झारखंड की धनबाद संसदीय सीट से राय दा (एके राय) इस बार भी चुनाव लड़ रहे हैं. लड़ क्या रहे हैं? बस खड़े हैं. क्योंकि लड़ाई तो बराबरवालों में होती है और राय दा तो किसी मामले में अन्य प्रत्याशियों से बराबरी नहीं कर सकते. जात-धर्म की राजनीति वह नहीं सीख पाये. कपड़े की तरह पार्टी-सिद्धांत-विचार बदलने का हुनर उन्हें नहीं आता. सबको खुश रखने की कला उन्हें नहीं आती. लाग-लपेट व चतुराई नहीं, दो टूक बात करने की आदत पड़ी हुई है. तीन बार विधायक व तीन बार सांसद होने के बावजूद न कोई बंगला और न ही गाड़ी. कोई नकद राशि नहीं. कहीं निवेश नहीं. कोई अचल संपत्ति नहीं. दौलत के नाम पर उनके पास है धनबाद स्थित स्टेट बैंक की हीरापुर शाखा में जमा 61,317.86 रुपये. लोकसभा चुनाव के दौरान प्रत्याशी नियमत 25 लाख तक खर्च कर सकते हैं. कई प्रत्याशी विभिन्न हथकंडों से तय राशि से दोगुना - तीगुना खर्च करने की तैयारी में हैं. प्रचार से लेकर कैडरों तक के पीछे पानी की तरह पैसे बहाने की होड़ में कहां टिकेंगे राय दा? यानी पिछले पांच संसदीय चुनावों में हार चुके राय दा फ़िर हारने के लिए खड़े हैं? ‘व्यक्ति हारता है, विचारधारा नहीं.’ श्री राय के समर्थक आनंदमयी पाल की इस बात में गहरा आत्मविश्वास झलकता है. वैसे इस आत्मविश्वास के पीछे एक ठोस वजह हारने के बावजूद हर चुनाव में श्री राय को मिलनेवाला वोट है. श्री राय की माक्र्सवादी समन्वय समिति (मासस) कोई राष्ट्रीय या प्रदेश स्तरीय पार्टी नहीं है. राज्य से सभी जिलों में पार्टी का संगठन भी नहीं है. पार्टी के पास फ़ंड भी नहीं होता. पैसेवालों की जमात से दूर पार्टी के पास कोई लुभावना ऑफ़र भी नहीं, ताकि ठेका-पट्टा व अन्य फ़ायदे के चक्कर में युवा आकर्षित होकर पार्टी से जुड़ सकें. अपने घर का खाना और पार्टी के लिए काम करना. पार्टी के लिए काम यानी समाज से जुड़ना और समाज की बेहतरी के लिए काम करना. इसके बाद भी श्री राय और उनकी पार्टी के साथ कैडर हैं और जनता का समर्थन भी. शेखर सेनगुप्ता का यह दावा गलत नहीं कि ‘राय दा ने शक्ति प्रदर्शन के लिए कभी कोई रैली व सभा नहीं की. किसी मुद्दे पर रैली व सभा हुई, तो पैसा देकर भीड़ नहीं जुटानी पड़ी.’ कारण श्री राय के विरोधी भी स्वीकारते हैं कि उनके पास जो जनसमर्थन है, वह पूरे झारखंड में शायद ही किसी दूसरे नेता के पास. और श्री राय के पक्ष में जनसमर्थन के गवाह हैं चुनावी आंकड़े. किसी राष्ट्रीय पार्टी के सहयोग और लोक लुभावन चुनावी मुद्दे के बगैर श्री राय हर बार डेढ़ लाख से अधिक वोट हासिल करते रहे हैं. यह वोट एक तरह से श्री राय की विचारधारा को मिलता रहा है. और यह वोट श्री राय को तब भी मिला, जब उनके साथ अन्य वामपंथी व धर्मनिरपेक्षता का दंभ भरनेवाली पार्टियां नहीं खड़ी हुई.वर्ष 1967 में बिहार विधानसभा के चुनाव में सिंदरी सीट से श्री राय पहली बार विधायक बने. तब सीपीएम प्रत्याशी के प में श्री राय ने झरिया राजा परिवार के तारा प्रसाद सिंह को हराया. कांग्रेस के दिग्गज मजदूर नेता रामनारायण शर्मा तीसरे स्थान पर रहे थे. 1969 और 1972 के विधानसभा चुनावों में भी श्री राय विधानसभा की सिंदरी सीट पर जीते. वर्ष 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अपील पर विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देनेवालों में श्री राय सबसे आगे रहे. वर्ष 1977 के संसदीय चुनाव के समय वह मीसा के तहत जेल में बंद थे. जेपी ने उन्हें लोकसभा की धनबाद सीट से जनता दल समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी के प में चुनाव लड़ने का आग्रह किया. श्री राय ने जेल से नामांकन भरा और जीते. फ़िर रिहा हुए. सीपीएम से मतभेद के कारण श्री राय ने मासस का गठन किया और वर्ष 1977 में मासस के बैनर से श्री राय ने कांग्रेस के रामनारायण शर्मा को हराया. श्री राय को 2,05,495 और रामनारायण शर्मा को 63, 646 वोट मिले. जीत का अंतर 1,41,849 रहा. वर्ष 1980 में श्री राय को हराने के लिए कांग्रेस ने योगेश्वर प्रसाद योगेश को मैदान में उतारा. श्री राय को 1,36,280 और योगेश प्रसाद योगेश को 1,20,974 वोट मिले. जीत का अंतर 15,306 रहा.वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उत्पन्न सहानुभूति की लहर में कांग्रेस के शंकर दयाल सिंह ने श्री राय को हराया. शंकर दयाल सिंह को 2,03,909 और श्री राय को 1,41,614 वोट मिले. सहानुभूति लहर के बावजूद कांग्रेस प्रत्याशी मात्र 62,295 वोट से जीत पाये और श्री राय को डेढ़ लाख वोट मिले. 1989 में श्री राय ने भाजपा के समरेश सिंह को हराया. राम मंदिर की लहर और हिंदू कट्टरवाद के उभार के बावजूद श्री राय 13571 वोट से जीते. श्री राय को 2,47,013 और समरेश सिंह को 2,33,442 वोट मिले. 1991 में भाजपा का कमंडल देश भर में सिर चढ़ कर बोल रहा था. भाजपा ने धनबाद जांबाज एसपी रणधीर प्रसाद वर्मा की पत्नी रीता वर्मा को प्रत्याशी बनाया. श्रीमती वर्मा 85,299 वोट से विजयी रही. उन्हें 2,57,066 वोट मिले, तो उस माहौल में भी श्री राय को 1,71,167 वोट मिले. 1996, 1998 व 1999 में भी भाजपा से रीता वर्मा विजयी रही, मगर तीनों चुनावों में श्री राय को भारी मत मिले. श्री राय को वर्ष 1998 में 2,63,901 और 1999 में 3,51,839 वोट मिले. इसके बाद वर्ष 2004 के चुनाव में कांग्रेस के ददई दुबे ने रीता वर्मा को हराया.
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