कुछ बातें जो संभ्रात इतिहास में दर्ज नहीं की जा सकेंगी

बदमाश दर्शन : एक गुंडा जो कवि था

लोग कहते है कविताई वो करते है जो समर्पित हो और ज़िन्दगी में कुछ कर सकें हों ! कवि मतलब दुबला पतला मरियल प्राणी जो जरुरत से ज़्यादा फतांसी प्रेरक हो कवि मतलब जो पानी पि पि कर सबको कोसे कवि यानी बात बात में अपनी कलम का रॉब झाडे यानि कवि मतलब अजीबो गरीब जीवचर ! लोग कवियों से क्रांति वाहक नारों की अपेक्षा करते हैं मगर कवि को दयनिए ही मना गया है कवि है बेचारा !!!!!!!!!!
आइये आज आपका परिचय करवाता हूँ एक कवि से जो कहता है
"दुआरे राजा के जुआ परल बा जाना ला!
राजा अधेली के पट्टी हमार बत्लै बा !!"
{मतलब ये की तुम्हे बनारस के राजा दरवाजे पर होने वाले जुयाखाने के बारे में तो पता है मगर ये जान लो मै वहां मुनाफे में आधे का हिस्सेदार हूँ }
नही भाई ! ये कवि का वहम नही सच है ! बनारस में १९ वी शताब्दी के मध्य में एक कवि हुए हैं नाम था! तेग अली ! जिन्हें भोजपुरी और हिन्दी साहित्य में गुंडा कवि के नाम से जाना गया! उनकी एक किताब है जैसा कवि वैसा नाम "बदमाश दर्शन" इस किताब के संपादक नारायण दास तेग अली के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए लिखते है " पचास के कोठे में सीना फिर भी युवकोचित बलीस्थ शरीर छः फुट ऊँचा कद सर पर छोटे छोटे घुन्घ्रैले बालों पर सुनहरे पल्ले का साया बिच्छु के डंक की तरह नुकीली चडी हुयी मूंछें, सांप की तरह चिकनी चमकीली काया, शरीर पर रेशमी लाल किनारे की नागपुरी धोती, कमर में बनारसी सेल्हे का कसा हुआ फेंटा! फेंटे में खुंसा आबनूस की मूंठ का तीखी धार वाला बिछुआ! हाथ में थिस से हाथ भर ऊँची पक्के मिर्जापुरी बांस की लाठी जिसे बड़े प्यार से तेल पिला पिला कर पला गया था, जेठ-बैसाख की कड़ी धुप! सावन-भादो की झड़ी और माघ-पूस की कडकडाती सर्दी में भी नंगे बदन! " स्वाभाविक है तेग अली का व्यक्तित्व की गवई गुंडे से अलग नही था! मगर घूम फिर कर एक सवाल आता है की आख़िर एक गुंडा कवि कैसे हो सकता है!
ये कवि मस्त है जनूनी है और प्रेमी भी ! कहता है
रोज कह जाला की आईला से आवत बाट !
सात चौदह का ठेकाना तू लगावत बाट!!
{ये जो तुम रोज़ आने का वादा करके नही आती हो ! ये तुम तो मेरे सात से चौदह साल जेल भिजवाने का काम करना रही हो }
अच्छा ये कवि कहता नही करता भी है! धमकी से माशूका नही मानी तो तेग अली तैश में आगये ! और
पेट पे छुरी धेइली ता बोलल की रामधै!
जियत रहब टी फेर न कबो आज कल करब !!
{उसके पेट पर चाकू रखा तब घबरा के बोली राम कसम! अभी छोड़ दिया तो फिर कभी आज कल ना करुँगी}
मगर ऐसा नही की वो उस से प्यार नही करता! सिर्फ़ धमकी देता है, शहरयार साहब ने उम्राओ जान के लिए लिखा था "दिल क्या चीज़ है आप मेरी जान लीजिये ! उन्होंने इसी गुंडा कवि से प्रेरणा ली होगी
का माल असरफी हौ रुपैय्या तोरे बदे !
हाज़िर बा जीयु समेत करेजा तोरे बदे !!
{बलम जी! तुम्हारे लिए धन दौलत की क्या बिसात! मै अपना दिल और कलेजा तुम्हे समर्पित करता हूँ ! }
ये केवल बहलाव नही है वो सच में प्यार करता है
हम खर-मिटाव कैइली है राहिला चबाये के !
भेंवल धरल बा दूध में खाजा रजा तोरे बदे !!
{मैंने सुबह का नाश्ता चना खा कर कर लिया और तुम्हारे लिए दूध में खाजा भिगोकर रखा है }
ये गुंडा कवि प्यार करता है निभाता है और दुनियादारी भी समझता है कपोल कल्पना इस कवि की आदत नही जनता है प्रेम के सहारे सब कुछ नही चलता ! सो कहता है
जरदोजी जूता टोपी दुपट्टा बनारसी!
सहुआ से ले ली आज रजा तोरे बदे!!
{ ऐ बलम ! आज मै साहूकार से जरदोजी वाला जूता, टोपी और बनारसी दुपट्टा झटक लाया हूँ !}

