
कि हम तो रस्में मोहब्बत को आम करते हैं
मैं उनकी महफ़िल-ए-इशरत से कांप जाता हूँ
जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं।
कोई दम का मेहमां हूँ ऐ अहले महफ़िल
चरागे सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।
आबो हवा में रहेगी ख़्याल की बिजली
यह मुश्ते ख़ाक है फ़ानी रहे न रहे
खुदा के आशिक़ तो हैं हजारों बनों में फिरते हैं मारे-मारे
मै उसका बन्दा बनूंगा जिसको खुदा के बन्दों से प्यार होगा
मैं वो चिराग हूँ जिसको फरोगेहस्ती में
करीब सुबह रौशन किया, बुझा भी दिया
तुझे, शाख-ए-गुल से तोडें जहेनसीब तेरे
तड़पते रह गए गुलज़ार में रक़ीब तेरे।
दहर को देते हैं मुए दीद-ए-गिरियाँ हम
आखिरी बादल हैं एक गुजरे हुए तूफां के हम
मैं ज़ुल्मते शब में ले के निकलूंगा अपने दर मांदा कारवां को
शरर फ़शां होगी आह मेरी नफ़स मेरा शोला बार होगा
जो शाख-ए- नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना पाएदार होगा।
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