एक अतिभ्रष्ट, लुंज-पुंज और डरपोक ताकत नक्सलियों को कैसे कंट्रोल कर पायेगी? पर मूल सवाल इससे भी अधिक कठिन और चुनौतीपूर्ण है. झारखंड सरकार मानती रही है कि 24 में से 18 जिलों में नक्सली असरदार हैं, तो जहां नक्सली असरदार हैं और जो वोट बहिष्कार का आवाहन कर चुके हैं, वहां जनता अपने आप बिना सुरक्षा के वोट डालेगी? क्या हो गया है ऊपर बैठ कर मतदान करानेवालों को? जहां नक्सलियों के वोट बहिष्कार के सवाल पर अर्धसैनिक बल घुसने और जाने से बच या डर रहे हैं, वहां असुरक्षित जनता स्वत वोट डाल देगी? शायद पुलिस ने यह सोचा कि मतदान करानेवाले लोगों के साथ पुलिस नहीं जायेगी, तो नक्सली कुछ नहीं करेंगे. पर क्या हआ? एक जगह मतदानकर्मियों का अपहरण, मारपीट. परिणाम, कई जगह मतदानकर्मियों ने हंगामा किया. जाने से मना किया. स्पष्ट है कि मतदान के लिए जानेवाले लोगों को खुद अपने सिस्टम (राजसत्ता) पर भरोसा नहीं रहा. आप क्या फ़र्ज कर सकते हैं कि सारंडा या गिरिडीह या रांची लोकल इलाके में बिना सुरक्षा के लोग वोट डालेंगे? क्या यह इलेक्शन है या रस्मअदायगी? सूचना है कि खूंटी या लातेहार वगैरह में कई जगहों पर अर्धसैनिक बल पहंचे ही नहीं. एक जिले में तो फ़ोर्स शाम को पहंची. पहंचना उसे एक दिन पहले था. लगता है, चुनाव आयोग भी स्थिति समझने में चूक गया. चुनाव आयोग के पास कोई वैकल्पिक इंतजाम भी नहीं. यह भी सूचना है कि पुलिस फ़ोर्स का डिप्लायमेंट कागज पर ही हआ. यह अप्रत्याशित दौर है, लोकतंत्र के प्रहसन, कमजोर होने का और हास्यास्पद होने का.

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