अब कवि गुंडा होगा तो कोई दूसरा उसकी माशूका को छेड़ने की हिम्मत क्या करेगा! मगर फिर भी पूछना तो ज़रूरी है सो पूछता है
केहू के डर हौ त कह दा लगाई "सारे" से!
तमासा मेला में गंगा के पार बहरी और !!
{बालम जी ! किसी से कोई दिक्कत या डर है तो कहो मै साले को गंगा किनारे मेले के पास ठिकाने लगा दूँ }
मगर जो मिल जाए सो प्रेम कहाँ ! अपनी माशूका के आशिक को ठिकाने लगाते लगाते कवि ख़ुद भी चोटिल होता रहा! और माशूक ने भी क्या दिन दिखाया की छोड़ ही गई
बिन चुकौले लहू का मोल न छोड़ब तोहे रजा
गोजी से बा कपार गईल फट तोरे बदे
{अपने खून का बदला लिए बिना तुम्हे नही छोडूंगा बालम! तुम्हारे लिए लड़ते लड़ते मैंने अपने सर फद्वाया है }
तो ऐसे थे तेग अली ! जो कवि भी थे और गुंडा भी उनका अपना दर्शन था और प्यार का अपना अंदाज़ भी!
इस गुंडे कवि के बारे में "भोजपुरी भाषा और साहित्य" में पंडित उदय नारायण तिवारी कहते हैं " तेग अली बदे मस्त जिव थे ! कशी के गवैय्यो के अखाडे के आप सरदार थे! होली में आप अपना दल लेकर घूमते थे और आशु कविता करते हुए लोगों का मनोरंजन करते थे! ये अपने धर्म का पाबन्द होने के साथ साथ राम, कृष्ण, दुर्गा और गंगा की सहज बोध बातें किया करते थे उनकी कसमे खाया करते थे!"

जहाँ तक समस्या शब्द "गुंडे " की है जिसने वक्त के साथ साथ अपना वास्तविक मायने खो दिया है आज के गुंडा का सहज अर्थ है लड़किया छेड़ने से लेकर तमाम तरह के सड़की गैर सड़की अपराधों में लिप्त कोई व्यक्ति! दरअसल शब्द गुंडा की उत्त्पति संस्कृत के शब्द " गुंड" से हुयी है! और संस्कृत में गुन्दयती का अर्थ है "आश्रय में आच्छादित करना लेना या रक्षा करना! इसी तरह गुंडा का शाब्दिक अर्थ है अपनी आप पर मरने वाला कोई साहसी पुरूष ! सच तो ये है की औपनेवेशिक भारत में इन शाब्दिक अर्थों का ह्रास्य हुआ और वो तमाम लोग जो अंग्रेजों से विद्रोह करना रहे थे उन्हें समग्र समाज ने भी अपने लिए खतरनाक शब्द मान लिया! शब्द गुंडा जो भारतीय परिपेक्ष में रक्षक और औपनेवेशिक ताकतों के लिए खतरा था वो आजाद भारत में लम्पट और असामाजिकता का पर्याय हो गया!

1 टिप्पणी:

Motiur Rahman Khan ने कहा…

The article is really a master piece from the point of view of subultern studies. I don't know and perhaps don't have understanding of literature but certainly Teg Ali was not only a representative of 'Ganga Jamuni' 'harmonious' culture of the region but voice which was beyond that. And, I do believe that the labelling Teg Ali, with some identity of my choice is not correct. I congratulate you for bringing up this kind of not well known persons who were certainly hero of their field and inspiration for us.